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Feb 28, 2011

उदन्ती.com, फरवरी 2011

वर्ष 1, अंक 6, फरवरी 2011
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राजनीति की भाषा ... ऐसे रची जाती है कि झूठ एकदम सत्य लगे और कत्ल एक कल्याणकारी काम लगे।
- जार्ज आरवेल
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अनकही:
असुरक्षित होती औरत
कुंभ मेलाः छत्तीसगढ़ का प्रयाग राजिम- पी.एन.सुब्रमणियन
इंडीपेक्स 2011: डाक हवाई उड़ान के 100 बरस - कृष्ण कुमार यादव
पर्यावरणः दिमाग साफ तो नदी भी साफ - अनुपम मिश्र
खोजः बैक्टीरिया: जीवन के रहस्य को...
प्यार का दर्द / वाह भई वाह
संरक्षणः जंगली भैंसा: एक लुप्त होता प्राणी - अरूणेश दवे
श्रद्धांजलिः पं. भीमसेन जोशी: जिनके कंठ में... - प्रताप सिंह राठौर
कविताएं: आने दो वसंत - राजीव कुमार
कोयल की मधुर कूक - कैलाशचंद्र शर्मा

संस्मरणः नौटंकी- यानी पारंपरिक कला का मुरब्बा - राधाकान्त चतुर्वेदी
पातीः फूल तुम्हें भेजा है खत में... - अपर्णा त्रिपाठी 'पलाश'
कहानी: जार्ज पंचम की नाक - कमलेश्वर
लघु कथाएं: 1. सच झूठ 2. हद - डॉ. श्याम सुन्दर 'दीप्ति'
लहसुन: हजारों साल से आजमाए ...
शोधः चाय: क्या कहते हैं वैज्ञानिक? - डा. विजय कुमार उपाध्याय
पिकासो के रोचक संस्मरण
चेजर ने बनाया...
आपके पत्र/ मेल बाक्स
रंग बिरंगी दुनिया


आवरण तथा भीतर के विभिन्न पृष्ठों पर प्रकाशित सभी जल- रंग चित्र -डॉ. सुनीता वर्मा, भिलाई द्वारा

असुरक्षित होती औरत

वर्तमान में हर तरफ बढ़ते भ्रष्टाचार और मंहगाई के समाचार के बाद जो मुद्दा सुर्खियों में है वह महिलाओं के प्रति क्रूर अत्याचार। कई वर्षों से महिला अत्याचार के लगातार बढ़ते ग्राफ की ओर ध्यान अब तक किसी ने नहीं दिया था लेकिन पिछले महीने एक के बाद एक महिला पर हो रहे अत्याचार के इतने अधिक मामले आए हैं, वह भी सिर्फ उत्तर प्रदेश से कि प्रदेश की शासन- व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। पहला मामला बांदा में एक दलित लड़की के साथ बसपा विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी द्वारा बलात्कार और फिर उल्टे उसी पर चोरी का इल्जाम लगाकर उसे पुलिस की सहायता से जेल भेजने का, इसके बाद इटावा की सोनम, आजमगढ़ की शमीना अख्तर, फिरोजाबाद की कक्षा पांच की बच्ची, लखनऊ में चिनहट की आरती और फिर जौनपुर की एक स्कूल प्रिंसिपल द्वारा स्कूल प्रबंधक के यौन उत्पीडऩ से तंग आकर अपने को आग के हवाले करने का मामला। और फिर फतेहपुर जिले के उदरौली गांव में चार कामांध युवकों के कुकृत्य ने तो कानून व्यवस्था की धज्जियां ही उड़ा डाली। लड़कों ने शौच के लिए खेतों पर गयी एक स्कूली छात्रा के साथ सामूहिक दुष्कर्म करने का प्रयास किया औरलड़की के विरोध करने पर कुल्हाड़ी से जान लेवा हमला कर उसे बुरी तरह जख्मी कर दिया। अफसोस दरिंदों की दरिंदगी का यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
ये सब वे घटनाएं हैं जो सामने आ गई हैं ना जाने अभी कितनी कितनी महिलाएं हैं जो अपने आप को दरिंदों से बचाने के लिए गुपचुप खुद को मौत के हवाले कर रही होंगी या जुबान पर ताला लगाए दर्द के आंसू पी रहीं होंगी। ... एक ओर तो हम लड़कियों और महिलाओं के उत्थान और विकास की बात करते हैं। उन्हें बढ़ावा देने, उन्हें मुख्य धारा में शामिल करने, हर क्षेत्र में बराबरी का अधिकार दिलाने, बेहतर शिक्षा देने के लिए नित नई- नई योजनाएं बनाते हैं। वहीं दूसरी ओर उन्हीं लड़कियों का राह चलना, कहीं भी अकेले आना- जाना दूभर हो गया है। यह कैसा बराबरी का अधिकार है कि वे अपने ही गांव अपने ही शहर में सुरक्षित नहीं हैं।
यद्यपि हालात पूरे देश में खराब हैं पर आंकड़े गवाह हैं कि महिला अत्याचार के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश से आ रहे हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009-10 के प्रथम आठ माह के उपलब्ध आंकड़ों में महिलाओं के प्रति अपराध को लेकर उत्तर प्रदेश में 6000 से अधिक मामले दर्ज हुए हैं। इस दौरान देश भर में कुल 11,004 मामलों में से अकेले उत्तर प्रदेश से 6302 मामले हैं। आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन कम से कम 17 महिलाओं के खिलाफ गंभीर अपराध के मामले दर्ज होते हैं जिनमें बलात्कार, छेडख़ानी, प्रताडऩा और दहेज हत्या जैसे मामले शामिल हैं। आंकड़ें बताते हैं कि इस प्रदेश में महिलाओं का जीवन कितना असुरक्षित हो गया है। महिला अत्याचार की यह संख्या 2005 से 2010 तक तक आते आते5000 से बढ़कर 8500 तक पहुंच गई है।
अपने को दलितों की मसीहा मानने वाली उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के राज में यह दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ते ही जा रहा है। जिस प्रदेश में वहशी दरिंदे कानून को जेब में रखकर घूम रहे हों जहां रक्षक ही भक्षक बन गए हों उस माया राज के बारे में क्या कहना- वे एक ऐसे प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं जहां खुलेआम महिलाओं का चीरहरण हो रहा है। इतना ही नहीं जिस प्रदेश में देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी पर सवालिया निशान लग जाए और राजनीतिक निहित स्वार्थों की रक्षा करने का आरोप हो तब मामला और भी संगीन बन जाता है। यह दुखद स्थिति है कि हमारी सरकारें जिनका पहला कर्तव्य जनता की सुरक्षा है, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखना है, वह अपराधियों की ही संरक्षक बन गई है। अपराधी आंखों के सामने है पर बजाए उसे सजा दिलाने के वह उसे बचाने में लगी हुई है। इन सबको देखते हुए यही कहना पड़ेगा कि अब राजनीति का अपराधीकरण नहीं बल्कि अपराध का ही राजनीतिकरण हो गया है।
महिला अत्याचार के इस तरह के मामलों में सही और समय पर न्याय न हो पाना भी हमारे देश का दुर्भाग्य है। यदि वह महिला गरीब और राजनीतिक पहुंच वाली न हुई तब तो उसके लिए यह और भी मुश्किल है। कानून में बलात्कार पीडि़त स्त्री का नाम सार्वजनिक किए जाने की मनाही है, पर कौन पालन कर रहा है इस कानून का। इस तरह के मामलों को मीडिया सनसनीखेज खबर बनाकर परोसती है उनके लिए अपने चैनल का टीआरपी बढ़ाना किसी महिला के इज्जत उछाले जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। बलात्कार के बाद पीडि़ता की आत्मा लहूलुहान हो चुकी होती है लेकिन उसके बाद मीडिया और कानून ऐसे- ऐसे घाव करती है कि उसे लगता है- अच्छा होता वह चुप रह कर अकेले ही यह दर्द सहती। दुख की बात यह कि अंधिकांश मामलों में वह सहती भी है। यह तो सर्वविदित ही है कि सबसे अधिक छुपाया जाने वाला कोई अपराध यदि है तो वह बलात्कार ही है। बलात्कार के अधिकांश मामले परिवार और समाज की इज्जत के नाम पर दबा दिए जाते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन तरह के अत्याचार पर रोक कैसे लगे। सर्वप्रथम तो स्वयं औरत को चुप्पी तोड़ते हुए अपनी लड़ाई लडऩी होगी। इसकी एक छोटी सी शुरूआत हाल ही में उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की लड़कियों ने पहली बार छात्रसंघ चुनाव लड़कर कर दी है। भले ही वे चुनाव हार गईं पर उन्होंने पहल तो की और यह जता दिया कि उन्हें भी इस क्षेत्र में उतरने का अधिकार है।
दूसरे कानून और व्यवस्था में आवश्यक जरुरी बदलाव के साथ लड़कियों को ऐसी शिक्षा मिले जिससे वे आत्मनिर्भर बन कर निडरता से अत्याचार का सामना करने लायक बन सकें और समाज में घूम रहे उन दरिंदों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने की हिम्मत ला सकें। न्याय शीघ्र मिल सके इसके लिये न्याय प्रक्रिया में समुचित परिवर्तन भी आवश्यक है। और इन सबसे ऊपर उन राजनीतिज्ञों को सत्ता में आने से रोका जाए जिनपर पहले ही अपराधिक मुकदमें चल रहे हों, आखिर हमारी न्याय व्यवस्था ऐसे अपराधियों को चुनाव लडऩे की इजाजत किस आधार पर दे देती है? और अंत में यह भी कि महिला अत्याचार की आड़ में हमारे नेता राजनीति की रोटी सेंकने से बाज आएं।


