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Nov 19, 2017

प्रेरक

एक मिनट में
आप खुदको
कैसे बदल सकते हैं?

एक मिनट बहुत छोटा होता है। एक मिनट में महज़ 60 सेकंड होते हैं। एक मिनट बस-यूँ-ही गुज़र जाता है। फिर भी यदि आप चाहें तो एक मिनट में इतना कुछ कर सकते हैं कि आपके जीवन में बड़े बदलाव आ सकते हैं। जानिए कि आप एक मिनट में क्या-क्या कर सकते हैं:
एक मिनट में आप उस सबके लिए शुक्रगुजार हो सकते हैं जो आपके पास है और दूसरों के पास नहीं है।
सुबह जागते ही आप एक मिनट में अपने पूरे दिन भर के कामकाज, उद्देश्यों, और योजनाओं का खाका तैयार कर सकते हैं। यदि आप टालमटोल करने के आदी हैं तो यह आदत आपको अपने काम पूरे करने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर देगी।
एक मिनट में आप अपने स्वार्थ को दूर करके खुद को दूसरे व्यक्ति की जगह पर रखकर देख सकते हैं। एक मिनट में आप केवल अपने लाभ की ही बात न करके कुछ ऐसा करने का निश्चय कर सकते हैंजिससे सबका हित हो।
एक मिनट में आप उस व्यक्ति की तरह सोचकर और बर्ताव करके देख सकते हैं जो आपका आदर्श है। इस एक मिनट के भीतर आप अपनी सर्वश्रेष्ठ छवि गढ़ सकते है।
एक मिनट में आप दिल खोलकर हँस सकते हैं।
एक मिनट के भीतर आप किसी चीज पर पैसे खर्च करते वक्त रुककर और सोचकर देख सकते हैं कि क्या आपको वाकई उस चीज की ज़रूरत है!? हमारे बहुत से खर्चे हमारी भावनाओं के क्षणिक उबाल के कारण होते हैं और बाद में हमे अपने निर्णय पर पछतावा पड़ता है।
एक मिनट में आप अपने पहले कभी लिए गए संकल्पों और निर्णयों की छानबीन कर सकते हैं। यदि आपको उनकी व्यर्थता का पता चल जाए तो आप उन्हें रिजेक्ट कर सकते हैं।
एक मिनट में आप किसी व्यक्ति के आभारी हो सकते हैं. आप उसे पहले की गई किसी सहायता के लिए धन्यवाद दे सकते हैं. उसे अचानक फोन करके सरप्राइज़ करके खुश कर सकते हैं.
एक मिनट में आप किसी को प्यार जता सकते हैं, उसे बता सकते हैं कि आप उसकी परवाह करते हैं.
एक मिनट में आप ठंडे पानी से झटपट नहाकर तरोताज़ा महसूस कर सकते हैं.
एक मिनट में आप अपनी बुरी आदतों और ऐसे व्यवहार की ओर ध्यान दे सकते हैं जिनसे आपको हानि पहुंचती है. जब तक आप उनके बारे में कुछ पल के लिए विचार नहीं करेंगे तब तक आप उनसे मुक्ति नहीं पा सकते.
किसी को भी अपने शब्दों से या व्यवहार से या शारीरिक रूप से चोट पहुँचाने के पहले एक मिनट के लिए रुककर आप स्वयं को शांत रहने का मौका दे सकते हैं.
एक मिनट के लिए बैठकर आप अपनी श्वास पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, स्वयं को गहराई से अनुभव कर सकते है, वर्तमान में जीना सीख सकते हैं, और ज्यादा सहज-सजग हो सकते हैं.
एक मिनट के भीतर आप यह पता लगा सकते हैं कि आप वास्तव में क्या करना चाहते हैंजीवन से आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं, आपके लिए सच्ची खुशी के मायने क्या हैं.
एक मिनट में आप आइने के सामने खड़े होकर खुद पर निगाह डाल सकते हैं, अपनी कमज़ोरियाँ तलाश सकते हैं, अपने भय का सामना कर सकते हैं, और अपनी शक्तियों को पहचान सकते हैं. (हिन्दी ज़ेन से)

उदंती.com , नवम्बर-2017

उदंती.com, नवम्बर-2017
विशेष:  पर्यावरण/ प्रदूषण
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समय घट रीत रहा,
सोचो क्या बीत रहा
सोचा था आया हूँ कल,
और रहूँगा अविरल
पर अब पछताना कैसा,
जब सब गया निकल
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हवा में घुलता जहर...

हवा में घुलता जहर...

-डॉ. रत्ना वर्मा
शुद्ध हवा नहींशुद्ध पानी नहीं, शुद्ध खाना नहीं, तो फिर जीवन कैसे चले? दशक पर दशक बीतते जा रहे  हैं, हमारे वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् न जाने कब से चेतावनी देते चले आ रहे हैं कि समय रहते चेत जाइए, तरक्की के नाम पर धरती को इतना खोखला मत कीजिए कि धरती पर रहना दूभर हो जाए। धरती पर रहना अब दूभर तो हो ही गया है। किसी की चेतावनी का कोई असर होते कहीं भी नहीं दिखता। हवा, पानी और भोजन की शुद्धता को बनाए रखने के लिए हमने अपनी परम्पराओं को भी नजरअंदाज कर दिया। हमारे पूर्वजों ने पेड़ लगाए और उन्हें बचाने के लिए उनकी पूजा करने की परम्परा डाली। पानी की उपलब्धता के लिए तालाब खुदवाए, उसे अपनी संस्कृति से जोड़ा और उनके रख-रखाव और पानी सहेजने की कोशिश की। तब जानवर- गाय, बैल और भैंस खेती और अर्थव्यवस्था का आवश्यक अंग होता था, और जैविक खादों का उपयोग तभी संभव हो पाता था।
आज विकास और आगे बढऩे की अंधी दौड़ में हमने जीवन को नरक बना दिया है। बड़े- बड़े धुआँ उगलते कारखाने, नदियों को गंदा करते जहरीले रसायन, पॉलीथीन के अँधाधुँध उपयोग से बंजर होती ज़मीन और कूड़े के बनते बड़े- बड़े पहाड़, जंगलों को काट-काट कर बन रही गगनचुंबी इमारतें। जितने लोग उतनी गाडिय़ाँ और उन गाड़ियों से निकलता जानलेवा जहरीला धुआँ। इन सबने मिलकर हमारी जीवनदायी हवा, पानी और खाना सबको अशुद्ध कर दिया है। 
क्या हमने कभी सोचा भी था कि हमारे आस-पास ऐसी हवा भी बहेगी कि एक दिन हमें अपने बच्चों को स्कूल भेजना इसलिए बंद कर देना पड़ेगा; क्योंकि सुबह- सुबह जब वे स्कूल के लिए निकलते हैं, तब जो हवा वातावरण में बहती है वह इतनी प्रदूषित हो गई है कि उसमें साँस लेना मुश्किल हो गया है और वह हवा जब फेपड़ों में पहुँचती है, तो शरीर को बीमारियों का घर बना लेती है। जो सुविधा सम्पन्न हैं वे अपने घरों और दफ्तरों की हवा को शुद्ध बनाए रखने के लिए लाखो खर्च करके एयर प्यूरिफॉयर लगवा रहे हैं। दिल्ली ही नहीं वायु प्रदूषण की मार झेल रहा देश का प्रत्येक व्यक्ति मॉस्क या रेस्पिरेटर्स पहने नजर आता है। विडंबना देखिए यहाँ भी बाजारवाद हावी है। सब अपने सामान को बेहतर बताकर बेचने में लगे हुए हैं। उपभोक्ता तो बेचाराहोता ही है, भेड़चाल में वह चल पड़ता है। उनके लिए तो जान बची तो लाखों पाए। पर सच्चाई तो कुछ और ही है आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से के पास सर छुपाने के लिए घर तो है पर एसी और कूलर नहीं। झुग्गी- झोपड़ी जिनकी दुनिया है वे एयर प्यूरिफॉयर तो क्या साधारण मॉस्क तक नहीं लगा पाते । उन्हें तो इसी जहरीली हवा को साँसों में भरकर जैसे भी हो जिंदा रहना है ।

