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Mar 21, 2011

भ्रांतियों के भंवर में आयुर्वेद

- डॉ. विनोद बैरागी
पहले से दुखी असाध्य रोगी हजारों- लाखों रुपए खर्च करके बड़ी आशा से आयुर्वेद की शरण में आता है परंतु जब संहिता ज्ञान से अनजान चिकित्सक अथवा औषधि कंपनी के विज्ञापन के चंगुल में फंस जाता है तो ठगा कर यही कहता है कि आयुर्वेद में दम नहीं है। उक्त धारणा मित्रों/ परिजनों के माध्यम से फैलती है तो इस दुष्प्रचार का परिणाम आयुर्वेद पद्धति को भोगना ही है, जबकि दोषी कोई और है। इसलिए आयुर्वेद के सुयोग्य चिकित्सकों पर दोहरा दायित्व है- प्रामाणिकता के साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा करना और आयुर्वेद चिकित्सा के बारे में फैल रहे भ्रमजाल को दूर करना ताकि भ्रांतियों के भंवर से उबरकर आयुर्वेद पुन: अपना स्थान पा सके।
'डॉक्टर साहब। मेरे एक रिश्तेदार कई सालों से परेशान हैं, बहुत खर्चा हो गया है, आप कोई अच्छा- सा नुस्खा बता दीजिए जिससे उन्हें इस रोग से छुटकारा मिल जाए।' लकवा, साइटिका, कैंसर, एड्स, हृदय रोग, श्वास रोग, मधुमेह, गठिया, स्पांडेलाइसिस आदि जटिल बीमारियों का नाम लेकर वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के डॉक्टरों से अपने परिजनों/ मित्रों के बारे में प्रत्यक्ष या फोन पर चर्चा में परामर्श लिया जाना, एक आम बात है। प्राय: आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी, प्राकृतिक, योग एवं सिद्ध चिकित्सा प्रणाली से ऐसी अपेक्षा की जाती है कि सालों पुरानी बीमारी जादू की तरह छूमंतर हो जाए।
समाज में इस तरह की धारणा बन जाना स्वाभाविक ही है, क्योंकि अक्सर देखा गया है इन चिकित्सा प्रणालियों का प्रचार- प्रसार भी जोर- शोर से होता है- 'चमत्कार। अनोखी खोज। अमुक (असाध्य) रोग तीन पुडिय़ा में साफ... बगैर ऑपरेशन, शर्तिया इलाज, महीने भर का कोर्स डाक से मंगाएं।' यानी बीमारी मरीज खुद तय कर ले और बिना परीक्षण के इलाज भी ले ऐसा वातावरण कतिपय चिकित्सकों और दवा निर्माता कंपनियों ने निर्मित कर दिया है। इस संदर्भ में कई प्रश्न उठते हैं:
1.क्या आयुर्वेद कोई चलताऊ इलाज है, जो रोगी को बिना देखे- परखे, रास्ते चलते बताया जा सकता है?
2.क्या किसी भी एक बीमारी में एक दवा या पुडिय़ा ही होती है?
3.क्या बरसों पुरानी असाध्य बीमारी या शल्य साध्य बीमारी भी सामान्य इलाज से दूर हो सकती है?
इन प्रश्नों का उत्तर आयुर्वेद में ही मिलेगा और वह उत्तर है- नहीं, कदापि नहीं।
चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय, माधव निदान आदि ग्रंथों में रोग की पहचान करने की (उस समय उपलब्ध साधनों के तहत) विधियां उल्लिखित हैं। सूक्ष्म पड़ताल से वैज्ञानिक आधार पर रोग कौन-सा है, उस रोग का कारण क्या है? ज्वर है, तो किस दोष का, किस प्रकार का ज्वर है? कब से है? यह जानना ही 'रोग निदान' कहलाता है। इसके साथ ही खानपान और रहन- सहन की आदतें, परिवेश, ऋतु, आयु आदि का ज्ञान भी आवश्यक होता है।
किसी भी जटिल रोग के कारण का पता लगाने के लिए प्रश्न परीक्षा, स्पर्श परीक्षा, नाड़ी परीक्षा, मल-मूत्र, गंध परीक्षा कराई जाती रही है। जब रोग का प्रकार और कारण ज्ञात हो जाता है तो उस कारण को दूर करना ही चिकित्सा सिद्धांत का प्रथम सूत्र है, जिसे सुश्रुत में 'निदानं परिवर्जनम्' तथा आधुनिक शास्त्र में 'रिमूव्ह दी कॉज' बताया गया है।
इससे यह भ्रम दूर होना चाहिए कि रोगी से बिना पूछे- देखे, परीक्षा किए सटीक निदान हो सकता है। अत: किसी भी परिस्थिति में राह चलते या फोन पर उपचार नहीं बताया जा सकता।