- रत्ना वर्मा

छत्तीसगढ़ का प्रयाग राजिम


- पी.एन.सुब्रमणियन
छत्तीसगढ़ की राजधानी, रायपुर से लगभग 45 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में तीन नदियों का संगम है। महानदी (चित्रोत्पला), पैरी तथा सोंढुर। महानदी और पैरी दो अलग- अलग भागों से आकर यहां मिल रही है और एक डेल्टा सा बन गया है जबकि तीसरी नदी सोंढुर कुछ दूरी पर सीधे महानदी से मिल रही है। महानदी अथवा चित्रोत्पला को प्राचीन साहित्य में समस्त पापों का हरण करने वाली परमपुण्यदायिनी कहा गया है। महाभारत के भीष्म पर्व में तथा मत्स्य एवं ब्रह्म पुराण में भी चित्रोत्पला का उल्लेख है। इस नदी के उद्गम के बारे में जो बातें मिलती हैं उससे कोई संदेह नहीं रह जाता कि यह नाम महानदी के लिए ही प्रयुक्त किया गया था। महानदी जैसे पापनाशिनी में दो अन्य नदियों के संगम के कारण यह एक परमपुण्य स्थली मानी जाती है। यही है छत्तीसगढ़ का प्रयाग। संगम में अस्थि विसर्जन तथा संगम तट पर पिंडदान, श्राद्ध एवं तर्पण आदि करते हुए लोगों को देखा जा सकता है। यहां एक प्राचीन नगर राजिम भी है जो महानदी के दोनों तरफ बसा है। उत्तर की ओर की बस्ती नवापारा (राजिम) कहलाती है जब कि दक्षिण की केवल राजिम। यह पूरा क्षेत्र पद्म क्षेत्र कहलाता है और एक अनुश्रुति के अनुसार पूर्व में यह पदमावतीपुरी कहलाता था। राजिम नामकरण के पीछे भी कई किस्से कहानियां हैं, जिसमें राजिम नाम की एक तेलिन से सम्बंधित जनश्रुति प्रमुख है। एक धार्मिक तथा सांस्कृतिक केंद्र के रूप में राजिम ख्याति प्राप्त है। यहां मंदिरों की बहुलता तथा वहां आयोजित होने वाले उत्सव आदि इस बात की पुष्टि करते प्रतीत होते हैं।
यह पूरा क्षेत्र अपनी वन सम्पदा एवं कृषि उत्पाद के लिए सदियों से प्रख्यात रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए उस क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा के दोहन हेतु अंग्रेजों के शासन काल में बी.एन.आर रेलवे द्वारा रायपुर से धमतरी तथा उसी लाइन पर अभनपुर से नवापारा (राजिम) की एक नेरो गेज रेलवे लाइन प्रस्तावित की गयी। सन 1896 में छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था अत: उस प्रस्तावित रेलमार्ग को स्थानीय लोगों को रोजगार दिलाने (या यों कहें कम खर्च में काम चलाने के लिए) राहत कार्य के अंतर्गत रेल लाइन का निर्माण प्रारंभ कर दिया गया। सन 1900 में रेल सेवा भी प्रारंभ हो गयी थी। राजिम के आगे गरियाबंद वाले रस्ते के जंगलों के भीतर भी रेल लाइन होने के प्रमाण मिलते हैं। कहीं कहीं पटरियां भी हमने देखी हैं परन्तु वह लाइन कहां तक गयी थी और कहां जाकर जुड़ती थी, इस बात से अवगत नहीं हो सके। विषयांतर हुआ जाता प्रतीत हो रहा है। राजिम के लिए रेलमार्ग के संदर्भवश रेलवे की कहानी संक्षेप में कह डाली। रायपुर से राजिम जाने के लिए सड़क मार्ग ही बेहतर है जबकि रेलमार्ग कष्टदायक।
बात तो राजिम की ही होनी थी। ऊपर हमने वहां मंदिरों की बहुलता का उल्लेख किया था। पुराने मंदिरों में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त राजीव लोचन का मंदिर है जिसके अहाते में ही कई और मंदिर हैं। राजेश्वर, दानेश्वर, तेलिन का मंदिर, उत्तर में सोमेश्वर, पूर्व में रामचंद्र तथा पश्चिम में कुलेश्वर, पंचेश्वर एवं भूतेश्वर। इन सभी मंदिरों में अग्रणी एवं प्राचीनतम है राजीव लोचन का मंदिर। इस मंदिर के स्थापत्य के बारे में यहां सूक्ष्म वर्णन मेरा उद्देश्य नहीं है अपितु संक्षेप में कुछ कहना सार्थक जान पड़ता है। स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर छत्तीसगढ़ के अन्य मंदिरों से भिन्न है एवं अपने आप में विलक्षण है। विद्वानों का मत है कि राजीव लोचन मंदिर का स्थापत्य दक्षिण भारतीय शैली से प्रभावित हुआ है। उदाहरण स्वरूप मंदिर के अहाते में प्रवेश हेतु गोपुरम सदृश प्रवेश द्वार, प्रदक्षिणा पथ, खम्बों में मानवाकार मूर्तियां आदि।
मंदिर का अहाता पूर्व से पश्चिम 147 फीट और उत्तर से दक्षिण 102 फीट है। मंदिर बीच में है। उत्तरी पूर्वी कोने पर बद्री नारायण, दक्षिणी पूर्वी कोने पर वामन मंदिर, दक्षिणी कोने पर वराह मंदिर तथा उत्तरी पश्चिमी कोने पर नृसिंह मंदिर बना हुआ है जिन्हें मूलत: बने राजीव लोचन मंदिर के सहायक देवालय कहा जा सकता है परन्तु उनका निर्माण कालांतर में ही हुआ है। राजीव लोचन मंदिर के पश्चिम में अहाते से लगभग 20 फीट दूर राजेश्वर मंदिर तथा दानेश्वर मंदिर हैं। दोनों ही शिव मंदिर हैं। परन्तु दानेश्वर मंदिर ही एक ऐसा मंदिर है जहां नंदी मंडप बना हुआ है। राजिम में ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं। ये दोनों मंदिर भी राजीव लोचन मंदिर के समकालीन नहीं हैं परन्तु स्थापत्य में कुछ समानताएं हैं। इन्ही मंदिरों के आगे राजिम तेलिन का मंदिर है या यों कहें की सती स्मारक है।
इस मंदिर के महामंडप में बारह खम्बे हैं जिनमें बेहद कलात्मक शिल्प उकेरे गए है। गर्भ गृह का प्रवेश द्वार तो लाजवाब है। पत्थर के विशाल चौखट को बड़ी तल्लीनता से शिल्पियों ने अलंकृत किया है। चौखट के ऊपर शेषासायी विष्णु अद्भुत है। गर्भ गृह में प्रतिष्ठा शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए महाविष्णु की है और यही राजीव लोचन कहलाते हैं। प्रतिदिन उन्हें प्रात: बालरूप में, मध्याह्न युवारूप में और सायं वृद्धरूप में श्रृंगारित किया जाता है परन्तु सिले सिलाये कपड़े पहनाने का रिवाज नहीं है। कपड़ों को मोड़ कर उढ़ा दिया जाता है यहां तक कि गांठ बांधना भी वर्जित है। एक बात और हमने जो जानी वह ये कि यहां के परंपरागत पुजारी क्षत्रिय हैं न कि ब्राह्मण।
कुछ लोगों में भ्रम है कि राजीव लोचन मंदिर भगवान श्री रामचन्द्रजी के लिए बना था। इसका एक कारण यह है कि महामंडप के पीछे की दीवार में जगपाल देव (14 वीं सदी) का एक शिलालेख जड़ा हुआ है जिसमे श्री रामचन्द्रजी के लिए एक नए मंदिर के निर्माण की बात कही गयी है। जगपाल देव कलचुरी शासक पृथ्वी देव द्वितीय का सामंत था। वास्तव में इस सामंत के द्वारा बनवाया गया रामचंद्र मंदिर पूर्व दिशा में अभी भी विद्यमान है। उसी शिलालेख के बगल में एक दूसरा शिलालेख भी है जिसमे राजीव लोचन मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। इस शिलालेख में कोई तिथि तो नहीं दी गयी है परन्तु राजा का नाम विलासतुंग बताया गया है। यह नल वंशी था जिनका बस्तर पर अधिपत्य रहा। यही नल वंश सिरपुर के सोमवंशियों का उत्तराधिकारी बना था। शिलालेख की लिपि एवं स्थापत्य के आधार पर राजीव लोचन मंदिर का निर्माण काल सन 700 ईसवी का मान लिया गया है। समय- समय पर विभिन्न शासकों द्वारा मंदिर के मूल संरचना में कुछ नए निर्माण आदि कर परिवर्तित/ संरक्षित किया जाता रहा है।
पैरी और महानदी के संगम पर नदी के बीच 9 वीं सदी का कुलेश्वर महादेव मंदिर (उत्पलेश्वर) है और यह मंदिर भी विलक्षण है। पिछले वर्षों में यहां का परम्परागत माघ पूर्णिमा मेला अब विशाल हो कर राजिम कुंभ कहलाने लगा है।
पता: 23, यशोदा परिसर, कोलार रोड, भोपाल मो. 09303106753
राजिम कुंभ
छत्तीसगढ़ में महानदी का वही स्थान है जो भारत में गंगा नदी का है। यहां का सबसे बड़ा पर्व महाशिवरात्रि है जो माघ मास की पूर्णिमा से शुरु होकर फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि तक चलता है। इस अवसर पर राजिम एक तीर्थ का रूप ले लेता है। यहां हजारों श्रद्धालु संगम स्नान करने और भगवान राजीव लोचन तथा कुलेश्वर महादेव के दर्शन करने दूर- दूर से पहुंचते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि जगन्नाथपुरी की यात्रा तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक कि वे राजिम की यात्रा नहीं कर लेते।
2005 से छत्तीसगढ़ शासन ने राजिम मेले के आयोजन को राजिम कुंभ का स्वरूप देकर लोकव्यापी बनाने की दिशा में एक नई पहल की है। यही वजह है कि राजिम कुंभ के अवसर पर पर्यटकों की संख्या बढ़ जाती है। कुंभ में देश भर से पर्यटकों की भीड़ के साथ श्रद्धालु एवं साधु- महात्माओं के अखाड़े विशेष रूप से आमंत्रित रहते हैं।
राजिम कुंभ तक पहुंचने के लिए
हवाई मार्ग- रायपुर (45 किमी) निकटतम हवाई अड्डा है तथा दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम और चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेल मार्ग- रायपुर निकटतम रेलवे स्टेशन है जो कि मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग- राजिम नियमित बस तथा टैक्सी सेवा से रायपुर व महासमुंद से जुड़ा हुआ है।
तीर्थ यात्रियों के ठहरने के लिए कुंभ के अवसर पर संस्कृति विभाग विशेष रुप से व्यवस्था करता है। सामान्य पर्यटकों के लिए रायपुर में अनेक होटल उपलब्ध हैं।

डाक हवाई उड़ान के 100 बरस

इंडीपेक्स 2011
भारतीय डाक विभाग द्वारा 12 से 18 फरवरी 2011 तक दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व डाक टिकट प्रदर्शनी 'इंडीपेक्स 2011' का आयोजन किया गया। भारत में पहली अन्तराष्ट्रीय डाक टिकट (फिलेटलिक) प्रदर्शनी का आयोजन 1954 में डाक टिकटों की शताब्दी वर्ष में हुआ था। इस डाक टिकट प्रदर्शनी का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि भारत ने ही दुनिया में सर्वप्रथम एयर- मेल सेवा 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में आरंभ की थी। इस साल इस ऐतिहासिक घटना के 100 साल भी पूरे हो रहे हैं।
डाक सेवा का विचार सबसे पहले ब्रिटेन में और हवाई जहाज का विचार सबसे पहले अमेरिका में राइट बंधुओं ने दिया, वहीं चिट्ठियों ने विश्व में सबसे पहले भारत में हवाई उड़ान भरी। यह ऐतिहासिक घटना 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में हुई। संयोग से उस साल कुंभ का मेला भी लगा था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उस दिन एक लाख से अधिक लोगों ने इस घटना को देखा था जब एक विशेष विमान ने शाम को साढ़े पांच बजे यमुना नदी के किनारे से उड़ान भरी और वह नदी को पार करता हुआ 15 किलोमीटर का सफर तय कर नैनी जंक्शन के नजदीक उतरा जो इलाहाबाद के बाहरी इलाके में सेंट्रल जेल के नजदीक था।
आयोजन स्थल एक कृषि एवं व्यापार मेला था जो नदी के किनारे लगा था और उसका नाम 'यूपी एक्जीबिशन' था। इस प्रदर्शनी में दो उड़ान मशीनों का प्रदर्शन किया गया था। विमान का आयात कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने किया था। इसके कलपुर्जे अलग- अलग थे जिन्हें आम लोगों की मौजूदगी में प्रदर्शनी स्थल पर जोड़ा गया।
आंकड़ों के अनुसार कर्नल वाई विंधाम ने पहली बार हवाई मार्ग से कुछ मेल बैग भेजने के लिए डाक अधिकारियों से संपर्क किया जिस पर उस समय के डाक प्रमुख ने अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मेल बैग पर 'पहली हवाई डाक' और 'उत्तर प्रदेश प्रदर्शनी, इलाहाबाद' लिखा था। इस पर एक विमान का भी चित्र प्रकाशित किया गया था तथा इसके ऊपर पारंपरिक काली स्याही की जगह मैजेंटा स्याही का उपयोग किया गया था। आयोजक इसके वजन को लेकर भी बहुत चिंतित थे, जो आसानी से विमान में ले जाया जा सके। प्रत्येक पत्र के वजन को लेकर भी प्रतिबंध लगाया गया था और सावधानीपूर्वक की गई गणना के बाद सिर्फ 6,500 पत्रों को ले जाने की अनुमति दी गई थी। विमान को अपने गंतव्य तक पहुंचने में 13 मिनट का समय लगा। विमान को फ्रेंच पायलट मोनसियर हेनरी पिक्वेट ने उड़ाया।
- कृष्ण कुमार यादव, dakbabu.blogspot.com

