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Mar 21, 2011

उदन्ती.com-मार्च 2011

वर्ष 1, अंक 7, मार्च 2011
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रंग में वह जादू है जो रंगने वाले, भीगने वाले और देखने वाले तीनों के मन को विभोर कर देता है।
- मुक्ता
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अनकही: यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते...?
महिला विशेष: बेटियां लाएंगी उजियारा - श्रीमती हर्षा पौराणिक
महिला विशेष: हाऊस वाईफ के अस्तित्व पर उठते सवाल? - वन्दना गुप्ता
महिला विशेष: एक पार्क केवल महिलाओं का
महिला विशेष: बेटी की कमाई के हकदार? - रेखा श्रीवास्तव
महिला विशेष: साहसी वैज्ञानिक महिलाएं - अजिता मेनन
22 मार्च विश्व जलदिवसः जल प्रदूषण: नदियों को बचाना होगा - अम्बरीष श्रीवास्तव
शंख का पूजा में महत्व
समाजः छत के नीचे 181 सदस्य
पर्व-संस्कृति: सांस्कृतिक विरासत का लोक स्वरूप - यशवन्त कोठारी
होली के तीन हाइकू : -डॉ. सुधा गुप्ता, रेखा राजवंशी, डॉ. रमा द्विवेदी
सेहत: भ्रांतियों के भंवर में आयुर्वेद - डॉ. विनोद बैरागी
जन्म शताब्दी वर्ष: फैज अहमद 'फैज' निखर गए हैं गुलाब ... - मनीष कुमार
कविता: भ्रष्टाचार- एक पोर्ट्रेट - राम अवतार सचान
कहानी: ठेस - फणीश्वरनाथ रेणु
लघु कथाएं: 1. समझदारी 2 . अन्तरद्वंद - जमील रिज़वी
किताबें: एक दुर्लभ व्यक्तित्व ....- परदेशी राम वर्मा
शोध: शरीर को जरूरी ईंधन देता है पालक
वाह भई वाह
आपके पत्र/ मेल बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया

यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते...?

मानव के सपनों को आदर्श कहते हैं। ये आदर्श सभी धर्मशास्त्रों में, धर्म गुरुओं और नेताओं के प्रवचनों, भाषणों और पोस्टरों में प्रचुरता से पाए जाते हैं। ये पढऩे और सुनने में बहुत सुंदर लगते हैं। परंतु सपने तो फिर सपने ही होते हैं। अधिकांश सपनों का यथार्थ से- असली जिंदगी में- कुछ लेना देना नहीं होता है। आदर्श की श्रेणी में आने वाले सपनों का तो वास्तविक जीवन से कोई संबंध होता ही नहीं। ऐसा ही हमारे समाज का अत्यंत लोकप्रिय आदर्श वाक्य है 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते...'। जिसका जमीनी हकीकत से कभी कोई वास्ता नहीं रहा है। जब इस आदर्श को रचा गया तब द्रौपदी का चीरहरण राजसभा में होता था और आज भी हालत बहुत कुछ वैसे ही हैं।
8 मार्च को प्रत्येक वर्ष पूरे विश्व में संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में महिला दिवस मनाया जाता है। इस दिन सरकारी आयोजनों में महिलाओं की सामाजिक प्रगति के बारे में बढ़- चढ़ के बातें की जाती हंै। सुनहरे ख्वाब दिखाए जाते हंै। अर्थात महिलाओं की समाज में वास्तविक स्थिति से कोई भी संबंध न रखने वाली बातें। प्रमाण चाहिए? तो लीजिए। इसी 8 मार्च को देश की राजधानी दिल्ली में सुबह 10 बजे एक 20 वर्षीय छात्रा की उसी के कालेज के सामने भीड़ भरे रास्ते में गोली मारकर हत्या कर दी गई। हत्यारा सैकड़ों व्यक्तियों के बीच आराम से टहलता हुआ चला गया और भीड़ तमाशा देखती रही। किसी ने उसको रोकने या पकडऩे की हिम्मत नहीं की। 8 मार्च को ही शाम को दिल्ली के एक संभ्रांत आवासीय कालोनी में 79 वर्षीया वृद्धा की उसके घर के अंदर गला घोंटकर हत्या कर दी गई। उसी दिन देश के अन्य नगरों से भी स्त्रियों के साथ बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों और अन्य प्रकार के शारीरिक उत्पीडऩ तथा यौन अपराधों के अनगिनत समाचार आए।
दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री से जब 8 मार्च को छात्रा की दिन दहाड़े हत्या के बारे में सवाल पूछा गया कि पुलिस स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने में इतनी बेरुखी क्यों दिखाती है। उनका जवाब था कि ये जिम्मेदारी तो जनता की है। अर्थात उनका इशारा था कि स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करना पुलिस का काम नहीं है। ठीक भी है क्योंकि सरकार के मुताबिक पुलिस की सर्वोच्च प्राथमिकता मंत्रियों और नेताओं (जिनमें बड़ी संख्या में भ्रष्ट अपराधी होते हैं) को सुरक्षा प्रदान करना है।
आज देश में राष्ट्रपति, शासक राजनीतिक दल की अध्यक्ष, लोकसभा की अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष तथा देश के सबसे बड़े प्रदेश, उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री महिलाएं ही हैं। परंतु ये तो आसमान में चमकते सितारों की तरह हैं जिनका जमीनी हकीकत से कोई संबंध नहीं है। लाखों गांवों और हजारों कस्बों और छोटे शहरों में बसने वाले विशाल भारत में पुरुष प्रभुत्व का बोलबाला है। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति बोझ ढोने वाले मूक पशु जैसी ही है। देश की राजधानी में महिलाएं बेहद असुरक्षित महसूस करती हंै। रात की कौन कहे दिन में भी स्त्रियों के विरुद्ध हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर अपराधों के समाचारों से अखबार और टीवी के समाचार बुलेटिन नित्य भरे रहते हैं। वास्तव में तो स्त्रियों की धड़ल्ले से हत्या, जन्म से पहले ही होने लगती है। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली जैसे देश के समृद्ध क्षेत्र में कन्या भ्रूण हत्या बेधड़क होती है। इसी क्षेत्र में परिवार की इज्जत के नाम पर स्वतंत्र निर्णय लेने की जुर्रत करने वाली युवतियों की हत्या उन्हीं के पिता या भाई के हाथों होना आम बात है।
कटु यथार्थ ये है कि पुरुष प्रभुत्व में मजबूती से पकड़े हुए विशाल भारतीय समाज में मानवाधिकारों के पैमाने पर स्त्रियों की स्थिति अभी भी अत्यंत दयनीय है।
क्रोधित प्रकृति
11 मार्च को मानव द्वारा बेरहम शोषण से गंभीर रूप से आहत धरती माता ने जरा सी करवट ली कि विश्व के तीन सबसे समृद्ध तथा तकनीकी और औद्योगिक प्रगति में उच्चतम स्तर पर पहुंचे हुए देश जापान को इतिहास में सबसे भयानक भूकंप और सुनामी का सम्मिलित महाविनाशकारी प्रकोप झेलना पड़ा। पलक झपकते ही अत्याधुनिक तकनीक के बलबूते पर मकानों में स्वर्ग जैसी सुविधाओं से युक्त कर देने का दंभ रखने वाले जापान में अनेक घनी आबादी वाले शहर और गांव नक्शे से लुप्त हो गए । 30 से 60 फुट ऊंची सुनामी की लहरों पर धू- धू जलते मकान, कारें, बसें, विशालकाय ट्रक, टे्रन के डिब्बे और पानी के जहाज माचिस की खाली डिबियों की तरह तैरते हुए अपने स्थान से बीसों किलोमीटर दूर खेतों में कूड़ा- करकट के ढेर बन गए। हजारों स्त्री पुरुष मारे गए, हजारों गायब हो गए और लाखों बेघर भटक रहे हैं। इस आपदा के प्रारंभ होने के कुछ घंटों में ही टीवी पर विनाशलीला के जो चित्र आ रहे हैं वे कठोर से कठोर हृदय वाले को भी दहला देने वाले हंै। बीतने वाले प्रत्येक घंटे के साथ इस अभूतपूर्व आपदा की विकरालता और विशालता सुरसा के बदन के समान बढ़ती जा रही है और इसकी भयावहता का चित्र उजागर होने में कई दिन लगेंगे।
बड़ी चिंता की बात तो यह है कि जो कुछ हुआ है उसके गर्भ में से उससे ज्यादा अकल्पनीय भयानक संकट किसी भी क्षण प्रकट हो सकता है। जापान में आणविक ऊर्जा से बिजली बनाने वाले 54 बिजली घर हैं जिसमें से 11 आणविक बिजलीघर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गए हैं। इनमें विस्फोट होने लगे हंै। जिनसे होने वाले विकिरण (रेडियेशन) के खतरे के कारण इन बिजली घरों के आसपास 30 किमी के घेरे से मनुष्यों को घर- बार छोड़कर बाहर निकाल दिया जाएगा। इनसे संभावित खतरों की कल्पना मात्र से पूरे विश्व में विशेषतया अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे विकसित देशों के वैज्ञानिकों और सरकारों की नींद हराम हो गई है।
इस अभूतपूर्व भयानक संकट की घड़ी में जहां एक ओर हमारी पूरी सहानुभूति जापान के नागरिकों के साथ है वहीं दूसरी ओर हमें याद आती है कवि प्रदीप की छह दशक पूर्व फिल्म जागृति के लिए लिखे गीत की भविष्यवाणी। जिससे सिद्ध होता है कि कवि वास्तव में भविष्यदृष्टा होते हैं। कवि प्रदीप ने सरल शब्दों में चेतावनी दी थी-
एटम बमों के जोर पर ऐंठी है ये दुनिया
बारूद के ढेर पर बैठी है ये दुनिया
हर कदम उठाना जरा देखभाल के...
आणविक ऊर्जा के रूप में मानव ने वास्तव में एक भस्मासुर पैदा कर दिया है। ये भस्मासुर क्या कर सकता है यह भी दिखाई पडऩे लगा है। क्या हमारे वैज्ञानिक और सरकार इससे चेतेंगे।

