कहीं पर्यावरण विरोधी तो नहीं
कचरे से बिजली?
-मनोज निगम
पर्यावरण
मंत्रालय की जानकारी (अप्रैल 2016) के अनुसार देश में प्रति वर्ष 620 लाख टन कचरा
उत्पन्न होता है, इसमें 56 लाख टन प्लास्टिक कचरा, 1.7 लाख टन जैव चिकित्सा अपशिष्ट, 79 लाख टन खतरनाक अपशिष्ट और 15 लाख टन ई-कचरा निकलता है।
नगर निगम और पालिकाएँ इन अपशिष्ट का केवल 75 से 80 प्रतिशत ही एकत्र कर पाती हैं, और 22-28 प्रतिशत हिस्सा ही संसाधित किया जाता है।
कचरा
प्रबन्धन एक देशव्यापी समस्या है, देश भर में कचरा निपटारे के
कई प्रयोग किए जा रहे हैं। इनमें से एक है कचरे का भस्मीकरण एवं बिजली उत्पादन।
सार्वजनिक अपशिष्टों के भस्मीकरण और उससे बिजली उत्पादन के 100 प्लांट्स बनाने के
नीति आयोग के प्रस्ताव को तमाम तबकों द्वारा तीखी आलोचना मिल रही है। कहा जा रहा
है कि यह योजना वायु प्रदूषण को कम करने और ऊर्जा के साफ-सुथरे स्रोतों की ओर बढ़ने
के राष्ट्रीय प्रयासों में बाधक होगी।
नीति
आयोग की तीन सालाना (2017-18 से 2019-20) कार्य-योजनाओं पर बनाए व्यापक मसौदे के अनुसार
देश की 8000 नगर पालिकाओं में प्रतिदिन उत्पन्न 1,70,000 टन कचरे के प्रबन्धन का
उद्देश्य है। कहा गया है कि इस कचरे से निपटने के लिए कचरे से ऊर्जा बनाने वाले
प्लांट ही एकदम सही विकल्प हैं। योजना में इस कचरे को एक गंभीर लोक स्वास्थ्य खतरा
बताया गया है। सार्वजनिक ठोस अपशिष्ट की सफाई की प्रक्रिया में तेज़ी लाने के लिए
भारतीय कचरा ऊर्जा निगम (waste to energy corporation of India)की स्थापना का सुझाव दिया
गया है। संयंत्रों को बनाने का काम पब्लिक-प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत किया जाएगा।
रिपोर्ट के अनुसार इस निगम का मुख्य दायित्व 2019 तक बनाए जाने वाले 100 स्मार्ट
शहरों में अपशिष्ट से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्र निर्माण के काम की निगरानी का
होगा। योजना में कल्पना की गई है कि ये संयंत्र पर्यावरण के लिए लाभकारी होंगे और
इनसे 2018 तक 330 मेगावाट और 2019 तक 511 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो सकेगा। यहाँ
यह जानकारी भी महत्वपूर्ण है कि कोयले पर आधारित बिजली संयंत्र साल में
लगभग 500 मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है।
ठोस
कचरा प्रबन्धन के नियमों में यह स्पष्ट है कि कचरे को घरेलू स्तर पर गीला, सूखा और घरेलू खतरनाक कचरे की तीन श्रेणियों में बांटा जाना
चाहिए, यह व्यवहारिक रूप से नहीं हो पा रहा है। अधिकांश कचरे में
तीनों श्रेणियों के कचरे मिल ही जाते हैं। अलग-अलग करने के लिए सरकारी और सामजिक
प्रयास भी करने होंगे। नियम में यह भी है कि कचरे से ऊर्जा पैदा करने वाले
संयंत्रों में मिश्रित कचरा नहीं जलाना चाहिए, और कचरे को निपटाने का आखरी
विकल्प ज़मीन के भराव का होना चाहिए।
फायनेंशियल
एक्सप्रेस अखबार के मुताबिक नीति आयोग यह बताने में असफल रहा कि जब इन संयंत्रों
में मिला-जुला अपशिष्ट जलेगा तो फिर इनसे विषैली गैसों का उत्सर्जन भी होगा और ये
हवा में गैर ज़िम्मेदाराना रूप से प्रदूषण फैलाएँगी। यदि इस विषाक्त उत्सर्जन की
निगरानी का प्रभावी तंत्र न हो तो स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे और भी चुनौतिपूर्ण