दिमाग साफ तो नदी भी साफ

- अनुपम मिश्र
हम लोग अपने स्कूलों में अक्सर किताबों में देशप्रेम, संविधान, भूगोल जैसे विषय पढ़ते हैं। कुछ समझते हैं और कुछ- कुछ रटते भी हैं, क्योंकि हमें परीक्षा में इन बातों के बारे में कुछ लिखना ही होता है।
लेकिन, मुझे लगता है कि असली देशप्रेम अपने घर, अपने मोहल्ले और शहर के भूगोल को समझने से शुरू होता है। हम जिस शहर में रहते हैं, उसमें कौन- सा पहाड़ या कौन- सी छोटी या बड़ी नदी है, कितने तालाब हैं? हमारे घर का पानी कहां से, कितनी दूर से आता है? क्या यह किसी और का हिस्सा छीनकर हमको दिया जा रहा है, क्या हमने अपने हिस्से का पानी पिछले दौर में खो दिया है, बरबाद हो जाने दिया है? ये सब प्रश्न हमारे मन में आज नहीं तो कल जरूर आने चाहिए।
कन्याकुमारी से कश्मीर तक, भुज से लेकर त्रिपुरा तक इस देश में कोई 14 बड़ी नदियों का ढांचा प्रकृति ने बनाया है। इन 14 बड़ी नदियों में सैकड़ों सहायक नदियां और उन सहायक नदियों की भी सहायक नदियां मिलती हैं। देश में एक दौर ऐसा आया कि हमारे बड़े लोगों ने नदियों के पानी की चिंता करना छोड़ दिया और देखते- देखते आज हर छोटी- बड़ी नदी कचराघर की तरह बना दी गई है।
अपने घर में जिस घड़े में, फ्रिज में, बोतलों में पीने का पानी रखते हैं क्या उसमें हम कचरा मिलाते हैं? हमारे बड़े लोगों ने बिना सोचे- समझे शुद्ध पानी देने वाली नदियों में शहरों से निकलने वाला कचरा, उद्योगों से निकलने वाली जहरीली गंदगी मिला दी है। कहने को सरकारों ने दिल्ली से लेकर हर राज्य में नदियों की सफाई के लिए बड़े अच्छे कानून बनाए हैं, लेकिन बात यह है कि इन्हें लागू नहीं किया जाता। नदियों पर इन्हें सजावटी तोरण की तरह टांग देने से कुछ नहीं होगा। जब आज हमारे बड़े लोगों ने इनकी सफाई के लिए कुछ खास नहीं किया है तो क्या अब यह सब भारी जिम्मेदारी छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर होना चाहिए?
अभी तो मुझे लगता है कि हम सबको इसके बारे में सोचना, समझना, पढऩा और लिखना चाहिए। हम अपने शहर से बहने वाली नदी, तालाब के बारे में जितना जान सकते हैं, उतनी कोशिश करना चाहिए। आज हमारा दिमाग इस सवाल पर थोड़ा- सा हो जाए तो हमारी नदियां और तालाब भी जरूर साफ हो सकेंगे।
ये बहुत कठिन काम नहीं है। पिछले वर्षों में राजस्थान के अलवर जिले में कोई 40 किमी लंबी अरवरी नाम की एक नदी देश की बाकी नदियों की तरह लगभग दम तोड़ चुकी थी, लेकिन फिर वहां पर तरुण भारत संघ ने अरवरी के दोनों किनारों पर बसे गांव को संगठित किया। लोगों ने बड़े धीरज से चुपचाप नदी के दोनों किनारों की पहाडिय़ों पर छोटे- छोटे कई तालाब बनाए। पहले वर्षा का जो पानी पहाडिय़ों पर गिरकर सीधे नदी में बहकर दो दिन की बाढ़ और फिर साल भर का अकाल लाता था, अब वह बरसात पहले इन छोटे- छोटे तालाबों में रुकता है। इससे नदी में बाढ़ नहीं आती और इन तालाबों की रिसन से निकला पानी साल भर नदी को जीवन देता रहता है।
अब ऐसा ही प्रयोग इसी जिले में नंदुवाली नदी के साथ भी किया गया है। दूर केरल में भी जहां खूब पानी गिरता है, लेकिन नदियां सूख जाती हैं- वहां भी ऐसे ही प्रयोग एक नदी को पूरी तरह से हरा कर चुके हैं। इन नदियों पर लोगों ने बिना किसी बड़ी सरकारी योजना के अपना पसीना बहाया है और इसलिए आज इनमें पानी बह रहा है।
पता- संपादक, गांधी मार्ग, गांधी शांति प्रतिष्ठान,
दीनदयाल उपाध्याय रोड (आईटीओ) नई दिल्ली 110 001,
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जीवन के रहस्य को सुलझाने वाला बैक्टीरिया

वैज्ञानिकों ने कैलिफोर्निया की झील में एक ऐसा बैक्टीरिया ढूंढ निकाला है जो जहरीले आर्सेनिक में भी जिंदा रह सकता है। ये बैक्टीरिया पृथ्वी और इससे बाहर जीवन के अस्तित्व और विकास के रहस्यों को सुलझाने में मददगार होगा।
पहली बार कोई ऐसा बैक्टीरिया मिला है जो जीवन के लिए जहरीले आर्सेनिक को डीएनए समेत सभी जैव रासायनिक प्रक्रियाओं में फॉस्फोरस की जगह इस्तेमाल करता है। अभी तक जितने भी प्राणियों का पता चला है वो सभी जीवन के लिए छह मूल तत्वों का ही इस्तेमाल करते हैं। नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, कार्बन, सल्फर और फॉस्फोरस।
ये नया बैक्टीरिया खारापन पसंद करता है और प्रयोगशाला जैसी परिस्थितियों में फॉस्फोरस की पूरी तरह से गैरमौजूदगी में आर्सेनिक का इस्तेमाल करता है। नए बैक्टीरिया को देख हैरत में पड़े नासा के वैज्ञानिक मारी वॉयटेक ने कहा, 'ये पृथ्वी का ही जीव है लेकिन वैसा नहीं जैसा कि अब तक हम जानते थे।' अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की तरफ से कराए गए रिसर्च में हुई इस खोज को जीवन के रहस्यों को सुलझाने की दिशा में एक बड़ी कामयाबी माना जा रहा है। रिसर्च करने वाले वैज्ञानिकों की टीम का हिस्सा रही फेलिसा वोल्फेसाइमन कहती हैं, 'हमने पृथ्वी के बाहर जीवन की संभावनाओं का पता लगाने का वो दरवाजा ढूंढ लिया है जो जानकारी के महासागर में खुलता है।'
वैज्ञानिकों ने इस बैक्टीरिया को जीएफएजे-1 नाम दिया है ये हैलोमोडेसीएई परिवार का प्रोटियो बैक्टीरिया है जो उन्हें झील की तलहटी से जमा किए गए कीचड़ में मिला। इस बैक्टीरिया की खोज पृथ्वी से बाहर जीवन की संभावनाओं की तलाश के साथ ही गंदे पानी की सफाई के काम में मदद करेगी। इसके साथ जैव ऊर्जा के उत्पादन में फॉस्फोरस की कमी से जूझने में भी मदद मिलेगी।
पर्यावरण में मौजूद फॉस्फोरस पर काम करने वाले वैज्ञानिक भी इस बैक्टीरिया को देख हैरत में हैं। वैज्ञानिक जेम्स एल्सर ने कहा कि इस खोज के बाद अब विज्ञान की पढ़ाई में कुछ अध्यायों को बदलना पड़ेगा।

प्यार का दर्द


कहते है कि प्यार में दर्द भी होता है प्यार के इस दर्द को हम कम भी नहीं करना चाहते क्योंकि प्यार एक खूबसूरत एहसास है, लेकिन यदि आप काम में व्यस्त है और आपके सर में दर्द शुरु हो गया है जो प्यार का नहीं आपके काम के टेंशन का दर्द है तो अपने प्रिय साथी का चित्र देखकर इस दर्द से राहत पा सकते हैं।
एक ताजा शोध के परिणाम दर्शाते हैं कि अपने किसी रोमांटिक साथी की तस्वीर देखने भर से दर्द का एहसास कम हो सकता है। स्टेनफर्ड विश्वविद्यालय चिकित्सा अध्ययन शाला के जेरेड यंगर और साथियों द्वारा किए गए इस शोध में यह भी पता चला है कि ऐसे रोमांटिक अनुभव के दौरान मस्तिष्क का पारितोषिक तंत्र सक्रिय हो जाता है। मस्तिष्क पारितोषिक तंत्र उस परिपथ को कहते हैं जिसके जरिए हम किसी अनुभव को अपने कार्य के एक खुशनुमा पारितोषिक के रूप में देख पाते हैं। यह देखा गया है कि कई दर्द निवारक रसायन मस्तिष्क के इस तंत्र को सक्रिय करते हैं। इस शोध से जुड़े लोगों का मत है कि यह तरीका कई मामलों में लंबे समय के दर्द के प्रबंधन में कारगर साबित हो सकता है। अध्ययन में मूलत: कुछ युवा लोगों को वालंटीयर्स के तौर पर शामिल किया गया था। उन्हें ताप के कारण होने वाले दर्द की अनुभूति दी गई और फिर उन्हें तीन समूहों में बांट दिया गया। एक समूह के व्यक्तियों को अपने किसी रोमांटिक साथी की तस्वीरें देखने को कहा गया। दूसरे समूह को किसी परिचित व आकर्षक व्यक्ति की तस्वीरों के साथ रखा गया जबकि तीसरे समूह को कोई ऐसा काम करने को दिया गया जो उनका ध्यान बंटाता हो। तीनों समूहों का एमआरआई भी जारी रहा।
अपने रोमांटिक साथी की तस्वीर देखने वाले लोगों और ध्यान बंटाने वाले कार्य में लगे लोगों में दर्द का एहसास समान रूप से कम हुआ मगर सिर्फ रोमांटिक साथी की तस्वीरें निहारने वाले व्यक्तियों में ही मस्तिष्क की पारितोषिक प्रणाली सक्रिय हुई। यह बात एमआरआई के आंकड़ों से पता चली जबकि दर्द के एहसास में कमी की बात खुद वालंटियर्स के बयानों पर आधारित थी। इन परिणामों से पता चलता है कि मस्तिष्क के पारितोषिक तंत्र को गैर- औषधीय तरीकों से सक्रिय करने पर भी दर्द से मुक्ति मिल सकती है। हालांकि इस अध्ययन में शामिल लोगों की संख्या बहुत कम थी मगर इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। इस अध्ययन के बारे में एक बात और गौरतलब है कि सारे के सारे वालंटियर्स युवा स्नातक छात्र थे। उनमें प्रेम वगैरह की भावनाएं काफी तीव्र होती हैं। दिक्कत यह है कि जीर्ण दर्द के मामले ज्यादातर उम्रदराज लोगों में होते हैं। उनके संदर्भ में किसकी तस्वीर दिखाने से काम चलेगा, यह स्पष्ट नहीं है। बहरहाल, अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि दर्द से मुक्त के लिए गैर- औषधीय तरीके भी हैं। (स्रोत फीचर्स)
वाह भई वाह
कॉलेज
संता सिंह ने एक कॉलेज खोला... पर सारे स्टुडेंट कनफ्यूज्ड थे कि किस कोर्स में एडमिशन लें...? क्योंकि ... कॉलेज का नाम था- संता सिंह्स मेडिकल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग फॉर कॉमर्स एंड आर्ट्स।

