1. समझदारी
चरण स्पर्श,
आपका पत्र मिला। ईश्वर की कृपा से हम सब यहां सकुशल हैं। आशा है, आप, अम्मा और उमा भी अच्छे होंगे। आपने उमा के विवाह के सिलसिले में लिखा है। यह जानकर मैं और आपकी बहू अलका बहुत प्रसन्न हुए। आजकल अच्छे लड़के जल्दी मिलते कहां हैं ? परन्तु हमारी बहन उमा बहुत भाग्यशाली है जो उसे इतना अच्छा पति मिल रहा है। आप और अम्मा विवाह की तैयारियों में व्यस्त होंगे। मैं और अलका सोच रहे थे कि हम भी समय पर गांव पहुंच जाएं। परन्तु बाबूजी, आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है। यहां शहर की भागम- भाग की जिन्दगी में हर इन्सान वैसे ही परेशान है और फिर इस कमरतोड़ मंहगाई ने सारा जीवन अस्त- व्यस्त कर दिया है। बच्चे बड़े होते जा रहे हैं, उनका खर्च सम्हाल पाना अभी से मुश्किल हो रहा है। मेरी और अलका की तनख्वाह भी अब कम पडऩे लगी है। आगे क्या होगा ? कैसे होगा ? यह सोच सोच कर मैं परेशान हो जाता हूं। बाबूजी, आपने मेरे लिए क्या कुछ नहीं किया। अपना पेट काट- काट कर मुझे पढ़ाया- लिखाया, मेरा विवाह करवाया। मेरा रोम- रोम आपका कर्जदार है। मैं इस बात को भी अच्छी तरह समझता हूं कि उमा के विवाह की सारी जिम्मेदारी मुझे ही उठानी चाहिए लेकिन मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूं। मैंने सरकारी लोन लेकर यहां अपना मकान बनवाया है, आधी तनख्वाह तो उसकी किश्त चुकाने में चली जाती है। भविष्य निधि से पैसे निकलवाने की बात सोचना भी अनुचित है क्योंकि यही मेरे बुढ़ापे की धरोहर है।
बाबूजी, आप सब मेरी मजबूरी अच्छी तरह समझते होंगे। उमा के विवाह के लिए हमारे आने- जाने में दो हजार रुपए खर्च होंगे। इसलिए उचित यह होगा कि इन रुपयों में तीन हजार रूपये और मिलाकर मैं आपको भेज दूं। आप इन पांच हजार रुपयों से उमा के लिए कोई अच्छा सा सामान खरीद लीजिएगा। बाबूजी, मैं जानता हूं कि मेरे न आने पर समाज के लोग अवश्य उंगली उठाएंगे और आप लोगों को भी तकलीफ पहुंचेगी। लेकिन बाबूजी, परिस्थितियों के अनुकूल कार्य करने में ही समझदारी है। आशा है, आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। अम्मा को प्रणाम और उमा को हमारा आशीष कहिए। विवाह के सम्बन्ध में सम्पूर्ण विवरण से अवगत करवाइएगा।
चार बरस के बाद आज अल्पना से अचानक मुलाकात हो गई, इन वर्षों में उसमें जमीन - आसमान का फर्क आ गया था। हम दोनों सहपाठी थे, पर वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ी थी। 'पहचाना मुझे?' उसने मुझसे पूछा। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट अवश्य थी परन्तु उसके पीछे जितना दर्द छिपा था, वह भी साफ नजर आ रहा था। बातों का सिलसिला चल पड़ा- 'आजकल एक स्कूल में टीचर हूं। बड़ी परेशान हूं। चाहती हूं कि इसी शहर में मेरा ट्रांंसफर हो जाता तो अपने माता- पिता के साथ रह पाती'। मुझे पता था कि उसकी शादी दो साल पहले हुई थी। उसकी बातें सुनकर मुझे अचरज हुआ मैंने कारण जानना चाहा कि वह अपने माता- पिता के पास आकर क्यों रहना चाहती है।
'उसने तो शादी के चौथे माह बाद ही आत्महत्या कर ली थी'- कहकर अल्पना के सब्र का बांध टूट गया, अनवरत आंसू बहने लगे। और वह बताने लगी कि किस तरह शादी के बाद अचानक उसे वैधव्य का सामना करना पड़ा। उसके पुराने सहपाठी और मित्र अब कितने सतही तौर पर मिलते हैं और कुछ तो अंजानों की तरह कतरा कर निकल जाते हैं। ...अब हर आदमी सहानुभूति की आड़ में कुछ मांगता है, चाहता है। बचपन में साथ पले- बढ़े दोस्त भी छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। 'उसने आत्महत्या की तो इसमें मेरा क्या दोष है ?'