-डॉ.रत्ना वर्मा

महिला- विशेष

बेटियां लाएँगी उजियारा
- हर्षा पौराणिक
फूलों सी खिली- खिली, तितलियों सी चहकती बेटियां परिवार में, समाज में खुशियां लाती हैं। फि र भी आज अधिकांश लोग बेटियों का जन्म पसंद नहीं करते। पुत्रवती माताएं बड़े ठाठ से बताती हैं कि हमारे घर में तो बेटे ही बेटे हैं और बेटियों वाली माताओं से कुछ सहानुभूति सी रखती हैं।
कन्या लक्ष्मी का रूप होती हैं, देवी का रूप होती हैं, ये सब बातें अब गुजरे जमाने की हो गयी हैं। लड़कियां आज धरती से आकाश तक नाप लेती हैं, हर वो काम करती हैं, जिसमें कभी पुरूषों का वर्चस्व था। फिर भी लड़कियों से आज भी अधिकांश परिवारों में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। किसी भी परीक्षा के परिणामों पर नजर डालें तो लड़कियां हमेशा अव्वल रहती हैं। फूलों सी खिली- खिली, तितलियों सी चहकती बेटियां परिवार में, समाज में खुशियां लाती हैं। फिर भी आज अधिकांश लोग बेटियों का जन्म पसंद नहीं करते। पुत्रवती माताएं बड़े ठाठ से बताती हैं कि हमारे घर में तो बेटे ही बेटे हैं और बेटियों वाली माताओं से कुछ सहानुभूति सी रखती हैं।
ईश्वर ने प्रकृति की निरंतरता के लिए नर- नारी दोनों की रचना की। लड़कियों को इस संसार मे पैदा न होने देना ईश्वर के विधान के खिलाफ जाना है। अधिकांश व्यक्ति न सिर्फ पुत्र की चाह रखते हैं बल्कि उसके लिए तरह- तरह के उपाय भी करते हैं। लिंग निर्धारण परीक्षण करवाते हैं, कन्या भ्रूण को बेरहमी से मार देते हैं और घर जाकर देवी मां की बड़े मन से पूजा भी करते हैं।
मां क्या इन्हें माफ कर देगी
छत्तीसगढ़ में 0 से 6 आयु वर्ग में लिंगानुपात देश में सर्वाधिक बड़ी संख्या में हो रहे कन्या भू्रण हत्या के कारण देश में लिंग अनुपात महिलाओं के खिलाफ जा रहा है। वर्ष 1901 की जनगणना में यह अनुपात 972 था जो 1991 में घट कर 927 हो गया था। वर्ष 2001 की जनगणना में यह अनुपात 933 था। केरल में सर्वाधिक लिंगानुपात 1058 है जबकि छत्तीसगढ़ इस मामले में दूसरे स्थान पर है। यहां लिंगानुपात 989 है। प्रदेश के आदिवासियों में लिंगानुपात 1013 है जो आदिवासी जनसंख्या के राष्ट्रीय लिंगानुपात 1000 से अधिक है। यह छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज के प्रगतिशील होने का परिचायक है।
शून्य से छह आयु वर्ग के लिंग अनुपात का यदि विश्लेषण करें तो पूरे देश में वर्ष 2001 में यह 927 प्रति हजार था जबकि 1991 में 945 था। छत्तीसगढ़ में शून्य से छह आयु वर्ग में लिंगानुपात राज्यों में सर्वाधिक है। प्रदेश में बालिकाओं का अनुपात 982 प्रति हजार बालक है। केवल दो यूनियन टेरीटरी दादरा नगर हवेली और लक्षद्वीप में यह अनुपात क्रमश: 1003 और 999 है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ़ में बच्चियों के प्रति जन्म के पूर्व भेदभाव नहीं बरता जा रहा है। उन्हे मां की कोख से जन्म लेने दिया जा रहा है।
पंजाब, हरियाणा और अन्य तथाकथित प्रगतिशील राज्य कन्या भ्रूण की हत्या के मामले में काफी आगे हैं। प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण अधिनियम का धड़ल्ले से मखौल उड़ाते हुए इन राज्यों के क्लिनिक जनता से भ्रूण लिंग पहचान के लिए भारी भरकम फीस वसूलते हैं। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 80 प्रतिशत जिलों में बालिकाओं की संख्या बालकों की अपेक्षा कम है। इसके अनेक कारण है जिनमें बाल विवाह, शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर और कन्या भ्रूण हत्या प्रमुख हैं।
कन्या भ्रूण की हत्या के लिए समाज की मानसिकता मुख्यत: दोषी है जो आज भी लड़के के सहारे वैतरणी पार करने और लड़का बुढ़ापे का सहारा होता है, जैसी सोच रखते हैं, जबकि होता इसका उल्टा होता है। वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद की इस भाग- दौड़ की जिंदगी में व्यक्ति को अपने कैरियर और न्यूक्लियर परिवार की ज्यादा चिंता रहती है न कि बुढ़ापे के बोझ से थके हुए माता पिता की। ऐसे मामलों में लड़कियां मां- बाप के प्रति अधिक संवेदनशील रहती हैं और बूढ़े माता- पिता की देखभाल करती हैं।
पूरे विश्व में महिलाओं, बेटियों के प्रति भेदभाव बरता जा रहा है। यह संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट से साफ पता चलता है जिसके अनुसार महिलाएं विश्व का 66 प्रतिशत से अधिक कार्य करती हैं। पचास प्रतिशत से अधिक भोजन का उत्पादन करती हैं किंतु विडंबना यह है कि महिलाएं कुल आय का 10 प्रतिशत ही कमा पाती हैं और एक प्रतिशत संपत्ति की ही मालिक होती हैं। महिलाओं को प्रत्येक क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिम्मेदारियां दी जाती हैं लेकिन निर्णय लेने के अधिकार नहीं दिए जाते। जब तक समाज में लिंग भेद नहीं मिटेगा तब तक समाज का, देश का समग्र विकास नहीं हो पाएगा। आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ हद तक यह मानना पड़ेगा कि समाज में कुछ सुखद बदलाव भी आ रहे हैं। पहले कन्याओं को गोद नहीं लिया जाता था। जिला प्रशासन के पास केवल लड़कों के लिए ही आवेदन आते थे लेकिन अब लड़कियों को भी गोद लिया जाता है। समाज के नजरिए में लड़कियों के प्रति कुछ परिवर्तन आ रहा है। समाज के हर व्यक्ति को इस दिशा में जागरूक होना होगा और लड़के लड़की के भेदभाव को मिटाना होगा। महिलाओं के प्रति हिंसा खत्म करनी होगी। महिलाओं से भेदभाव करने वाली कुप्रथाएं बाल विवाह, टोनही प्रथा आदि समाप्त करनी होगी तब ही एक स्वस्थ समाज और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा। बेटियों को लक्ष्मी भले ही न मानें पर अपनी और समाज की लाड़ली ही मानें तो यही बेटियां बड़ी होकर आपके आंगन में, समाज में उजियारा लाएंगी।
पता- एफ 11, शांति नगर, सिंचाई कालोनी, रायपुर (छत्तीसगढ़)

एक पार्क केवल महिलाओं का


इस पार्क को थानटेडोम नाम दिया गया है, जिसका अर्थ 'साहस' होता है। पार्क में लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर होंगे, जहाँ महिलाएँ विभिन्न विषयों पर आधारित शोध कर सकती हैं।
ऐंटरटेनमेंट और आईटी पार्क तो आपने कई देखे होंगे, लेकिन क्या कभी किसी जेंडर पार्क के बारे में आपने सुना है? नहीं ना तो अब सुन लीजिए केरल राज्य में इस तरह का एक पार्क बनाने की योजना बनाई जा रही है।
महिला सशक्तीकरण कार्यक्रम के अंतर्गत केरल सरकार ने कोझिकोड जिले में जेंडर पार्क बनाने की योजना बनाई है, जहाँ महिलाओं के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाएँगे। जेंडर पार्क में महिलाओं के लिए रिसर्च प्रोग्राम, जागरूकता शिविर, सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे आयोजन होंगे, जिनमें पुरुषों की सहायता के बिना महिलाएँ आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ेंगी।
इसमें 100 महिलाओं के रुकने की व्यवस्था वाला गेस्ट हाउस भी होगा, जिससे बड़े कार्यक्रम आयोजित करने में कोई परेशानी न हो। इस पार्क को थानटेडोम नाम दिया गया है, जिसका अर्थ 'साहस' होता है। पार्क में लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर होंगे, जहाँ महिलाएँ विभिन्न विषयों पर आधारित शोध कर सकती हैं। इस पार्क में गैर सरकारी संस्थाएँ भी सहयोग करेंगी।
इस योजना पर अमल करने के लिए राज्य सरकार ने 10 करोड़ रुपए का बजट मंजूर किया है। केरल के वित्तमंत्री टीएम थॉमस इसाक इस योजना में खास दिलचस्पी ले रहे हैं और उनके विभाग ने पार्क बनाने के लिए कुन्नामंगलम के पास छह एकड़ जमीन भी तय कर ली है।

महिला- विशेष

हाऊस  वाइफ के अस्तित्व पर उठते सवाल?
- वन्दना गुप्ता
एक स्वस्थ और खुशहाल समाज इन्हीं हाऊस वाईफ की देन है। आज बच्चों की परवरिश और घर की देखभाल करके हाऊस वाईफ अपना जो योगदान दे रही है वह किसी भी वर्किंग वूमैन से कम नहीं आंकी जा सकती है...
क्या हाऊस वाईफ सिर्फ बच्चे पैदा करने और घर सँभालने के लिए होती हैं ?
क्या हाऊस वाईफ का परिवार, समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य हैं ?
यदि नहीं हैं तो क्यों ये आजकल के लाइफ इंश्योरेंस, बैंक या म्युच्यूवल फंड वाले फोन पर पूछते हैं कि आप हाऊस वाईफ हैं या वर्किंग वुमैन? आर्थिक निर्णय तो सर लेते होंगे?
इस तरह के कई प्रश्न करके क्या ये लोग हाऊस वाईफ के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा नहीं कर रहे हैं?
आखिर क्यों आज इतने पढ़े लिखे होकर भी ऐसी अनपढ़ों जैसी बात पूछी जाती हैं और सबसे मजेदार बात तो ये है कि इस तरह के प्रश्न पूछने वाली महिला ही होती है।
ऐसे सवाल पूछते समय क्यूँ उसे शर्म नहीं आती। वह क्यों नहीं सोच पाती कि महिलाएं वर्किंग हों या हाऊस वाईफ उनका योगदान देश के विकास में एक पुरुष से किसी भी तरह कमतर नहीं है। जबकि आज सरकार ने भी घरेलू महिलाओं के योगदान को सकल घरेलू उत्पाद में शामिल करने का निर्णय लिया है...
अपने त्याग और बलिदान से, प्रेम और सहयोग से हाउस वाईफ इतना बड़ा योगदान करती है यह बात ये पढ़े- लिखे अनपढ़ क्यों नहीं समझ पाते?
जबकि हम सब जानते हैं कि एक स्वस्थ और खुशहाल समाज इन्हीं हाऊस वाईफ की देन है। आज बच्चों की परवरिश और घर की देखभाल करके हाऊस वाईफ अपना जो योगदान दे रही है वह किसी भी वर्किंग वूमैन से कम नहीं आंकी जा सकती है... आखिर इतनी सी बात भी इन बड़ी- बड़ी कंपनियों को समझ नहीं आती ?
पति और पत्नी दोनों शादी के बाद एक इकाई की तरह होते हैं तो फिर सिर्फ आर्थिक निर्णय लेने की स्थिति में एक को ही महत्व क्यूँ दिया जाता है? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वह कमाता है? ऐसा कई बार होता है कि कोई मुश्किल आये और पति न हो तो क्या पत्नी उसके इंतजार में आर्थिक निर्णय न ले? क्या पत्नी की हैसियत घर की चारदीवारी तक ही बंद है?
जबकि हम देखते हैं कि कितने ही घरों में आज और पहले भी आर्थिक निर्णय महिलाएं ही लेती हैं... पति तो बस पैसा कमाकर लाते हैं और उनके हाथ में रख देते हैं... उसके बाद वो जाने... कि कैसे उस पैसे का इस्तेमाल करना है।
जब पति- पत्नी को एक दूसरे पर इतना भरोसा होता है तो फिर ये कौन होते हैं एक स्वच्छ और मजबूत रिश्ते में दरार डालने वाले...
कुछ लोगों की मानसिकता क्या दर्शा रही है कि हम आज भी उस युग में जी रहे हैं जहाँ पत्नी सिर्फ प्रयोग की वस्तु थी... मानती हूँ आज भी काफी हद तक औरतों की जिन्दगी में बदलाव नहीं आया है तो उसके लिए सिर्फ हाऊस वाईफ कहना कहाँ तक उचित होगा जबकि वर्किंग वुमैन की स्थिति भी अपने परिवार में आर्थिक निर्णय लेने की नहीं होती... उन्हें सिर्फ कमाने की इजाजत होती है। खर्च करने या आर्थिक निर्णय लेने का अधिकार वे नहीं रखतीं। ...तो फिर क्या अंतर रह गया दोनों की स्थिति में?
फिर ऐसा प्रश्न पूछना कहाँ तक जायज है कि निर्णय कौन लेता है? और ऐसा प्रश्न क्या घरेलू महिलाओं के अस्तित्व और उनके मान सम्मान पर गहरा प्रहार नहीं है?
क्या ऐसी कम्पनियों पर लगाम नहीं लगाया जाना चाहिए? उन्हें इससे क्या मतलब कि निर्णय कौन लेता है... वो सिर्फ अपना प्रयोजन बताएं । यह उनके परिवार की समस्या है वे निर्णय चाहे मिलकर लें या अकेले... फिर क्यूँ वे ऐसे प्रश्न पूछकर घरेलू महिलाओं के अस्तित्व को सूली पर लटकाते हैं? इस एक छोटे से सवाल को आधार बनाकर मैं आप सबसे भी पूछना चाहती हूं कि क्या आप भी ऐसा ही सोचते हैं -
- कि घरेलू महिलाएं निर्णय लेने में सक्षम नहीं होतीं?
- कि उन्हें अपने घर में दायरे तक ही सीमित रहना चाहिए?
- कि आर्थिक निर्णय लेना उनके बूते की बात नहीं है ?
और यह भी कि ये कम्पनियाँ जो कर रही हैं क्या सही कर रही हैं?
मेरे बारे में ...
मैं एक गृहिणी हूँ। मुझे पढऩे- लिखने का शौक है तथा झूठ से मुझे सख्त नफरत है। मैं जो भी महसूस करती हूँ, निर्भयता से उसे लिखती हूँ। अपनी प्रशंसा करना मुझे आता नहीं इसलिए मुझे अपने बारे में सभी मित्रों की टिप्पणियों पर कोई एतराज भी नहीं होता है।