एक लुप्त होता प्राणी जंगली भैंसा

- अरुणेश दवे
वन विभाग ने जंगली भैंसों की संख्या बढ़ाने के लिये नई तकनीक का सहारा लेने का निर्णय लिया है जिसके तहत एक मात्र बची मादा के अंडाणु और नर भैंसों के वीर्य को निषेचित कर उन्हें बड़ी संख्या में पालतू मादा भैंसों के गर्भ में स्थापित किया जाएगा।
एशियाई जंगली भैंसों की संख्या आज 4000 से भी कम रह गई है। एक सदी पहले तक पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में बड़ी तादाद में पाए जाने वाला जंगली भैंसा आज केवल भारत, नेपाल, बर्मा और थाइलैंड, पूर्वी भारत में काजीरंगा और मानस राष्ट्रीय उद्यान तथा मध्य भारत में छत्तीसगढ़ के रायपुर संभाग और बस्तर में पाया जाता है। कभी यह सरगुजा, बिलासपुर और रायगढ़ में भी बहुतायत से पाया जाता था।
छत्तीसगढ़ में इनकी दर्ज संख्या आठ है। जिन्हें अब छत्तीसगढ़ सरकार और वन्य प्राणी संस्थान देहरादून द्वारा सुरक्षित घेरे में रख कर उनका प्रजनन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। लेकिन उसमें भी समस्या यह है कि मादा केवल एक ही है और उस मादा पर भी एक ग्रामीण का दावा है कि वह उसकी पालतू भैंस है। खैर ग्रामीण को तो मुआवजा दे दिया गया पर समस्या फिर भी बनी हुई है। यह मादा केवल नर शावकों को ही जन्म दे रही है, अब तक उसने दो नर बछड़ों को जन्म दिया है। पहले नर शावक के जन्म के बाद ही वन अधिकारियों ने मादा शावक के जन्म के लिये पूजा पाठ और मन्नतों तक का सहारा लिया और तो और शासन ने एक कदम आगे जाकर उद्यान में महिला संचालिका की नियुक्ति भी कर दी ताकि मादा भैंस को कुछ इशारा तो मिले, पर नतीजा वही हुआ मादा ने फिर नर शावक को जन्म दिया। शायद पालतू भैंसो पर लागू होने वाली कहावत कि 'भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुरावै' जंगली भैंसों पर भी लागू होती है।
मादा अपने जीवन काल में 5 शावकों को जन्म देती है, इनकी जीवन अवधि 9 वर्ष की होती है। नर शावक दो वर्ष की उम्र में झुंड छोड़ देते हैं। शावकों का जन्म अक्सर बारिश के मौसम के अंत में होता है। आमतौर पर मादा जंगली भैंसे और शावक झुंड बना कर रहते हैं तथा नर झुंड से अलग रहते हैं पर यदि झुंड की कोई मादा गर्भ धारण के लिये तैयार होती है तो सबसे ताकतवर नर उसके पास किसी और नर को नहीं आने देता। यह नर आमतौर पर झुंड के आसपास ही बना रहता है। यदि किसी शावक की मां मर जाये तो दूसरी मादायें उसे अपना लेती है। इनका स्वभाविक शत्रु बाघ है, पर यदि जंगली भैंसा कमजोर बूढ़ा या बीमार हो तो जंगली कुत्तों और तेंदुओ को भी इनका शिकार करते देखा गया है। वैसे इनको सबसे बड़ा खतरा पालतू मवेशियों से संक्रमित बीमारियाँ ही हैं, इनमें प्रमुख बीमारी फुट एंड माउथ है। रिंडरपेस्ट नाम की बीमारी ने एक समय इनकी संख्या में बहुत कमी लाई थी।
जब धोखा खा गये कथित एक्सपर्ट
भैंसों पर दूसरा बड़ा खतरा जेनेटिक प्रदूषण है। जंगली भैंसा पालतू भैंसों से संपर्क स्थापित कर लेता है। हालांकि फ्लैमैंड और टुलोच जैसे शोधकर्ताओं का मानना है कि आमतौर पर जंगली नर भैंसा पालतू नर भैंसे को मादा के पास नहीं आने देता पर स्वयं पालतू मादा भैंसे से संपर्क कर लेता है। इस विषय पर अभी गहराई से शोध किया जाना बाकी है। मध्य भारत के जिन इलाकों में यह पाया जाता है, वहां की पालतू भैंसे भी इनसे मिलती जुलती नजर आती हैं। इस बात को एक मजेदार घटना से समझा जा सकता है। कुछ वर्षो पहले बीजापुर के वन-मंडलाधिकारी रमन पंड्या के साथ बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की एक टीम जंगली भैंसों का अध्ययन करने और चित्र लेने के लिए इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान पहुंची। उन्हें जंगली भैंसों का एक बड़ा झुंड नजर आया और उनके सैकड़ों चित्र लिए गए। एक श्रीमान जो उस समय देश में जंगली भैंसों के बड़े जानकार माने जाते थे, बाकी लोगों को जंगली भैंसों और पालतू भैंसों के बीच अंतर समझाने में व्यस्त हो गये। तभी अचानक एक चरवाहा आया और सारी भैंसों को हांक कर ले गया।
अनुचित वृक्षारोपण
मध्य भारत में जंगली भैंसों के विलुप्तता की कगार पर पहुंचने का एक प्रमुख कारण उसका व्यवहार है, जहां एक ओर गौर बारिश में ऊंचे स्थान पर चले जाते हैं, वही जंगली भैंसे मैदानों में खेतों के आस पास ही रहते हैं और खेतों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इस कारण गांव वाले उनका शिकार कर लेते हैं। एक कारण यह भी है कि वन विभाग द्वारा प्राकृतिक जंगलों को काट कर उनके स्थान पर शहरी जरूरतों को पूरा करने वाले सागौन, साल और नीलगिरी जैसे पेड़ों का रोपण कर दिया है। इनमें से कुछ के पत्ते अखाद्य हंै, इनके नीचे वह घास नहीं उग पाती जिनको ये खाते हंै, वैसे भी जंगली भैंसे बहुत चुनिंदा भोजन करते हैं। इस कारण भी इनका गांव वालों से टकराव बहुत बढ़ गया है।
बेवार पद्धति और जंगल में सन्तुलन
टकराव बढऩे का एक कारण यह भी है कि पहले आदिवासी बेवार पद्धति से खेती करते थे। इसमें उनको ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। जंगल के टुकड़े जला कर उनमें बिना हल चलाये बीज छिड़क दिये जाते थे। राख एक बेहद उत्तम उर्वरक का काम करती थी। पैदावार भी बहुत अच्छी मिल जाती थी। इसके अलावा जंगलों में कंदमूल और फल भी प्रचुरता से मिल जाते थे। यदाकदा किए जाने वाले शिकार से भी उन्हें भोजन की कमी नहीं होती थी। वे खेती पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं थे। इसलिए वन्य प्राणियों द्वारा फसल में से कुछ हिस्सा खा लिये जाने पर इनमें बैर भाव नहीं आता था। हर दो या तीन साल में जगह बदल लिए जाने के कारण पिछली जगह घास के मैदान बन जाते थे। वन्य प्राणियों को चारे की कोई कमी नहीं होती थी। अत: यदाकदा किये जाने वाले शिकार से उनकी संख्या में कोई कमी नहीं आती थी।
आदिवासियों के अधिकारों का हनन वन्य जीवों के लिए बना संकट
अब चूंकि आदिवासियों के पास स्थाई खेत हैं जिनकी उर्वरता उत्तरोत्तर कम होती जाती है और इनमें हल चलाना, खरपतवार निकालना और उर्वरक डालने जैसे काम करने पड़ते है जिसमें काफी श्रम और पैसा लगता है। इसके अलावा खेतों की घेराबंदी के लिये बास बल्ली और अन्य वन उत्पाद लेने की इजाजत भी नहीं है। इमारती लकडिय़ों के वनों में
आदिवासियों के लिये भोजन भी नहीं है अत: अब आदिवासी अपनी फसलों के नुकसान पर वन्य प्राणियों के जानी दुश्मन हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से जंगली भैंसे आज दुर्लभतम प्राणियों की श्रेणी में आ गये हैं।
एक प्राकृतिक स्वर्ग को नष्ट करने की साजिश
खैर यह सब हो चुका है और इस नुकसान की भरपाई करना हमारे बस में नहीं है। लेकिन एक जगह है जो आज तक विकास के विनाश से अछूती है। वह जगह वैसी ही है जैसा प्रकृति ने उसे करोड़ों सालों के विकास क्रम से बनाया है। जहां आज भी बेवार पद्धति से खेती होती है, वहां वनभैंसा बड़े झुंडों में शान से विचरता देखा जा सकता है। इस जगह बड़ी संख्या में बाघ, भालू, ढोल और पहाड़ी मैना अन्य वन्यप्राणी आदिवासियों के साथ समरसता से रह रहें हैं। यहां प्रकृति प्रदत्त हजारों किस्म की वनस्पतियां पेड़ पौधे जिनमें से अनेक आज शेष भारत से विलुप्त हो चुके हैं, फल- फूल रहे हैं।
करीब 5000 वर्ग किलोमीटर में फैले इस स्वर्ग का नाम है अबूझमाड़। ना यहां धुंआ उड़ाते कारखाने है ना धूल उड़ाती खदानें। और ना ही वे सड़के हैं जिनसे होकर विनाश यहां तक पहुंच सके। पर यह सब कुछ बदलने वाला है और कुछ तो बदल भी चुका है। यहां पर रहने वाले आदिवासियों को तथाकथित कामरेड बंदूकें थमा रहे हैं। हजारों सालों तक स्वर्ग रही इस धरती पर इन स्वयंभू कामरेडों ने बारूदों के ढेर लगा दिये हैं। इस सुरम्य धरती पर इन लोगों ने ऐसी बारूदी सुरंगे बिछा दी हैं जो सुरक्षा बलों, आदिवासियों और वन्य प्राणियों में फर्क नहीं कर सकती।
जंगली भैंसों के भविष्य की एक सुनहरी किरण
हाल ही में वन विभाग ने जंगली भैंसों की संख्या बढ़ाने के लिये नई तकनीक का सहारा लेने का निर्णय लिया है जिसके तहत एक मात्र बची मादा के अंडाणु और नर भैंसों के वीर्य को निषेचित कर उन्हें बड़ी संख्या में पालतू मादा भैंसों के गर्भ में स्थापित किया जायेगा। आशा है कि इस तकनीक से जंगली भैंसों को बचाया जा सकेगा।
लेखक अपने बारे में:
स्वतंत्रता सेनानी परिवार से ताल्लुक रखता हूं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में निवास है। इंडियन रिसर्च इंस्टीट्यूट से प्लाईवुड टेक्नालॉजी में डिप्लोमा किया है तथा इसे ही पेशे के रुप में अपनाया है। सामाजिक सरोकार के प्रति सजगता मेरे स्वभाव में है। वन्य जीवों व जंगलों से लगाव है अत: इन विषयों पर लिखता हूं। मेरा पता: रोहिणी प्लाइवुड इंडस्ट्री, न्यू इंडस्ट्रियल एरिया, गोगांव, रायपुर (छ.ग.)
मो.- 0942503045 E-mail - aruneshd3@gmail.com