चुनाव होने वाले हैं- हर पार्टी हर नेता अपनी जीत सुनिश्चित कर लेना चाहता है।  अब बारी मतदाता की है, लेकिन क्या वह अपने मत का सही उपयोग कभी कर पाया है। शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन की माँग पर क्या वह अपना नेता चुनेगा और क्या पार्टी अपने एजेंडे में पर्यावरण की शुद्धता को प्राथमिकता देते हुए चुनाव लड़ेगी।  तब तक तो ठंड भी जा चुकी होगी और नेता तो स्मॉग को भूल ही जाएँगे, जनता भी शांत हो जाएगी दिल्ली सहित जिन शहरों में स्मॉग से परेशान लोग हैं; वे राहत की साँस लेंगे कि अगले ठंड तक तो राहत रहेगी।
मीडिया में भी लगातार स्मॉग छाया हुआ है का हल्ला बोल अभियान चलाए हुए है। लोगों के बयान लिये जा रहे हैं, विशेषज्ञों की राय ली जा रही है, नेता चिल्ला रहे हैं तो पक्ष- विपक्ष एक दूसरे के उपर कीचड़ उछालकर दोषारोपण करने में लगा हुआ है। कुल मिलाकर हो-हल्ला होता रहेगा। फिर एक दिन कोई नई समस्या सामने आ जाएगी और सब लोग उधर ही भागेंगे। बात आई गई हो जाएगी।
प्रश्न यही उठता है कि फिर हल क्या हो? क्या चुप बैठकर तमाशा देखा जाए या आवाज उठाया जाए? लोकतंत्र है तो हमें आवाज तो उठाना चाहिए जिसकी सुनवाई भी होनी चाहिए। यदि धरती की शुद्धता को बचाए रखना है, आने वाली सदियों में नौनीहालों के लिए शुद्ध हवा बहते देना है और धरती पर मनुष्य को जिंदा रखना है तो आवाज तो उठाना ही होगा... घर, सड़क, बिजली, कपड़ा, दो वक्त की रोटी और हर हाथ को काम जैसी बुनियादी चीजों के लिए तो हमेशा ही माँग की जाती है, जो कि सबका संवैधानिक अधिकार है, जिसे हर सरकार को मुहैया करवाना ही चाहिए। हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसा वातावरण छोड़कर न जाएँ कि वे हमपर गर्व करने की बजाय हमको कोसें कि हमने उन्हें विरासत में क्या सौंपा है। इसलिए क्यों न इस बार शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन के लिए माँग की जाए।
मोदी जी भारत को दुनिया के सर्वोच्च स्तर पर ले जाना चाहते हैं - स्वच्छ भारत और भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा देकर उन्होंने देश में एक क्रांति पैदा करने की कोशिश भी की है, पर अब समय आ गया है कि यह नारा पूरे देश में अपना परचम लहराने वाला नारा मात्र न बने; बल्कि कुछ ऐसा करके दिखाने वाला बने कि भारत दुनिया में एक उदाहरण बनकर उभरे। हर भारतीय तब गर्व से कहे कि हाँ हम एक तरक्की पसंद देश के नागरिक हैं, जहाँ की हवा शुद्ध हवा है, स्वच्छ कल-कल बहती नदियाँ हैं, और  सोना उगलती धरती है। बातें कुछ किताबी और स्वप्न देखने वाली जरूर हैं पर हम सब चाहते तो यहीं हैं ना? तो फिर इन किताबी बातों को इन स्वप्नों को पूरा करने के लिए प्रयास क्यों नहीं करते? प्रदूषित हवा में साँस लेते हुए क्या बस बातें ही करते रहेंगे?

धुएँ की ज़हरीली चादर

 धुएँ की ज़हरीली चादर 
-प्रमोद भार्गव
सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को आपातकाल की संज्ञा दी है। साथ ही दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर पूछा है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और आसपास के प्रदूषण का स्तर चिन्ताजनक है, इससे निपटने के लिए इन राज्यों की सरकारें क्या पहल कर रही हैं?
इस समय दिल्ली में पराली जलाए जाने, वाहनों की बढ़ती संख्या और कारखानों की चिमनियों से धुआँ उगलने के कारण दिल्ली के ऊपर जहरीले धुएँ की चादर बिछ गई है, जो दिखाई तो सबको दे रहा है, लेकिन इससे निपटने का कारगर उपाय किसी के पास दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि वायु प्रदूषण कुलीन लोगों की सुविधा, लाचार किसानों की मजबूरी और कारखानों में काम कर रहे लोगों की आजीविका से जुड़ा मुद्दा भी है। इसलिए इस समस्या का हल एकांगी उपायों के बजाय बहुआयामी उपायों से ही सम्भव हो सकता है।
दिल्ली ही नहीं देश में बढ़ते वायु प्रदूषण को लेकर रोज नए सर्वे आ रहे हैं। इनमें कौन सा सर्वे कितना विश्वसनीय है, एकाएक कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन इन सर्वेक्षणों ने दिल्ली समेत पूरे देश में वायु प्रदूषण की भयावहता को सामने ला दिया है। इस प्रदूषण को देश में कुल बीमारियों से जो मौतें हो रही हैं, उनमें से 11 फीसदी की वजह वायु प्रदूषण माना गया है। मानव जीवन की उम्र के बहुमूल्य वर्ष कम करने के लिए भी इस प्रदूषण को एक बड़ा कारक माना गया है।
यह सर्वे केन्द्र सरकार ने भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Medical Research) और गैर सरकारी संगठन हेल्थ ऑफ द नेशन्स स्टेट्स’ (Health of the Nations States)के साथ मिलकर किया है। इसके अनुसार राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वायु प्रदूषण से पीड़ित जो एक लाख मरीज़ अस्पतालों में पहुँचते हैं, उनमें से 3469, राजस्थान में 4528, उत्तर प्रदेश में 4390, मध्य प्रदेश में 3809, और छत्तीसगढ़ में 3667 रोगियों की मृत्यु हो जाती है।

