होली सांस्कृतिक विरासत का लोक स्वरूप
- यशवन्त कोठारी
- यशवन्त कोठारी
होली का प्राचीन संदर्भ ढूंढने निकला तो लगा कि बसंत के आगमन के साथ ही चारों तरफ कामदेव अपने बाण छोडऩे को आतुर हो जाते हैं मानो होली की पूर्व पीठिका तैयार की जा रही हो। संस्कृत साहित्य के नाटक चारूदत्त में कामदेवानुमान उत्सव का जिक्र है, जिसमें कामदेव का जुलूस निकाला जाता था। इसी प्रकार 'मृच्छकटिकम' नाटक में भी बसंतसेना इसी प्रकार के जुलूस में भाग लेती है।प्राचीन भारत में मदनोत्सव के समय रानी सर्वाभरण भूषिता होकर पैरों को रंजित करके अशोक वृक्ष पर हल्के से बायें पैर से आघात करती थी और अशोक वृक्ष पर पुष्प खिल उठते थे। चारों तरफ बसंत और कामोत्सव की दुंदुभी बज उठती थी।
एक अन्य पुस्तक वर्ष- क्रिया कौमुदी के अनुसार इसी त्योहार में सुबह गाने- बजाने, कीचड़ फेंकने के कार्य संपन्न किये जाते हैं। सायंकाल सज्जित होकर मित्रों से मिलते हैं। धम्मपद के अनुसार महामूर्खों का मेला मनाया जाता है। सात दिनों तक गालियों का आदान- प्रदान किया जाता था। भविष्य पुराण के अनुसार बसंत काल में कामदेव और रति की मूर्तियों की स्थापना और पूजा- अर्चना की जाती है। रत्नावली नामक पुस्तक में मदनपूजा का विषद है। हर्ष चरित में भी मदनोत्सव का वर्णन मिलता है।
मदनोत्सव
पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' पुस्तक में मदन पूजा का वर्णन किया है।
दशकुमारचरित नामक पुस्तक में भी मदनोत्सव का वर्णन किया है। इस त्योहार पर राजा और आम नागरिक सभी बराबर हैं।
संस्कृत की पुस्तक कुट्टीनीमतम् में भी गणिका और वेश्याओं के साथ मदनोत्सव मनाने का विशद वर्णन है।
मदनोत्सव का वर्णन कालिदास ने भी अपने ग्रंथों में किया है। ऋतुसंहार के षष्ठ सर्ग में कालिदास ने बसंत का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। कुछ उदाहरण देखिए-
इन दिनों कामदेव भी स्त्रियों की मदमाती आंखों की चंचलता में, उनके गालों में पीलापन, कमर में गहरापन और नितंबों में मोटापा बनकर बैठ जाता है।
काम से स्त्रियां अलसा जाती हैं। मद से चलना बोलना भी कठिन हो जाता है और टेढ़ी भौंहों से चितवन कटीली जान पड़ती है।
मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया। हर गौरी राधा बन गयी। आधुनिक काल में होली का स्वरूप बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
मदनोत्सव, बसंतोत्सव, कामदेवोत्सव ये सभी हमारे लोकानुरंजन के लिए आवश्यक थे, हैं और रहेंगे।
बौराया तन और मन
प्राचीन भारत में मदनोत्सव के समय रानी सर्वाभरण भूषिता होकर पैरों को रंजित करके अशोक वृक्ष पर हल्के से बायें पैर से आघात करती थी और अशोक वृक्ष पर पुष्प खिल उठते थे। चारों तरफ बसंत और कामोत्सव की दुंदुभी बज उठती थी। कामदेव के डाकिये सब तरफ बसंत और फाल्गुनी हवाओं की पातियां बांट देते हैं और तन- मन सब बौरा जाता है।
खेतों में गेहूं, जौ, सरसों की बालियों में निखार आने लगता है और गांव की गोरी के गालों पर रस छलकने लगता है। और गुलमोहर तथा सेमल का तो कहना ही क्या सब पत्ते (कपड़े) फेंकफांक कर मदनोत्सव की तैयारी में जुट जाता है। मौसम के पांव धीरे- धीरे आगे बढ़ते हैं और छा जाती है एक नयी मस्ती, उल्लास, उमंग और उत्सवप्रियता।
प्राचीन भारत का कामोत्सव, मदनोत्सव, बसंतोत्सव और कौमुदी महोत्सव सब एक ही नाम के पर्यायवाची है। रंग ही रंग, उमंग ही उमंग, बौराना मगर यह सब कहां चला गय। सांप्रदायिकता का जहर होली को भी लील गया। मगर क्या उल्लास का स्वर या उमंग का आनंद कभी दब पाया है ? शायद हां..... शायद नहीं ? कामदेव के वाण हों या प्रजातंत्र के खतरे सब झेलने ही पड़ते हैं।
सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विशद वर्णन किया है। वाल्मीकी रामायण में भी बसंतोत्सव का वर्णन मिलता है। कालिदास इसे ऋ तु-उत्सव कहते हैं। नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विशद और रोचक वर्णन किया गया है।
दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवश्यक ऋतुओं को बताया है। पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति। वासवदत्ता नामक नाटक में सुबंधु ने बसंत के आगमन की खुशी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से बसंतोत्सव का वर्णन किया है। राजशेखर की काव्य- मीमांसा में भी ऋ तु वर्णन है। यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलाएं झूलकर शांत हो जाती है ।
संस्कृत के अन्य ग्रंथो में इन अवसरों पर हास- परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है। रास नृत्य का भी वर्णन है । गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलाएं। और सीमित समय। जो समय सीमा से मर्यादित था। सबसे बड़ी बात यह है कि निश्छल- स्वभाव और आनंद था। आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्शन नहीं।
श्रृंगार की प्रधानता
मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही हो ऐसा नहीं है। मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था। ईसा पूर्व दूसरी
मदनोत्सव ही बाद में शांति निकेतन में गुरूदेव के सान्निध्य में दोलोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। कृष्ण ने रासलीला के रूप में इस उत्सव को एक नया आयाम दिया। हर गौरी राधा बन गयी। आधुनिक काल में होली का स्वरूप बिगड़ गया है मगर फिर भी होली हमारी सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति का एक प्रखर नक्षत्र है।
मदनोत्सव, बसंतोत्सव, कामदेवोत्सव ये सभी हमारे लोकानुरंजन के लिए आवश्यक थे, हैं और रहेंगे।
बौराया तन और मन
प्राचीन भारत में मदनोत्सव के समय रानी सर्वाभरण भूषिता होकर पैरों को रंजित करके अशोक वृक्ष पर हल्के से बायें पैर से आघात करती थी और अशोक वृक्ष पर पुष्प खिल उठते थे। चारों तरफ बसंत और कामोत्सव की दुंदुभी बज उठती थी। कामदेव के डाकिये सब तरफ बसंत और फाल्गुनी हवाओं की पातियां बांट देते हैं और तन- मन सब बौरा जाता है।
खेतों में गेहूं, जौ, सरसों की बालियों में निखार आने लगता है और गांव की गोरी के गालों पर रस छलकने लगता है। और गुलमोहर तथा सेमल का तो कहना ही क्या सब पत्ते (कपड़े) फेंकफांक कर मदनोत्सव की तैयारी में जुट जाता है। मौसम के पांव धीरे- धीरे आगे बढ़ते हैं और छा जाती है एक नयी मस्ती, उल्लास, उमंग और उत्सवप्रियता।
प्राचीन भारत का कामोत्सव, मदनोत्सव, बसंतोत्सव और कौमुदी महोत्सव सब एक ही नाम के पर्यायवाची है। रंग ही रंग, उमंग ही उमंग, बौराना मगर यह सब कहां चला गय। सांप्रदायिकता का जहर होली को भी लील गया। मगर क्या उल्लास का स्वर या उमंग का आनंद कभी दब पाया है ? शायद हां..... शायद नहीं ? कामदेव के बाण हों या प्रजातंत्र के खतरे सब झेलने ही पड़ते हैं।
सम्राट हर्ष ने अपने नाटक रत्नावली तथा नागानंद में ऋतु-उत्सव यानि मदनोत्सव का विशद वर्णन किया है। वाल्मीक रामायण में भी बसंतोत्सव का वर्णन मिलता है। कालिदास इसे ऋ तु-उत्सव कहते हैं। नागानंद नामक नाटक नें एक वृद्धा के विवाह का विशद और रोचक वर्णन किया गया है।
दंडी ने अपने नाटक दशकुमार चरित में कामदेव की पूजा के लिए आवश्यक ऋतुओं को बताया है। पुस्तक के अनुसार प्रत्येक पति एक कामदेव है तथा प्रत्येक स्त्री एक रति। वासवदत्ता नामक नाटक में सुबंधु ने बसंत के आगमन की खुशी में राजा उदयन तथा राजकुमारी वासवदत्ता के माध्यम से बसंतोत्सव का वर्णन किया है। राजशेखर की काव्य- मीमांसा में भी ऋ तु वर्णन है। यदि इस अवसर पर झूले डाले जाएं तो महिलाएं झूलकर शांत हो जाती है ।
संस्कृत के अन्य ग्रंथो में इन अवसरों पर हास- परिहास, नाटक, स्वांग, लोक नृत्य, गीत आदि के आयोजनों का भी वर्णन किया है। रास नृत्य का भी वर्णन है। गायन, हास्य, मादक द्रव्य और नाचती गाती, खेलती, इठलाती रूपवती महिलाएं। और सीमित समय। जो समय सीमा से मर्यादित था। सबसे बड़ी बात यह है कि निश्छल- स्वभाव और आनंद था। आज की तरह कामुकता का भौंडा प्रदर्शन नहीं।