पं. भीमसेन जोशी

- प्रताप सिंह राठौर

पंडित जी जिस तन्मयता से गाते थे उसमें उनके हाथों और चेहरे की मुद्राएं देखकर स्पष्ट हो जाता था कि वे उन स्वरों को अपनी आत्मा की गहराइयों से                                                                                              निकाल कर ला रहे हैं।
पं. भीमसेन जोशी का शायद सबसे प्रिय भजन है 'जो भजे हरि को सदा, वो ही परमपद पाएगा'। पंडित जी के असंख्य भक्तों को भी यह भजन उनके बेमिसाल कंठ से निकला पावन प्रसाद लगता है। 4 फरवरी 1922 को धारवाड़, कर्नाटक में जन्में सुर सम्राट पं. भीमसेन जोशी 24 जनवरी 2011 को शास्त्रीय संगीत जगत में परमपद प्राप्त करके प्रात: 8.05 पर पुणे में चिरनिद्रा में सो गए।
एक संस्कृत शिक्षक की 16 संतानों में से एक पं. भीमसेन जोशी के शैशव या बाल्यकाल में ऐसा कुछ भी नहीं था जो उन्हें संगीत की ओर आकर्षित करता। वास्तव में तो घरेलू वातावरण संगीत में रूचि होने के विरुद्ध था। घर से स्कूल के रास्ते में ग्रामोफोन की दुकान पर बजते रेकार्ड से किराना घराना के उस्ताद करीम खां का गायन सुनकर बालक भीमसेन ने वैसा ही गायक बनने की ठान ली। और 11 वर्षीय बालक भीमसेन घर छोड़कर गुरु की खोज में निकल पड़े। तन पर सिर्फ दो कपड़े- नेकर और कमीज। जेब खाली।
ग्वालियर, कलकत्ता, लखनऊ, रामपुर वगैरह होते हुए वे संगीत गुरु की तलाश में वर्षों भटकते रहे। अमृतसर की वार्षिक म्यूजिक कान्फ्रेंस में बालक भीमसेन जोशी को अपनी तपस्या का मनोवांछित प्रसाद मिला। वहां इन्हें पता चला कि इनके मन की मुराद तो पुणे में किराना घराने के सवाई गंधर्व की शागिर्दी में पूरी होगी। बस फिर क्या था भीमसेन तनमन से सवाई गंधर्व के चरणों में बैठकर संगीत साधना में जुट गए।
उस्ताद करीम खाँ के शिष्य सवाई गंधर्व ने भीमसेन के अंदर भरी जन्मजात प्रतिभा को पहचाना और उसे निखारने हेतु उचित मार्गदर्शन किया। जिससे पं. भीमसेन जोशी संगीत जगत में संगीत मार्तण्ड बनकर चमके।
छह दशकों तक देश विदेश में अपने असंख्य प्रशंसकों को अपने गायन से मंत्रमुग्ध करने वाले पं. भीमसेन जोशी विलक्षण एवं अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। उन्हें मंच पर गायन करते देखना एक अविस्मीरणीय लोमहर्षक अनुभव होता था। पंडित जी जिस तन्मयता से गाते थे उसमें उनके हाथों और चेहरे की मुद्राएं देखकर स्पष्ट हो जाता था कि वे उन स्वरों को अपनी आत्मा की गहराइयों से निकाल कर ला रहे हैं। निस्संदेह पं. भीमसेन जोशी भारतीय शास्त्रीय संगीत के ऐसे अनुपम रत्न थे कि जिनके नाम के साथ जुड़कर भारतरत्न की पदवी सम्मानित होती है। पं. भीमसेन जोशी के असंख्य प्रशंसकों का (मेरा भी) यह विश्वास है कि वे देवी सरस्वती के ऐसे प्रिय पुत्र थे कि देवी स्वयं ही पं. भीमसेन जोशी के कंठ में निवास करती थीं।
पं. भीमसेन जोशी जैसी प्रतिभा के व्यक्तित्व और उपलब्धियों पर जब हम ध्यान देते हैं तो मन में एक प्रश्न उठता है कि प्रतिभा क्या होती है। क्या प्रतिभा की कोई परिभाषा है या हो सकती है? क्या था वह जिसने एक 11 वर्ष के बच्चे के मन में शास्त्रीय संगीत का गायक बनने की ललक भर दी जबकि उसके गरीब घरेलू माहौल में कुछ भी ऐसा नहीं था जो संगीत से दूर का भी रिश्ता रखता हो। शिक्षक पिता के नेतृत्व में घरेलू माहौल तो पूर्णतया जल्दी से जल्दी मैट्रिक तक पढ़कर रोजी- रोटी के जुगाड़ में जुट जाने को प्रेरित करने वाला था। परंतु भीमसेन जी के अंतकरण में कुछ ऐसी प्रतिभा थी जिसके साथ उनका जन्म हुआ था। असलियत तो ये है कि प्रतिभा कुछ ऐसी अवर्णनीय सक्षमता होती है जो किसी- किसी व्यक्ति में जन्मजात होती है। इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। लेकिन हां इसकी पहचान बताई जा सकती है। प्रतिभावान मनुष्य असाधारण व्यक्तित्व के धनी होते हैं और जाने पहचाने रास्तों पर न चलकर नई राह बनाते हैं। प्रतिभावान जिस कला को अपनाते हैं उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ते है। पं. भीमसेन जोशी के व्यक्तित्व और जीवन में उपरोक्त सभी विशिष्टताएं जगमगाती हैं।
शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में पं. भीमसेन जोशी जैसी लोकप्रियता शायद ही किसी अन्य कलाकार ने पाई हो। पं. भीमसेन जोशी के असंख्य प्रशंसकों में अधिकांश ऐसे साधारण स्त्री- पुरुष हंै जो शास्त्रीय संगीत के व्याकरण से पूर्णतया अपरिचित है। पं. भीमसेन जोशी अपनी प्रतिभा के चमत्कार से $खयाल हो, अभंग हो, भजन हो या ठुमरी हो- आम श्रोताओं को भी मंत्रमुग्ध कर देते थे। जितने लोकप्रिय पंडितजी भारत में थे उतने ही लोकप्रिय वे विदेशों में भी थे। यही कारण है कि इंग्लैंड की विश्वप्रसिद्ध साप्ताहिक मैगजीन 'दि इकॉनामिस्ट' ने अपने पांच फरवरी 2011 के अंक में पं. भीमसेन जोशी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की है।
पंडितजी वास्तव में 'भारतीय शास्त्रीय संगीत' की तरह
अमर हैं।
पता: बी-403, सुमधुर-2 अपार्टमेंट्स, आजाद सोसायटी के पास,
अहमदाबाद- 380015, फोन: 079- 26760367

आने दो वसंत

- राजीव कुमार
आज
क्यों हर तरफ सूखा है,
भीतर-बाहर
सब कुछ रुखा-रुखा है
बादल भी हो रहे हैं सफेद
इन्सान की कौन कहे
पेड़ों ने भी नहीं ओढ़ी है,
हरे पत्तों की चटक शाल
उतरा हुआ है
खेतों का भी रंग,

इस बार
आने दो वसंत
छाने दो हरियाली
चारो ओर,
भर जाने दो
नदियों में पानी,
कल-कल, कल-कल
बहने दो झरनों को
झर-झर, झर-झर
झरने दो।

खिल जाने दो खेतों में
सरसों के पीले-पीले फूल,
चुन लेने दो तितलियों को
मनचाहे फूल,
भवरों को झूम लेने दो
पीकर मकरंद।

बिछ जाने दो
हरियाली की चादर
चारो ओर
बह लेने दो
एक बार फिर
मंद- मंद
सिहरन भरा समीर।
घुल जाने
दो हवाओं में भंग,
छा जाने दो
चतुर्दिक उमंग।

शेमल के फूलों से
चुरा कर लाल रंग
बना लो गुलाल,
खेलो होली
एक- दूजे के संग।

रंग दो
मन का कोना- कोना,
अंग- अंग,
दो रिश्तों को
नया जीवन,
वसंत को आने का अवसर
बार- बार, बार- बार।
पता: वरिष्ठ अनुवादक,
रसायन और उर्वरक मंत्रालय,
रसायन और पेट्रो- रसायन विभाग
भारत सरकार, नई दिल्ली
http://ghonsla.blogspot.com
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कोयल की मधुर कूक
- कैलाशचंद्र शर्मा
सरसों के खिले फूल,
ओढ़े पीला दुकूल,
हरियाली नाच रही, आया वसंत है
प्रियतम हैं आन मिले,
मन के सब द्वार खुले,
तन- मन में नाच रहा जैसे अनंग है।
हिरणी सा मन चंचल,
गिरता सिर से आंचल,
बार बार तके द्वार, आया न कन्त है।
पढ़ती बार- बार पाती,
क्यों न उन्हें याद आती,
क्यों मेरी राहें ही, सूनी अनंत है
सरसों का पीलापन,
चहरे पर आया छन,
हो गये कपोल पीत, कैसा वसंत है।
कोयल की मधुर कूक,
उर में बढ़ जाती हूक,
पतझड़ है चहुं ओर,
कहाँ पर वसंत है ?

