पेड़ नहीं तो हम नहीं
-विशाल दुबे
संधारणीय
विकास (टिकाऊ विकास) का लक्ष्य तय हो जाने के बाद विश्वभर में बड़े-बड़े सम्मेलनों
से पर्यावरण संरक्षण के गीत गाए जाने लगे। ब्राजील के पहले पृथ्वी सम्मेलन से लेकर
मिलेनियम डेवलपमेंट गोल से होते हुए इन सम्मेलनों ने पेरिस समझौते तक का सफर तय
किया। ऐसी कई नीतियाँ निर्धारित की गईं जिनमें दावा किया गया कि अब विश्वभर के
विकासक्रम में आने वाली पीढ़ी के बारे में भी ध्यान रखा जाएगा। कार्बन उत्सर्जन पर
लगाम लगाई जाएगी। पेड़ लगाए जाएँगे। विश्व को टिकाऊ ऊर्जा की ओर ले जाया जाएगा। ये
सब वादे मंच पर पैदा होते हैं और वहीं दफन हो हो जाते हैं। इन्हें भी वैश्विक
राजनीति का हथियार बना लिया जाता है।
हाल
ही में जारी नेचर जर्नल की रिपोर्ट पर नज़र फिराएँ तो आपको अन्दाजा लग जाएगा कि हम जिस
टिकाऊ विकास की बात करते हैं वो सब निरर्थक और निष्फल है। रिपोर्ट का दावा है कि
हम हर साल लगभग 15.3 अरब पेड़ खो रहे हैं। प्रतिवर्ष एक व्यक्ति पर सन्निकट दो
पौधे का नुकसान हो रहा है। इन सबके मुकाबले विश्वभर में मात्र 5 अरब पेड़ लगाए
जाते हैं। सीधे तौर पर हमें 10 अरब पेड़ों का नुकसान हर साल उठाना पड़ता है।
हाल
ही में नासा ने साउथ एशियन देशों की एक सैटेलाइट तस्वीर जारी की, जिसमें भारत समेत पाकिस्तान के कई हिस्सों पर साफ-साफ
जहरीली धुन्ध का नजारा देखा जा सकता है। दिल्ली में प्रदूषण का कहर किसी से छिपा
नहीं है। धुआँसे की ए स्थिति आगे आने वाली पीढ़ी के लिए बेहद खतरनाक है।
उसी
रिपोर्ट में भारत के हिस्से के आँकड़ों पर नज़र डालें तो और भी हैरान कर देने वाले तथ्य सामने
आते हैं। विश्व में प्रति व्यक्ति पेड़ों की संख्या 422 है जबकि भारत के एक
व्यक्ति के हिस्से मात्र 8 पेड़ नसीब होते हैं। 35 अरब पेड़ों वाला भारत कुल पौधों
की संख्या के मामले में बहुत नीचे है। सबसे ज्यादा 641 अरब पेड़ों के साथ रशिया
है। कनाडा में 318 अरब तो ब्राजील में 301 अरब पेड़ हैं। वहीं अमेरिका 228 अरब
पेड़ों के साथ चौथे पायदान पर काबिज है। भारत में स्थिति भयावह है। यहाँ तमाम
कार्यक्रमों में वृक्षारोपण का सन्देश दिया जाता है। बड़े पैमाने पर पेड़ लगाए
जाते हैं, लेकिन उनके रख-रखाव की ओर कोई ध्यान नहीं देता।
पिछले साल उत्तर प्रदेश में अखिलेश सरकार ने एक योजना के तहत 24 घंटे में पाँच
करोड़ पेड़ लगाये थे। कहा गया था कि इन पेड़ों का रख-रखाव सैटेलाइट सिस्टम से किया
जाएगा, लेकिन सारी बातें हवा-हवाई निकलीं।
भारतीय
वन सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के समग्र वन क्षेत्र का एक चौथाई
हिस्सा उत्तरपूर्वी इलाकों में मौजूद है। पिछले मूल्यांकन की तुलना में देखें तो
यहाँ के 628 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में कमी आई है। भारत के कुल क्षेत्रफल का
24.16 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र में आता है, जो लगभग 749245 वर्ग
किलोमीटर में फैला हुआ है और धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है।
कम
होता वन क्षेत्र पर्यावरण के लिए कैंसर की तरह है। जिसका नजराना हर साल हम दिल्ली
में देख ही रहे हैं। यहाँ कार्बन डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनो ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, फ्लोराइड, धूल आदि की मात्रा में
वृद्धि हुई है। पर्यावरण में इन प्रदूषकों की मात्रा बढ़ने से मानव जीवन गम्भीर
रूप से दुष्प्रभावित होता है। इस समस्या का समाधान करने में पेड़ बहुत उपयोगी हैं।
ये पर्यावरण प्रदूषण रूपी विष का पान कर मानव जाति को दीर्घजीवी बनाने में
महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं। पेड़-पौधे वायु को छानते हैं और इस प्रकार टनों धूल अपने ऊपर
रोककर उसे मनुष्यों की श्वास नलिकाओं में जाने या आँखों में पड़ने की सम्भावना कम
कर देते हैं। पेड़ वायुमण्डल में कार्बन मोनोऑक्साइ़ड व अन्य हानिकारक गैसों की
सान्द्रता को कम कर पर्यावरण को शुद्ध करते हैं। मेडिकल जर्नल द लांसेट में
प्रकाशित एक लेख के अनुसार 2015 में प्रदूषण से होने वाली दुनिया भर की 90 लाख
मौतों में भारत में अकेले 28 प्रतिशत लोगों को जान गँवानी पड़ी। प्रदूषण से हो रही
मौतों के मामले में 188 देशों की सूची में भारत पाँचवें पायदान पर आता है।
सच
कहें तो ये पीढ़ी जैसे-तैसे गन्दगी में अपना जीवनयापन कर ले, पर आने वाली जनरेशन को अगर साफ हवा मुहैया करानी होगी। उनके
रख-रखाव का जिम्मा भी हमें ही लेना पड़ेगा। मैं तो कहता हूँ कि मूर्ति पूजा छोड़
पेड़ों की उपासना शुरू होनी चाहिए, क्योंकि मूर्तियाँ ऑक्सीजन
नहीं छोड़तीं।(स्रोत- प्रयुक्ति)
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