श्रृंगार की प्रधानता
मदनोत्सव का वर्णन केवल साहित्यिक कृतियों में ही हो ऐसा नहीं है। मूर्तिकला, चित्रकला, स्थापत्य आदि के माध्यमों से भी कामोत्सव का वर्णन किया जाता था। ईसा पूर्व दूसरी
शताब्दी से ही इस प्रकार की मूर्तियों के निर्माण की जानकारी है। राधा-कृष्ण के प्रेम के चित्र तथा होली और बसंतोत्सव के चित्र मन को मोहते हैं। इसी प्रकार बाद के काल में मुगल शासन के दौरान भी चित्र कलाओं में श्रृंगार प्रधान विषय रहा है। उस जमाने में हर रात बसंत थी और यह सब चलता रहा, जो अब जाकर होलिका या होली बन गया। कामदेव के नामों में मदन, मन्मथ, कंदर्प, प्रद्युम्न, अनंग, मकरध्वज, रतिपति, पुष्पधन्वा, रतिनायक प्रमुख हैं। यूनान में वे क्यूपिड है।
वास्तव में काम संपूर्ण पुरूषार्थों में श्रेष्ठ है। प्रत्येक नर कामदेव और प्रत्येक नारी रति है। आधुनिक स्त्री-पुरूषों के संबंधों के व्याख्याता शायद इस ओर ध्यान देंगे।
आखिर बीच में कौन- सा समय आया जब काम (सेक्स) के प्रति मानवीय आकर्षण को वर्जनाओं के अंतर्गत एक प्रतिबंधित चीज मान लिया गया। उन्मुक्त वातावरण और उन्मुक्त व्यवहार का स्थान व्यभिचार, यौनाचार और कुंठाओं ने ले लिया।
संपूर्ण प्राचीन भारतीय वाड्ंगमय काम की सत्ता को स्वीकार करता है और जीवन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को मानकर जीवन जीने की सलाह देता है। शरदोत्सव में काम और रति की पूजा का विधान है। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के एक लेख के अनुसार कामदेव की उपासना नहीं करने से कामदेव के श्राप के कारण जीवन नरक हो जाता है। और जीवन की कला (काम- कला) के विशद और प्रामाणिक ग्रंथ वात्स्यायन का काम शास्त्र भी भारतीय धरोहर है। कुमार संभव में काम कलाओं का विशद वर्णन है। जो बसंतोत्सव या शरदोत्सव या ऋतु उत्सव को दर्शाता है।
उपनिषदों, वेदों, पुराणों में भी काम के प्रति सहजता का एक भाव पाया गया है। इस संपूर्ण साहित्य में काम की अभिव्यक्ति बहुत ही सहज है, और पता नहीं कब सहज कामोत्सव आज का विकृत होली- उत्सव हो गया।
पूरे भारतीय समाज को अपनी अस्मिता, गौरव और प्राचीन परंपराओं को ध्यान में रखते हुए होली को एक पवित्र, सहज उत्सव मनाने की कोशिश करनी चाहिए ताकि हमारी सांस्कृतिक विरासत कलंकित न हो। इस दिन न कोई राजा न कोई रंक रहे। सब बस मानव रहें और हमारा व्यवहार, हमारी संस्कृति केवल सहज रहे। हाव- भाव सब मिलकर मर्यादित रहें और हम सब बसंतोत्सव का आनंद लें कहीं किसी पर कीचड़ नहीं उछालें। क्योंकि किसी के मन को दु:खी करना हमारी परंपरा कभी नहीं रही। हम तो सब के साथ मिलकर, सबको साथ लेकर चलने की विराट परंपरा के वारिस हैं। मदनोत्सव कामकुंठाओं से मुक्त होने का प्राचीन उत्सव है, कौमुदी महोत्सव का वर्णन चाणक्य ने भी किया है। शांति निकेतन में भी दोलोत्सव मनाया जाता है। आइये इस होली पर यह शपथ लें कि होली को शालीनता के साथ मनाएंगे।
मेरे बारे में ...
नाथद्वारा, राजस्थान में 3 मई 1950 को मेरा जन्म हुआ। आयुर्वेद के राष्ट्रीय संस्थान जयपुर में एसोसिएट प्रोफेसर (कैमिस्ट्री) के रूप में सेवा दी। मेरे 4 उपन्यास, 12 व्यंग्य पुस्तकें हिन्दी में, 3 अंग्रेजी में, कुछ पुस्तकें बच्चों एवं प्रौढ़ों के लिए तथा विभिन्न अखबारों एवं पत्रिकाओं में 1000 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लंदन से प्रकाशित "Angles and Triangles" मेरा पहला अंग्रेजी ई-उपन्यास है जिसे आप http://www.abook2read.com/authors/yashwant-kothari.html पर पढ़ सकतें है। वर्तमान में मैं भारत सरकार राजभाषा समिति का सदस्य हूं।
मेरा पता: 86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर 302002, फोन : 0141- 2670596
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1 comment:
वसन्त में पेड पर भी बौर आ जाता है तो मनुष्य क्यों न बौराये :)
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