पता: HU- 44, Vishakha Enclave,
itampura (Uttari), Delhi- 110088

नौटंकी यानी पारंपरिक कला का मुरब्बा

- राधाकान्त चतुर्वेदी
प्रादेशिक शिक्षा विभाग में डिग्री कालेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर होने के बाद परिवार के दबाव में मुझे भी आधुनिकता का तमगा लगाना पड़ा। अर्थात मुफस्सिल में एक हवेलीनुमा पैतृक मकान होते हुए भी महानगर में आधुनिकता का झंडा फहराने के लिए एक डुप्लेक्स मकान खरीदना पड़ा। आधुनिक कहलाने के लिए छोटे शहर का मूल निवासी होने का तथ्य किसी शर्मनाक अपराध की तरह छिपाना अनिवार्य होता है। सो भइये मैं भी आधुनिकता के भंवरजाल में फंसा एक तिनका हूं।
लेकिन मामला कुछ ज्यादा ही संगीन है। जिस प्रकार से आधुनिक से आधुनिक रमणी को दाई से पेट नहीं छुपाना चाहिए, उसी तरह से मेरा मानना है, लेखक को पाठक से असलियत नहीं छुपाना चाहिए। तो साहब असलियत यह है कि मैं आधुनिकता की महामारी से ग्रस्त हूं। बीमार हूं। और बीमारी भी कैसी? लाइलाज। ऐसे में जीने का सहारा मन को बीमारी से हटाकर कहीं और लगाना होता है। मैं अपना मन अपने छोटे से शहर में बीते जीवन की मधुर स्मृतियों में लगाता हूं। और राहत पा जाता हूं। कम खर्च बाला नशीं।
अहा। बचपन के दिन भी क्या दिन थे। अंग्रेजों का बसाया हुआ जिले के मुख्यालय और फौजी छावनी वाला गंगा के किनारे छोटा सा साफ सुथरा शहर। हमारा प्यारा फतेहगढ़- जिला फर्रुखाबाद (उत्तरप्रदेश) का मुख्यालय जहां आज भी एक सिनेमा हाल तक नहीं है। गंगा जी के एक किनारे पर शहर दूसरे किनारे पर गांव। रेल पटरी के एक तरफ शहर और दूसरी तरफ खेत और गांव। समझ में ही नहीं आता था कि कहां शहर समाप्त होता था और कहां से गांव शुरु होता था।
ऐसे में क्या ताज्जुब कि मनोरंजन के सार्वजनिक साधन सिर्फ वार्षिक रामलीला, गंगा दशहरा तथा कुछ प्रमुख मंदिरों पर होने वाले मेले थे। मंदिरों वाले मेलों की एक विशिष्टता थी कि दिन ढलने के साथ ही मंदिर के निकट नौटंकी का मंच सजने लगता था। रात भर नौटंकी मंचन मंदिरों के वार्षिक उत्सव का अनिवार्य अंग हुआ करता था।
'मुन्नी बदनाम हुई ...' पर तन मन धन न्यौछावर करने वाली आज की युवा पीढ़ी को यह नहीं मालूम कि इस प्रकार के 'हॉट आइटम सांग' का मूल स्रोत नौटंकी ही है। आज से अर्धशताब्दी पहले तक उत्तरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश के विशाल ग्रामीण क्षेत्र और शहरों में भी नौटंकी सबसे ज्यादा पापुलर मनोरंजन का साधन हुआ करती थी।
मेरे घर के निकट जिले का सबसे प्रसिद्ध हनुमानजी का मंदिर भी है। इस मंदिर की विशिष्टता है कि इसमें महावीर हनुमान जी की 6 या 7 मीटर ऊंची बड़ी ही भव्य प्रतिमा है। शहर की मुख्य सड़क पर स्थित इस मंदिर में मंगलवार और शनिवार को श्रद्धालुओं (जिनमें अधिकांशत: युवक और युवतियां ही होते हैं) की भारी भीड़ होती है। जहां प्रौढ़ाएं अपनी पुत्रियों के लिए सुयोग्य वर पाने के लिए दस आने या बीस आने का प्रसाद बाल ब्रम्हचारी बजरंगबली को अर्पित करती थीं। वहीं उनके साथ आई सजी धजी युवा पुत्री उनके पीछे खड़ी जल्दी से चाट की दुकान पर पहुंच कर 'मैं तुझसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने' को चरितार्थ करने को आतुर रहती थी। दामाद पाने की अम्मा की मुराद पुरी होती थी या नहीं कहना मुश्किल है परंतु यह सत्य है कि चाट की दुकान पर मंडराते यार के दीदार की बिटिया रानी की मुराद तुरंत पूरी होती थी। साथ ही गोलगप्पे और आलू की टिक्की का मजा बोनस में।
इन्हीं बाल ब्रम्हचारी हनुमानजी के वार्षिकोत्सव में रात को नौटंकी भी होती थी। नौटंकी को लेकर मुहल्ले के नाई, धोबी, हलवाई, पानवालों, खोमचों वालों में एक दो हफ्ते पहले से ही गहमा- गहमी रहती थी। आसपास के गांवों से आने वाले सहपाठी भी नौटंकी की चर्चा चटखारे लेकर करते थे। घर के बाहर का वातावरण दस- पंद्रह दिन पहले से नौटंकी की महिमा में डूब जाता था।
दस ग्यारह वर्ष की उमर से इस माहौल में मेरा मन भी नौटंकी देखने के लिए ललचाता था। परंतु पिता और चाचा सरकारी अफसर थे अत: मध्यमवर्गीय नैतिकता के मजबूत पत्थर से मेरी चाहत बरसों कुचली जाती रही। जब भी मैं नौटंकी देखने के लिए रिरियाता, घर के बड़े आंखें तरेर कर कहते नौटंकी शरीफ लोगों के देखने की चीज नहीं। मेरे अभिभावक चाचाजी तो बहुत ही स्पष्टवादी थे। कहते थे नौटंकी जाने के बारे में सोचा भी तो टांगे तोड़ दूंगा। साथ ही चाचा जी कथनी और करनी में फर्क भी नहीं करते थे। अत: बरसों लगता रहा 'बहुत कठिन है डगर पनघट की।'
साल पर साल बीतते गए और हर साल नौटंकी का नगाड़ा मुझे ललकारता रहा। जवानी ने मेरे तन में पदार्पण किया और ऊपरी ओंठ पर उगती रेख ने मध्यमवर्गीय नैतिकता की भूल- भुलइया में कभी- कभी सेंध लगाने की युक्ति भी सुझाई। चाचाजी सूरज डूबने के साथ सोने लगते थे। नौटंकी रात में 10 बजे के बाद शुरु होती थी। चाचाजी के कड़े अनुशासन को चाचीजी अपने लाड़- प्यार से बैलेन्स करती थी। चाची को पोट कर पिछले दरवाजे से बाहर निकल नौटंकी की चटपटी दुनियां में पहुंच जाता था।
क्या रंगीन समा होता था। त्रिमोहन गुलाब बाई की नौटंकी। इन्हें इनके असंख्य प्रशंसक प्यार से तिरमोहन और गुलबिया कहते थे। त्रिमोहन प्रोड्यूसर और डाइरेक्टर थे तथा गुलाब बाई हीरोइन। तत्कालीन नौटंकी जगत में त्रिमोहन और गुलाब बाई की जोड़ी शीर्ष स्थान पर थी। वे नौटंकी जगत के राजकपूर नरगिस थे।
मंदिर के बगल में सड़क के किनारे खुली जगह में दो तीन तखत जोड़कर मंच बनाया जाता था। तखत पर दरी बिछी होती थी। मंच के पीछे एक छोटा सा तम्बू होता था जो ग्रीनरूम का काम करता था। तखत के सामने नीचे एक कोने में नगाड़े बजाने वाला और हारमोनियम बजाने वाला जिसे पेटी मास्टर कहते थे, बैठते थे। अब जायजा लीजिए दर्शक दीर्घा का।
मंच के सामने आसपास के घरों से मांगकर एक टूटे- फूटे सोफे और कुर्सियों की एक पंक्ति लगाई जाती थी। गणमान्य व्यक्तियों के लिए। गणमान्य दर्शकों से अभिप्राय है इलाके का दरोगा, इलाके के दादा जो चाकू से कत्ल करने में स्पेशलिस्ट थे। टाल के मालिक, किराने की दुकान वाले लाला तथा आस- पास के गांवों के लम्बरदार जो अपनी दुनाली बंदूकों के साथ आते थे। शेष सब दर्शक खड़े- खड़े मजा लेते थे। सब कुछ खुले आसमान के नीचे। जिसकी जब मर्जी हो, जैसे मर्जी हो, आए। जब मर्जी हो जाए। कोई रोक- टोक नहीं। खरा खेल फर्रुखाबादी। जिसकी वजह से गंगा- जमुना के दोआबे में सिनेमा कभी भी नौटंकी का मुकाबला नहीं कर पाया। सिनेमा में तो ज्यादातर समय अंधेरे में बैठे हुए स्क्रीन पर ही ध्यान केंद्रित रहता है। दर्शकों का जायजा तो सिर्फ इंटरवल में ही लिया जाता है। जबकि नौटंकी में मंच पर कलाकारों की हरकतों और दर्शकों की हरकतों में इतना तगड़ा कम्पटीशन रहता था कि यह कहना मुश्किल होता था कि दोनों में से कौन ज्यादा मजेदार है।
जो दुकानदार- लाला और लकड़ी के टाल वाले- हमेशा 8- 10 दिन की दाढ़ी बढ़ाए मटमैली धोती और बनियान में कान में बीड़ी लगाए देखे जाते थे वे सब गुलदस्तों की तरह दमक रहे होते थे। शेव किया हुआ चमकता चेहरा, इफरात से तेल लगाकर संवारे हुए बाल और मूंछे, मुंह में पान और होठों पर उसकी लाली, आंखों में सुरमा और कान में इतर का फाहा, बुर्राक कल$फ लगे कड़क कुर्ता और धोती, कंधे पर नया गमछा, पैरों में पालिश किए हुए जूते और हाथ में सिगरेट का पैकेट और माचिस। इन सबके चेहरों पर तमाशे का सबसे खास मुन्त•िाम होने की अकड़। दरोगा के आते ही उनमें होड़ लग जाती थी, उनके बगल में बैठकर बेहतरीन चापलूस की तरह दरोगाजी को पान- सिगरेट पेश करने की। लेकिन दरोगा के अगल बगल दो ही गणमान्य बैठ सकते थे इसलिए शेष गणमान्य ग्रीनरूम वाले तम्बू के आसपास मंडराया करते थे। शेष दर्शकों की भीड़ में जहां जिसको जगह मिलती थी खड़ा रहता था।
नौटंकी की जान है नगाड़ा जो सूरज डूबने के साथ- साथ अपनी गमकती धाप से नौटंकी का विज्ञापन करने लगता था। नगाड़े की ध्वनि से ही कई किलोमीटर के दायरे में शौकीन कद्रदान मेहरबान गुलाब बाई के दीदार के लिए रतजगा करने को प्रोत्साहित होते थे। नगाड़ची रह- रह कर 10-15 मिनट तक अपना कमाल दिखाता रहता था फिर बैठकर सुस्ताने लगता था और नगाड़े से अगली भिड़त के लिए गांजे की चिलम को गहरी खींच कर बाजूओं में दम भरता था। असलियत में तो नगाड़े का नौटंकी में वही स्थान था जो मानव शरीर में हृदय का है। नगाड़ा बजाने में त्रिमोहन की ख्याति वैसी ही थी जैसी कि तबला बजाने में फर्रुखाबाद घराने के उस्ताद अहमदजान थिरकवा की थी। मैंने तो नहीं देखा पर सुनने में आता था कि त्रिमोहन अपने पैरों से भी नगाड़ा उतनी ही कुशलता से बजा लेते थे जितना कि अपने हाथों से। जो भी हो दर्शकों में नगाड़े के कद्रदानों की संख्या गुलाब बाई के गले की मिठास और कमर के ठुमकों के दीवानों से कम नहीं थी।
नगाड़े से खिंच कर आए दर्शकों को दो- ढाई घंटे खेला शुरु होने तक, बांधे भी रहना था। यह काम विदूषक करता था। जिसे अधिकांश दर्शक जो देहातों से आते थे, मसखरा कहते थे और शहरी दर्शक जोकर कहते थे। वह मुंह पर सफेदी पोते और हाथ में फटा बांस लिए दर्शकों से छेड़छाड़ करके उन्हें हंसाता रहता था। किसी- किसी दर्शक की पीठ पर फटे बांस का झटका भी दे देता था। जिससे वह दर्शक लक्का कबूतर की तरह फूला नहीं समाता था। 'प्यादा से फर्जी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय।' यह नौटंकी का जादू था कि लोग फटे बांस से पिटाई को भी सफलता का तमगा मानते थे। वास्तव में जोकर एक हरफनमौला अभिनेता होता था जो कई पात्रों का अभिनय करता था और पूरे नाटक का सूत्रधार भी वही होता था।
रात 10 बजे के आस- पास नौटंकी का मंचन शुरु होता था। नौटंकी का विषय ज्यादातर सत्यवादी हरिशचंद्र, सुल्ताना डाकू, अमर सिंह राठौर, लैला मजनू इत्यादि होता था। नौटंकी का विषय कुछ भी हो सबसे पहले सभी कलाकार मंच पर खड़े होकर हाथ जोड़कर ईश वंदना करते थे। इसके बाद नौटंकी शुरु होती थी। कलाकारों के बीच संवाद अदायगी उर्दू की शेरों- शायरी में होती थी। कलाकार द्वारा बोले गए प्रत्येक शेर के अंत में नगाड़ा बजता था। इसी प्रकार एक के बाद एक सीन आगे बढ़ते जाते थे। कलाकारों को गाते हुए संवाद बोलने के अलावा एक्टिंग के नाम पर ज्यादा कुछ करने को नहीं होता था। नौटंकी का असली करिश्मा तो प्रत्येक सीन की समाप्ति पर होता था। यह करिश्मा कलाकारों और दर्शकों के सम्मिलित प्रयास से संपन्न होता था। प्रत्येक सीन के बाद स्टेज पर नर्तकी का नृत्य होता था। आजकल की फिल्मों में आइटम डांस का प्रेरणा स्रोत।
ग्रीनरूम वाले तम्बू से नर्तकी इठलाती हुई निकलती थी। सिगरेट का आखिरी कश खींच कर शेष सिगरेट आसपास खड़े किसी लार टपकाते प्रशंसक को थमाकर नाज- नखरे के साथ स्टेज पर चढ़ती थी और इसी के साथ दर्शकों के चेहरे स्विच आन कर देने पर बल्ब की तरह जगमगाने लगते थे। साथ ही साथ दर्शकों के गलों से आहों और कराहों के साथ 'जियो छप्पनछूरी जान', 'छम्मक छल्लो पे जान कुर्बान' जैसे फिकरों से नर्तकी का स्वागत होता था। ये रसीले फिकरे नाच के साथ नगाड़े और हारमोनियम की तरह ही चलते रहते थे और नर्तकी के तन- मन पर जानदार टॉनिक का काम करते थे। दर्शकों के फिकरों की नौटंकी के मंच पर हो रहे नाच में वही भूमिका थी जो आलू की टिक्की के ऊपर चटनी की होती है।
नौटंकी के कार्यक्रम में ऐसे 8 या 10 नाच होते थे। उनमें से बीच में एक दो नाच गुलाब बाई भी दिखाती थी। गुलाब बाई नाचते समय ज्यादातर लोकगीत ही गाती थी। तब उनके द्वारा गाये गीतों के रेकार्ड बहुत प्रसिद्ध्र थे। जैसे 'नदी नारे न जाओ श्याम पइयां पडूं', 'मोको पीहर में मत छेड़...', 'भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्मा' वगैरह। (फिल्म 'मुझे जीने दो' में सुनील दत्त ने गुलाब बाई के गाए दो गीतों को आशा भोंसले की आवाज में रेकार्ड करवाया था।)
ज्यादातर नाच गुलाब बाई की शिष्याओं द्वारा प्रस्तुत किए जाते थे। जिनके नाम छप्पन छुरी, हुस्नबानो, छबीली, गुलबहार या सोनपरी इत्यादि होते थे। ये नर्तकियां ज्यादातर उस समय के प्रसिद्ध फिल्मी गाने ही गाती थीं। जैसे- ऊंची- ऊंची दुनिया की दीवारें सैंया तोड़कर...., कभी आर कभी पार लगा तीरे नजर..., मुहब्बत में ऐसे कदम डगमगाए..., जमाना ये समझा कि हम पीके आए... वगैरह।
जैसे ही पेटीमास्टर हारमोनियम पर धुन निकालते थे कि नगाड़े की संगत के साथ नर्तकी घुंघरू खनकाती, नाचते हुए गाना गाती थी। उधर वह तान छेड़ती थी- 'जादूगर सैंया छोड़ मेरी बइयां...' और इधर अधिकांश दर्शकों के मुंह भी खुल जाते थे। नौटंकी के नृत्य में पारंपरिक कला और चुम्बकीय सौंदर्य का ऐसा रसीला मुरब्बा होता था कि सिर्फ आंख और कान से इसका पूरा रस नहीं लिया जा सकता। पूरा रस लेने के लिए मुंह खोलना भी जरुरी था। लेकिन यह तो हुई आम दर्शकों की बात। अगली पंक्ति में कुर्सियों पर शोभायमान खास दर्शकों की प्रतिक्रिया भी खास तरह की होती थी। इलाके के दादा नर्तकी के नृत्यकला की प्रशंसा अपने साढ़े दस इंची रामपुरी चाकू (जो उनका व्यावसायिक औजार था) की धारदार नोक पर एक रुपए का नोट फंसा कर लहराते थे। जिसे देखकर बाई जी नाचना गाना रोककर लहराते बदन और बलखाती कमर से छमछमाती हुई मंच से उतरकर चाकू पर से नोट लेकर वापस तखत पर पहुंच जाती थी। फिर एक जोरदार ठुमका लगाकर झुककर सलाम करती हुई बोलती थी- 'गले में लाल रूमाल बांधे बाबू ने मेरे हुनर से खुश होकर एक रुपया इनाम में दिया है। मैं तहेदिल से उनका शुक्रिया अदा करती हूं।' और फिर से नाच शुरु हो जाता था। अगली बार कोई अपनी दुनाली बंदूक के मुंह पर नोट रखकर लहराता था तो फिर उसका भी शुक्रिया वैसे ही अदा किया जाता था। यह सिलसिला सारी रात चलता रहता था। किसी को पता भी नहीं चलता था कि भोर कब हो गई।
तो बताइए मेहरबान, कद्रदान आपको किसकी लीला ज्यादा पसंद आई? नौटंकी के कलाकारों की या दर्शकों की? मैं बताऊं? तो साहब जहां तक मेरा सवाल है तो मुझे तो दर्शकों का दर्शक बनने में ज्यादा मजा आया था। आज भी इसकी मधुर स्मृति मन को गुदगुदाती है।
पता: डी 38, आकृति गार्डेन्स,
नेहरू नगर, भोपाल 462003
फोन: 0755- 2774675