महिला- विशेष

बेटी की कमाई के हकदार?
- रेखा श्रीवास्तव
बेटे को आपने पढ़ाया तो उसकी कमाई पर आपका पूरा- पूरा हक बनाता है और बेटी को पढ़ाया तो उसकी कमाई पर आपका हक नहीं है। आखिर क्यों?
भारतीय समाज की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बेटी विदा होकर पति के घर ही जाती है। उसके माता- पिता उसके लालन- पालन शिक्षा- दीक्षा में उतना ही खर्च करते हैं जितने की लड़के की शिक्षा में।
शादी के बाद बेटी परायी हो जाती हैं- ये हमारी मानसिक अवधारणा है और बहू हमारी हो जाती है। हमारी आर्थिक सोच भी यही रहती है कि कमाने वाली बहू आएगी तो घर में दोहरी कमाई आएगी और उनका जीवन स्तर अच्छा रहेगा। होना भी ऐसा ही चाहिए और शायद माता- पिता बेटी को इसीलिए आत्मनिर्भर होने वाली शिक्षा दिलाने का प्रयास करते हैं। वे अपनी बेटी से कोई आशा भी नहीं रखते।
लेकिन कभी- कभी इस तरह के मिलने वाले तानें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देते है-
'तुम्हारे बेटा तो कोई है नहीं तो क्या बेटी के घर की रोटियां तोड़ोगी?'
'तुमने जीवन में कुछ सोचा ही नहीं, सारा कुछ घर के लिए लुटा दिया, अब बुढ़ापे में कौन तुमको पेंशन मिलनी है कि गुजारा कर लोगे।'
'मैं तो सोचता हूँ कि ऐसे लोगों का क्या होगा, जीवन भर भाग- भाग कर कमाया और बेटी को पढ़ाया अब कहाँ से शादी करेंगे और कैसे कटेगा इनका बुढ़ापा।'
इस तरह के बहुत सारे प्रश्न उठते हैं, जब चार लोग बैठ कर सामाजिकता पर बात करते हैं।
कुछ ऐसी ही एक कहानी सुनिए- मेहनतकश माता- पिता की एक बेटी थी। माता- पिता अपने पर ही ताना कसते कि कौन सा हमारे बेटा बैठा है जो हमें कमाकर खिलायेगा।
तब बेटी शादी का प्रस्ताव लाने वालों से पहला सवाल यही करती कि क्या मेरी शादी के बाद मैं अपनी कमाई से इतना पैसा माता- पिता को दे सकूंगी ताकि वे आराम से रह सकें ?
लड़के वालों के लिए यह एक अजीब सा प्रश्न होता और वे उसके निर्णय से सहमत नहीं होते क्योंकि उनके अनुसार तो शादी के बाद उसकी पूरी कमाई के हकदार लड़के वाले ही होते हैं न।
एक सवाल मैं उन सभी लोगों से पूछती हूँ कि अगर माता- पिता ने अपनी बेटी को इस काबिल बना दिया है कि वह कमा कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके तो फिर शादी के बाद वह अपने माता- पिता का भरण पोषण का अधिकार क्यों नहीं रख सकती? ऐसे मामले में ससुराल वालों को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। आखिर जिस शिक्षा के बल पर वह आत्मनिर्भर बन पाई है वह उसके माता पिता ने ही उसे दिलाई है न? फिर उनके आर्थिक रूप से कमजोर होने पर या उनके बुढ़ापे में वह अपनी कमाई का हिस्सा माता- पिता को क्यों नहीं दे सकती?
बेटे को आपने पढ़ाया तो उसकी कमाई पर आपका पूरा- पूरा हक बनाता है और बेटी को पढ़ाया तो उसकी कमाई पर आपका हक नहीं है।
आखिर क्यों?
हम अपनी इस मानसिकता से कब मुक्त होंगे कि बेटी विवाह होने तक ही माता पिता की देखभाल कर सकती है और उसके बाद वह पराई हो जाती है।
मेरे बारे में ...
मैं आई आई टी, कानपूर में मशीन अनुवाद प्रोजेक्ट में कार्य कर रही हूँ। इस दिशा में हिंदी के लिए किये जा रहे प्रयासों से वर्षों से जुड़ी हूँ। लेखन मेरा सबसे प्रिय और पुरानी आदत है। आदर्श और सिद्धांत मुझे सबसे मूल्यवान लगते हैं, इनके साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जा सकता है। सच को लिखने में कलम संकोच नहीं करती।
पता
: 71 , पी. डब्ल्यू. डी हाऊसिंग सोसायटी, ज्ञान ज्योति विद्यामंदिर के पास, सहकार नगर,
रावतपुर गाँव, कानपुर - 208019
मो. 09307043451/ 09936421567 ईमेल: rekhasriva@gmail.com

महिला- विशेष

साहसी वैज्ञानिक महिलाएँ
- अजिता मेनन
42 वर्षीय, संघमित्रा बंधोपाध्याय जिन्होंने हाल ही में शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, 2010 जीता है, माइक्रो-आर.एन.ए. यानि अणुओं को ऐसा समूह जो कैंसर जैसी विभिन्न बीमारियों का कारण है - खोजने और उसके कार्य का विश्लेषण करने के लिए कम्प्यूर विज्ञान पद्धतियों को इस्तेमाल करती हैं।
30 वर्षीय, वैज्ञानिक, पौशाली बाल, जो सामाजिक विज्ञान में एमए और मारक विज्ञान में पीएचडी हैं, जब उनके पुरुष सहकर्मी अपना सामान बांध बंगाल के पश्चिमी मिदिनापुर में माओवादी इलाके में जाने को तैयार हुए, तब जीवन में पहली बार उन्हें महिला होने की मार खानी पड़ी। पौशाली कहती हैं, 'उस जगह को महिला वैज्ञानिक के लम्बे समय तक रहने के लिए सुरक्षित नहीं समझा जाता, जबकि पुरुष सहकर्मी को अवसर मिल जाता है। यह माना गया कि मैं काम करने में पूरी तरह सक्षम थी, लेकिन कुछ परिस्थितियों में एक महिला को सत्ता द्वारा जोखिम के तौर पर देखा जाता है'। पौशाली की रिसर्च यौन कर्मियों, प्रवासी कामगारों, सुई से नशा करने वालों और सड़क पर रहने वाले बच्चों में एच.आई.वी./एड्स पर है। वे कहती हैं, 'विज्ञान इतना अनुत्पादक नहीं है जितना कि उसे समझा जाता है। उदाहरण के लिए मैं केवल ऐसी बातों पर फोकस नहीं करती कि कैसे एक ही सुई के प्रयोग से एच.आई.वी. फैलता है, बल्कि सड़क पर रहने वाले जो बच्चे नशा करते हैं उनके व्यवहार का गहराई से अध्ययन भी करती हूं।'
पौशाली जो पिछले 8 सालों से नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कोलेरा एण्ड ऐन्ट्रिक डिजीज (एन.आई.सी.ई.डी.), कोलकाता में रिसर्च वैज्ञानिक के तौर पर काम कर रही हैं कहती हैं कि बस कुछ छोटे- मोटे सुरक्षा सरोकारों के अलावा महिला होना उनके कैरियर के रास्ते में कभी आड़े नहीं आया।
यह लगातार साफ होता जा रहा है कि अंतत: महिला वैज्ञानिक अभी तक के पुरुष प्रधान क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। प्रतिष्ठित शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार 2010 में नौ लोगों को मिला जिसमें से तीन महिलाएं थीं। यह देखते हुए कि इन पुरस्कारों के 52 वर्ष के इतिहास में, 463 वैज्ञानिकों में से केवल 14 महिलाओं ने इसे जीता है, इस वर्ष की सूची स्पष्ट रूप से संकेत देती है कि अब महिला वैज्ञानिक अपने कार्य के लिए अधिक पहचानी जा रही हैं। रुचिकर यह है कि युवा महिलाएं अपने उत्कृष्ट अनुसंधान से हलचल पैदा कर रही हैं - वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सी.आई.एस.आर.) द्वारा संस्थापित शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार 45 वर्ष के कम आयु के वैज्ञानिकों को दिया जाता है। हालांकि आमतौर पर यह पुरस्कार सात क्षेत्रों में दिया जाता है, इस वर्ष उत्कृष्ट कार्य केवल पांच जीव विज्ञान, इंजीनियरी विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और शारीरिक विज्ञान में निर्धारित किया गया।
कोलकाता के भारतीय सांख्यिकीय संस्थान में एक प्रोफेसर, कम्प्यूटर वैज्ञानिक संघमित्रा बंधोपाध्याय इस वर्ष पुरस्कार प्राप्त करने वाली तीन महिलाओं में से एक थीं। 42 वर्षीय वैज्ञानिक जो माइक्रो-आर.एन.ए. यानि अणुओं को ऐसा समूह जो कैंसर समेत विभिन्न बीमारियों का कारण है- खोजने और उसके कार्य का विश्लेषण करने के लिए कम्प्यूटर विज्ञान पद्धतियों को इस्तेमाल करती हैं कहती हैं, 'मैं पूरा श्रेय अपने माता- पिता को देती हूं। उन्होंने मुझे लगातार प्रेरित किया ताकि मैं कैंसर में छिपी आण्विक प्रक्रियाओं को खोजने में अपने आप को समर्पित कर सकूं, जिसके कारण मुझे ये श्रेष्ठ विज्ञान पुरस्कार मिला।'
प्रोफेसर बंधोपाध्याय कहती हैं उनके पति प्रोफेसर उज्जल मौलिक जो जादवपुर विश्वविद्यालय में कम्प्यूटर विज्ञान पढ़ाते हैं, उन्हें घर और लैब में एक साथ संतुलन बनाए रखने में सहायता कर, उनकी प्रेरणा और समर्थन दे रहे हैं। वे कहती हैं, विज्ञान में पहचान शीघ्र नहीं मिलती। पुरस्कार मिलने से पहले वर्षों की कड़ी मेहनत और संपूर्ण प्रतिबद्धता लगती है। अक्सर सामाजिक और पारिवारिक प्रतिबद्धताओं के कारण महिलाओं के लिए लम्बे समय तक अनुसंधान करना कठिन होता है।
चूंकि इस क्षेत्र में महिलाओं की संख्या संतोषजनक नहीं है, ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि वैज्ञानिक विश्व में महिलाओं के विरुद्ध अन्याय या भेदभाव होता है। प्रोफेसर बंधोपाध्याय इंगित करती हैं कि परिवार की सोच और सामाजिक परिवेश जिसमें महिलाएं पलती बढ़ती हैं उनके कैरियर के चुनावों को काफी हद तक प्रभावित करता है, आगे वे कहती हैं, 'बचपन से लड़कियों को अक्सर शादी और परिवार की देखभाल जैसी बातों की ओर इशारा किया जाता है। उन्हें शायद ही विज्ञान और इंजीनियरिंग में रुचि लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यदि उन्हें गणित या भौतिकी से डर लगता है तो इसे लड़कियों के लिए स्वाभाविक माना जाता है। डर के उस स्रोत को खत्म करने के लिए कोई कोशिश नहीं की जाती। बल्कि, वास्तव में उन्हें जबरदस्ती विश्वास दिलाया जाता है कि विज्ञान उसके बस की बात नहीं है!'
10 वर्षीय बच्चे की मां कहती हैं, 'मुझे लगता है स्कूल के समय से फोकस शुरू होना चाहिए। महिलाओं को पूर्वनिर्धारित मान्यताओं से ऊपर उठना होगा और दिमाग में उल्टी सोच भरने का शिकार होने से बचना होगा। वे अपने बच्चों की देखभाल के लिए कड़ी मेहनत करती हैं, वही कड़ी मेहनत वे विज्ञान में भी लगा सकती हैं। यही मैं हमेशा अपने छात्रों से कहती हूं। महिला होने के नाते मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। कोई फायदा भी नहीं था। मुझे भी अपने पुरुष सहकर्मियों की तरह ही काम करना पड़ा।'
इस वर्ष तीन महिला वैज्ञानिकों को पुरस्कार ने कई युवा लड़कियों को प्रेरित किया है। एक बेहद प्रतिभाशाली वैज्ञानिक जो किसी धर्म को नहीं मानती परंतु स्वामी विवेकानंद और राम कृष्ण परमहंस के दर्शन से प्रेरितमहसूस करती हैं, उनका कहना है 'पुरस्कार मिलने के बाद मुझे काफी सारे फोन आए। जिन छात्रों को मैं जानती भी नहीं उन्होंने भी फोन किया। यह वास्तव में काफी प्रोत्साहक है।'
तो क्या वैज्ञानिकों को अधिक दिमाग की जरूरत होती है? प्रोफेसर बंधोपाध्याय, जिनका पंसदीदा समय अपने घर के पास बैलूर मठ में गंगा के किनारे बैठ कर आराम करना है कहती हैं, 'वैज्ञानिक हमेशा नए तरीके से सोचते हैं। वे नई चीजें खोजने की कोशिश करते हैं, तो उनका दिमाग हमेशा सक्रिय रहना ही चाहिए। वैज्ञानिक लगातार सोचते रहते हैं। शायद यही उन्हें दूसरों से अलग बनाता है।'
एमबीबीएस और सार्वजनिक स्वास्थ्य में मास्टर्स प्राप्त 33 वर्षीय डॉ. रशमी पाल कहती हैं, 'अगर कोई मुझे गाना गाने के लिए कहेगा तो मैं पूरी तरह फेल हो जाऊगीं। यह सब व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है और मुझे नहीं लगता कि मेरे पास अनोखा दिमाग है क्योंकि मैं एक वैज्ञानिक हूं।' पाल एनआईसीईडी में संखिया (आर्सनिक) संबंधित बीमारियों, गर्भाशय के मुख का (सरवाइकल) कैंसर और मलेरिया पर अनुसंधान कर रही हैं। वे कहती हैं, 'गर्भाशय के मुख का और स्तन कैंसर का खतरा भारत में एक ज्वलंत मुद्दा है। यह महिलाओं में सबसे आम बीमारियां हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि पापीलोमा वाइरस (एच.पी.वी.) जिससे गर्भाशय के मुख का कैंसर पैदा होता है- पुरुषों से महिला में यौन द्वारा संचारित होता है। मृत्यु दर बहुत ऊंची है लेकिन अगर उचित कदम उठाए गए तो इसे रोका जा सकता है। संखिया जहर और मलेरिया, पूर्वी भारत में दो मुख्य समस्याओं के अलावा मेरा अध्ययन मुख्यता इसी पर केंद्रित है।
तो वैज्ञानिकों को अक्सर सनकी या सामाजिक रूप से अकुशल ही क्यों समझा जाता है? 56 वर्षीय एमबीबीएस, एमडी, डॉ. दीपिका सूर, जो एनआईसीईडी के अंतर्गत भारत के स्वदेशी कोलेरा टीके 'संचोल' के क्लिनिकल ट्रायल को देखने वाली मुख्य वैज्ञानिक हैं कहती हैं, 'हम अपने क्षेत्र में अपना दिमाग लगाते हैं इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरे क्षेत्रों के लोग कम बुद्धिमान हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि सामाजिक परिस्थितियों में हम अकुशल हैं या अपने परिवार की प्रतिबद्धताओं को संभाल नहीं सकते। उदाहरण के लिए मेरे काम को देख लो। पूरे प्रोजेक्ट का उद्देश्य गरीबों का फायदा है, जो कि कोलेरा के सबसे बड़े शिकार हैं। ट्रायल कोलकाता के बेलेघाटा इलाके में 1,10,100 जनसंख्या पर किया जा रहा है, ट्रायल शुरू करने से पहले उनका विश्वास और भरोसा जीतने की जरूरत थी। सामाजिक अकुशलता से तो ऐसा करना संभव नहीं हो पाता' एक सफल कार्यक्षेत्र वैज्ञानिक इंगित करती हैं।
डॉ. सूर महिला वैज्ञानिकों की सफलता की हिमायती भी हैं। 'यह सच है कि पहले वैज्ञानिक समुदाय में उनके पुरुष साथियों की प्रमुखता थी लेकिन लोगों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि पुरुष इस क्षेत्र में लम्बे समय से हैं। महिलाएं बाद में आईं, लेकिन अब निश्चित रूप से मान्यताओं के ऊपर उठ रही हैं।' शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार प्राप्त करने वाली तीनों महिला वैज्ञानिकों का हवाला देते हुए डॉ. सूर बताती हैं, 'उनकी सफलता ने महिला वैज्ञानिकों को बहुत अधिक प्रेरित किया है। जब महिलाएं कुछ भी उपलब्धि प्राप्त करती हैं तब मुझे हमेशा गर्व महसूस होता।'
विज्ञान को अक्सर नीरस, साफ- सुथरा, सीधा- साफ तरह का क्षेत्र माना जाता है, जहां भावनाओं और हंसी- मजाक की भूमिका बहुत कम होती है। लेकिन ये महिला वैज्ञानिक 'पढ़ाकू' होने से कहीं दूर हैं। कैरियर और परिवार में संतुलन रखती, ये बहुत ही आधुनिक महिलाएं हैं। ये संवेदनशील और प्रतिबद्ध व्यक्तित्व भी हैं, जो नई चुनौतियों का सामना करने और हदों को जीतने के लिए तैयार हैं। (विमेन्स फीचर सर्विस)