वायु प्रदूषण के जरिए भारतीयों की औसत आयु में 3.4 वर्ष कम हो रहे है। इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटरोलॉजी (Indian Institute of Tropical Meteorology) और नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च, कोलाराडो (National Center for Atmospheric Research, Colorado) की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में व्यक्ति की उम्र कम होने का असर सबसे ज्यादा है। यहाँ 6.3 वर्ष उम्र कम हो रही है। दिल्ली के बाद बिहार में 5.7, झारखण्ड में 5.2, उत्तर प्रदेश में 4.8, हरियाणा-पंजाब में 4.7, छत्तीसगढ़ में 4.1, असम में 4.4, त्रिपुरा में 3.9, मेघालय में 3.8 और महाराष्ट्र में 3.3 की दर से उम्र कम हो रही है।
कश्मीर में केवल 6 महीने की उम्र कम होती है, वहीं हिमाचल में उम्र कम होने का आँकड़ा 14 महीने का है। देश में अब तक अलग-अलग बीमारियों के कारणों की पड़ताल की जाती रही है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सभी राज्यों और सभी प्रमुख बीमारियों को शामिल करने वाला यह पहला अध्ययन हैं। इस अध्ययन के निष्कर्षों के बाद अब केन्द्र एवं राज्य सरकारों का दायित्व बनता है कि वे इस अध्ययन के अनुरूप विकास योजनाएँ बनाएँ और जो नीतियाँ तय करें उन्हें सख्ती से अमल में लाएँ।
इन देशव्यापी अध्ययनों से स्पष्ट हुआ है कि दिल्ली में धुआँ और धुंध के जो बादल गहराए हुए हैं, उनका प्रमुख कारण पराली को जलाया जाना नहीं है। अकेले पंजाब में करीब 2 करोड़ टन धान की पराली निकलती है। इन अवशेषों को ठिकाने लगाने के लिए ही दो हजार करोड़ रुपए से अधिक की रकम की जरूरत पड़ेगी। साफ है, पराली की समस्या से निजात पाना राज्य सरकारों को आसान नहीं है। हाँ, इस समस्या का हल गेहूँ और धान से इतर अन्य फसलों के उगाने से हो सकता है, लेकिन इसके लिए किसानों को प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें बहुफसलीय खेती के लिए अनुदान भी देना होगा। किसानों के साथ इस तरह के व्यावहारिक विकल्प अपनाए जाते हैं तो उनकी आजीविका भी सुरक्षित रहेगी और दिल्ली एक हद तक पराली के धुएँ से बची रहेगी।
 दिल्ली में इस वक्त वायुमण्डल में मानक पैमाने से 250 गुना ज्यादा प्रदूषक तत्वों की संख्या बढ़ गई है। इस वजह से लोगों में गला, फेफड़े और आँखों की तकलीफ़ बढ़ रही है। कई लोग मानसिक अवसाद की गिरफ्त में भी आ रहे हैं। हालाँकि हवा में घुलता ज़हर महानगरों में ही नहीं छोटे नगरों में भी प्रदूषण का सबब बन रहा है। हकीकत में इसे कार-बाजार भयावह बनाया है।
2015 में जब केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर को भारत के 11 शहरों में इसे सबसे प्रदूषित शहर बताया था तब लोग चौंक गए थे कि 10 लाख की आबादी वाले ग्वालियर की यह स्थिति है तो इससे ऊपर की आबादी वाले शहरों की क्या स्थिति होगी? ग्वालियर की तरह ही दिल्ली, मुम्बई, पुणे, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर, अमृतसर, इन्दौर और अहमदाबाद जैसे शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर की सीमा लाँघने को तत्पर है। उद्योगों से धुआँ उगलने और खेतों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक व इलेक्ट्रॉनिक कचरा जलाने से भी इन नगरों की हवा में जहरीले तत्त्वों की सघनता बढ़ी है। इस कारण दिल्ली दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। वैसे भी दुनिया के जो 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहर हैं, उनमें भारत के 13 शामिल हैं।

बढ़ते वाहनों के चलते वायु प्रदूषण की समस्या दिल्ली में ही नहीं पूरे देश में भयावह होती जा रही है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लगभग सभी छोटे शहर प्रदूषण की चपेट में हैं। डीजल व घासलेट से चलने वाले वाहनों व सिंचाई पम्पों ने इस समस्या को और विकराल रूप दे दिया है। केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन करता है। इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों में प्रदूषण एक बड़ी समस्या के रूप में अवतरित हो रहा है। इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रान्ति है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीजल और केरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे साँस की बीमारी की गिरफ्त में हैं। 20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारी की चपेट में हैं। इस खतरनाक हालात से रुबरू होने के बावजूद दिल्ली व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ अपना रही हैं, जिससे प्रदूषण को नियंत्रित किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे। इस नाते दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों को नोटिस जारी कर यह पूछना तार्किक है कि वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय अपनाए जा रहे हैं।