फूल तुम्हें भेजा है खत में...

- अपर्णा त्रिपाठी 'पलाश'
अब न डाकिया बाबू का इंतजार होता है न ही डाकिये में भगवान नजर आते। आज गुलाब की पंखुडिय़ाँ इन्तजार करती हैं किसी खत का, जिनमें वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये। तब खत हमारी जिन्दगी में बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे प्रेम पत्रों पर।
कितना सुहाना दौर हुआ करता था, जब खत लिखे पढ़े और भेजे जाते थे। हमने पढ़े लिखे और भेजे इसलिए कहा क्योंकि ये तीनों ही कार्य बहुत दुष्कर लेकिन अनन्त सुख देने वाले होते थे।
खत लिखना कोई सामान्य कार्य नहीं होता था, तभी तो कक्षा 6 में ही यह हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम में होता था। मगर आज के इस भागते दौर में तो शायद पत्र की प्रासंगिकता ही खत्म होने को है। मुझे याद है वो समय जब पोस्टकार्ड लिखने से पहले यह अच्छी तरह से सोच लेना पड़ता था कि क्या लिखना है, क्योंकि उसमें लिखने की सीमित जगह होती थी, और एक अन्तर्देशीय के तो बंटवारे होते थे, जिसमें सबके लिखने का स्थान निश्चित किया जाता था। तब शायद पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्द हमारे जिन्दगी में शामिल नहीं हुये थे। तभी तो पूरा परिवार एक ही खत में अपनी- अपनी बातें लिख देता था। आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सनल स्पेस ढूँढते हैं।
पत्र लिखने के हफ्ते दस दिन बाद से शुरु होता था इन्तजार जवाब के आने का। डाकिया बाबू को घर की गली मेंं आते देखते ही भगवान से मनाना शुरु कर देते कि वह मेरे घर जल्दी से आ जाये। दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था। और दूर से डाकिये को आते देख उतावले होकर पूछते- चाचा हमार कोई चिट्ठी है का? फिर जैसे ही चिट्ठी मिलती एक प्यारे से झगड़े का दौर शुरु होता कि कौन पहले पढ़ेगा? कभी- कभी तो भाई- बहन के बीच झगड़ा इतना बढ़ जाता कि खत फटने तक की नौबत आ जाती। तब अम्मा आकर सुलह कराती। अब तो वो सारे झगड़े डाइनासोर की तरह विलुप्त होते जा रहे हैं।
...और प्रेम खतों का तो कहना ही क्या उनके लिये तो डाकिये प्रिय सहेली या भरोसेमंद दोस्त ही होते थे। कितने जतन से चिट्ठियां पहुँचाई जाती थी, मगर उससे ज्यादा मेहनत उसको पढऩे के लिये करनी पड़ती थी। कभी छत का एकान्त कोना ढूँढना पड़ता था तो कभी दिन में ही चादर ओढ़ कर सोने का बहाना करना पड़ता था। कभी खत पढ़ते- पढ़ते गाल लाल हो जाते थे तो कभी गालों पर आँसू ढलक आते थे। और अगर कभी गलती से भाई या बहन की नजर उस खत पर पढ़ जाये तो माँ को ना बताने के लिये उनकी हर फरमाइश भी पूरी करनी पड़ती थी।
खत पढ़ते ही चिन्ता शुरु हो जाती कि अब इसे छुपाया कहाँ जाय ? कभी तकिये के नीचे, कभी उसके गिलाफ के अंदर, कभी किताब के पन्नों के बीच में तो कभी किसी तस्वीर के फ्रेम के बीच। इतने जतन से छुपाने के बाद भी हमेशा एक डर बना रहता कि कहीं किसी के हाथ ना लग जाय, वरना तो शामत आई समझो।
अब आज के दौर में जब हम ईमेल का प्रयोग करते हैं, हमें कोई इन्तजार भले ही ना करना पड़ता हो, लेकिन वो खत वाली आत्मीयता महसूस नहीं हो पाती। अब न डाकिया बाबू का इंतजार होता है न ही डाकिये में भगवान नजर आते। आज गुलाब की पंखुडिय़ाँ इन्तजार करती हैं किसी खत का, जिनमें वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये।
तब खत हमारी जिन्दगी में बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे प्रेम पत्रों पर। चाहे फूल तुम्हें भेजा है खत में... हो या ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर... हो, चाहे चिट्ठी आई है आई है... हो या फिर मैंने खत महबूब के नाम लिखा.... हो। आज ईमेल हमारी जिन्दगी का हिस्सा जरूर बन गये हैं मगर हमारी यादों की किताब में उनका एक भी अध्याय नहीं, तभी तो आज तक एक भी गीत इन ईमेल्स के हिस्से नहीं आया।
आज भी मेरे पास कुछ खत हैं जिन्हें मंैने बहुत सहेज कर रखा है, मंै ही क्यों आप के पास भी कुछ खत जरूर होंगे (सही कहा ना मैंने) और उन खतों को पढऩे से मन कभी नहीं भरता जब भी हम अपनी पुरानी चीजों को उलटते हैं, खत हाथ में आने पर बिना पढ़े नहीं रहा जाता।
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मेरे बारे में ...
मैं अपर्णा त्रिपाठी, मोती लाल नेहरू, नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ टेकनालॉजी से कम्प्यूटर साइंस में शोध कर कर रही हूँ। इससे पहले मैं कानपुर के एक इंजीनियरिंग कालेज में असिसटेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थी। हिन्दी साहित्य पढऩा और लिखना मेरा शौक है। कुछ समय से मैं ब्लाग लिख रही हूँ। सदा आप सभी की शुभकामनाओं एवं मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी.....!
पता: 101 एल.आई.जी., बर्रा -2 कानपुर -208027, मो. 09415736072
Email- aprnatripathi@gmail.com web- aprnatripathi.blogspot.com