शंख का पूजा में महत्त्व

शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पांचजन्य शंख बजाया गया था। हिंदू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार शंख बजाने से भूत- प्रेत, अज्ञान, रोग, दुराचार, पाप, दूषित विचार और गरीबी का नाश होता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार शंख बजाने से हमारे फेफड़ों का व्यायाम होता है, श्वास संबंधी रोगों से लडऩे की शक्ति मिलती है। पूजा के समय शंख में भरकर रखे गए जल को सभी पर छिड़का जाता है क्योंकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भुत शक्ति होती है। शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है साथ ही हमारी हड्डियों, दांतों के लिए भी लाभदायक बताया गया है। शंख में कैल्शियम, फास्फोरस और गंधक के गुण होते हैं जो उसमें रखे जल में आ जाते हैं।

जल प्रदूषण नदियों को बचाना होगा

- अम्बरीष श्रीवास्तव
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस ग्रह पर उपलब्ध कुल पानी का मात्र 0.3 प्रतिशत हिस्सा ही मनुष्यों, पशुओं और पेड़- पौधों के उपभोग के लिए ठीक है। शेष 99.7 प्रतिशत जल या तो समुद्र के पानी के रूप में मौजूद है या फिर पहाड़ों पर हिमनद के रूप में।
जल प्रदूषण भारत में सबसे गंभीर पर्यावरण संबंधी खतरों में से एक बनकर उभरा है। इसके सबसे बड़े स्रोत शहरी सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट हैं जो बिना शोधित किए नदियों में प्रवाहित हो रहे हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद शहरों में उत्पन्न कुल अपशिष्ट जल का केवल 10 प्रतिशत हिस्सा ही शोधित किया जा रहा है और बाकी ऐसे ही नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है।
जल के स्रोतों जैसे झील और नदी- नालों में जहरीले पदार्थों के प्रवेश से इनमें उपलब्ध पानी की गुणवत्ता में गिरावट आ जाती है जिससे जलीय पारिस्थिकी गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इस के कारण भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाता है। इन सबका इन जल स्रोतों के निकट रहने वाले सभी प्राणियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। भारत सरकार को जल प्रबंधन के मोर्चे पर तत्काल कदम उठाने और ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए त्रुटिपूर्ण नीतियों को संशोधित करने की आवश्यकता है।
जल प्रदूषण मानव अस्तित्व की एक वास्तविकता है। कृषि और औद्योगिक उत्पादन जैसी गतिविधियाँ जैविक अपशिष्ट के अलावा जल प्रदूषण भी उत्पन्न करती हैं। भारत में हर वर्ष लगभग 5,000 करोड़ लीटर का जल अपशिष्ट उत्पन्न होता है जिसमें औद्योगिक और घरेलू दोनों ही स्रोतों से उत्पन्न अपशिष्ट जल शामिल हैं। अगर ग्रामीण क्षेत्रों के आंकड़ों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या और बड़ी हो जाएगी। औद्योगिक अपशिष्ट में पाए जाने वाले हानिकारक तत्वों में नमक, विभिन्न रसायन, ग्रीज़, तेल, पेंट, लोहा, कैडमियम, सीसा, आर्सेनिक, जस्ता, टिन इत्यादि शामिल हैं। कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि कुछ औद्योगिक संगठन रेडियो- एक्टिव पदार्थों को भी जल के स्रोतों में प्रवाहित कर देते हैं जो जल शोधन संयंत्रों पर व्यय होने वाले धन को बचाने के लिए नियम कानूनों को ताक पर रख देते हैं।
भारत सरकार के सभी जल प्रदूषण नियंत्रण संबंधी प्रयास विफल रहे हैं क्योंकि शोधन प्रणालियों की स्थापना के लिए अधिक पूँजी निवेश और परिचालन के लिए भी अधिक आती है। शोधन संयंत्रों की उच्च लागत न केवल किसानों बल्कि फैक्टरी मालिकों के लिए भी सिरदर्द का कारण है क्योंकि इससे उनके द्वारा तैयार किये जा रहे उत्पादों की लागत बढ़ जाती है। किसी भी कारखाने में जल शोधन संयंत्र की स्थापना और उसके संचालन की लागत उस कारखाने के कुल खर्चों के 20 प्रतिशत तक हो सकती है। इसलिए हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं जिसमें सरकारी मानदंडों के होने के बावजूद प्रदूषित जल बिना शोधन प्रक्रिया से गुजरे हुए नदियों में बहाया जा रहा है।
दूसरी ओर भारत सरकार जल प्रदूषण नियंत्रण पर प्रति वर्ष लाखों रुपए खर्च कर रही है। एक
मोटे अनुमान के मुताबिक भारत सरकार ने देश में विभिन्न जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं जैसे गंगा कार्य योजना और यमुना कार्य योजना पर अब तक लगभग 20,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। लेकिन अभी तक कोई भी सकारात्मक परिणाम दिखाई नहीं दिए हैं। सरकार को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जल स्रोतों को प्रदूषण मुक्त करने के सभी उपाय विफल हो जायेंगे जब तक बिना शोधन के औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट जल को उनमें प्रवाहित होने से नहीं रोका जाएगा।
इसलिए सरकार को जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर पैसा खर्च करने के बजाय कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में जल शोधन संयंत्रों की स्थापना और संचालन को बढ़ावा देना चाहिए। जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर खर्च किये जाने वाले धन को उन उद्योगों को सब्सिडी देने और उन पर कड़ी निगरानी रखने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो अपनी गतिविधियों से अपशिष्ट जल उत्पन्न करते हैं। नैनो टेक्नालाजी जैसे क्षेत्रों में अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि कम लागत में जल शोधन संयंत्र स्थापित किये जा सकें। यहाँ भी सरकार का दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि शोधित जल को नदियों में प्रवाहित करने के बजाय कृषि जैसी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जाए।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस ग्रह पर उपलब्ध कुल पानी का मात्र 0.3 प्रतिशत हिस्सा ही मनुष्यों, पशुओं और पेड़- पौधों के उपभोग के लिए ठीक है। शेष 99.7 प्रतिशत जल या तो समुद्र के पानी के रूप में मौजूद है या फिर पहाड़ों पर हिमनद के रूप में। इसलिए जल प्रदूषण के मुद्दे की और अधिक उपेक्षा करना तृतीय विश्व युद्ध को आमंत्रित करने जैसा होगा जो जल संसाधनों के नियंत्रण के लिए लड़ा जाएगा।
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रंग -बिरंगी दुनिया

दुनिया का सबसे बड़ा परिवार 
एक छत के नीचे 181 सदस्य
जियोना ने इतनी शादियां की है कि कई बार वे खुद इसकी गिनती भुल जाते हैं। उन्होंने 50 बार शादियां की हैं और 109 बच्चे पैदा किए हैं। पर्वतीय परिवेश में स्थित गांव बक्तवंग के इस मुखिया को अपने ऊपर गर्व है।
आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि पूर्वी राज्य मिजोरम में दुनिया का सबसे बड़ा एक ऐसा परिवार निवास करता है जिसमें परिवार के मुखिया की 39 पत्नियां, 94 बच्चे, 33 पोते-पोतियां हैं। परिवार का मुखिया जिओना चाना है। यह भरा पूरा परिवार एक ही छत के नीचे रहता है। चाना की 14 बहुएं भी हैं। परिवार के सदस्यों की कुल संख्या 181 है।
सुनने में किस्सा सी लगने वाली जिंदगी की यह असली कहानी है। मिजोरम के उत्तरी हिस्से में बक्तावंग से लगभग 100 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है। इसी गांव में जिओना चाना रहते हैं। चाना, चाना इसलिए हैं क्योंकि यह उनके कबीले का नाम है। और जिओना इस कबीले के प्रमुख हैं।
चाना कबीले में एक से ज्यादा विवाह की परंपरा है। अब एक से ज्यादा का मतलब दो, चार, छह कुछ भी हो सकता है। तो जिओना इसके मतलब को बढ़ाकर 39 तक ले जा चुके हैं। शादी हुई तो बच्चे भी हुए। ज्यादा शादियां हुईं तो बच्चे ज्यादा हो गए। इस तरह बच्चों की तादाद 94 तक पहुंच गई । फिलहाल इन बच्चों की जितनी शादियां हुईं (कितनी, इसका पता नहीं है), उनसे 33 बच्चे हो चुके हैं। यानी चाना के 33 पोते- पोतियां। जियोना ने इतनी शादियां की है कि कई बार वे खुद इसकी गिनती भुल जाते हैं। उन्होंने 50 बार शादियां की हैं और 109 बच्चे पैदा किए हैं। पर्वतीय परिवेश में स्थित गांव बक्तवंग के इस मुखिया को अपने ऊपर गर्व है।
यह परिवार एक विशेष धार्मिक पंथ का अनुयायी है। यह परिवार ललपा कोहरन पंथ को मानता है। कहा जाता है कि जियोना के पिता चाना ने भी 20 से अधिक शादियां की थी। उनके निधन के बाद उनके पुत्र जियोना ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। अपने पिता की तरह जियोना भी अपने परिवार के सदस्यों के आध्यात्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन पर नियंत्रण रखते हैं।
नई पीढ़ी का आशियाना
इतना बड़ा परिवार है और संयुक्त है, तो घर भी बड़ा चाहिए. चाना मुखिया जिओना के पास जैसे शादी करने के लिए दिल बड़ा है, वैसे ही पत्नियों को रखने के लिए घर भी काफी बड़ा है। उनके घर में 100 कमरे हैं। चार मंजिल के इस घर का नाम उन्होंने रखा है छुआन थाट रन यानी नई पीढ़ी का आशियाना।
समुदाय में परंपरा
चाना का अपना अलग कमरा है, जबकि उनकी पत्नियों के लिए एक बड़ा शयनकक्ष है। चाना के साथ रहने के लिए
परिक्रमण विधि का इस्तेमाल किया जाता है। समुदाय में 4000 सदस्य हैं, इसे जीवित रखने की जिद से जियोना का परिवार इतना विशाल हो गया। खबर तो यह भी है कि जियोना को आज भी नई पत्नी की तलाश जारी है।
भाग्यशाली हूं मैं
जिओना अपने इस भरे पूरे परिवार से बेहद खुश हैं। और जो दलील अक्सर हिंदी फिल्मों में सुनने को मिलती है कि बच्चे तो भगवान की देन हैं, उसे जिओना ने पूरे दिल से स्वीकार करते हुए अपने परिवार की जिम्मेदारी भी भगवान पर डाल दी है। वह कहते हैं, मुझे तो लगता है कि मैं ईश्वर का विशेष बालक हूं। उसने मुझे इतने सारे लोगों की देखभाल का काम सौंपा है। 39 पत्नियों का पति होना और दुनिया के सबसे बड़े परिवार का मुखिया होना मेरे लिए सौभाग्य की बात है।
सबके लिए एक रसोई
इनके परिवार के आकार को देखकर कुछ व्यवहारिक सवाल मन में उठना लाजमी है। मसलन वे लोग खाना कहां और कैसे खाते हैं? परिवार के लोग रहते भले ही अलग- अलग कमरों में हों, लेकिन संयुक्त परिवार की सभी शर्तों को पूरा करते हुए सबका खाना एक ही रसोई में बनता है। रोज रात के खाने में 30 मुर्गे, 60 किग्रा आलू और 99 किग्रा चावल का प्रयोग होता है। सबसे बड़ी पत्नी थाजियांगी अनुशासन बनाए रखती है।
शादी का प्रस्ताव
चाना की 35 वर्षीय पत्नी रिंकमिनी कहती हैं- जियोना गांव के सबसे खूबसूरत व्यक्ति हैं। 18 साल पहले एक सुबह सैर के समय उन्होंने मुझे देखा और मुझे शादी का प्रस्ताव भेजा।
एकता का राज
एक अन्य पत्नी कहती है- आपसी प्रेम व सम्मान ही परिवार की एकता का राज है।