होंगे। कचरे के पृथक्करण के लिए कई सारी सामजिक, आर्थिक व व्यवहारिक चुनौतियाँ
तो होंगी ही।
यह
जानकारी भी गौरतलब है कि हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली के ओखला
स्थित एक संयंत्र पर पेनल्टी लगाई है क्योंकि वहाँ पर उत्सर्जन के मानकों का पालन नहीं किया गया।
और वहाँ के रहवासियों ने सुप्रीम कोर्ट
में इस संयंत्र को किसी अन्य जगह ले जाने के लिए जनहित याचिका दायर की है। नीति
आयोग के इस ड्राफ्ट एजेंडा में न तो दिल्ली स्थित संयंत्रों से कोई सबक लिया है न
ही कुछ शहरों में बायोमेथीनेशन के सफल परिणामों का ज़िक्र है।
कई
भारतीय पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अवधारणा ही दोषपूर्ण है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल की मूल्यांकन समिति के तकनीकी विशेषज्ञ इंजीनियर
अनंत त्रिवेदी के अनुसार अपशिष्टों को जलाना सबसे खराब विकल्प है। यह विश्वास करना
कि अपशिष्टों से साफ-सुथरी ऊर्जा बनाई जा सकेगी भी गलत साबित होगा।
भारतीय
विज्ञान संस्थान, बैंगलु डिग्री के विशेषज्ञ टी.वी. रामचंद्र का
कहना है कि घरेलू कचरे में 80 प्रतिशत तक नमी वाले जैविक पदार्थ होते हैं, इनका भस्मीकरण उचित नहीं है। बेहतर उपाय यही है कि इस कूड़े
की खाद बना कर या इसका किण्वन करके इससे बायोगैस बनाई जाए।
अमन
लूथरा का अध्ययन भारत में शहरीकरण और अपशिष्ट प्रबन्धन का है। इनका कहना है कि
भस्मीकरण (इंसीनरेशन) की तकनीक में लगातार कम नमी और अधिक कैलोरी के अपशिष्टों की
ज़रूरत होती है। भारतीय अपशिष्ट जलाने के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि इसमें नमी की
मात्रा अधिक होती है और इसको जलाने के लिए भी अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी। सी.एस.ई.
(सेंटर फार एन्वायरमेंट एजूकेशन) के अध्ययन के अनुसार भी भारतीय अपशिष्ट 800-1000
किलो कैलोरी प्रति किलोग्राम का होता है और इसको जलाने के लिए लगभग 2000 किलो
कैलोरी प्रति किलोग्राम की ज़रूरत होगी।
कचरे
को जलाने की सिफारिश अन्य सरकारी नीतियों से भी जुदा है। हाल ही में प्रदूषण पर
भारत सरकार के श्वेत पत्र के अनुसार ठोस अपशिष्ट को ठिकाने लगाने के भस्मीकरण जैसे
थर्मल उपचार के तरीके कचरे के निम्न ऊष्मा
मूल्य के कारण संभव नहीं हैं। आलोचकों का तर्क है कि फिलहाल भारत के पास बिजली
उत्पादन की पर्याप्त क्षमता है, तो कचरे से बिजली बनाने की
आवश्यकता ही क्या है?
अभी
यह भी स्पष्ट नहीं है कि सरकार के लिए यह ड्राफ्ट प्लान कितना व्यावहारिक होगा।
राज्य और स्थानीय निकाय ड्राफ्ट प्लान की सिफारिशों को देख रहे हैं। नीति आयोग के
ड्राफ्ट प्लान के अनुसार तेज़ी से बढ़ती समृद्धि के चलते शहरों में बड़ी मात्रा में
ठोस अपशिष्ट पैदा होगा। शहरों में कचरे को प्रभावी तरीके से समाप्त करने की
प्रक्रिया बहुत ही धीमी होने के कारण शहरों के आसपास कचरे के ढेर देखे जा सकते
हैं। इस सदी के कई महत्वपूर्ण सवालों में से एक कचरे को प्रभावी तरीके से निपटाने का
भी होगा, जिसके लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक इच्छाशक्ति ज़रूरी होगी। (स्रोत फीचर्स)
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