-प्रमोद भार्गव
लैंसेट
मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट को मानें तो भारत की आबोहवा इतनी दूषित हो गई है कि
सर्वाधिक मौतों का कारण बन रही हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में भारत में करीब
25 लाख लोगों की मौत प्रदूषणजनित बीमारियों की वजह से हुई है। विश्व के अन्य किसी
देश में इतनी मौतें प्रदूषण के कारण नहीं हुई हैं। भारत के बाद चीन का स्थान है
जहाँ 18 लाख लोग प्रदूषण से मरे हैं।
अध्ययन
से पता चला है कि प्रदूषण से हुई मौतों में से अधिकांश मौतें हृदय आघात, मधुमेह, रक्तचाप, दमा और फेफड़ों में कैंसर
जैसे रोगों से हुई हैं। प्रदूषण जनित बीमारियों की देख-रेख का खर्च भी बहुत अधिक
है। विश्व में हर साल करीब 46 खरब डॉलर का नुकसान इसके कारण होता है। आई.आई.टी., दिल्ली व इकहान स्कूल ऑफ
मेडिसिन के अध्ययन के अनुसार 92 प्रतिशत मौतें भारत व अन्य निम्न व मध्य आमदनी
वाले देशों में होती हैं।
इसके
पहले अमेरिकी संस्था हेल्थ इफेक्टस इंस्टीट्यूट (एचईआई) के शोध के अनुसार दुनिया
में वायु प्रदूषण के चलते 2015 में लगभग 42 लाख लोग अकाल मौत मरे थे। इनमें से 11
लाख भारत के और इतने ही चीन के थे। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि दुनिया की
करीब 92 प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में साँस ले रही है। नतीजतन वायु प्रदूषण
दुनिया में मौत का पाँचवाँ सबसे बड़ा कारण बन गया है। चिकित्सा विशेषज्ञ भी मानते
हैं कि वायु प्रदूषण कैंसर, हृदय रोग, क्षय रोग, दमा और साँस सम्बन्धी बीमारियों का
प्रमुख कारक है। चीन ने इस समस्या से निपटने के लिए देशव्यापी उपाय शुरू कर दिए
हैं, वहीं
भारत का पूरा तंत्र केवल दिल्ली की हवा शुद्ध करने में लगा है। उसमें भी सफलता
नहीं मिल रही है। न्यायालय ने वायु और ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए दिल्ली एवं
एनसीआर क्षेत्र में पटाखों की बिक्री पर रोक लगाई थी, लेकिन इस पर कार्यपालिका
शत-प्रतिशत अमल नहीं कर पाई।
आआईटी, कानपुर के एक अध्ययन के
अनुसार 30 प्रतिशत प्रदूषण देश भर में डीज़ल-पेट्रोल से चलने वाले वाहनों से होता
है। इसके बाद 26 प्रतिशत कोयले के कारण हो रहा है। दिवाली पर चलने वाले पटाखों से
5 फीसदी तक प्रदूषण होता है। देश के 168 शहरों के आंकड़ों के आधार पर ग्रीनपीस का
मानना है कि 12 लाख भारतीय हर साल वायु प्रदूषण के कारण मरते हैं। सबसे ज़्यादा हानिकारक
वाहनों से निकलने वाला धुँआ होता है। इससे निकली गैसें और कण वातावरण में प्रदूषण
की मात्रा को 40 से 60 प्रतिशत तक बढ़ा देते हैं।
भारत
में ध्वनि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार भी भारी और हल्के वाहनों की बड़ी संख्या है।
ध्वनि प्रदूषण का सामान्य स्तर 50 डेसिबल होता है। लेकिन भारत में इसका स्तर 100
डेसिबल तक है। दिन में यह प्रदूषण 75 डेसिबल बना रहता है, जो कान और मस्तिष्क के लिए
बेहद खतरनाक है। कार का हॉर्न 110 डेसिबल ध्वनि उत्पन्न करता है। 130 से 135
डेसिबल की ध्वनि शरीर में दर्द, घबराहट और उल्टी की शिकायत पैदा करती है। लंबे समय तक 150
डेसिबल ध्वनि तरंगें यदि शरीर से टकराती हैं तो ये धड़कनें बढा़ देती हैं। इससे
रक्तचाप बढ़ने का खतरा रहता है।
वाटर
एड नामक संस्था के मुताबिक भारत में उपलब्ध 80 प्रतिशत जल प्रदूषित है। पानी में इस प्रदूषण का कारण देश
में बढ़ता शहरीकरण व औद्योगीकरण है। आबादी का घनत्व भी जल प्रदूषण को बढ़ाने का काम
कर रहा है। वर्ल्ड इकानॉमिक फोरम के मुताबिक मुंबई में प्रति वर्ग कि.मी. 31,700
लोग रहते हैं। शहरों पर इस तरह से आबादी का बोझ बढ़ना विकास के असंतुलन को दर्शाता
है। इस कारण अपशिष्ट पदार्थ नदियों, नहरों, तालाबों व अन्य जल स्रोतों में बहाए जा रहे हैं। इससे जल
में रहने वाले जंतुओं और पौधों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है, इन स्रोतों का जल पीने योग्य
भी नहीं रह जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का मानना है कि जल प्रदूषण
में 75-80 फीसदी भूमिका मल-मूत्र की है।
केंद्रीय
प्रदूषण बोर्ड देश के 121 शहरों में वायु प्रदूषण का आकलन करता है। इसकी एक
रिपोर्ट के मुताबिक देवास, कोझिकोड व तिरुपति को अपवाद स्वरूप छोड़कर बाकी सभी शहरों