वह कहती जा रही थी और रोती जा रही थी। यह देखकर मेरा मन पिघल गया। उसके आंसू पोंछने की इच्छा थी, पर मेरे हाथ आगे नहीं बढ़ पाए कि कहीं मैं भी सहानुभूति की आड़ में उसका शोषक न बन जाऊं।
- जमील रिज़वी
आदरणीय बाबूजी,चरण स्पर्श,
आपका पत्र मिला। ईश्वर की कृपा से हम सब यहां सकुशल हैं। आशा है, आप, अम्मा और उमा भी अच्छे होंगे। आपने उमा के विवाह के सिलसिले में लिखा है। यह जानकर मैं और आपकी बहू अलका बहुत प्रसन्न हुए। आजकल अच्छे लड़के जल्दी मिलते कहां हैं ? परन्तु हमारी बहन उमा बहुत भाग्यशाली है जो उसे इतना अच्छा पति मिल रहा है। आप और अम्मा विवाह की तैयारियों में व्यस्त होंगे। मैं और अलका सोच रहे थे कि हम भी समय पर गांव पहुंच जाएं। परन्तु बाबूजी, आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है। यहां शहर की भागम- भाग की जिन्दगी में हर इन्सान वैसे ही परेशान है और फिर इस कमरतोड़ मंहगाई ने सारा जीवन अस्त- व्यस्त कर दिया है। बच्चे बड़े होते जा रहे हैं, उनका खर्च सम्हाल पाना अभी से मुश्किल हो रहा है। मेरी और अलका की तनख्वाह भी अब कम पडऩे लगी है। आगे क्या होगा ? कैसे होगा ? यह सोच सोच कर मैं परेशान हो जाता हूं। बाबूजी, आपने मेरे लिए क्या कुछ नहीं किया। अपना पेट काट- काट कर मुझे पढ़ाया- लिखाया, मेरा विवाह करवाया। मेरा रोम- रोम आपका कर्जदार है। मैं इस बात को भी अच्छी तरह समझता हूं कि उमा के विवाह की सारी जिम्मेदारी मुझे ही उठानी चाहिए लेकिन मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूं। मैंने सरकारी लोन लेकर यहां अपना मकान बनवाया है, आधी तनख्वाह तो उसकी किश्त चुकाने में चली जाती है। भविष्य निधि से पैसे निकलवाने की बात सोचना भी अनुचित है क्योंकि यही मेरे बुढ़ापे की धरोहर है।
बाबूजी, आप सब मेरी मजबूरी अच्छी तरह समझते होंगे। उमा के विवाह के लिए हमारे आने- जाने में दो हजार रुपए खर्च होंगे। इसलिए उचित यह होगा कि इन रुपयों में तीन हजार रूपये और मिलाकर मैं आपको भेज दूं। आप इन पांच हजार रुपयों से उमा के लिए कोई अच्छा सा सामान खरीद लीजिएगा। बाबूजी, मैं जानता हूं कि मेरे न आने पर समाज के लोग अवश्य उंगली उठाएंगे और आप लोगों को भी तकलीफ पहुंचेगी। लेकिन बाबूजी, परिस्थितियों के अनुकूल कार्य करने में ही समझदारी है। आशा है, आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे। अम्मा को प्रणाम और उमा को हमारा आशीष कहिए। विवाह के सम्बन्ध में सम्पूर्ण विवरण से अवगत करवाइएगा।
- आपका बेटा
2 . अन्तरद्वंदचार बरस के बाद आज अल्पना से अचानक मुलाकात हो गई, इन वर्षों में उसमें जमीन - आसमान का फर्क आ गया था। हम दोनों सहपाठी थे, पर वह उम्र में मुझसे कुछ बड़ी थी। 'पहचाना मुझे?' उसने मुझसे पूछा। उसके चेहरे पर मुस्कुराहट अवश्य थी परन्तु उसके पीछे जितना दर्द छिपा था, वह भी साफ नजर आ रहा था। बातों का सिलसिला चल पड़ा- 'आजकल एक स्कूल में टीचर हूं। बड़ी परेशान हूं। चाहती हूं कि इसी शहर में मेरा ट्रांंसफर हो जाता तो अपने माता- पिता के साथ रह पाती'। मुझे पता था कि उसकी शादी दो साल पहले हुई थी। उसकी बातें सुनकर मुझे अचरज हुआ मैंने कारण जानना चाहा कि वह अपने माता- पिता के पास आकर क्यों रहना चाहती है।
'उसने तो शादी के चौथे माह बाद ही आत्महत्या कर ली थी'- कहकर अल्पना के सब्र का बांध टूट गया, अनवरत आंसू बहने लगे। और वह बताने लगी कि किस तरह शादी के बाद अचानक उसे वैधव्य का सामना करना पड़ा। उसके पुराने सहपाठी और मित्र अब कितने सतही तौर पर मिलते हैं और कुछ तो अंजानों की तरह कतरा कर निकल जाते हैं। ...अब हर आदमी सहानुभूति की आड़ में कुछ मांगता है, चाहता है। बचपन में साथ पले- बढ़े दोस्त भी छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। 'उसने आत्महत्या की तो इसमें मेरा क्या दोष है ?'
वह कहती जा रही थी और रोती जा रही थी। यह देखकर मेरा मन पिघल गया। उसके आंसू पोंछने की इच्छा थी, पर मेरे हाथ आगे नहीं बढ़ पाए कि कहीं मैं भी सहानुभूति की आड़ में उसका शोषक न बन जाऊं।
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