होली


होली सांस्कृतिक विरासत का लोक स्वरूप
- यशवन्त कोठारी
प्राचीन भारत में मदनोत्सव के समय रानी सर्वाभरण भूषिता होकर पैरों को रंजित करके अशोक वृक्ष पर हल्के से बायें पैर से आघात करती थी और अशोक वृक्ष पर पुष्प खिल उठते थे। चारों तरफ बसंत और कामोत्सव की दुंदुभी बज उठती थी।
होली का प्राचीन संदर्भ ढूंढने निकला तो लगा कि बसंत के आगमन के साथ ही चारों तरफ कामदेव अपने बाण छोडऩे को आतुर हो जाते हैं मानो होली की पूर्व पीठिका तैयार की जा रही हो। संस्कृत साहित्य के नाटक चारूदत्त में कामदेवानुमान उत्सव का जिक्र है, जिसमें कामदेव का जुलूस निकाला जाता था। इसी प्रकार 'मृच्छकटिकम' नाटक में भी बसंतसेना इसी प्रकार के जुलूस में भाग लेती है।
एक अन्य पुस्तक वर्ष- क्रिया कौमुदी के अनुसार इसी त्योहार में सुबह गाने- बजाने, कीचड़ फेंकने के कार्य संपन्न किये जाते हैं। सायंकाल सज्जित होकर मित्रों से मिलते हैं। धम्मपद के अनुसार महामूर्खों का मेला मनाया जाता है। सात दिनों तक गालियों का आदान- प्रदान किया जाता था। भविष्य पुराण के अनुसार बसंत काल में कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और पूजा- अर्चना की जाती है। रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद है। हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है।
मदनोत्सव
पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' पुस्तक में मदन पूजा का वर्णन किया है।
दशकुमारचरित नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है। इस त्योहार पर राजा और आम नागरिक सभी बराबर हैं।
संस्कृत की पुस्तक कुट्टीनीमतम् में भी गणिका और वेश्याओं के साथ मदनोत्सव मनाने का विशद वर्णन है।
मदनोत्सव का वर्णन कालिदास ने भी अपने ग्रंथों में किया है। ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में कालिदास ने बसंत का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। कुछ उदाहरण देखिए-
इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की मदमाती आंखों की चंचलता में, उनके गालों में पीलापन, कमर में गहरापन और नितंबों में मोटापा बनकर बैठ जाता है।
काम से स्त्रियां अलसा जाती हैं। मद से चलना बोलना भी कठिन हो जाता है और टेढ़ी भौंहों से चितवन कटीली जान पड़ती है।
मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया। हर गौरी राधा बन गयी। आधुनिक काल में होली का स्वरूप बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
मदनोत्सव, बसंतोत्सव, कामदेवोत्सव ये सभी हमारे लोकानुरंजन के लिए आवश्यक थे, हैं और रहेंगे।
बौराया तन और मन
प्राचीन भारत में मदनोत्सव के समय रानी सर्वाभरण भूषिता होकर पैरों को रंजित करके अशोक वृक्ष पर हल्के से बायें पैर से आघात करती थी और अशोक वृक्ष पर पुष्प खिल उठते थे। चारों तरफ बसंत और कामोत्सव की दुंदुभी बज उठती थी। कामदेव के डाकिये सब तरफ बसंत और फाल्गुनी हवाओं की पातियां बांट देते हैं और तन- मन सब बौरा जाता है।
खेतों में गेहूं, जौ, सरसों की बालियों में निखार आने लगता है और गांव की गोरी के गालों पर रस छलकने लगता है। और गुलमोहर तथा सेमल का तो कहना ही क्या सब पत्ते (कपड़े) फेंकफांक कर मदनोत्सव की तैयारी में जुट जाता है। मौसम के पांव धीरे- धीरे आगे बढ़ते हैं और छा जाती है एक नयी मस्ती, उल्लास, उमंग और उत्सवप्रियता।
प्राचीन भारत का कामोत्सव, मदनोत्सव, बसंतोत्सव और कौमुदी महोत्सव सब एक ही नाम के पर्यायवाची है। रंग ही रंग, उमंग ही उमंग, बौराना मगर यह सब कहां चला गय। सांप्रदायिकता का जहर होली को भी लील गया। मगर क्या उल्लास का स्वर या उमंग का आनंद कभी दब पाया है ? शायद हां..... शायद नहीं ? कामदेव के वाण हों या प्रजातंत्र के खतरे सब झेलने ही पड़ते हैं।
सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विशद वर्णन किया है। वाल्मीकी रामायण में भी बसंतोत्सव का वर्णन मिलता है। कालिदास इसे ऋ तु-उत्सव कहते हैं। नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विशद और रोचक वर्णन किया गया है।
दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवश्यक ऋतुओं को बताया है। पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति। वासवदत्ता नामक नाटक में सुबंधु ने बसंत के आगमन की खुशी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से बसंतोत्सव का वर्णन किया है। राजशेखर की काव्य- मीमांसा में भी ऋ तु वर्णन है। यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलाएं झूलकर शांत हो जाती है ।
संस्कृत के अन्य ग्रंथो में इन अवसरों पर हास- परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है। रास नृत्य का भी वर्णन है । गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलाएं। और सीमित समय। जो समय सीमा से मर्यादित था। सबसे बड़ी बात यह है कि निश्छल- स्वभाव और आनंद था। आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्शन नहीं।
श्रृंगार की प्रधानता
मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही हो ऐसा नहीं है। मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था। ईसा पूर्व दूसरी
मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया। हर गौरी राधा बन गयी। आधुनिक काल में होली का स्वरूप बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
मदनोत्सव, बसंतोत्सव, कामदेवोत्सव ये सभी हमारे लोकानुरंजन के लिए आवश्यक थे, हैं और रहेंगे।
बौराया तन और मन
प्राचीन भारत में मदनोत्सव के समय रानी सर्वाभरण भूषिता होकर पैरों को रंजित करके अशोक वृक्ष पर हल्के से बायें पैर से आघात करती थी और अशोक वृक्ष पर पुष्प खिल उठते थे। चारों तरफ बसंत और कामोत्सव की दुंदुभी बज उठती थी। कामदेव के डाकिये सब तरफ बसंत और फाल्गुनी हवाओं की पातियां बांट देते हैं और तन- मन सब बौरा जाता है।
खेतों में गेहूं, जौ, सरसों की बालियों में निखार आने लगता है और गांव की गोरी के गालों पर रस छलकने लगता है। और गुलमोहर तथा सेमल का तो कहना ही क्या सब पत्ते (कपड़े) फेंकफांक कर मदनोत्सव की तैयारी में जुट जाता है। मौसम के पांव धीरे- धीरे आगे बढ़ते हैं और छा जाती है एक नयी मस्ती, उल्लास, उमंग और उत्सवप्रियता।
प्राचीन भारत का कामोत्सव, मदनोत्सव, बसंतोत्सव और कौमुदी महोत्सव सब एक ही नाम के पर्यायवाची है। रंग ही रंग, उमंग ही उमंग, बौराना मगर यह सब कहां चला गय। सांप्रदायिकता का जहर होली को भी लील गया। मगर क्या उल्लास का स्वर या उमंग का आनंद कभी दब पाया है ? शायद हां..... शायद नहीं ? कामदेव के बाण हों या प्रजातंत्र के खतरे सब झेलने ही पड़ते हैं।
सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विशद वर्णन किया है। वाल्मीक रामायण में भी बसंतोत्सव का वर्णन मिलता है। कालिदास इसे ऋ तु-उत्सव कहते हैं। नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विशद और रोचक वर्णन किया गया है।
दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवश्यक ऋतुओं को बताया है। पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति। वासवदत्ता नामक नाटक में सुबंधु ने बसंत के आगमन की खुशी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से बसंतोत्सव का वर्णन किया है। राजशेखर की काव्य- मीमांसा में भी ऋ तु वर्णन है। यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलाएं झूलकर शांत हो जाती है ।
संस्कृत के अन्य ग्रंथो में इन अवसरों पर हास- परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है। रास नृत्य का भी वर्णन है। गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलाएं। और सीमित समय। जो समय सीमा से मर्यादित था। सबसे बड़ी बात यह है कि निश्छल- स्वभाव और आनंद था। आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्शन नहीं।
श्रृंगार की प्रधानता
मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही हो ऐसा नहीं है। मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था। ईसा पूर्व दूसरी
शताब्दी से ही इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण की जानकारी है। राधा-कृष्ण के प्रेम के चित्र तथा होली और बसंतोत्सव के चित्र मन को मोहते हैं। इसी प्रकार बाद के काल में मुगल शासन के दौरान भी चित्र कलाओं में श्रृंगार प्रधान विषय रहा है। उस जमाने में हर रात बसंत थी और यह सब चलता रहा, जो अब जाकर होलिका या होली बन गया। कामदेव के नामों में मदन, मन्मथ, कंदर्प, प्रद्युम्न, अनंग, मकरध्वज, रतिपति, पुष्पधन्वा, रतिनायक प्रमुख हैं। यूनान में वे क्यूपिड है।
वास्तव में काम संपूर्ण पुरूषार्थों में श्रेष्ठ है। प्रत्येक नर कामदेव और प्रत्येक नारी रति है। आधुनिक स्त्री-पुरूषों के संबंधों के व्याख्याता शायद इस ओर ध्यान देंगे।
आखिर बीच में कौन- सा समय आया जब काम (सेक्स) के प्रति मानवीय आकर्षण को वर्जनाओं के अंतर्गत एक प्रतिबंधित चीज मान लिया गया। उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचार और कुंठाओं ने ले लिया।
संपूर्ण प्राचीन भारतीय वाड्ंगमय काम की सत्ता को स्वीकार करता है और जीवन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को मानकर जीवन जीने की सलाह देता है। शरदोत्सव में काम और रति की पूजा का विधान है। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के एक लेख के अनुसार कामदेव की उपासना नहीं करने से कामदेव के श्राप के कारण जीवन नरक हो जाता है। और जीवन की कला (काम- कला) के विशद और प्रामाणिक ग्रंथ वात्स्यायन का काम शास्त्र भी भारतीय धरोहर है। कुमार संभव में काम कलाओं का विशद वर्णन है। जो बसंतोत्सव या शरदोत्सव या ऋतु उत्सव को दर्शाता है।
उपनिषदों, वेदों, पुराणों में भी काम के प्रति सहजता का एक भाव पाया गया है। इस संपूर्ण साहित्य में काम की अभिव्यक्ति बहुत ही सहज है, और पता नहीं कब सहज कामोत्सव आज का विकृत होली- उत्सव हो गया।
पूरे भारतीय समाज को अपनी अस्मिता, गौरव और प्राचीन परंपराओं को ध्यान में रखते हुए होली को एक पवित्र, सहज उत्सव मनाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि हमारी सांस्कृतिक विरासत कलंकित न हो। इस दिन न कोई राजा न कोई रंक रहे। सब बस मानव रहें और हमारा व्यवहार, हमारी संस्कृति केवल सहज रहे। हाव- भाव सब मिलकर मर्यादित रहें और हम सब बसंतोत्सव का आनंद लें कहीं किसी पर कीचड़ नहीं उछालें। क्योंकि किसी के मन को दु:खी करना हमारी परंपरा कभी नहीं रही। हम तो सब के साथ मिलकर, सबको साथ लेकर चलने की विराट परंपरा के वारिस हैं। मदनोत्सव कामकुंठाओं से मुक्त होने का प्राचीन उत्सव है, कौमुदी महोत्सव का वर्णन चाणक्य ने भी किया है। शांति निकेतन में भी दोलोत्सव मनाया जाता है। आइये इस होली पर यह शपथ लें कि होली को शालीनता के साथ मनाएंगे।
मेरे बारे में ...
नाथद्वारा, राजस्थान में 3 मई 1950 को मेरा जन्म हुआ। आयुर्वेद के राष्ट्रीय संस्थान जयपुर में एसोसिएट प्रोफेसर (कैमिस्ट्री) के रूप में सेवा दी। मेरे 4 उपन्यास, 12 व्यंग्य पुस्तकें हिन्दी में, 3 अंग्रेजी में, कुछ पुस्तकें बच्चों एवं प्रौढ़ों के लिए तथा विभिन्न अखबारों एवं पत्रिकाओं में 1000 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लंदन से प्रकाशित "Angles and Triangles" मेरा पहला अंग्रेजी ई-उपन्यास है जिसे आप http://www.abook2read.com/authors/yashwant-kothari.html पर पढ़ सकतें है। वर्तमान में मैं भारत सरकार राजभाषा समिति का सदस्य हूं।
मेरा पता: 86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर 302002, फोन : 0141- 2670596
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होली

हँसे पलाश
-डॉ. सुधा गुप्ता

1
रंग डगर
खुशबू का सफर
फिर शुरू है
2
तन फागुन
मन रंग- अबीर
मुग्धा अधीर
3
लाल गुलाल
पूरी देह पे लगा
हँसे पलाश
4
कूके कोकिल
फागुन पीटे ढोल
होली ठुमके
5
चैत जो आया
मटकी भर नशा
महुआ लाया
6
रंगों का मेला
सनकी चित्रकार
अकेला खेल
ढोलक बजी
-रेखा राजवंशी
1.
होली का मौका
रंगों की बरसात
मित्रों का साथ
2.
फिर से उड़े
आसमान में रंग
हो गए दंग
3.
टेसू के फूल
भंग और ठंडाई
मुझको भाई
4.
ढोलक बजी
हर हथेली पर
मेंहदी रची
प्रेम का रंग
-
डॉ. रमा द्विवेदी
1
हँसी ठिठोली,
चितचोर की होली
राधा लजाई।
2
गुलाबी ठंड़
रंगों की बरसात
अंगिया भीगी।
3
प्रेम का रंग
राधा कान्हा मगन
चूनर लाल।
4
अमवा डाल
कूकती कोयलिया
प्रिय की प्यास।
5
मन उदास
प्रियतम विदेश
गरजे मेघ।

