
लोहित के मानसपुत्र शंकरदेव इस गं्रथ में तत्कालीन सामाजिक स्थिति और राजनीतिक व्यवस्था का चित्रण है। असम में प्रचलित शाक्त परंपरा और उससे जुड़ी हुई तमाम आराधना पद्धतियों का विषय वर्णन ग्रंथ है। असम, उड़ीसा, बंगाल और छत्तीसगढ़ एक दूसरे से जुड़े हैं। छत्तीसगढ़ में भी शाक्त परंपरा का प्रभाव रहा है। इसीलिए बलि प्रथा यहां भी रही। नरबलि प्रथा का विरोध गुरु बाबा घासीदास ने डटकर किया। उन्होंने ही हिंसा के खिलाफ आंदोलन चलाया।
शंकर देव ने असम में हिंसा, पाखंड और बलिप्रथा का विरोध किया। पांच प्रकार की महत्ता को रेखांकित करने वाले रतिखोवा संप्रदाय के खिलाफ उन्होंने आंदोलन चलाया। जिसमें स्त्री पुरुष निर्वस्त्र होकर अंधकार की ओट में सारी मर्यादा भूलकर रतिखोवा परंपरा को सम्पन्न करते थे। रतिखोवा संप्रदाय से शंकरदेव ने लोहा लिया। उन्होंने मंदिरों में प्रचलित दासी प्रथा का विरोध भी किया।
उन्होंने पत्नी- प्रसाद और कालि- दमन नाटकों का लेखन किया। इन नाटकों का संपन्न मंचन भी हुआ। भक्ति रत्नाकर उनका प्रमुख ग्रंथ है। इसमें 38 अध्याय हैं। उन्होंने रामकथा पर आधारित उत्तरकांड की रचना भी की। अनादि पातम उनका एक और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। भागवत के दशम स्कंद का असमी में लेखन किया। वे कई भाषाओं के जानकार थे। संस्कृत के तो वे विद्वान थे ही लेकिन भारत की कई लोक भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। वे संगीत के भी गहरे जानकार थे। वे नृत्य प्रवीण भी थे। चैतन्य महाप्रभु की परंपरा के वे गाते- नाचते हुए विलक्षण संत थे। उन्होंने भी जगन्नाथ जी की यात्रा की। ठीक चैतन्य महाप्रभु की तरह वे काफी दिनों तक जगन्नाथ जी के दरबार में रहे।
उन्होंने असम छोड़कर पूरे देश का भ्रमण किया। विन्ध्यवासिनी, अयोध्या, नंदीग्राम, गोमती के किनारे, नैमिषारण्य, कन्नौज बाराह क्षेत्र की यात्रा मथुरा, गोकुल, वृंदावन के साथ ही संगम से नर्मदा की यात्रा तथा प्रयाग, उदयगिरी, चित्रकूट, अमरकंटक, विदिशा तक वे गए। दक्षिण के सभी तीर्थों में वे गए। उन्होंने हरिनाग की महत्ता पर जोर दिया। नागधर्म नामक एक नए धर्म की अवधारणा उन्होंने दी। यह हिंसा, पाखंड, मिथ्याचार, वामाचार से मुक्ति का सरल रास्ता था। उन्होंने मंत्र दिया...
भाई राम कह, राम कह, राम मंत्र सार,
तप जप यज्ञ योगे, सिद्धि नाही आर।
उनका लेखन संसार विस्तृत है। कुल मिलाकर 53 ग्रंथों की रचना उन्होंने की। 1568 में उनका देहावसान हुआ। 119 वर्ष का लम्बा जीवन उन्होंने प्राप्त किया।
श्री सांवरमल डांगरिया ने इस ग्रंथ को लिखकर एक बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह किया है। अपने प्रदेश असम में जन्मे विलक्षण संत के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय उन्होंने देशवासियों को दिया है। संभवत: शंकरदेव जैसे महापुरुष पर यह हिन्दी में लिखित पहला प्रामाणिक ग्रंथ है।
समीक्षक- डॉ. परदेशीराम वर्मा
पुस्तक- लोहित के मानसपुत्र: शंकरदेव
रचनाकार- सांवरमल सांगनेरिया
प्रकाशक- हैरीटेज फाउण्डेशन, के.वी.रोड, पलटन बाजार,
गुवाहाटी, मूल्य - 250/-
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