मंदिर के द्वार लगा पर्यावरण का पहरा

मंदिर के द्वार लगा पर्यावरण का पहरा 
प्रदूषण और पर्यावरण बदलाव की समस्या जैसे-जैसे धार्मिक आस्था के केन्द्र एवं पर्यटन स्थलों पर गहरा रही है, वैसे-वैसे सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित अधिकरण के फैसले पर्यावरण सुधार और जन-सुरक्षा की दृष्टि से प्रासंगिक लग रहे हैं। कई निर्णयों की प्रशंसा हुई है, तो कई निंदा के दायरे में भी आए हैं। अधिकरण ने जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर में दर्शन के लिए प्रतिदिन 50000 श्रद्धालुओं की संख्या निर्धारित कर दी है। यदि इससे ज्यादा संख्या में दर्शनार्थी आते हैं तो उन्हें कटरा और अर्द्धकुमारी में रोक दिया जाएगा। वैष्णो देवी मंदिर भवन की क्षमता वैसे भी 50000 से अधिक की नहीं है। मंदिर मार्ग में ठहरने के स्थलों पर कूड़े के निस्तारण और मल-विसर्जन की क्षमताएँ भी इतने ही लोगों के लायक हैं। इस लिहाज से पर्यावरण को स्थिर बनाए रखने में यह निर्देश बेहद महत्त्वपूर्ण है। किन्तु अधिकरण ने अमरनाथ मंदिर की गुफा पर ध्वनि प्रदूषण पर अंकुश लगाने की दृष्टि से नारियल फोड़ने और शंख बजाने पर जो अंकुश लगाया गया है, उसकी तीखी आलोचना हो रही है। बहरहाल दर्शानार्थियों की संख्या सीमित कर देने से भगदड़ के कारण जो हादसे होते हैं, वे भी नियंत्रित होंगे।
यह निर्देश उस याचिका पर सुनवाई के क्रम में आया है, जिसमें याचिकार्ता ने जम्मू स्थित वैष्णो देवी मंदिर परिसर में घोड़ों, गधों, टट्टुओं और खच्चरों के आवागमन पर रोक लगाने का निर्देश देने की मांग की थी। दरअसल इन पारम्परिक पशुओं पर लादकर रोजमर्रा के उपयोग वाला सामान तो जाता ही है, कई बुजुर्ग, दिव्यांग एवं बच्चे भी इन पर सवार होकर माता के दर्शन के लिए जाते हैं। इनके अंधाधुंध इस्तेमाल से मंदिर परिसर और मार्ग में प्रदूषण बढ़ रहा है। यह प्रदूषण जन-स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक बताया गया है। लेकिन इनकी आवाजाही से हजारों परिवारों की रोजी-रोटी चल रही है। इस नाते इनकी आवाजाही भी जरूरी है। बावजूद अधिकरण ने धीरे-धीरे इनको हटाने का निर्देश दिया है।
वैष्णो देवी मंदिर त्रिकुट पहाड़ियों पर समुद्र तल से 5200 फुट की ऊँचाई पर एक गुफा में स्थित है। फिर भी तीर्थयात्रियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। नवरात्र के समय यह संख्या औसत से ज्यादा बढ़ जाती है। दिसम्बर में बड़े दिन की छुट्टियों के अवसर पर भी श्रद्धालुओं की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई है। ऐसे अवसरों पर मंदिर का प्रबन्धन देख रहे श्राईन बोर्ड पर भी दबाब बढ़ जाता है। नतीजतन व्यवस्थाएँ लड़खड़ाने का संकट गहरा जाता है। इसीलिए अधिकरण ने श्राईन बोर्ड के प्रबन्धन द्वारा उपलब्ध कराए गए तीर्थयात्रियों के आंकड़े और बुनियादी सुविधाओं का आकलन करने के बाद ही यह फैसला लिया है।
किन्तु अधिकरण ने पशुओं के उपयोग को धीरे-धीरे खत्म करने का श्राईन बोर्ड को जो निर्देश दिया है वह इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की आजीविका की दृष्टि से अप्रासंगिक लगता है। यह बात अपनी जगह सही है कि जिस स्थल पर भी मनुष्य और पशु होंगे वहाँ पर्यावरण दूषित होगा ही। लेकिन एक सीमा में इनकी उपस्थिति रहे तो इनके द्वारा उत्सर्जित होने वाला प्रदूषण प्राकृतिक रूप से जैविक क्रिया का हिस्सा बन पंच-तत्वों में विलय हो जाता है। हालाँकि इसी साल 24 नवम्बर से मंदिर जाने के लिए नया रास्ता खुल जाएगा। 13 कि.मी. से ज्यादा लम्बे इस रास्ते पर या तो बैटरी से चलने वाली टैक्सियाँ चलेंगी या लोगों को पैदल जाने की अनुमति होगी। इस रास्ते पर खच्चरों और गधों का इस्तेमाल प्रतिबंधित होगा।
एनजीटी ने जिन मानकों को आधार बनाकर यह फैसला दिया है, वह बेहद अहम है। यदि कचरे के निस्तारण और मल-मूत्र के विर्सजन को पैमाना मानकर चलें तो देश के ज्यादातर महानगर और शहर इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। देश की राजधानी होते हुए भी दिल्ली इस समस्या से दो-चार हो रही है। आबादी और शहर के भूगोल के अनुपात में ज्यादातर शहरों में ये दोनों ही व्यवस्थाएँ छोटी पड़ रही है। परेशानी यह भी है कि शहरों की ओर लोगों को आकर्षित करने के उपाय तो बहुत हो रहे हैं, लेकिन उस अनुपात में न तो शहरों का व्यवस्थित ढंग से विस्तार हुआ है और न ही सुविधाएँ उपलब्ध हो पाई है। हमारे जितने भी प्राचीन धर्म-स्थल हैं, वहाँ के धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए उपाय तो बहुत किए गए लेकिन जमीनी स्तर पर आने वाले श्रद्धालुओं को सुविधाएँ नहीं जुटाई गईं। यहाँ तक कि न तो मार्गों का चौड़ीकरण हुआ और न ही ठहरने के प्रबन्ध के साथ बिजली-पानी की सुविधाएँ समुचित हो पाईं। यही वजह है कि हर साल तीर्थ स्थलों पर जानलेवा दुर्घटनाएँ हो रही हैं।
भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में प्रचार-प्रसार के कारण उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही है। जिसके चलते दर्शन-लाभ की जल्दबाजी व कुप्रबन्धन से उपजने वाले भगदड़ों का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें, किन्तु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती? आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते? इसलिए अब ऐसी जरूरत महसूस होने लगी है कि भीड़-भाड़ वाली जगहों पर व्यवस्था की जिम्मेदारी जिन आयोजकों, सम्बन्धित विभागों और अधिकारियों पर होती है, उन्हें भी ऐसी घटनाओं के लिए ज़िम्मेवार ठहराया जाए।
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रूप लेते जा रहे हैं। कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। किन्तु इस अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आँकड़े होते हैं। बावजूद लापरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुँचती है और उसके प्रबन्धन के लिए जिस प्रबन्ध-कौशल की जरूरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते? इसलिए हमारे यहाँ लगने वाले मेलों के प्रबन्धन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोड़ों की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है? यह भीड़ रेलों और बसों से ही यात्रा करती है। बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबन्धन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से यूरोपीय देशों में जाते हैं। प्रबन्धन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ऐसे प्रबन्धनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने एवं सीखने होंगे। 
इस दृष्टि से इस वैष्णो देवी मंदिर पर यात्रियों की संख्या की जो सीमा तय की गई है, वह एनजीटी की सजगता दर्शाती है। एनजीटी अब उन स्थलों पर पर्यावरण एवं जनसुरक्षा की सुध ले रही है, जिन्हें आस्था का केंद्र मानकर अक्सर नज़र अंदाज कर दिया जाता है। हमारे ज्यादातर प्राचीन तीर्थ पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील हैं। धार्मिक आस्था का सम्मान हर हाल में होना चाहिए, किन्तु इन स्थलों पर पर्यावरण की जो महिमा है, उसका भी ख्याल रखने की जरूरत है? आस्था और पर्यावरण के तालमेल से ही इन स्थलों की आध्यात्मिकता बनी हुई है। इन स्थलों पर अंधाधुंध निर्माण और लोगों की बढ़ती संख्या इनका आध्यात्मिक अनुभव को तो ठेस लगा ही रहे हैं, भगदड़ से अनायास उपजने वाली त्रासदियों का सबब भी बन रहे हैं। केदारनाथ त्रासदी इसी बेतरतीब निर्माण और तीर्थयात्रियों की बड़ी संख्या का परिणाम थी। इसलिए एनजीटी ने वैष्णो देवी मंदिर पर श्रद्धालुओं की संख्या तय करके उचित पहल की है। (प्रमोद भार्गव- इंडिया वॉटर पोर्टल से साभार)