भ्रांतियों के भंवर में आयुर्वेद

- डॉ. विनोद बैरागी
पहले से दुखी असाध्य रोगी हजारों- लाखों रुपए खर्च करके बड़ी आशा से आयुर्वेद की शरण में आता है परंतु जब संहिता ज्ञान से अनजान चिकित्सक अथवा औषधि कंपनी के विज्ञापन के चंगुल में फंस जाता है तो ठगा कर यही कहता है कि आयुर्वेद में दम नहीं है। उक्त धारणा मित्रों/ परिजनों के माध्यम से फैलती है तो इस दुष्प्रचार का परिणाम आयुर्वेद पद्धति को भोगना ही है, जबकि दोषी कोई और है। इसलिए आयुर्वेद के सुयोग्य चिकित्सकों पर दोहरा दायित्व है- प्रामाणिकता के साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा करना और आयुर्वेद चिकित्सा के बारे में फैल रहे भ्रमजाल को दूर करना ताकि भ्रांतियों के भंवर से उबरकर आयुर्वेद पुन: अपना स्थान पा सके।
'डॉक्टर साहब। मेरे एक रिश्तेदार कई सालों से परेशान हैं, बहुत खर्चा हो गया है, आप कोई अच्छा- सा नुस्खा बता दीजिए जिससे उन्हें इस रोग से छुटकारा मिल जाए।' लकवा, साइटिका, कैंसर, एड्स, हृदय रोग, श्वास रोग, मधुमेह, गठिया, स्पांडेलाइसिस आदि जटिल बीमारियों का नाम लेकर वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के डॉक्टरों से अपने परिजनों/ मित्रों के बारे में प्रत्यक्ष या फोन पर चर्चा में परामर्श लिया जाना, एक आम बात है। प्राय: आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी, प्राकृतिक, योग एवं सिद्ध चिकित्सा प्रणाली से ऐसी अपेक्षा की जाती है कि सालों पुरानी बीमारी जादू की तरह छूमंतर हो जाए।
समाज में इस तरह की धारणा बन जाना स्वाभाविक ही है, क्योंकि अक्सर देखा गया है इन चिकित्सा प्रणालियों का प्रचार- प्रसार भी जोर- शोर से होता है- 'चमत्कार। अनोखी खोज। अमुक (असाध्य) रोग तीन पुडिय़ा में साफ... बगैर ऑपरेशन, शर्तिया इलाज, महीने भर का कोर्स डाक से मंगाएं।' यानी बीमारी मरीज खुद तय कर ले और बिना परीक्षण के इलाज भी ले ऐसा वातावरण कतिपय चिकित्सकों और दवा निर्माता कंपनियों ने निर्मित कर दिया है। इस संदर्भ में कई प्रश्न उठते हैं:
1.क्या आयुर्वेद कोई चलताऊ इलाज है, जो रोगी को बिना देखे- परखे, रास्ते चलते बताया जा सकता है?
2.क्या किसी भी एक बीमारी में एक दवा या पुडिय़ा ही होती है?
3.क्या बरसों पुरानी असाध्य बीमारी या शल्य साध्य बीमारी भी सामान्य इलाज से दूर हो सकती है?
इन प्रश्नों का उत्तर आयुर्वेद में ही मिलेगा और वह उत्तर है- नहीं, कदापि नहीं।
चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय, माधव निदान आदि ग्रंथों में रोग की पहचान करने की (उस समय उपलब्ध साधनों के तहत) विधियां उल्लिखित हैं। सूक्ष्म पड़ताल से वैज्ञानिक आधार पर रोग कौन-सा है, उस रोग का कारण क्या है? ज्वर है, तो किस दोष का, किस प्रकार का ज्वर है? कब से है? यह जानना ही 'रोग निदान' कहलाता है। इसके साथ ही खानपान और रहन- सहन की आदतें, परिवेश, ऋतु, आयु आदि का ज्ञान भी आवश्यक होता है।
किसी भी जटिल रोग के कारण का पता लगाने के लिए प्रश्न परीक्षा, स्पर्श परीक्षा, नाड़ी परीक्षा, मल-मूत्र, गंध परीक्षा कराई जाती रही है। जब रोग का प्रकार और कारण ज्ञात हो जाता है तो उस कारण को दूर करना ही चिकित्सा सिद्धांत का प्रथम सूत्र है, जिसे सुश्रुत में 'निदानं परिवर्जनम्' तथा आधुनिक शास्त्र में 'रिमूव्ह दी कॉज' बताया गया है।
इससे यह भ्रम दूर होना चाहिए कि रोगी से बिना पूछे- देखे, परीक्षा किए सटीक निदान हो सकता है। अत: किसी भी परिस्थिति में राह चलते या फोन पर उपचार नहीं बताया जा सकता।

क्या आयुर्वेद कोई चलताऊ इलाज है, जो रोगी को बिना देखे- परखे, रास्ते चलते बताया जा सकता है?क्या किसी भी एक बीमारी में एक दवा या पुडिय़ा ही होती है? क्या बरसों पुरानी असाध्य बीमारी या शल्य साध्य बीमारी भी सामान्य इलाज से दूर हो सकती है? इन प्रश्नों का उत्तर आयुर्वेद में ही मिलेगा और वह उत्तर है- नहीं, कदापि नहीं।
यदि सभी रोगी सामान्य औषधियों से ठीक हो जाते हैं तो आयुर्वेद के आचार्य अतिरिक्त विकल्पों पर कभी नहीं लिखते। चरक संहिता सूत्र स्थान में स्पष्ट निर्देश है कि जब दोष अधिक बढ़ जाते हैं और सामान्य उपचार से ठीक नहीं होते हैं तो उन्हें पंचकर्म, (वमन, विरेचन, नस्यकर्म, अनुवासन, आस्थापन वस्ति) से शरीर के बाहर निकालकर फिर औषधि देना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित 90 प्रतिशत रोगों की चिकित्सा में कोई न कोई पंचकर्म विधि अपनाने का निर्देश है। यानी मर्ज जटिल अवस्था में हो, तो जटिल उपाय करना पड़ेंगे।
आचार्य सुश्रुत शल्य शास्त्र के जन्मदाता हैं। उन्होंने अपने काल में पथरी, उदर रोगों, अर्श रोग तथा कफज मोतियाबिंद में शल्य चिकित्सा करने की विधि इजाद की थी। 76 प्रकार के नेत्र रोगों का पृथक- पृथक वर्णन मिलता है, जिनमें पृथक- पृथक चिकित्सा उपक्रम बताए हैं। अर्श रोग में चार प्रकार की चिकित्सा सुझाई है- औषधिकर्म, शल्यकर्म, क्षारकर्म और अग्निकर्म। विवेकवान चिकित्सक रोग की तीव्रता और रोगी की अवस्था, प्रकृति का परीक्षण करके तद्नुरूप चिकित्सा करते हैं।
आयुर्वेद के सभी महर्षियों ने अपने सुझाए चिकित्सा क्रम के अतिरिक्त देशकाल, परिस्थिति से युक्तियुक्त चिकित्सा करने का विकल्प भी खुला छोड़ दिया है।
आयुर्वेद, रोग की नहीं रोगी की चिकित्सा करता है। आयुर्वेद के अनेक विशेषज्ञ मर्ज को समझकर तद्नुरूप उपचार करते हैं या फिर दूसरे विशेषज्ञ के पास भेजते हैं। मरीज को धैर्य और संयम भी रखना होता है। इस जानकारी की आवश्यकता इसलिए है कि एक रोग की केवल एक दवा नहीं होती है, जिसे डाक से मंगवाकर सेवन किया जा सकता है। औषधि निर्माताओं के ऐसे विज्ञापनों से भ्रम फैलता रहता है।
असाध्य रोगों की चर्चा आयुर्वेद में विस्तार से की गई है। दरअसल रोग साध्य और असाध्य नहीं होते वरन् ये उन रोगों की अवस्थाएं हैं - शुरू में वह चिकित्सा- साध्य रहता है, बाद में असाध्य हो जाता है। चिकित्सकों को यह मर्यादा ध्यान रखना चाहिए कि रोग कहीं चरम पर तो नहीं है। महर्षि चरक ने सूत्र स्थान के 11वें अध्याय में तथा महर्षि वाग्भट ने अष्टांग हृदय संहिता के सूत्र स्थान के पहले अध्याय में इन महत्त्वपूर्ण मर्यादाओं का पालन करने के निर्देश चिकित्सकों को दिए हैं, उन उक्तियों के सार प्रस्तुत है-
'रोग की प्रथम अवस्था में जब लक्षण प्रकट हुए हों तो रोग आसानी से ठीक हो सकता है, दूसरी अवस्था में चिकित्सा कर ही लेना चाहिए, तीसरी अवस्था में रोगी के जीवन के प्रति संदेह रहता है।' आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी रोगावस्था को तीन भागों में विभक्त करता है- माइल्ड, मॉडरेट और सीवियर।
आठ महारोग ज्वर, रक्तपित्त, गुल्म, मधुमेह, कुष्ठरोग, शोथ, उन्माद व अपसमार आदि बताए हैं। इन रोगों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जब शरीर तीनों दोषों से विकारग्रस्त हो जाए, शारीरिक बल क्षीण हो जाए, इंद्रियां कर्महीन हो जाएं तो रोगी की आयु समाप्तप्राय है और कुशल वैद्य भी उसे नहीं बचा सकता है।
पहली अवस्था को 'सुखसाध्य' बताया है, जिसमें सामान्य उपचार करने पर आसानी से सफलता मिलती है। दूसरी अवस्था 'कष्टसाध्य' है, जिसमें औषधि के अतिरिक्त पंचकर्म, शल्य कर्म आदि अन्य विधियां भी अपनानी होती है। उपचार में समय भी अधिक लगता है लेकिन उपचार के बाद रोग से मुक्ति मिल जाती है। तीसरी असाध्य अवस्था की दो श्रेणियां हैं। पहली में पूरी आयु औषधि द्वारा नियंत्रित की जाती है। असाध्य रोगों की चरम स्थिति देखकर बुद्धिमान वैद्य को उस रोगी की मृत्यु सन्निकट समझना चाहिए और परिजनों को उसकी अवस्था को समझाकर स्पष्ट कहना चाहिए कि हम यत्न कर रहे हैं परंतु सफलता नहीं मिल पा रही है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी निर्देश हैं कि 'एक्सप्लेन दी प्रोग्नोसिस।'
इस चर्चा से स्पष्ट है कि आयुर्वेद कोई चलताऊ चिकित्सा नहीं है। आयुर्वेद के प्रति भ्रांति पैदा करने वाले अधकचरे ज्ञान वाले चिकित्सक तथा औषधि निर्माता ही दोषी हैं जो धन अर्जन के लालच में दोषपूर्ण प्रचार- प्रसार से दावे-करते रहते हैं। चरक संहिता के सूत्र स्थान में लिखा है-'अयोग्य वैद्य से चिकित्सा करके प्राण गंवाने से अच्छा है कि अपनी आत्मा को हवन कर दें।' (स्रोत फीचर्स)

निखर गए हैं गुलाब सारे जो तेरी यादों से...

