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Mar 21, 2011

एक दुर्लभ व्यक्तित्व पर शोधपरक ग्रंथ

 समीक्षक- डॉ. परदेशीराम वर्मा

पुस्तक- लोहित के मानसपुत्र: शंकरदेव
रचनाकार- सांवरमल सांगनेरिया
प्रकाशक- हैरीटेज फाउण्डेशन, के.वी.रोड, पलटन बाजार,
गुवाहाटी, मूल्य - 250/-

भारत के महान संतों और महापुरुषों में से कुछ क्रांतिवेता विलक्षण व्यक्तित्वों का अवतरण 1376 से 1623 के बीच हुआ। संत रैदास, कबीर, गुरु नानकदेव, नरसी मेहता, महाप्रभु वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, संत तुलसीदास, भक्त सूरदास, मीराबाई, इसी कालवधि में जन्में। यह भक्ति आंदोलन का अपूर्व युग था। इस दौर में कृष्णभक्ति, रामभक्ति शाखा के महाकवि तथा रैदास और कबीर जैसे समय की धारा और जड़ परंपरा के विरुद्ध चलने और प्रहार करने वाले क्रांतिकारी संतों का जन्म हुआ। छत्तीसगढ़ के चम्पारण्य में 1478 में महाप्रभु वल्लभाचार्य जी जन्में।

इसी दौर में असम में बहुआयामी संत और कवि शंकर देवजी का जन्म हुआ। उनका काल 1449 से 1568 माना जाता है। गुरु नानकदेव जी 1469 में जन्में। उनका अवसान 1539 में हुआ। लगभग यही समय था जब असम के भुंयां जमींदार के घर 1449 में शंकर देव जी जन्म हुआ। शंकर देव नृत्य, संगीत, काव्य रचना में प्रवीण एक सर्वगुण सम्पन्न संत थे। उन्हीं संत पर सांवरमल सांगानेरिया ने एक ग्रंथ का लेखन किया है। वे असम की समृद्ध संस्कृति के गहन जानकार हैं। असम की विशेषताओं से देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों को जोडऩे के लिए संकलित श्री सांगानेरिया ने एक दायित्व बोध के तहत इस ग्रंथ की रचना की है। ग्रंथ में प्रख्यात लेखिका इंदिरा गोस्वामी ने अपना महत्वपूर्ण अभिमत दिया है।
लोहित के मानसपुत्र शंकरदेव इस ग्रंथ में तत्कालीन सामाजिक स्थिति और राजनीतिक व्यवस्था का चित्रण है। असम में प्रचलित शाक्त परंपरा और उससे जुड़ी हुई तमाम आराधना पद्धतियों का विषय वर्णन ग्रंथ है। असम, उड़ीसा, बंगाल और छत्तीसगढ़ एक दूसरे से जुड़े हैं। छत्तीसगढ़ में भी शाक्त परंपरा का प्रभाव रहा है। इसीलिए बलि प्रथा यहां भी रही। नरबलि प्रथा का विरोध गुरु बाबा घासीदास ने डटकर किया। उन्होंने ही हिंसा के खिलाफ आंदोलन चलाया।
शंकर देव ने असम में हिंसा, पाखंड और बलिप्रथा का विरोध किया। पांच प्रकार की महत्ता को रेखांकित करने वाले रतिखोवा संप्रदाय के खिलाफ उन्होंने आंदोलन चलाया। जिसमें स्त्री पुरुष निर्वस्त्र होकर अंधकार की ओट में सारी मर्यादा भूलकर रतिखोवा परंपरा को सम्पन्न करते थे। रतिखोवा संप्रदाय से शंकरदेव ने लोहा लिया। उन्होंने मंदिरों में प्रचलित दासी प्रथा का विरोध भी किया।
उन्होंने पत्नी- प्रसाद और कालि- दमन नाटकों का लेखन किया। इन नाटकों का संपन्न मंचन भी हुआ। भक्ति रत्नाकर उनका प्रमुख ग्रंथ है। इसमें 38 अध्याय हैं। उन्होंने रामकथा पर आधारित उत्तरकांड की रचना भी की। अनादि पातम उनका एक और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। भागवत के दशम स्कंद का असमी में लेखन किया। वे कई भाषाओं के जानकार थे। संस्कृत के तो वे विद्वान थे ही लेकिन भारत की कई लोक भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे संगीत के भी गहरे जानकार थे। वे नृत्य प्रवीण भी थे। चैतन्य महाप्रभु की परंपरा के वे गाते- नाचते हुए विलक्षण संत थे। उन्होंने भी जगन्नाथ जी की यात्रा की। ठीक चैतन्य महाप्रभु की तरह वे काफी दिनों तक जगन्नाथ जी के दरबार में रहे।
उन्होंने असम छोड़कर पूरे देश का भ्रमण किया। विन्ध्यवासिनी, अयोध्या, नंदीग्राम, गोमती के किनारे, नैमिषारण्य, कन्नौज बाराह क्षेत्र की यात्रा मथुरा, गोकुल, वृंदावन के साथ ही संगम से नर्मदा की यात्रा तथा प्रयाग, उदयगिरी, चित्रकूट, अमरकंटक, विदिशा तक वे गए। दक्षिण के सभी तीर्थों में वे गए। उन्होंने हरिनाम की महत्ता पर जोर दिया। नामधर्म नामक एक नए धर्म की अवधारणा उन्होंने दी। यह हिंसा, पाखंड, मिथ्याचार, वामाचार से मुक्ति का सरल रास्ता था। उन्होंने मंत्र दिया...
भाई राम कह, राम कह, राम मंत्र सार,
तप जप यज्ञ योगे, सिद्धि नाही आर।

उनका लेखन संसार विस्तृत है। कुल मिलाकर 53 ग्रंथों की रचना उन्होंने की। 1568 में उनका देहावसान हुआ। 119 वर्ष का लम्बा जीवन उन्होंने प्राप्त किया।
श्री सांवरमल डांगरिया ने इस ग्रंथ को लिखकर एक बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह किया है। अपने प्रदेश असम में जन्मे विलक्षण संत के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय उन्होंने देशवासियों को दिया है। संभवत: शंकरदेव जैसे महापुरुष पर यह हिन्दी में लिखित पहला प्रामाणिक ग्रंथ है।

सम्पर्कः एलआईजी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाईनगर 490009, मो. 9827993494

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