पुआल से ज्यादा घातक हैं कूड़े से चल रहे बिजली संयंत्र

दिल्ली के प्रदूषण पर पंजाब के पराली से लेकर पश्चिम एशिया की आँधी तक पर उंगली उठ रही है लेकिन दिल्ली में जलाए जा रहे हजारों टन कचरे पर कोई बात नहीं हो रही है। कचरे में जैविक और अकार्बनिक हर तरह के पदार्थ शामिल होते हैं जिन्हें जलाने से जहरीले रसायन निकलते हैं।
यहाँ तक कि ओखला पावर प्लांट को प्रदूषण फैलाने का दोषी भी पाया गया था जिसके लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने इस पर जुर्माना भी लगाया था। फिर भी प्रदूषण न रुकने पर इसे बन्द करने की चेतावनी भी दी गई थी। इसके बाद भी पिछले दिनों पर्यावरणविदों के विरोध के बाद भी कचरे से बिजली बनाने के तीन संयंत्र चल रहे हैं और चौथे को चालू करने की कोशिश जारी है।
पर्यावरणविदों ने इस पर सवाल उठाया है। पंजाब में पराली जलाने से प्रदूषण होने को लेकर गम्भीर चर्चा हो रही है लेकिन दिल्ली के अन्दर घनी आबादी वाले इलाके में कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्र हैं। विशेषज्ञों का कहना है जिस तरह से पुआल जलाने से प्रदूषण होता है, उसी तरह से कचरा जलाना भी घातक है। इसमें भी जैविक कचरा तो है ही प्लास्टिक सहित कई प्रतिबन्धित चीजें इनमें शामिल हैं। दि टॉक्सिक वॉच अलायंसके संयोजक गोपाल कृष्णन ने हैरानी जताते हुए कहा कि लोग पुआल जलाने पर तो परेशान हैं लेकिन कचरे से बिजली बनाने में उन्हें कोई समस्या नज़र  नहीं आती है।
उन्होंने बताया कि दिल्ली में रोजाना आठ हजार मीट्रिक टन कचरा निकलता है जिनमें से ओखला में दो हजार मीट्रिक टन कचरा जलाकर बिजली बनाई जाती है। वहीं, नरेला बवाना में लगे दो संयंत्रों में क्रमशः तीन और दो हजार मीट्रिक टन कचरे को जलाने वाले संयंत्र लगे हैं। इतना ही नहीं विशेषज्ञों सहित स्थानीय निवासियों के व्यापक विरोध के बाद भी कचरे से बिजली बनाने को मंजूरी दी गई।इसे समाधान के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन पिछले दिनों आईआईटी दिल्ली में हुए सम्मेलन में पेश किए गए वैज्ञानिक परचे में गोपाल कृष्णन ने बताया कि ठोस कचरे को जलाना घातक है। कचरे को जलाने से जहरीले रसायन हवा में घुलते हैं। ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, बेल्जियम सहित कई देश कचरे जलाने की बजाय रिसाइकिल करके उसका इस्तेमाल करते हैं। वर्ष 2006 में योजना आयोग की ओर से गठित टास्क फोर्स के अगुवा डॉ. एसएस खन्ना ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कचरे को जलाना नहीं चाहिए। इसलिए बिजली के संयंत्र लगाने की बजाय जैविक खाद बनाने के कारखाने लगाने चाहिए। (जनसत्ता)

प्लास्टिक कचरा:

 अब भारत को जागने की जरूरत 
-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
अफ्रीका के छोटे से स्थल-बद्ध देश रवांडा ने पिछले कुछ वर्षों से प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसकी वजह से यह युद्ध-ग्रस्त क्षेत्र बहुत साफ बन गया है। हाल ही में कीन्या ने भी प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी है और इसके लिए सज़ा भी मुकर्रर की है - 4 साल की कैद या 40,000 डॉलर ज़ुर्माना। कीन्या के समुद्र तट प्लास्टिक कचरे के पहाड़ बन गए हैं जिसकी वजह से ज़मीन पर और समुद्र के अंदर जीवन मुश्किल हो गया है। अफ्रीका का एक और राष्ट्र मोरक्को, जिसका समुद्र तट 1800 कि.मी. का है, ने भी लगभग एक दशक पहले इस तरह का प्रतिबंध लगाया था। अब भारत को जागने की ज़रूरत है। हमारा समुद्र तट 7500 कि.मी. है और हमें अफ्रीकन देशों से सीखकर प्लास्टिक थैलियों और इससे सम्बंधित सामानों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, इससे पहले कि इस मानव निर्मित आपदा से हम अपने समुद्र तटों और ज़मीन का गला घोंट दें।
सन 2014 में योजना आयोग द्वारा प्लास्टिक प्रदूषण के लिए गठित टॉस्क फोर्स ने अनुमान लगाया था कि देश भर के 60 शहरों द्वारा प्रतिदिन लगभग 15,000 टन कचरा उत्पन्न किया जाता है यानी लगभग 60 लाख टन प्रति वर्ष। हम हर रोज़ रास्तों पर से गुज़रते हुए यही तो देखते हैं। मवेशी व अन्य जानवर सड़कों पर घूमते हुए अनजाने में प्लास्टिक की चीज़ें खा लेते हैं, जो पचती नहीं हैं बल्कि उनके पेट में पड़ी रहती हैं। इसके कारण गाय और भैंस जैसे जुगाली करने वाले जानवर धीमी और दर्दनाक मृत्यु का सामना करते हैं। पवित्र गाय का अपवित्र अंत।
यह ढेर जो हम रोज़ाना देखते हैं, वह समस्या का केवल एक अंश मात्र है। इससे भी कहीं ज़्यादा और अदृश्य आपदा पानी के अंदर है। पूरे विश्व के प्लास्टिक कचरे के बहुत बड़े हिस्से का अंत समुद्र में होता है। वही समुद्र जो पृथ्वी की 70 प्रतिशत सतह पर फैले हैं  और जिनमें धरती का 97 प्रतिशत पानी पाया जाता है। प्रति दिन समुद्रों में पहुंचने वाला प्लास्टिक मलबा 80 लाख टन है - प्रति मिनट एक ट्रक भरकर। इसका मतलब है कि 2050 तक विश्व के समुद्रों में मछलियों से ज़्यादा प्लास्टिक होगा।
विज्ञान इसके लिए क्या कर सकता है? हाल ही में बार्सेलोना (स्पैन) में पॉम्पेयू फैब्रा युनिवर्सिटी के प्रोफेसर रिचर्ड सॉल द्वारा बहुत ही दिलचस्प सैद्धांतिक विश्लेषण किया गया है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि भारी मात्रा में समुद्रों में फेंकी जाने वाली प्लास्टिक सामग्री का केवल 1 प्रतिशत ही समुद्र सतह पर तैरता रहता है। बाकी गहराइयों में डूब जाता है या धीरे-धीरे सड़ता-विघटित होता रहता है। समुद्र में कौन-से पौधे, जंतु या सूक्ष्मजीव यह काम करते हैं? और यदि हम उन्हें पहचान पाते हैं तो हमारे पास इस समस्या का कम-से-कम एक जैविक समाधान हो सकता है। इसके बारे में इस लिंक (http://www.dailymail.co.uk/sciencetech/article-4555014/Plastic-eating-microbes-evolved-ocean) पर पढ़ सकते हैं।
प्लास्टिक का पाचन
ऐसी जीव प्रजातियों को पहचानने, पृथक करने और अध्ययन के लिए कुछ रोचक शोध किए हैं जो प्लास्टिक को पचाकर छोटे-छोटे अणुओं में तोड़कर उन्हें सुरक्षित उपयोग के लायक अणुओं में बदल देते हैं। अब तक पहचानी गईं कुछ प्रजातियों में कवक और बैक्टीरिया हैं। इस तरह के जीवों पर एक प्रारंभिक समीक्षा प्लास्टिक का जैव विघटनवीआईटी वैल्लोर के ए. मुतुकुमार और एस. विरप्पनपिल्लई द्वारा की गई है। उन्होंने सूक्ष्मजीवों की 32 प्रजातियाँ  सूचीबद्ध की हैं जो विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक जैसे - पानी की बोतलें, प्लास्टिक बैग, औद्योगिक सामग्री और इसी तरह की अन्य चीज़ों का पाचन करते हैं। और भारतीय तटों के लिए प्रासंगिक एक रिपोर्ट तिरुची के भारतीदासन विश्वविद्यालय की संगीता देवी और अन्य ने सन 2015 में प्रस्तुत की थी। उन्होंने पाया कि मन्नार खाड़ी के पानी में पाई जाने वाली एस्परजिलस कवक के दो स्ट्रैन एचडीपीई (हाई डेंसिटी पोली एथिलीन) प्लास्टिक का पाचन करते हैं। एचडीपीई दूध और फलों के रस की बोतलों, कैरीबैग्स और इसी तरह की अन्य चीज़ों को बनाने में इस्तेमाल होता है।
ये कवक कुछ एंज़ाइम छोड़ते हैं जो एचडीपीई का पाचन करते हैं अर्थात प्लास्टिक के पोलीमर अणु को छोटे-छोटे अणुओं में तोड़ देते हैं। इन्हीं एंज़ाइमों का अध्ययन विस्तार में तिरुची समूह द्वारा किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि समुद्री जीवों पर और अध्ययन करने से अधिक सूक्ष्मजीवों की पहचान होगी जो पॉलीमरिक और प्लास्टिक अपशिष्टों का पाचन करने में सक्षम होंगे। यह भी संभव है कि इनके करीबी रिश्तेदार ज़मीन पर मौजूद हों जो इन अपशिष्टों का पाचन कर सकते हों। और एक बार जब हम इन प्लास्टिक-भक्षी जीवों के बुनियादी जीव विज्ञान और जेनेटिक्स का अध्ययन कर लेंगे तो फिर हम इनमें आनुवंशिक परिवर्तन करके इन्हें और ज़्यादा सक्षम और विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों को सँभालने के लिए तैयार कर सकेंगे।
कचरे की ऐसी किस्मों पर और भी जानकारी उपलब्ध हो रही है जिन्हें सूक्ष्मजीवों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। मार्च 2016 में क्योटो विश्वविद्यालय के एक समूह को एक सूक्ष्मजीव आइडियोनिला सकाइनेसिस (Ideonella sakainesis) से दो एंज़ाइम्स मिले हैं। यह पॉलीमर पीईटी को अपने मूल मोनोमेरिक अणुओं टेरेफ्थेलिक अम्ल और एथिलीन ग्लाइकॉल में तोड़ने में सक्षम है। ये सूक्ष्मजीव मिट्टी, तलछट, गंदे पानी जैसी जगहों में पाए जाते हैं।
हाल ही में पाकिस्तान, श्रीलंका और चीन के वैज्ञानिकों ने मिलकर एक अध्ययन किया है जिसमें यह बताया गया है कि कवक एस्परजिलस ट्यूबिजेंसिस (Aspergillus tubigensis) पॉलीयूरेथेन का पाचन करती है। पॉलीयूरेथेन का इस्तेमाल कारों के टायर, गास्केट, बंपर्स, रेशे, प्लास्टिक फोम, कृत्रिम चमड़ा वगैरह के निर्माण में होता है। शोधकर्ताओं के समूह ने इस जीव को इस्लामाबाद के सामान्य शहरी कचरा निपटान स्थल पर पाया। उनका कहना है कि बहुत संभावना है कि भारत के भी कई स्थानों पर यह जीव उपस्थित होगा।
एक सनकी मसखरे ने एक बार कहा था: विज्ञान ने जो बनाया है, वही उससे निजात दिलाए। ऐसा लगता है कि चाहे ज़मीन या पानी (या आसमान) हो, अगर हम एकाग्रता से काम करेंगे तो हम ऐसे प्लास्टिक-पचाने वाले जीवों की खोज अवश्य कर पाएँगे और इस तरह की समस्या से निजात पाने की कोशिश कर पाएँगे। और तो और, हम उन्हें अपने उद्देश्य के अनुसार आनुवंशिक रूप से संशोधित भी कर सकते हैं। इस प्रकार के शोध से न केवल ज़मीनी जीवन को बल्कि पानी के अंदर रहने वाले जीवन को भी फायदा मिलेगा। विडंबना यह होगी कि शायद प्लास्टिक को सुरक्षित रूप से नष्ट करने के काम को नोबेल पुरस्कार मिले, जैसे पहली बार प्लास्टिक के निर्माण पर मिला था। (स्रोत फीचर्स)

