हवा में घुलता
जहर...
-डॉ. रत्ना वर्मा
शुद्ध हवा नहीं, शुद्ध
पानी नहीं, शुद्ध खाना
नहीं, तो फिर जीवन कैसे चले? दशक पर
दशक बीतते जा रहे हैं, हमारे वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् न जाने कब से
चेतावनी देते चले आ रहे हैं कि समय रहते चेत जाइए, तरक्की के नाम पर धरती को इतना खोखला मत कीजिए कि धरती पर
रहना दूभर हो जाए। धरती पर रहना अब दूभर तो हो ही गया है। किसी की चेतावनी का कोई
असर होते कहीं भी नहीं दिखता। हवा, पानी और
भोजन की शुद्धता को बनाए रखने के लिए हमने अपनी परम्पराओं को भी नजरअंदाज कर दिया।
हमारे पूर्वजों ने पेड़ लगाए और उन्हें बचाने के लिए उनकी पूजा करने की परम्परा
डाली। पानी की उपलब्धता के लिए तालाब खुदवाए, उसे अपनी संस्कृति से जोड़ा और उनके
रख-रखाव और पानी सहेजने की कोशिश की। तब जानवर- गाय, बैल और भैंस खेती और अर्थव्यवस्था का आवश्यक अंग होता था, और जैविक खादों का उपयोग तभी संभव हो पाता था।
आज विकास और
आगे बढऩे की अंधी दौड़ में हमने जीवन को नरक बना दिया है। बड़े- बड़े धुआँ उगलते
कारखाने, नदियों को गंदा
करते जहरीले रसायन, पॉलीथीन
के अँधाधुँध उपयोग से बंजर होती ज़मीन और कूड़े के बनते बड़े- बड़े पहाड़, जंगलों को काट-काट कर बन रही गगनचुंबी इमारतें।
जितने लोग उतनी गाडिय़ाँ और उन गाड़ियों से निकलता जानलेवा जहरीला धुआँ। इन सबने
मिलकर हमारी जीवनदायी हवा, पानी और
खाना सबको अशुद्ध कर दिया है।
क्या हमने कभी
सोचा भी था कि हमारे आस-पास ऐसी हवा भी बहेगी कि एक दिन हमें अपने बच्चों को स्कूल
भेजना इसलिए बंद कर देना पड़ेगा; क्योंकि सुबह- सुबह जब वे स्कूल के लिए निकलते
हैं, तब जो
हवा वातावरण में बहती है वह इतनी प्रदूषित हो गई है कि उसमें साँस लेना मुश्किल हो
गया है और वह हवा जब फेपड़ों में पहुँचती है, तो शरीर को बीमारियों का घर बना लेती है। जो
सुविधा सम्पन्न हैं वे अपने घरों और दफ्तरों की हवा को शुद्ध बनाए रखने के लिए
लाखो खर्च करके एयर प्यूरिफॉयर लगवा रहे हैं। दिल्ली ही नहीं वायु प्रदूषण की मार
झेल रहा देश का प्रत्येक व्यक्ति मॉस्क या रेस्पिरेटर्स पहने नजर आता है। विडंबना
देखिए यहाँ भी बाजारवाद हावी है। सब अपने सामान को बेहतर बताकर बेचने में लगे हुए
हैं। उपभोक्ता तो ‘बेचारा’ होता ही है, भेड़चाल में वह चल पड़ता है। उनके लिए तो जान बची तो लाखों
पाए। पर सच्चाई तो कुछ और ही है आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से के पास सर छुपाने के
लिए घर तो है पर एसी और कूलर नहीं। झुग्गी- झोपड़ी जिनकी दुनिया है वे एयर
प्यूरिफॉयर तो क्या साधारण मॉस्क तक नहीं लगा पाते । उन्हें तो इसी जहरीली हवा को साँसों
में भरकर जैसे भी हो जिंदा रहना है ।
चुनाव होने
वाले हैं- हर पार्टी हर नेता अपनी जीत सुनिश्चित कर लेना चाहता है। अब बारी मतदाता की है, लेकिन क्या वह अपने मत का सही उपयोग कभी कर
पाया है। शुद्ध हवा, शुद्ध
पानी और शुद्ध भोजन की माँग पर क्या वह अपना नेता चुनेगा और क्या पार्टी अपने
एजेंडे में पर्यावरण की शुद्धता को प्राथमिकता देते हुए चुनाव लड़ेगी। तब तक तो ठंड भी जा चुकी होगी और नेता तो स्मॉग
को भूल ही जाएँगे, जनता भी
शांत हो जाएगी दिल्ली सहित जिन शहरों में स्मॉग से परेशान लोग हैं; वे राहत की साँस
लेंगे कि अगले ठंड तक तो राहत रहेगी।
मीडिया में भी
लगातार स्मॉग छाया हुआ है का हल्ला बोल अभियान चलाए हुए है। लोगों के बयान लिये जा
रहे हैं, विशेषज्ञों की
राय ली जा रही है, नेता
चिल्ला रहे हैं तो पक्ष- विपक्ष एक दूसरे के उपर कीचड़ उछालकर दोषारोपण करने में
लगा हुआ है। कुल मिलाकर हो-हल्ला होता रहेगा। फिर एक दिन कोई नई समस्या सामने आ
जाएगी और सब लोग उधर ही भागेंगे। बात आई गई हो जाएगी।
प्रश्न यही
उठता है कि फिर हल क्या हो? क्या
चुप बैठकर तमाशा देखा जाए या आवाज उठाया जाए? लोकतंत्र है तो हमें आवाज तो उठाना चाहिए जिसकी सुनवाई भी
होनी चाहिए। यदि धरती की शुद्धता को बचाए रखना है, आने वाली सदियों में नौनीहालों के लिए शुद्ध हवा बहते देना
है और धरती पर मनुष्य को जिंदा रखना है तो आवाज तो उठाना ही होगा... घर, सड़क, बिजली, कपड़ा, दो वक्त की रोटी और हर हाथ को काम जैसी बुनियादी
चीजों के लिए तो हमेशा ही माँग की जाती है, जो कि सबका संवैधानिक अधिकार है, जिसे हर सरकार को मुहैया करवाना ही चाहिए। हम
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसा वातावरण छोड़कर न जाएँ कि वे हमपर गर्व करने की
बजाय हमको कोसें कि हमने उन्हें विरासत में क्या सौंपा है। इसलिए क्यों न इस बार
शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और
शुद्ध भोजन के लिए माँग की जाए।
मोदी जी भारत को दुनिया के सर्वोच्च स्तर पर ले जाना
चाहते हैं - स्वच्छ भारत और भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा देकर उन्होंने देश में
एक क्रांति पैदा करने की कोशिश भी की है, पर अब समय आ गया है कि यह
नारा पूरे देश में अपना परचम लहराने वाला नारा मात्र न बने; बल्कि कुछ ऐसा करके
दिखाने वाला बने कि भारत दुनिया में एक उदाहरण बनकर उभरे। हर भारतीय तब गर्व से
कहे कि हाँ हम एक तरक्की पसंद देश के नागरिक हैं, जहाँ की हवा शुद्ध हवा है, स्वच्छ कल-कल बहती नदियाँ हैं, और सोना उगलती धरती है। बातें कुछ किताबी और
स्वप्न देखने वाली जरूर हैं पर हम सब चाहते तो यहीं हैं ना? तो फिर इन किताबी बातों को इन स्वप्नों को पूरा करने के लिए प्रयास क्यों नहीं
करते? प्रदूषित हवा में साँस लेते हुए क्या बस बातें ही करते रहेंगे?
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