फैज अहमद ' फैज'
- मनीष कुमार
फैज अहमद 'फैज' आधुनिक उर्दू शायरी के वो आधारस्तम्भ है, जिन्होंने अपने लेखन से इसे एक नई ऊंचाई दी। 1911 में सियालकोट में जन्मे फैज ने अपनी शायरी में सिर्फ इश्क और सौंदर्य की ही चर्चा नहीं की, बल्कि देश और आवाम की दशा और दिशा पर भी लिखते रहे। शायरी की जुबान तो उनकी उर्दू रही पर गौर करने की बात है कि अंग्रेजी और अरबी में भी उन्होंने 30 के दशक में प्रथम श्रेणी से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। शायद यही वजह रही कि उनकी गजलें और नज्मों में अरबी फारसी के शब्दों का बहुतायत इस्तेमाल हुआ है।
पढ़ाई लिखाई खत्म हुई तो पहले अमृतसर और बाद में लाहौर में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। 1941 में इन्होंने एक अंग्रेज लड़की एलिस जार्ज से निकाह किया। और मजेदार बात ये रही कि ये निकाह और किसी ने नहीं बल्कि शेख अब्दुल्ला ने पढ़वाया था। 1941 में फैज का पहला कविता संग्रह नक्शे फरियादी प्रकाशित हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फैज सेना में शामिल हो गए। आजादी के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का अपने देश में प्रचार प्रसार करते रहे। लियाकत अली खां की सरकार के तख्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में 1951- 55 तक कैद में रहे। जिंदगी के इस मोड़ में जो कष्ट, अकेलापन और उदासी उन्होंने झेली वो इस वक्त लिखी गई उनकी नज्मों में साफ झलकती है। ये नज्में बाद में बेहद लोकप्रिय हुईं और 'दस्ते सबा' और 'जिंदानामा' नाम से प्रकाशित हुईं।
जैसा की अमूमन होता है, अन्य शायरों की तरह शुरुआती दौर में हुस्न और इश्क ही फैज की शायरी का सबसे बड़ा प्रेरक रहा। नक्शे फरियादी की शुरुआती नज्म में वो कहते हैं-
रात यूं दिल में खोई हुई याद आई
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए
जैसे सहराओं में हौले से चले बाद ए नसीम1
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए
1. हल्की हवा
अपने हमराज के बदलते अंदाज के बारे में फैज का
ये शेर देखें-
यूं सजा चांद कि झलका तेरे अंदाज का रंग
यूं फजा महकी कि बदला मेरे हमराज का रंग
फैज ने अपनी कविता के विषय यानी मौजूं-ए-सुखन
पर यहां तक कह दिया था -
लेकिन उस शोख के आहिस्ता से खुलते हुए होठ
हाए उस जिस्म के कमबख्त दिलावेज खुतूत
आप ही कहिए कहीं ऐसे भी अफसूं (जादू) होंगे
अपना मौजूए सुखन इनके सिवा और नहीं
तब ए शायर1 का वतन इनके सिवा और नहीं
1. शायरी की प्रवृति
पर बाद में फैज देश और अपने आस पास के हालातों
से इस कदर प्रभावित हुए कि कह बैठे-
इन दमकते हुए शहरों की फरावां मखलूक (विशाल जनता)
क्यों फकत मरने की हसरत में जिया करती है
ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका
किसलिए इन में फकत (सिर्फ) भूख उगा करती है
फैज की शायरी के बारे में नामी समीक्षक प्रकाश पंडित कहते हैं कि उनकी अद्वितीयता आधारित है उनकी शैली के लोच और मंदगति पर , कोमल. मृदुल और सौ -सौ जादू जगाने वाले शब्दों के चयन पर, तरसी हुई नाकाम निगाहें और आवाज में सोई हुई शीरीनियां ऐसी अलंकृत परिभाषाओं और रूपकों पर, और इन समस्त विशेषताओं के साथ गूढ़ से गूढ़ बात कहने के सलीके पर।
अगर फैज की उपमाओं की खूबसूरती का आपको रसास्वादन करना हो तो उनकी नज्म 'गर मुझे इसका यकीं हो, मेरे हमदम मेरे दोस्त' की इन पंक्तियों पर गौर फरमाएं... आपका मन उनकी कल्पनाशीलता को दाद दिए बिना नहीं रह पाएगा।
कैसे मगरूर1 हसीनाओं के बर्फाब से जिस्म
गर्म हाथों की हरारत से पिघल जाते हैं
कैसे इक चेहरे के ठहरे हुए मानूस नुकूश2
देखते देखते यकलख्त3 बदल जाते हैं
1. दंभी 2. परिचित नैन नक्श 3. एकाएक
1978 में फैज मास्को में थे। उन्हीं दिनों उन्होंने तेलंगाना आंदोलन में शिरकत करने वाले प्रगतिशील शायर मोइनुद्दीन मखलूम की गजल से प्रेरित होकर एक गजल लिखी थी आपकी याद आती रही रात भर...। शायद वो यादे ही थीं जिसने फैज के जेल में बिताये हुए चार सालों में हमेशा से साथ दिया था।
पर पुरानी यादों ने हमेशा फैज की शायरी में मधुर स्मृतियां ही जगाईं ऐसा भी नहीं है। वसंत आया तो बहार भी आई। पर अपनी खुशबू के साथ उन बिखरे रिश्तों, अधूरे ख्वाबों और उन अनसुलझे सवालों के पुलिंदे भी ले आई जिनका जवाब अतीत से लेकर वर्तमान के पन्नों में कहीं भी नजर नहीं आता।
बहार आई तो जैसे इक बार
लौट आए हैं फिर अदम1 से
वो ख्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होठों पर मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गए हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्क- बू 2 हैं
जो तेरे उश्शाक3 का लहू हैं
1. जमे हुए, मृत 2. कस्तूरी की तरह सुगंधित 3. आशिकों
पर फैज ने अपनी शायरी को सिर्फ रूमानियत भरे अहसासों में कैद नहीं किया। वक्त बीतने के साथ उन्होंने ये महसूस किया कि शायरी को प्यार मोहब्बत की भावनाओं तक सीमित रखना उसके उद्देश्य को संकुचित करना था। उनकी नज्म- मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग... उनके इसी विचार को पुख्ता करती है। जब फैज साहब ने नूरजहां की आवाज में इस नज्म को सुना तो इतने प्रभावित हुए कि उसके बाद सबसे यही कहा कि आज से ये नज्म नूरजहां की हुई।
फैज कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक थे। अपनी शायरी में सामाजिक हालातों के साथ साथ फैज की ये कोशिश भी रही कि कि अपनी लेखनी से आम जनमानस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित कर सकें।
फैज की इक खासियत थी कि जब भी वो अपना शेर पढ़ते उनकी आवाज कभी ऊंची नहीं होती थी। दोस्तों की झड़प और आपसी तकरार उनके शायरी के मूड को बिगाडऩे के लिए पर्याप्त हुआ करती थी। पर उनके स्वभाव की ये नर्मी कभी भी तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर अपनी लेखनी के माध्यम से चोट करने में आड़े नहीं आई। 1947 में विभाजन से मिली आजादी के स्वरूप से वो ज्यादा खुश नहीं थे। उनकी ये मायूसी
इन पंक्तियों से साफ जाहिर है-
ये दाग दाग उजाला , ये शब-गजीदा1 सहर
वो इंतजार था जिसका वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं
फलक2 के दश्त में तारों की आखिरी मंजिल
1. कष्टभरी 2. आसमान
फैज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। पाकिस्तान में सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज्म है जो आज भी जुल्म से लडऩे के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है। इसीलिए पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ये उतनी ही लोकप्रिय है जितनी की पाक में।
लियाकत अली खां की सरकार का तख्ता पलट करने की कम्युनिस्ट साजिश रचने के जुर्म में 1951 में फैज पहली बार जेल गए। जेल की बंद चारदीवारी के पीछे से मन में आशा का दीपक उन्होंने जलाए रखा ये कहते हुए कि जुल्मो-सितम हमेशा नहीं रह सकता।
चन्द रोज और मेरी जान! फकत1 चन्द ही रोज!
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास2 है माजूर3 हैं हम
1. सिर्फ 2. पुरखों की बपौती 3. विवश
जेल से ही वो शासन के खिलाफ आवाज उठाते रहे। वो चाहते थे पाकिस्तान में एक ऐसी सरकार बने जो आम लोगों की आंकाक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हो। बगावत करने को उकसाती उनकी ये नज्म पाक में काफी मशहूर हुई। कहते हैं जब भी किसी मंच पर इकबाल बानो उनकी इस नज्म को गाते हुए जब ये कहतीं सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे, दर्शक दीर्घा से समवेत स्वर में आवाजें आतीं....'हम देखेंगे'
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है। पर उनका ये स्वप्न, स्वप्न ही रह गया। कम्युनिस्ट विचारधारा को वो अपने ही मुल्क में प्रतिपादित नहीं कर पाए। अपने जीवन के अंतिम दशक में वो बहुत कुछ इस असफलता को स्वीकार कर चुके थे। 1976 की उनकी ये रचना बहुत कुछ उसी का संकेत करती है।
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मशरूफ1 रहे
कुछ इश्क किया कुछ काम किया
काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया
1. व्यस्त
फैज ने अपनी शायरी में रूमानी कल्पनाओं का जाल बिछाया पर अपने इर्द गिर्द के राजनीतिक और सामाजिक माहौल को भी उतना ही महत्व दिया। एक ओर बगावत का बिगुल बजाया तो दूसरी ओर प्रेयसी की याद के घेरे में उपमाओं का हसीन जाल भी बुना। इसलिए समीक्षकों की राय में रूप और रस प्रेम और राजनीति, कला और विचार का जैसा सराहनीय समन्वय आधुनिक उर्दू शायरी में फैज का है उसकी मिसाल खोज पाना संभव नहीं है।

मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूबना मांग
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब ना मांग
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शा1 है हयात 2
तेरा ग़म है तो ग़मे- दहर3 का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 4
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं 5 हो जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए
और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म 6
रेशमों-अतलसो-कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म
खाक में लिथड़े 7 हुए, ख़ून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब ना मांग !

1.प्रकाशमान 2.जिंदगी 3. सांसारिक चिंता 4. स्थायित्व
5.
सिर झुका ले 6.सदियों से चला रहा अंधकारमय तिलिस्म
7.
धूल से सना हुआ

मेरे बारे में ...
रांची में थर्मल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में परामर्शदाता। 2004 से चिट्ठाकारिता में संगीत, कविता, गजल, यात्रा और किताबों से अपने लगाव को अभिव्यक्त करता हूं। पिछले पांच वर्षों से अपने चिट्ठों एक शाम मेरे नाम और मुसाफिर हूं यारों पर नियमित लेखन।
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ईमेल: manish_kmr1111@yahoo.com
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भ्रष्टाचार - एक पोर्ट्रेट

- राम अवतार सचान
आज के जमाने का परम मित्र
सदाबहार भ्रष्टाचार हूं मैं
सभी के मन में बसा
आज सामाजिक शिष्टाचार हूं मैं
जिन्होंने मुझे अपनाया
वे पहुंचे बुलन्दियों पर
जिन्होंने मुझे नहीं साधा
वे चूक गए मंजिलों से
एक बार अपना कर देखिए
मजा खुद-ब-खुद आने लगेगा
आपकी सम्पत्ति शोहरत और चरित्र में
चहुमुखी निखार आने लगेगा
चारो तरफ मेरा स्वागत विस्तार
एवं गुणगान हो रहा है
मेरे मौसेरे भाई अत्याचार का भी
बड़ा प्रसार हो रहा है
मेरा चचेरा भाई व्यभिचार भी
कंधे से कंधा मिला आगे बढ़ रहा है
हम तीनों का गहरा प्रभाव
राजनीति कार्यपालिका और विधायिका में दिख रहा है।
शहरी इंसान
शहरी ठहरा चतुर इंसान
गंगा- यमुना को खुद गंदा करता
फिर करोड़ों का गोरखधंधा करता
चला कर सफाई का अभियान
शहरी ठहरा चतुर इंसान।।
अंग्रेजी
अंग्रेजों ने अंग्रेजी पढ़ाकर हमें अपनी प्रजा बनाया
हम अंग्रेजी पढ़ा- पढ़ाकर राजा बना रहे हैं
अपनी भाषा भूषा सब बदले फिर भी मुस्कुरा रहे हैं
जिसने हमारा चरित्र बदला उसी अंग्रेजी के गुण गा रहे हैं।
***
ग्राम डढ़वापुर जिला रमाबाई नगर (कानपुर देहात) में जन्म। शिक्षा- एमएससी (कृषि)। भारतीय स्टेट बैंक से अधिकारी पद से रिटायर। बागबानी का शौक, समाज सेवा। अकेलेपन से निपटने के लिए मन की आवाज कलम के माध्यम से कभी- कभी कागज पर उतर आती है। पता - 13/1 बलरामपुर हाऊस मम्फोर्डगंज, इलाहाबाद - 211002 मो. 09628216646
***