साँस लेना हुआ दूभर

साँस लेना हुआ दूभर
- डॉ.रवीन्द्र कुमार
प्रदूषण इन्सानी सेहत के लिए एक बहुत बड़ी समस्या बनता जा रहा है। उसके बहुत से कारण हैं। हवा में प्रदूषण का एक कारण कुदरती जरिया है उड़ती हुई धूल। कारखानों के परिचालन या जंगल की आग से तमाम किस्म के हानिकारक कण हवा में दाखिल हो जाते हैं, जिनसे पर्यावरण में प्रदूषण फैलता रहता है। जब जंगल में आग लगती है तो उससे जंगल जलकर राख हो जाते हैं और यही राख जब हवा में दाखिल होती है तो प्रदूषण फैलाती है। दूसरी सबसे बड़ी वजह आबादी का बढ़ना और लोगों का खाने-पीने और आने-जाने के लिए साधन उपलब्ध करवाना है जिसकी वजह से स्कूटर, कारों और उनके उद्योगों का बढ़ना, थर्मल पावर प्लाण्ट का बढ़ना, कारों की रफ्तार का बढ़ना, प्राकृतिक पर्यावरण में बदलाव का होना है।
आबादी बढ़ने से प्रदूषण भी काफी तेजी से बढ़ रहा है। प्रदूषण चाहे पानी की वजह से हो या हवा की वजह से, इसने इन्सान के स्वास्थ्य को तबाह कर दिया है। इस प्रदूषण की वजह से किसी को कैन्सर है तो किसी को शुगर या हृदय रोग। जब आबादी बढ़ती है तो यह आवश्यक है कि मानवीय जरूरतें पूरी की जायें।
प्रदूषण की खासतौर पर तीन किस्में होती हैं। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण। लेकिन हम यहाँ पर वायु प्रदूषण और मानव जीवन के बारे में बताना चाहेंगे।
वायु प्रदूषण एक ऐसा प्रदूषण है जिसके कारण रोज-ब-रोज मानव स्वास्थ्य खराब होता चला जा रहा है और पर्यावरण के ऊपर भी इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यह प्रदूषण ओजोन की परत को पतला करने में मुख्य भूमिका निभा रहा है, जिसकी वजह से जैसे ही आप घर के बाहर कदम रखेंगे आप महसूस करेंगे कि हवा किस कदर प्रदूषित हो चुकी है। धुएँ के बादलों को बसों, स्कूटरों, कारों, कारखानों की चिमनियों से निकलता हुआ देख सकते हैं। थर्मल पावर प्लान्ट्स से निकलने वाली फ्लाई ऐश (हवा में बिखरे राख के कण) किस कदर हवा को प्रदूषित कर रहा है, कारों की गति रोड पर किस कदर प्रदूषण को बढ़ा रही है। सिगरेट का धुआँ भी हवा को प्रदूषित करने में पीछे नहीं है।
वायु प्रदूषण के कारण
जहाँ पर वायु को प्रदूषित करने वाले प्रदूषक ज्यादा हो जाते हैं, वहाँ पर आँखों में जलन, छाती में जकड़न और खाँसी आना एक आम बात है। कुछ लोग इसको महसूस करते हैं और कुछ लोग इसको महसूस नहीं करते लेकिन इसकी वजह से साँस फूलने लगती है। अन्जायना (एक हृदयरोग) या अस्थमा (फेफड़ों का एक रोग), या अचानक सेहत खराब होना भी वायु प्रदूषण की निशानी है। जैसे-जैसे वायु में प्रदूषण खत्म होने लगता है स्वास्थ्य ठीक हो जाता है। कुछ लोग बहुत ही नाजुक होते हैं जिनके ऊपर वायु प्रदूषण का प्रभाव बहुत तेज और जल्दी हो जाता है और कुछ लोगों पर अधिक देर से होता है। बच्चे, बड़ों की तुलना में अधिक नाजुक होते हैं इसलिए उनके ऊपर वायु प्रदूषण का प्रभाव अधिक पड़ता है। और वो बीमार पड़ जाते हैं। जिसकी वजह से बच्चों में वरम और ब्रोंकाइटिस (Bronchitis) जैसी बीमारियाँ हो जाती हैं। अधिक वायु प्रदूषण के समय बच्चों को घरों में ही रखना चाहिए, जिससे उनको वायु प्रदूषण से बचाया जा सके।
वायु प्रदूषण और उसकी बुनियाद
कार्बन मोनो ऑक्साइड: यह एक अधजला कार्बन है जोकि पेट्रोल डीजल ईंधन और लकड़ी के जलने से पैदा होता है। यह सिगरेट से भी पैदा होता है। यह ऑक्सीजन में कमी पैदा करता है जिससे हम अपनी नींद में परेशानी महसूस करते हैं।
कार्बन डाइ ऑक्साइड: यह एक ग्रीन हाउस गैस है। जब मानव कोयला ऑयल और प्राकृतिक गैस को जलाता है तो इन सबके जलने से कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस पैदा होती है।
क्लोरो-फ्लोरो कार्बन: यह ओजोन को नष्ट करने वाला एक रसायन है। जब इसको एयर कन्डीशनिंग और रेफ्रीजरेटर के लिए उपयोग किया जाता है तब इसके कण हवा से मिलकर हमारे वायुमंडल के समताप मंडल (stratosphere) तक पहुँच जाते हैं और दूसरी गैसों से मिलकर ओजोन परत को हानि पहुँचाते हैं। यही ओजोन परत जमीन पर जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों को सूर्य की नुकसान पहुँचाने वाली पराबैंगनी किरणों (Ultravoilet rays) से बचाती हैं। यही कारण है कि क्लोरो-फ्लोरो कार्बन मनुष्य और अन्य जैविक जगत के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
सीसा (Lead) : सीसा, डीजल, पेट्रोल, बैटरी, पेंट और हेयर डाई आदि में पाया जाता है। लेड खासतौर से बच्चों को प्रभावित करता है। इससे दिमाग और पेट की क्रिया खराब हो जाती है। इससे कैन्सर भी हो सकता है।
ओजोन (Ozone) : ओजोन लेयर वायुमंडल में समताप मंडल (stratosphere) की सबसे ऊपरी परत है। यह एक खास और अहम गैस है। इसका काम सूरज की हानि पहुँचाने वाली पराबैंगनी किरणों को भूमि की सतह पर आने से रोकना है। फिर भी यह जमीनी सतह पर बहुत ज्यादा दूषित है और जहरीली भी है। कल-कारखानों से ओजोन काफी तादाद में निकलती है। ओजोन से आँखों में पानी आता है और जलन होती है।
 नाइट्रोजन ऑक्साइड : इसकी वजह से धुन्ध और अम्लीय वर्षा होती है। यह गैस पेट्रोल, डीजल और कोयला के जलने से पैदा होती है। इससे बच्चों में बहुत से प्रकार के रोग हो जाते हैं जोकि सर्दियों में आम होते हैं।
निलम्बित अभिकणीय पदार्थ (Suspended Particulate Matter : SPM) : यह हवा में ठोस, धुएँ, धूल के कण के रूप में होते हैं जो एक खास समय तक हवा में रहते हैं। जिसकी वजह से फेफड़ों को हानि पहुँचता है और साँस लेने में परेशानी होती है।
'सल्फर डाइ ऑक्साइड' :जब कोयला को थर्मल पावर प्लान्ट में जलाया जाता है तो उससे जो गैस निकलती है वो 'सल्फर डाइ ऑक्साइड' गैस होती है। धातु को गलाने और कागज को तैयार करने में निकलने वाली गैसों में भी 'सल्फर डाइ ऑक्साइड' होती है। यह गैस धुन्ध पैदा करने और अम्लीय वर्षा में बहुत ज्यादा सहायक है। सल्फर डाइ ऑक्साइड की वजह से फेफड़ों की बीमारियाँ हो जाती हैं।
वायु प्रदूषण से कैसे बचें


