संवेदनात्मक लेखा-जोखा
-अनिता मण्डा
"रिश्ते
मन से मन के" संतोष तिवारी जी की पुस्तक मिली। जिसमें उन्होंने रिश्तों के
पचहत्तर गुलों से एक गुलदस्ता सजाया है। वैसे तो ये कड़ियाँ प्रतिदिन लिखे जाने के
दौरान ही पढ़ने को मिल गई थीं; लेकिन एक पुस्तक में एक साथ
पन्ने पलटते हुए देखना सुखद रहा। कई जगहों से पुनर्पाठ का लालच रोके न रुका।
अपने
में रिश्तों को, रिश्तों में अपनों को पाते हुए लिखी गई ये
कड़ियाँ 'स्व' से साक्षात्कार करने समान
हैं।
संस्मरणात्मक
शैली में लिखे गए गद्य में कहानी के जैसी क़िस्सागोई है; लेकिन ये कहानियाँ नहीं हैं, कहानी में काल्पनिकता की छूट
होती है। जबकि यहाँ हक़ीक़त की ज़मीन पर इबारत खड़ी की गई है।
वीरेन्द्र आस्तिक जी ने भूमिका में लिखा है कि
"दरअसल ये कथाएँ न्यायिक-नैतिक बोध, मानविक आग्रह, जीवंत धार्मिकता और शैक्षणिक कर्तव्य-बोध की तथा ऐसे ही
अनेक मूल्यों की प्रेरक कथाएँ हैं। लेकिन इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, वस्तुतः इन कथाओं की जो सबसे ज़्यादा रोचक चीज़ है, वह है इनकी भाषा का लालित्य, वह भी सहज प्रवाहयुक्त भाषा
में। भाषा और अंतर्वस्तु का समन्वित प्रवाह ही इन कथाओं को भरपूर पठनीय बना देता
है। पठनीयता भी ऐसी कि मूल बात अपनी जगह हृदय में बना ले। अब ऐसी स्थिति में ललित
कथा या ललित कथाएँ कहकर संबोधित करना ही उचित होगा।
पुस्तक
की भाषा को रोज़मर्रा की बोलने की भाषा रखा गया है, जिसमें क्लिष्ट हिंदी न होकर
सर्वसाधारण को समझ आने वाली हिंदी है। हिंदी के साथ घुलमिल गए अंग्रेजी, उर्दू के शब्दों को उसी तरह देवनागरी में लिख दिया गया है, जिससे कि भाषा की रोचकता व पठनीयता बरक़रार रही है। मुहावरे
बेखटके आए हैं और कहीं कहीं नये मुहावरे भी गढ़े गए हैं।
कुछ
सूक्तियाँ भी ध्यान खिंचती हैं 'तकनीक ने विश्व की दूरियों
को जितना खत्म किया, दिल की दूरियों को बढ़ा दिया।'
संवेदना
से लबरेज़ अक्षर- अक्षर अपनी अमिट छाप हृदय पर अंकित करता है। कथावस्तु की
सम्प्रेषणीयता सहज ही पाठक को पुस्तक से जोड़ देती है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज परिवार से व
परिवार रिश्तों से बना है यह तो हुई साधारण सी परिभाषा रिश्तों की। लेकिन क्या
वाकई रिश्तों को परिभाषित करना इतना आसान है। रिश्तों की पड़ताल करते जीवन बीत जाता
है। यह अनसुलझे धागे बाँधे रखते हैं। कोई सिरा थाम समझने की कोशिश करते हैं, तो विवेक जवाब दे जाता है। इंसान का जीवन कुछ रिश्तों की
बदौलत और कुछ रिश्तों से ही तो बना है। मनुष्य जीवन एक व्यापक घटनाक्रम है। इसमें
कई लोगों का योगदान होता है, उन लोगों से मन एक रिश्ता
बना लेता है। क्योंकि हम सभी रिश्तों में जीते हैं, इसलिए ये रिश्ते भी हमें
पराए नहीं लगते, इनको पढ़ते हुए कहीं न कहीं हम अपने रिश्तों की
ग़िरह भी खोलने लगते हैं, जैसा कि साहिर साहब कह गए हैं-
'कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब
को अपनी ही किसी बात पे रोना आया।'
जो
बात मुझे संतोष जी के लेखन की सबसे अधिक प्रभावित करती है ,वह है पात्रों का मनोविश्लेषणात्मक चित्रण। वह चाहे पहली