ठेस

ठेस
- फणीश्वरनाथ रेणु
खेती- बारी के समय, गाँव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते.. लोग उसको बेकार ही नहीं, 'बेगार' समझते हैं। इसलिए, खेत- खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को। क्या होगा, उसको बुलाकर? दूसरे मजदूर खेत पहुँच कर एक- तिहाई काम कर चुकेंगे, तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता दिखाई पड़ेगा। पगडण्डी पर तौल- तौल कर पाँव रखता हुआ, धीरे- धीरे.. मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है।
...आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े- बड़े बाबू लोगों की सवारियाँ बंधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे... '.. अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गयी है सारे इलाके में। एक दिन समय निकालकर चलो। कल बड़े भैया की चिट्ठी आई है शहर से- सिरचन से एक जोड़ा चिक बनवा कर भेज दो।'
मुझे याद है.. मेरी माँ जब कभी सिरचन को बुलाने के लिए कहती, मैं पहले ही पूछ लेता, 'भोग क्या- क्या लगेगा?'
माँ हँस कर कहती, 'जा- जा, बेचारा मेरे काम में पूजा- भोग की बात नहीं उठाता कभी।'
ब्राह्मण टोली के पंचानंद चौधरी के छोटे लड़के को एक बार मेरे सामने ही बेपानी कर दिया था सिरचन ने- 'तुम्हारी भाभी नाखून से खांट कर तरकारी परोसती है। और इमली का रस साल कर कढ़ी तो हम कहार- कुम्हारों की घरवाली बनाती है। तुम्हारी भाभी ने कहाँ से बनायीं!'
इसलिए सिरचन को बुलाने से पहले मैं माँ को पूछ लेता...
सिरचन को देखते ही माँ हुलस कर कहती, 'आओ सिरचन! आज नेनू मथ रही थी, तो तुम्हारी याद आई। घी की डाड़ी (खखोरन) के साथ चूड़ा तुमको बहुत पसंद है न... और बड़ी बेटी ने ससुराल से संवाद भेजा है, उसकी ननद रूठी हुई है, मोथी की शीतलपाटी के लिए।'
सिरचन अपनी पनियायी जीभ को सम्हाल कर हँसता- 'घी की सुगंध सूंघ कर आ रहा हूँ, काकी! नहीं तो इस शादी ब्याह के मौसम में दम मारने की भी छुट्टी कहाँ मिलती है?'
सिरचन जाति का कारीगर है। मैंने घंटों बैठ कर उसके काम करने के ढंग को देखा है। एक- एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जातां से उसकी कुच्ची बनाता। फिर, कुच्चियों को रंगने से लेकर सुतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त... काम करते समय उसकी तन्मयता में जरा भी बाधा पड़ी कि गेंहुअन सांप की तरह फुफकार उठता- 'फिर किसी दूसरे से करवा लीजिये काम। सिरचन मुंहजोर है, कामचोर नहीं।'
बिना मजदूरी के पेट- भर भात पर काम करने वाला कारीगर। दूध में कोई मिठाई न मिले, तो कोई बात नहीं, किन्तु बात में जरा भी झाल वह नहीं बर्दाश्त कर सकता।
सिरचन को लोग चटोर भी समझते हैं... तली- बघारी हुई तरकारी, दही की कुढ़ी, मलाई वाला दूध, इन सबका प्रबंध पहले कर लो, तब सिरचन को बुलाओ, दुम हिलाता हुआ हाजिर हो जाएगा। खाने- पीने में चिकनायी की कमी हुई कि काम की सारी चिकनाई खत्म! काम अधूरा रखकर उठ खड़ा होगा- 'आज तो अब अधकपाली दर्द से माथा टनटना रहा है। थोड़ा- सा रह गया है, किसी दिन आ कर पूरा कर दूँगा।'... 'किसी दिन'- माने कभी नहीं!
मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बांस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी- चुन्नी रखने के लिए मूंज की रस्सी के बड़े- बड़े जाले, हलावाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी- टोपी तथा इसी तरह के बहुत से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता। यह दूसरी बात है कि अब गाँव में ऐसे कामों को बेकाम का काम समझते हैं लोग- बेकाम का काम, जिसकी मजदूरी में अनाज या पैसे देने की कोई जरुरत नहीं। पेट- भर खिला दो, काम पूरा होने पर एकाध पुराना- धुराना कपड़ा दे कर विदा करो। वह कुछ भी नहीं बोलेगा...।
कुछ भी नहीं बोलेगा, ऐसी बात नहीं। सिरचन को बुलाने वाले जानते हैं, सिरचन बात करने में भी कारीगर है... महाजन टोले के भज्जू महाजन की बेटी सिरचन की बात सुन कर तिलमिला उठी थी- ठहरो! मैं माँ से जा कर कहती हूँ। इतनी बड़ी बात!'
'बड़ी बात ही है बिटिया! बड़े लोगों की बस बात ही बड़ी होती है। नहीं तो दो- दो पटेर की पटियों का काम सिर्फ खेसारी का सत्तू खिलाकर कोई करवाए भला? यह तुम्हारी माँ ही कर सकती है बबुनी!' सिरचन ने मुस्कुरा कर जवाब दिया था।
उस बार मेरी सबसे छोटी बहन की विदाई होने वाली थी।
पहली बार ससुराल जा रही थी मानू। मानू के दूल्हे ने पहले ही बड़ी भाभी को खत लिख कर चेतावनी दे दी है- 'मानू के साथ मिठाई की पतीली न आये, कोई बात नहीं। तीन जोड़ी फैशनेबल चिक और पटेर की दो शीतलपाटियों के बिना आएगी मानू तो.. ।' भाभी ने हँस कर कहा, 'बैरंग वापस!' इसलिए, एक सप्ताह से पहले से ही सिरचन को बुला कर काम पर तैनात करवा दिया था माँ ने- 'देख सिरचन! इस बार नयी धोती दूँगी, असली मोहर छाप वाली धोती। मन लगा कर ऐसा काम करो कि देखने वाले देख कर देखते ही रह जाएँ।'
पान- जैसी पतली छुरी से बांस की तीलियों और कमानियों को चिकनाता हुआ सिरचन अपने काम में लग गया। रंगीन सुतलियों से झब्बे डाल कर वह चिक बुनने बैठा। डेढ़ हाथ की बिनाई देख कर ही लोग समझ गए कि इस बार एकदम नए फैशन की चीज बन रही है, जो पहले कभी नहीं बनी।
मंझली भाभी से नहीं रहा गया, परदे के आड़ से बोली, 'पहले ऐसा जानती कि मोहर छाप वाली धोती देने से ही अच्छी चीज बनती है तो भैया को खबर भेज देती।'
काम में व्यस्त सिरचन के कानों में बात पड़ गयी। बोला, 'मोहर छापवाली धोती के साथ रेशमी कुरता देने पर भी ऐसी चीज नहीं बनती बहुरिया। मानू दीदी काकी की सबसे छोटी बेटी है.. मानू दीदी का दूल्हा अफसर आदमी है।'
मंझली भाभी का मुंह लटक गया। मेरी चाची ने फुसफुसा कर कहा, 'किससे बात करती है बहू? मोहर छाप वाली धोती नहीं, मूँगिया- लड्डू। बेटी की विदाई के समय रोज मिठाई जो खाने को मिलेगी। देखती है न।'
दूसरे दिन चिक की पहली पाँति में सात तारे जगमगा उठे, सात रंग के। सतभैया तारा! सिरचन जब काम में मगन होता है तो उसकी जीभ जरा बहार निकल आती है, होठ पर। अपने काम में मगन सिरचन को खाने- पीने की सुध नहीं रहती। चिक में सुतली के फंदे डाल कर अपने पास पड़े सूप पर निगाह डाली- चिउरा और गुड़ का एक सूखा ढेला। मैंने लक्ष्य किया, सिरचन की नाक के पास दो रेखाएं उभर आयीं। मैं दौड़ कर माँ के पास गया। 'माँ, आज सिरचन को कलेवा किसने दिया है, सिर्फ चिउरा और गुड़?'
माँ रसोईघर में अन्दर पकवान आदि बनाने में व्यस्त थी। बोली, 'मैं अकेली कहाँ- कहाँ क्या- क्या देखूं!.. अरी मंझली, सिरचन को बुँदिया क्यों नहीं देती?'
'बुँदिया मैं नहीं खाता, काकी!' सिरचन के मुंह में चिउरा भरा हुआ था। गुड़ का ढेला सूप के किनारे पर पड़ा रहा, अछूता।
माँ की बोली सुनते ही मंझली भाभी की भौंहें तन गयीं। मुट्ठी भर बुँदिया सूप में फेंक कर चली गयी।
सिरचन ने पानी पी कर कहा, 'मंझली बहूरानी अपने मैके से आई हुई मिठाई भी इसी तरह हाथ खोल कर बाँटती है क्या?'
बस, मंझली भाभी अपने कमरे में बैठकर रोने लगी। चाची ने माँ के पास जा कर लगाया- 'छोटी जाति के आदमी का मुँह भी छोटा होता है। मुँह लगाने से सर पर चढ़ेगा ही... किसी के नैहर- ससुराल की बात क्यों करेगा वह?'
मंझली भाभी माँ की दुलारी बहू है। माँ तमक कर बाहर आई- 'सिरचन, तुम काम करने आये हो, अपना काम करो। बहुओं से बतकुट्टी करने की क्या जरूरत? जिस चीज की जरुरत हो, मुझसे कहो।'
सिरचन का मुँह लाल हो गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया। बांस में टंगे हुए अधूरे चिक में फंदे डालने लगा।
मानू पान सजा कर बाहर बैठकखाने में भेज रही थी। चुपके से पान का एक बीड़ा सिरचन को देती हुई बोली, इधर- उधर देख कर कहा- 'सिरचन दादा, काम- काज का घर! पाँच तरह के लोग पाँच किस्म की बात करेंगे.. तुम किसी की बात पर कान मत दो।'
सिरचन ने मुस्कुरा कर पान का बीड़ा मुँह में ले लिया। चाची अपने कमरे से निकल रही थी। सिरचन को पान खाते देख कर अवाक हो गयी। सिरचन ने चाची को अपनी ओर अचरज से घूरते देखकर कहा- 'छोटी चाची, जरा अपनी डिबिया का गमकौआ जर्दा खाते हो?... चटोर कहीं के!' मेरा कलेजा धड़क उठा.. यत्परो नास्ति!
बस, सिरचन की उँगलियों में सुतली के फंदे पड़ गए। मानो, कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा पान को मुँह में घुलाता रहा। फिर, अचानक उठ कर पिछवाड़े पीक थूक आया। अपनी छुरी, हंसियाँ वैगरह समेट सम्हाल कर झोले में रख... टंगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आँगन के बाहर निकल गया।
चाची बड़बड़ाई- 'अरे बाप रे बाप! इतनी तेजी! कोई मुफ्त में तो काम नहीं करता। आठ रुपये में मोहरछाप वाली धोती आती है।... इस मुँहझौंसे के मुँह में लगाम है, न आँख में शील। पैसा खर्च करने पर सैकड़ों चिक मिलेगी। बांतर टोली की औरतें सिर पर गट्ठर लेकर गली- गली मारी फिरती हैं।'
मानू कुछ नहीं बोली। चुपचाप अधूरी चिक को देखती रही... सातो तारें मंद पड़ गए।
माँ बोली, 'जाने दे बेटी! जी छोटा मत कर, मानू। मेले से खरीद कर भेज दूँगी।'
मानू को याद आया, विवाह में सिरचन के हाथ की शीतलपाटी दी थी माँ ने। ससुरालवालों ने न जाने कितनी बार खोल कर दिखलाया था पटना और कलकत्ता के मेहमानों को। वह उठ कर बड़ी भाभी के कमरे में चली गयी।
मैं सिरचन को मनाने गया। देखा, एक फटी शीतलपाटी पर लेट कर वह कुछ सोच रहा है।
मुझे देखते ही बोला, बबुआ जी! अब नहीं। कान पकड़ता हूँ, अब नहीं... मोहर छाप वाली धोती लेकर क्या करूँगा? कौन पहनेगा?.. ससुरी खुद मरी, बेटे बेटियों को ले गयी अपने साथ। बबुआजी, मेरी घरवाली जिंदा रहती तो मैं ऐसी दुर्दशा भोगता? यह शीतलपाटी उसी की बुनी हुई है। इस शीतलपाटी को छू कर कहता हूँ, अब यह काम नहीं करूँगा.. गाँव- भर में तुम्हारी हवेली में मेरी कदर होती थी.. अब क्या?' मैं चुपचाप वापस लौट आया। समझ गया, कलाकार के दिल में ठेस लगी है। वह अब नहीं आ सकता।
बड़ी भाभी अधूरी चिक में रंगीन छींट की झालर लगाने लगी- 'यह भी बेजा नहीं दिखलाई पड़ता, क्यों मानू?'
मानू कुछ नहीं बोली। .. बेचारी! किन्तु, मैं चुप नहीं रह सका- 'चाची और मंझली भाभी की नजर न लग जाए
इसमें भी।'
मानू को ससुराल पहुँचाने मैं ही जा रहा था।
स्टेशन पर सामान मिलाते समय देखा, मानू बड़े जातां से अधूरे चिक को मोड़ कर लिए जा रही है अपने साथ। मन- ही- मन सिरचन पर गुस्सा हो आया। चाची के सुर- में- सुर मिला कर कोसने को जी हुआ... कामचोर, चटोर.. ।!
गाड़ी आई। सामान चढ़ा कर मैं दरवाजा बंद कर रहा था कि प्लेटफॉर्म पर दौड़ते हुए सिरचन पर नजर पड़ी- 'बबुआजी!' उसने दरवाजे के पास आ कर पुकारा।
'क्या है?' मैंने खिड़की से गर्दन निकाल कर झिड़की के स्वर में कहा। सिरचन ने पीठ पर लादे हुए बोझ को उतार कर मेरी ओर देखा- 'दौड़ता आया हूँ... दरवाजा खोलिए। मानू दीदी कहाँ हैं? एक बार देखूं!'
मैंने दरवाजा खोल दिया।
'सिरचन दादा!' मानू इतना ही बोल सकी।
खिड़की के पास खड़े हो कर सिरचन ने हकलाते हुए कहा, 'यह मेरी ओर से है। सब चीज है दीदी! शीतलपाटी, चिक और एक जोड़ी आसनी, कुश की।'
गाड़ी चल पड़ी।
मानू मोहर छापवाली धोती का दाम निकाल कर देने लगी। सिरचन ने जीभ को दांत से काट कर, दोनों हाथ जोड़ दिए।
मानू फूट- फूट रो रही थी। मैं बण्डल को खोलकर देखना लगा- ऐसी कारीगरी, ऐसी बारीकी, रंगीन सुतलियों के फंदों को ऐसा काम, पहली बार देख रहा था।
कलाकार मन को टटोलती रेणु की कहानी
हिन्दी की यादगार कहानियां स्तंभ के अंतर्गत अब तक आप प्रेमचंद, माधवराव सप्रे, मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, उपेन्द्रनाथ अश्क और कमलेश्वर की कहानियां पढ़ चुके हैं। पाठकों ने इस स्तंभ के लिए चयनित कहानियों को खूब पसंद किया है। इस अंक में हिन्दी के यशस्वी कथाकारों की ऐसी कहानियों का चयन कर रहे हैं जिन्हें कथा परंपरा और प्रवृत्तियों की दृष्टि से ऐतिहासिक महत्व प्राप्त है।
फणीश्वरनाथ रेणु एक ऐसे कथाकार थे जिन्होंने आजादी के बाद स्वप्न-भंग पर सर्वाधिक चर्चित कृतियों का सृजन किया है। मैला आंचल जैसे प्रख्यात और दुर्लभ उपन्यास के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अभावों में जीने वाले मन के कुबेरों की कथा की अनोखी परंपरा को समृद्ध किया। नव- सामंतवाद, जातिप्रथा, राजनीतिक षडयंत्र और निरंतर शोषण के वीभत्स चेहरों की पहचान रेणु के पाठकों ने किया। इनकी लेखन- शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र- निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य- सरल मानव मन (प्राय:) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। प्रस्तुत है कलाकार के मन को टटोलती उनकी यह कहानी 'ठेस'।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा , एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494
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