क्या आयुर्वेद कोई चलताऊ इलाज है, जो रोगी को बिना देखे- परखे, रास्ते चलते बताया जा सकता है?क्या किसी भी एक बीमारी में एक दवा या पुडिय़ा ही होती है? क्या बरसों पुरानी असाध्य बीमारी या शल्य साध्य बीमारी भी सामान्य इलाज से दूर हो सकती है? इन प्रश्नों का उत्तर आयुर्वेद में ही मिलेगा और वह उत्तर है- नहीं, कदापि नहीं।
यदि सभी रोगी सामान्य औषधियों से ठीक हो जाते हैं तो आयुर्वेद के आचार्य अतिरिक्त विकल्पों पर कभी नहीं लिखते। चरक संहिता सूत्र स्थान में स्पष्ट निर्देश है कि जब दोष अधिक बढ़ जाते हैं और सामान्य उपचार से ठीक नहीं होते हैं तो उन्हें पंचकर्म, (वमन, विरेचन, नस्यकर्म, अनुवासन, आस्थापन वस्ति) से शरीर के बाहर निकालकर फिर औषधि देना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित 90 प्रतिशत रोगों की चिकित्सा में कोई न कोई पंचकर्म विधि अपनाने का निर्देश है। यानी मर्ज जटिल अवस्था में हो, तो जटिल उपाय करना पड़ेंगे।
आचार्य सुश्रुत शल्य शास्त्र के जन्मदाता हैं। उन्होंने अपने काल में पथरी, उदर रोगों, अर्श रोग तथा कफज मोतियाबिंद में शल्य चिकित्सा करने की विधि इजाद की थी। 76 प्रकार के नेत्र रोगों का पृथक- पृथक वर्णन मिलता है, जिनमें पृथक- पृथक चिकित्सा उपक्रम बताए हैं। अर्श रोग में चार प्रकार की चिकित्सा सुझाई है- औषधिकर्म, शल्यकर्म, क्षारकर्म और अग्निकर्म। विवेकवान चिकित्सक रोग की तीव्रता और रोगी की अवस्था, प्रकृति का परीक्षण करके तद्नुरूप चिकित्सा करते हैं।
आयुर्वेद के सभी महर्षियों ने अपने सुझाए चिकित्सा क्रम के अतिरिक्त देशकाल, परिस्थिति से युक्तियुक्त चिकित्सा करने का विकल्प भी खुला छोड़ दिया है।
आयुर्वेद, रोग की नहीं रोगी की चिकित्सा करता है। आयुर्वेद के अनेक विशेषज्ञ मर्ज को समझकर तद्नुरूप उपचार करते हैं या फिर दूसरे विशेषज्ञ के पास भेजते हैं। मरीज को धैर्य और संयम भी रखना होता है। इस जानकारी की आवश्यकता इसलिए है कि एक रोग की केवल एक दवा नहीं होती है, जिसे डाक से मंगवाकर सेवन किया जा सकता है। औषधि निर्माताओं के ऐसे विज्ञापनों से भ्रम फैलता रहता है।
असाध्य रोगों की चर्चा आयुर्वेद में विस्तार से की गई है। दरअसल रोग साध्य और असाध्य नहीं होते वरन् ये उन रोगों की अवस्थाएं हैं - शुरू में वह चिकित्सा- साध्य रहता है, बाद में असाध्य हो जाता है। चिकित्सकों को यह मर्यादा ध्यान रखना चाहिए कि रोग कहीं चरम पर तो नहीं है। महर्षि चरक ने सूत्र स्थान के 11वें अध्याय में तथा महर्षि वाग्भट ने अष्टांग हृदय संहिता के सूत्र स्थान के पहले अध्याय में इन महत्त्वपूर्ण मर्यादाओं का पालन करने के निर्देश चिकित्सकों को दिए हैं, उन उक्तियों के सार प्रस्तुत है-
'रोग की प्रथम अवस्था में जब लक्षण प्रकट हुए हों तो रोग आसानी से ठीक हो सकता है, दूसरी अवस्था में चिकित्सा कर ही लेना चाहिए, तीसरी अवस्था में रोगी के जीवन के प्रति संदेह रहता है।' आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी रोगावस्था को तीन भागों में विभक्त करता है- माइल्ड, मॉडरेट और सीवियर।
आठ महारोग ज्वर, रक्तपित्त, गुल्म, मधुमेह, कुष्ठरोग, शोथ, उन्माद व अपसमार आदि बताए हैं। इन रोगों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जब शरीर तीनों दोषों से विकारग्रस्त हो जाए, शारीरिक बल क्षीण हो जाए, इंद्रियां कर्महीन हो जाएं तो रोगी की आयु समाप्तप्राय है और कुशल वैद्य भी उसे नहीं बचा सकता है।
पहली अवस्था को 'सुखसाध्य' बताया है, जिसमें सामान्य उपचार करने पर आसानी से सफलता मिलती है। दूसरी अवस्था 'कष्टसाध्य' है, जिसमें औषधि के अतिरिक्त पंचकर्म, शल्य कर्म आदि अन्य विधियां भी अपनानी होती है। उपचार में समय भी अधिक लगता है लेकिन उपचार के बाद रोग से मुक्ति मिल जाती है। तीसरी असाध्य अवस्था की दो श्रेणियां हैं। पहली में पूरी आयु औषधि द्वारा नियंत्रित की जाती है। असाध्य रोगों की चरम स्थिति देखकर बुद्धिमान वैद्य को उस रोगी की मृत्यु सन्निकट समझना चाहिए और परिजनों को उसकी अवस्था को समझाकर स्पष्ट कहना चाहिए कि हम यत्न कर रहे हैं परंतु सफलता नहीं मिल पा रही है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में भी निर्देश हैं कि 'एक्सप्लेन दी प्रोग्नोसिस।'
इस चर्चा से स्पष्ट है कि आयुर्वेद कोई चलताऊ चिकित्सा नहीं है। आयुर्वेद के प्रति भ्रांति पैदा करने वाले अधकचरे ज्ञान वाले चिकित्सक तथा औषधि निर्माता ही दोषी हैं जो धन अर्जन के लालच में दोषपूर्ण प्रचार- प्रसार से दावे-करते रहते हैं। चरक संहिता के सूत्र स्थान में लिखा है-'अयोग्य वैद्य से चिकित्सा करके प्राण गंवाने से अच्छा है कि अपनी आत्मा को हवन कर दें।' (स्रोत फीचर्स)

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