कक्षा में खुद को शिक्षक के द्वारा न समझ पाने का क्षोभ हो (चौथी कड़ी) या स्वयं
द्वारा एक अध्यापक के रूप में बादल से माफ़ी माँगना हो (तीसरी कड़ी)
संतोष
जी स्वयं एक शिक्षक हैं अतः बाल मनोविज्ञान की समझ बहुत अच्छी है और इसे जीवन में
उपयोग में भी लिया है (पांचवीं कड़ी) इसका प्रमाण देती है। संवेदनशीलता कहीं टॉनिक
के रूप में बाज़ार में नहीं बिकती, उसे तो संस्कारों से ही
व्यक्तित्व का अंग बनाया जा सकता है, यह जागरूकता एक शिक्षक की
ट्रेनिंग का हिस्सा है। वह अपने बच्चे के मन में भी इसका बीजारोपण कर रहे हैं।
किताबी
ज्ञान तो चार किताबें पढ़ मिल ही जाता है, पर जीवन युद्ध में जीत
दिलाने वाले असली शस्त्र तो आत्मविश्वास और मन की शक्ति हैं और ये शस्त्र हमें
परिवार के बाद अपने शिक्षकों से ही मिलते हैं। एक शिक्षक का जीवन व व्यवहार समाज
के लिए बहुत बड़ी जिम्मेदारी निभाता है इसे आप (आठवीं कड़ी) में प्रथा से जुड़कर
गहराई से महसूस करेंगे।
अज्जु
को दसवीं पास करवाना( 13 वीं कड़ी),
किसी
ठेले वाले बुजुर्ग की निस्वार्थ भाव से पुल पर ठेला चढ़ाने में मदद कर ( 10 वीं
कड़ी) संतोष रूपी धन से खज़ाना भर लेना भी हर किसी के बस की बात नहीं। 22 साल से एकरंग में रँगे हुए हमसफ़र (15 वीं
कड़ी), प्रतिभा सम्पन्न छात्रा का बाल विवाह न रुकवा पाने की
विवशता (16 वीं कड़ी) सब आँखों देखे किरदार
से लगते हैं।
कहीं
शरारती लोग, कहीं मुँहफट बेलाग क़िस्म के, कहीं शक़्क़ी, कहीं गम्भीर कई तरह के
पात्रों की कहानियाँ मिलेंगी इन रिश्तों में।
हमारा जीवन हमारे सम्पर्क में आने वाले लोगों
से कितना व किस तरह प्रभावित होता है इसका भी अच्छा विश्लेषण इसमें मिल जाता है।
कड़ियों
के सटीक शीर्षक इनको एक पायदान और ऊपर रख देते हैं। अतीत में डूब यादों के गुहर निकाल उनकी माला
बनी यह पुस्तक संवेदना स्तर पर बहुत समृद्ध है। माँ-पिता, पत्नी, बेटे, भाई, पत्नी के पिता आदि नजदीकी
रिश्तों पर लिखा हुआ भी लेखक के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम खोलता है। स्मृतियों
से जिसका कोष भरा हुआ है वह कभी स्नेह शून्य हो ही नहीं सकता। स्मृति की अँगुली
थाम निकल पड़िए किसी भी राह, ऐसे रिश्ते आपका हाथ थाम संग
हो लेंगे। आपसी रिश्तों की भावपूर्ण कड़ियाँ मन को भिगो देती हैं।
इतनी
सारी अच्छी बातों के बीच पुस्तक की एक कमी मुझे ज़रूर अखरी। और वो यह है कि बहुत
सारी जगह नुक़्तों का ख़्याल बिलकुल नहीं रखा गया है। पुस्तक की सरल व मुहावरेदार
भाषा इसे आम पाठकों में प्रिय बना देगी।
सरल लिखना ज़्यादा कठिन है। यह सरलता ही इस पुस्तक की ताक़त है।
पुस्तक- रिश्ते मन से मन के, लेखक- संतोष तिवारी, पृष्ठ- 178 ; मूल्य-250 रुपये, ISBN-978-93-92212-90-1, प्रकाशक- पहले पहल प्रकाशन, महाराणा प्रताप नगर, 25-A, प्रेस कॉम्पलेक्स, भोपाल म. प्र., फोन- 0755-555789
सम्पर्क- अनिता मण्डा, आई-137 द्वितीय तल,
कीर्ति नगर, नई दिल्ली-110015
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