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Mar 21, 2011

महिला- विशेष

बेटियां लाएँगी उजियारा
- हर्षा पौराणिक
फूलों सी खिली- खिली, तितलियों सी चहकती बेटियां परिवार में, समाज में खुशियां लाती हैं। फि र भी आज अधिकांश लोग बेटियों का जन्म पसंद नहीं करते। पुत्रवती माताएं बड़े ठाठ से बताती हैं कि हमारे घर में तो बेटे ही बेटे हैं और बेटियों वाली माताओं से कुछ सहानुभूति सी रखती हैं।
कन्या लक्ष्मी का रूप होती हैं, देवी का रूप होती हैं, ये सब बातें अब गुजरे जमाने की हो गयी हैं। लड़कियां आज धरती से आकाश तक नाप लेती हैं, हर वो काम करती हैं, जिसमें कभी पुरूषों का वर्चस्व था। फिर भी लड़कियों से आज भी अधिकांश परिवारों में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। किसी भी परीक्षा के परिणामों पर नजर डालें तो लड़कियां हमेशा अव्वल रहती हैं। फूलों सी खिली- खिली, तितलियों सी चहकती बेटियां परिवार में, समाज में खुशियां लाती हैं। फिर भी आज अधिकांश लोग बेटियों का जन्म पसंद नहीं करते। पुत्रवती माताएं बड़े ठाठ से बताती हैं कि हमारे घर में तो बेटे ही बेटे हैं और बेटियों वाली माताओं से कुछ सहानुभूति सी रखती हैं।
ईश्वर ने प्रकृति की निरंतरता के लिए नर- नारी दोनों की रचना की। लड़कियों को इस संसार मे पैदा न होने देना ईश्वर के विधान के खिलाफ जाना है। अधिकांश व्यक्ति न सिर्फ पुत्र की चाह रखते हैं बल्कि उसके लिए तरह- तरह के उपाय भी करते हैं। लिंग निर्धारण परीक्षण करवाते हैं, कन्या भ्रूण को बेरहमी से मार देते हैं और घर जाकर देवी मां की बड़े मन से पूजा भी करते हैं।
मां क्या इन्हें माफ कर देगी
छत्तीसगढ़ में 0 से 6 आयु वर्ग में लिंगानुपात देश में सर्वाधिक बड़ी संख्या में हो रहे कन्या भू्रण हत्या के कारण देश में लिंग अनुपात महिलाओं के खिलाफ जा रहा है। वर्ष 1901 की जनगणना में यह अनुपात 972 था जो 1991 में घट कर 927 हो गया था। वर्ष 2001 की जनगणना में यह अनुपात 933 था। केरल में सर्वाधिक लिंगानुपात 1058 है जबकि छत्तीसगढ़ इस मामले में दूसरे स्थान पर है। यहां लिंगानुपात 989 है। प्रदेश के आदिवासियों में लिंगानुपात 1013 है जो आदिवासी जनसंख्या के राष्ट्रीय लिंगानुपात 1000 से अधिक है। यह छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज के प्रगतिशील होने का परिचायक है।
शून्य से छह आयु वर्ग के लिंग अनुपात का यदि विश्लेषण करें तो पूरे देश में वर्ष 2001 में यह 927 प्रति हजार था जबकि 1991 में 945 था। छत्तीसगढ़ में शून्य से छह आयु वर्ग में लिंगानुपात राज्यों में सर्वाधिक है। प्रदेश में बालिकाओं का अनुपात 982 प्रति हजार बालक है। केवल दो यूनियन टेरीटरी दादरा नगर हवेली और लक्षद्वीप में यह अनुपात क्रमश: 1003 और 999 है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ़ में बच्चियों के प्रति जन्म के पूर्व भेदभाव नहीं बरता जा रहा है। उन्हे मां की कोख से जन्म लेने दिया जा रहा है।
पंजाब, हरियाणा और अन्य तथाकथित प्रगतिशील राज्य कन्या भ्रूण की हत्या के मामले में काफी आगे हैं। प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण अधिनियम का धड़ल्ले से मखौल उड़ाते हुए इन राज्यों के क्लिनिक जनता से भ्रूण लिंग पहचान के लिए भारी भरकम फीस वसूलते हैं। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 80 प्रतिशत जिलों में बालिकाओं की संख्या बालकों की अपेक्षा कम है। इसके अनेक कारण है जिनमें बाल विवाह, शिशु मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर और कन्या भ्रूण हत्या प्रमुख हैं।
कन्या भ्रूण की हत्या के लिए समाज की मानसिकता मुख्यत: दोषी है जो आज भी लड़के के सहारे वैतरणी पार करने और लड़का बुढ़ापे का सहारा होता है, जैसी सोच रखते हैं, जबकि होता इसका उल्टा होता है। वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद की इस भाग- दौड़ की जिंदगी में व्यक्ति को अपने कैरियर और न्यूक्लियर परिवार की ज्यादा चिंता रहती है न कि बुढ़ापे के बोझ से थके हुए माता पिता की। ऐसे मामलों में लड़कियां मां- बाप के प्रति अधिक संवेदनशील रहती हैं और बूढ़े माता- पिता की देखभाल करती हैं।
पूरे विश्व में महिलाओं, बेटियों के प्रति भेदभाव बरता जा रहा है। यह संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट से साफ पता चलता है जिसके अनुसार महिलाएं विश्व का 66 प्रतिशत से अधिक कार्य करती हैं। पचास प्रतिशत से अधिक भोजन का उत्पादन करती हैं किंतु विडंबना यह है कि महिलाएं कुल आय का 10 प्रतिशत ही कमा पाती हैं और एक प्रतिशत संपत्ति की ही मालिक होती हैं। महिलाओं को प्रत्येक क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिम्मेदारियां दी जाती हैं लेकिन निर्णय लेने के अधिकार नहीं दिए जाते। जब तक समाज में लिंग भेद नहीं मिटेगा तब तक समाज का, देश का समग्र विकास नहीं हो पाएगा। आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ हद तक यह मानना पड़ेगा कि समाज में कुछ सुखद बदलाव भी आ रहे हैं। पहले कन्याओं को गोद नहीं लिया जाता था। जिला प्रशासन के पास केवल लड़कों के लिए ही आवेदन आते थे लेकिन अब लड़कियों को भी गोद लिया जाता है। समाज के नजरिए में लड़कियों के प्रति कुछ परिवर्तन आ रहा है। समाज के हर व्यक्ति को इस दिशा में जागरूक होना होगा और लड़के लड़की के भेदभाव को मिटाना होगा। महिलाओं के प्रति हिंसा खत्म करनी होगी। महिलाओं से भेदभाव करने वाली कुप्रथाएं बाल विवाह, टोनही प्रथा आदि समाप्त करनी होगी तब ही एक स्वस्थ समाज और स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण होगा। बेटियों को लक्ष्मी भले ही न मानें पर अपनी और समाज की लाड़ली ही मानें तो यही बेटियां बड़ी होकर आपके आंगन में, समाज में उजियारा लाएंगी।
पता- एफ 11, शांति नगर, सिंचाई कालोनी, रायपुर (छत्तीसगढ़)

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