में प्रदूषण एक बड़ी समस्या है। इस प्रदूषण की मुख्य वजह तथाकथित वाहन क्रांति है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का दावा है कि डीज़ल और कैरोसिन से पैदा होने वाले प्रदूषण
से ही दिल्ली में एक तिहाई बच्चे साँस की बीमारी की जकड़ में हैं।
20 फीसदी बच्चे मधुमेह जैसी लाइलाज बीमारियों की चपेट में हैं। इसके बावजूद दिल्ली
व अन्य राज्य सरकारें ऐसी नीतियाँ अपना रही हैं, जिनसे प्रदूषण को नियंत्रित
किए बिना औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलता रहे। यही कारण है कि डीज़ल वाहनों का
चलन लगातार बढ़ रहा है।
राष्ट्र
संघ द्वारा 31 अक्टूबर 2016 को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 30 करोड़ बच्चे
बाहरी वातावरण की इतनी ज़्यादा विषैली हवा के सम्पर्क में आते हैं कि उन्हें गंभीर
शारीरिक दुष्प्रभाव झेलने पड़ते हैं। उनके विकसित हो रहे मस्तिष्क पर इसका गहरा
प्रभाव पड़ता है। दुनिया में 7 में से 1 बच्चा ऐसी बाहरी हवा में साँस लेता है, जो अंतरराष्ट्र्रीय मानकों
से कम से कम 6 गुना अधिक दूषित है। इस रिपोर्ट के मुताबिक यूनिसेफ के कार्यकारी
निदेशक एंथनी लेक ने दावा किया है कि हर साल पांच वर्ष से कम उम्र के 6 लाख बच्चों
की मौत वायु प्रदूषण से हो जाती है। प्रदूषणकारी तत्व न केवल बच्चों के फेफड़ों को
नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि उनके मस्तिष्क को भी स्थाई नुकसान पहुंचा सकते हैं। यूनिसेफ
ने सेटेलाइट तस्वीरों का हवाला देकर लगभग 2 अरब बच्चों के ऐसे दूषित क्षेत्रों में
रहने का दावा किया है, जहाँ बाहरी वातावरण की हवा विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय
मानकों से कहीं अधिक खराब है। रिपोर्ट में बताया गया है कि वाहनों से निकलने वाला
धुआँ, जीवाश्म
ईंधन, धूल, जली हुई सामग्री के अवशेष और
अन्य वायु व जलजनित प्रदूषक तत्वों के कारण हवा ज़हरीली होती है। ऐसे प्रदूषित
वातावरण में रहने को मजबूर सर्वाधिक बच्चे दक्षिण एशिया के हैं। इनकी संख्या लगभग
62 करोड़ है। इसके बाद अफ्रीका में 52 करोड़ और पश्चिम एशिया व प्रशांत क्षेत्र
में प्रदूषित इलाकों में रहने वाले बच्चों की संख्या 45 करोड़ है।
यूनिसेफ
के शोध में घरों के भीतर वायु प्रदूषण की भी पड़ताल की गई है। भोजन पकाने और गरम
करने के लिए कोयला, कैरोसिन और लकड़ी के जलाने से घर के भीतर यह प्रदूषण फैलता
है। इसके बच्चों के सम्पर्क में आने से निमोनिया और साँस सम्बंधी रोग पैदा होते
हैं। 5 साल से कम उम्र के 10 में से एक बच्चे की मौत की वजह यही प्रदूषण होता है।
घरेलू वायु प्रदूषण से बच्चे ज़्यादा प्रभावित होते हैं, क्योंकि इस समय उनके फेफड़े, मस्तिष्क और रोग-प्रतिरोधक
क्षमता विकासमान होते हैं और उनका श्वसन तंत्र कमजोर होता है।
दुनिया
अब तक यह मानकर चल रही है कि वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने में
पेड़-पौधे अहम भूमिका निभाते हैं, क्योंकि ये अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया में कार्बन
डाईऑक्साइड सोखते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। यह बात अपनी जगह सही है, लेकिन नए शोध से जो तथ्य
सामने आया है वह चौंकाने वाला है। दरअसल बढ़ते वायु प्रदूषण से पेड़-पौधों में
कार्बन सोखने की क्षमता घट रही है। वाहनों की अधिक आवाजाही वाले क्षेत्र में
कार्बन सोखने की पेड़ों की क्षमता 36.75 फीसदी रह गई है। यह हकीकत देहरादून स्थित
वन अनुसंधान संस्थान के ताज़ा अध्ययन से सामने आई है। जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण
प्रभाव आकलन के वैज्ञानिक डॉ हुकूम सिंह के मुताबिक वाहनों के प्रदूषण से
पेड़-पौधों पर पड़ रहे असर को जानने के लिए कार्बन सोखने की स्थिति का पता लगाया
गया है। इससे पता चला कि पौधों की पत्तियाँ अधिक प्रदूषण वाले क्षेत्रों में
प्रदूषणकारी पदार्थों से ढंक गई हैं। ऐसी
स्थिति में पत्तियों के छिद्र, जिनके माध्यम से पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं, बंद पाए गए। ऐसे में जंगलों
का घटना वायु प्रदूषण को और बढ़ाने का काम करेगा। दरअसल भारत को प्रदूषण मुक्त
बनाना है तो विकास का ग्रामों की ओर विकेंद्रीकरण करना ही होगा। (स्रोत फीचर्स)
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