 1. सरकार को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिए कि कर्मचारी घर पर ही बैठकर काम करें। एक सप्ताह में सिर्फ एक दिन ही कार्यालय जायें। और अब सूचना तकनीक के आ जाने से यह सम्भव भी है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका के कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाले 35% लोग सप्ताह में केवल एक दिन कार्यालय जाते हैं। बाकी काम घर पर बैठकर करते हैं। जिससे उनका आने-जाने का खर्च भी नहीं होता और वायु में प्रदूषण भी नहीं बढ़ता। आने जाने में जो वक्त लगता है उसका इस्तेमाल वे लोग दूसरे कामों में करते हैं। जैसे- बागवानी।
2. अधिक से अधिक साइकिल का इस्तेमाल करें।
3. सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करें।
4. बच्चों को कार से स्कूल न छोड़ें बल्कि उनको स्कूल ट्रांसपोर्ट में जाने के लिए प्रोत्साहित करें।
5. अपने घर के लोगों को कारपूल बनाने के लिए कहें जिससे कि वो एक ही कार में बैठकर कार्यालय जायें। इससे ईंधन भी बचेगा और प्रदूषण भी कम होगा।
6. अपने घरों के आस-पास पेड़-पौधों की देखभाल ठीक से करें।
7. जब जरूरत न हो बिजली का इस्तेमाल न करें।
8. जिस कमरे में कूलर पंखा या एयर कन्डीशन जरूरी हों, वहीं चलाएँ, बाकी जगह बन्द रखें।
9. आपके बगीचे में सूखी पत्तियाँ हों तो उन्हें जलाएँ नहीं, बल्कि उसकी खाद बनायें।
10. अपनी कार का प्रदूषण हर तीन महीने के अन्तराल पर चेक करवाएँ।
11. केवल सीसामुक्त पेट्रोल का इस्तेमाल करें। बाहर के मुकाबले घरों में प्रदूषण का प्रभाव कम होता है; इसलिए जब प्रदूषण अधिक हो तो घरों के अन्दर चले जाएँ।
(पर्यावरण प्रदूषण: एक अध्ययन, हिंद-युग्म)

प्रेरक

सोशल मीडिया और 
'पाँच के औसत' का नियम
 'पाँच के औसत' के नियम को सोशल मीडिया पर लागू कीजिए.
प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और उद्योगपति जिम रोन ने कहा थाः
तुम उन पाँच व्यक्तियों का औसत हो जिनके साथ तुम सबसे ज्यादा वक्त गुजारते हो.
अब खुद से पूछिए: मैं सोशल मीडिया पर किन व्यक्तियों के कंटेंट को सबसे ज्यादा पढ़ता और देखता हूं?”
ज्यादातर लोग कहेंगे: मैं तो अपनी फ़ीड में आनेवाले हर किसी व्यक्ति की लिखी और शेयर की गई बातें ही देखता हूं.
सच कहिए, क्या आप वाकई हर किसी व्यक्ति जैसे बनना चाहते हैं या किसी खास व्यक्ति जैसा बनना चाहते हैं?
शायद आप किसी खास व्यक्ति जैसा बनना ही पसंद करेंगे.
सोशल मीडिया पर अच्छा खासा वक्त बिताने पर और रोज़ाना दसियों वीडियो, सैंकड़ों फ़नी इमेज और दुनिया भर की बातें पढ़ते, देखते, लाइक करते, और शेयर करते रहने पर भी हममें से अधिकतर जन अप्रसन्नता का अनुभव करते हैं ; क्योंकि हम इतनी अधिक मात्रा में सतही सामग्री से गुजरते हैं जो हमारी जानकारी नहीं बढ़ाती, हमें हमारे लक्ष्यों तक पहुंचने की प्रेरणा नहीं देती, हमें जीवन को सही दिशा देने के लिए राह नहीं सुझाती.
यदि आप दूसरों से बेहतर बनना चाहते हों तो यह तय कर लें कि आप सोशल मीडिया पर या अपने फ़्रेंड सर्किल में से सबसे अच्छे और सबसे प्रतिभावान पाँच व्यक्तियों का चुनाव करेंगे और उन्हें छोड़कर बाकी लोगों को अनफॉलो कर देंगे. आप चाहें तो अपने परिवार के सदस्यों, कलीग्स और मेंटर्स को भी अपनी लिस्ट में रख सकते हैं.
लोगों को अनफॉलो करने के इस काम में यदि पूरा दिन भी लग जाए तो यह आपके हित में होगा.
यह काम हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ करें- फोसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस, वॉट्सअप
मैं जानता हूँ कि आप क्या सोच रहे हैं
आपको लग रहा होगा कि यह काम करने पर आपको मित्र आपसे दूर हो जाएँगे, नाराज़ हो जाएँगे.
सच कहूँ तो आपको उनकी नाराज़गी की परवाह नहीं करनी चाहिए. सुबह से लेकर देर रात तक अपने फोन की स्क्रीन पर फेसबुक को स्क्रोल करते रहनेवाले सोशल मीडिया दोस्तों को उनकी दुनिया में व्यस्त रहने दीजिए. यदि आप उनके कंटेंट को लाइक, शेयर या कमेंट करेंगे तो उन्हें बल मिलेगा. उन्हें इस बात की अनुमति न दें कि वे दिन भर आपका ध्यान लक्ष्य से भटकाते रहें.
आप जिन व्यक्तियों की तरह बनना चाहते हैं उनके जैसा बनने का एक ही उपाय है. इसपर ध्यान दें कि वे क्या पढ़ते और शेयर करते हैं. उनके सीखने और सोचने की प्रक्रिया और किसी भी बात पर प्रतिक्रिया देने की उनकी प्रवृत्ति का अवलोकन करें. यह जानने का प्रयास करें कि वे किस तरह से ग्रो करते हैं.
इसे छोड़कर सोशल मीडिया पर जो कुछ भी है वह आपकी प्रगति की राह में बाधक है.
यह बहुत शानदार लाइफ़-हैक है जो आपके जीवन को नया आयाम और आपको सोच को विस्तार दे सकता है. आपको सोशल मीडिया पर बस पांच सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों का चुनाव करना हैजिनकी तरह आप बनना चाहते हैंजिन्हें आप रोल मॉडल मानते हैंऔर बाकी सबको अनफॉलो कर देना है.
ये काम आज से ही शुरू कर दीजिए. आपका समय शुरु होता हैअब !


मुझपर भरोसा रखें. आप निराश नहीं होंगे. (हिन्दी ज़ेन से)