दो लघुकथाएं

1. सच झूठ
सुरेन्द्र सर्वेक्षण में लगी अपनी ड्यूटी करता हुआ, एक घर से दूसरे घर जा रहा था।
एक घर में उसे दो सदस्य मिले, बाप- बेटा।
उसने एक फार्म निकाला और अपने ढंग से भरने लगा। घर के मुखिया का नाम, पता, काम लिखने के बाद, पूछना शुरू किया-
'आटा कितना लग जाता होगा?'
'जितना मर्जी लिख लो जनाब ! '
'फिर भी, बीस- पच्चीस किलो तो लग ही जाता होगा?'
'हां जी।'
'दालें कितनी खा लेते हो? '
'आप समझदार हो, लिख लो खुद ही।'
'पांच- छह किलो तो खा लेते होंगे? '
'क्यों नहीं, क्यूं नहीं।'
'घी? '
'खाते हैं जी।'
'वह तो परमात्मा की कृपा से खाते ही होंगे। कितना शुद्ध और दूसरा कितना? '
'देसी घी? वह तो आपने याद दिला दिया। दिल तो बहुत करता है।' उसके चेहरे पर जरा- सी उदासी आ गई।
'मीट- अण्डों का सेवन?'
'परमात्मा का नाम लेते हैं जी, पर जी में बहुत आता है।' कहते हुए उसने एक गहरी सांस ली।
इसी तरह दो सौ साठ प्रश्नों वाला फार्म, सुरेन्द्र ने एक- एक करके भरा। पूरी बात हो जाने पर, सुरेन्द्र ने फार्म से अंदाजा लगाया और पूछा, 'बाकी तो सब ठीक है, पर जो आपने बताया है, उससे अनुमान होता है कि आप कुछ ज्यादा नहीं बता पाए।'
इस बार बेटे ने जवाब दिया, 'दरअसल सही बात बताएं, हम घर में रोटी बनाते ही नहीं। हम बाप- बेटे दो आदमी यहां रहते हैं। बाकी तो गांव में हैं। हमने एक होटल वाले से बात तय कर रखी है। दाल- रोटी सुबह, यूं ही शाम को।'
सुरेन्द्र दोनों की तरफ टिकटिकी बांधे देखता रहा घंटा पौन लगाया फार्म भरने में और निकला..
'भई! ये क्या किया आपने?'
'किया क्या बेटा ! पहले तो मुझे लगा कि मैं यह क्या बता रहा हूं। फिर ज्यों- ज्यों तू पूछता रहा, मेरा मन किया कि तुझसे बातें जरूर करूं।'
'पर आपने झूठ क्यों बो?'
'झूठ कहां बोला बेटा। यह तो सब सच है। झूठ तो बेटा यह है जो हम अब गुजर कर रहे हैं।'
2.हद
एक अदालत में मुकदमा पेश हुआ।
'साहब, यह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है।'
तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है ? मजिस्ट्रेट ने पूछा।
मुझे क्या कहना है, सरकार! मैं खेतों में पानी लगाकर बैठा था। हीर के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनता चला आया। मुझे तो कोई हद नजर नहीं आई।

लहसुन हजारों साल से आजमाए नुस्खे पर विज्ञान ने भी लगाई मुहर

रक्तचाप को नियंत्रण में रखेगा
लहसुन से होने वाले लाभ और इसके चिकित्सीय गुण सदियों पुराने हैं। शोध और अध्ययन बताते हैं कि आज से 5000 वर्ष पहले भी भारत में लहसुन का इस्तेमाल उपचार के लिए किया जाता था। आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों के एक दल ने तो परंपरागत भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की इस मान्यता की पुष्टि भी कर दी है कि उच्च रक्तचाप पर काबू पाने में लहसुन का इस्तेमाल कारगर हो सकता है। एडिलेड विश्वविद्यालय के डा. कैरेन रीड की टीम ने तीन महीने तक उच्च रक्तचाप से पीडि़त 50 मरीजों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला है। डा. रीड ने कहा कि लहसुन का सत्व उच्च रक्तचाप पर काबू पाने वाली दवाइयों के साथ लेने पर अधिक असर दिखाता है। लहसुन का इस्तेमाल उच्च रक्तचाप के रोगी के लिए एकमात्र दवा के तौर पर नहीं किया जा सकता है लेकिन अगर दवाओं के साथ इसे लिया जाए तो बेहद शानदार नतीजे देखने को मिलेंगे।
हालांकि उच्च रक्तचाप रोकने में लहसुन के उपयोगी होने के बारे में आयुर्वेद हजारों साल से कहता आ रहा है। लेकिन डा. रीड का दावा है कि उन्होंने पुराने लहसुन के सत्व को रक्तचाप नियंत्रित करने में कारगर पाया है और यही उनके अध्ययन को अनूठा बनाता है। डा. रीड के अनुसार लहसुन को कच्चा- ताजा अथवा पाउडर के रूप में इस्तेमाल करने पर उसका असर एक जैसा नहीं होता है। अगर आप खाना बनाते समय ताजे लहसुन का इस्तेमाल करते हैं तो उसमें रक्तचाप नियंत्रित करने वाले अवयव नष्ट हो जाते हैं। जबकि पुराने लहसुन का सत्व यह काम बखूबी करता है।
कोलेस्ट्रॉल पर भी काबू
नीदरलैंड्स में भी हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार लहसुन की दो कलियों के नियमित सेवन से शरीर में कोलेस्ट्रॉल के बढ़े हुए स्तर को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ जाने पर हृदय संबंधी रोगों के होने का खतरा बढ़ जाता है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि बारिश के दिनों और जाड़े के मौसम में लहसुन का नियमित सेवन करने पर सर्दी- जुकाम से भी राहत मिलती है।
...और जोड़ों का दर्द
भोजन में लहसुन, प्याज और हरे प्याज के पर्याप्त सेवन से गठिया का खतरा भी कम हो सकता है। लंदन के किंग्स कॉलेज और युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया के अनुसंधानकर्ताओं ने खुराक और जोड़ों के दर्दनाक रोग के बीच सम्बंधों का पता लगाया है। अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि लहसुन परिवार की सब्जियों का अधिक सेवन करने वाली महिलाओं में कमर में ऑस्टियोआर्थराइटिस की आशंका कम होती है। ऑस्टियोआर्थराइटिस वयस्कों में गठिया का बेहद आम रूप है। ब्रिटेन में इस बीमारी से लगभग 80 लाख लोग पीडि़त हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में इस बीमारी की ज्यादा आशंका होती है।
यह बीमारी मध्यम आयु वर्ग और बुजुर्गो में कूल्हे, घुटने और रीढ़ को प्रभावित कर दर्द और अपंगता पैदा करती है। मौजूदा समय में दर्द निवारक और जोड़ों की शल्य चिकित्सा के अलावा इस बीमारी का और कोई प्रभावी इलाज नहीं है। शरीर के वजन और ऑस्टियोआर्थराइटिस के बीच सम्बंध जगजाहिर है, लेकिन यह पहला अध्ययन है जो यह बताता है कि खुराक से ऑस्टियोआर्थराइटिस का विकास और रोकथाम कितना और किस तरह प्रभावित हो सकता है।

चाय क्या कहते हैं वैज्ञानिक?

- डा. विजय कुमार उपाध्याय

चाय में उपस्थित थियोफायलीन नामक पदार्थ हमारे फेफड़ों में हवा के आवागमन के रास्ते को चौड़ा कर देता है जिसके फलस्वरूप हम अधिक आराम से सांस ले सकते हैं। इससे दमा तथा सांस सम्बंधी समस्याओं से ग्रस्त लोगों को काफी लाभ होता है तथा वे राहत महसूस करते हैं।
चाय आज संसार में सबसे सस्ता तथा सर्वाधिक लोकप्रिय पेय पदार्थ है। इसके सेवन से एक प्रकार की तात्कालिक ताजगी प्राप्त होती है। वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि चाय न सिर्फ ताजगी प्रदान करती है, अपितु यह कई प्रकार के रोगों को भी हमसे दूर रखती है। चाय में कई प्रकार के यौगिक पाए जाते हैं, जिनमें प्रमुख हैं विभिन्न प्रकार के फ्लेवनॉयड। फ्लेवनॉयड में शक्तिशाली ऑक्सीकरण- रोधी गुण पाए जाते हैं। फ्लेवनॉयड का ही एक उपवर्ग है कैटेचिन जो चाय को स्वाद एवं सुगंध तो प्रदान करता ही है, साथ ही हमारे शरीर को कई प्रकार के स्वास्थ्य संबंधी लाभ भी पहुंचाता है। यूएसए के बोस्टन में स्थित टफ्ट्सन विश्वविद्यालय के कुछ शोधकर्ताओं ने विभिन्न प्रकार की चाय की ऑक्सीकरणरोधी क्षमता की तुलना 22 प्रकार की अन्य वनस्पतियों से की। इन शोधों से पता चला है कि चाय की ऑक्सीकरण- रोधी क्षमता अच्छे फलों और सब्जियों से भी अधिक है। विशेषकर हरी चाय (कहवा) तथा काली चाय में यह गुण सबसे अधिक पाया जाता है।
ऑक्सीकरण- रोधी उस प्रकार के पदार्थ हैं जो हमारे शरीर में पहुंचकर कोलेस्ट्राल के ऑक्सीकरण को रोकने का काम करते हैं। यदि कोलेस्ट्राल के ऑक्सीकरण को न रोका जाए तो ये ऑक्सीकृत होकर हमारी धमनियों की दीवार से चिपक जाते हैं। इसकी वजह से हृदय रोग का खतरा पैदा हो जाता है। इसी कारण जो लोग अधिक चाय पीते हैं उन्हें दिल का दौरा पडऩे का खतरा बहुत कम रहता है। हाल में किए गए वैज्ञानिक शोधों से पता चला है कि जो लोग प्रतिदिन पांच कप या उससे अधिक चाय पीते हैं, उन्हें दिल का दौरा पडऩे का खतरा 79 प्रतिशत घट जाता है।
चाय में पाया जाने वाला ईजीसीजी (एपि गैलो कैटेचिन गैलेट) नामक रसायन कैंसर के विरुद्ध काफी अधिक सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम पाया गया है। चाय में उपस्थित थियोफायलीन नामक पदार्थ हमारे फेफड़ों में हवा के आवागमन के रास्ते को चौड़ा कर देता है जिसके फलस्वरूप हम अधिक आराम से सांस ले सकते हैं। इससे दमा तथा सांस सम्बंधी समस्याओं से ग्रस्त लोगों को काफी लाभ होता है तथा वे राहत महसूस करते हैं। चाय में मौजूद फ्लोराइड दातों के क्षय को रोकने में सक्षम है। वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि एक कप काली या हरी चाय में लगभग 35 से 45 मिलीग्राम कैफीन मौजूद रहता है। इसके कारण अधिक संवेदनशील लोगों में माइग्रेन की समस्या पैदा हो सकती है। चाय में मौजूद टैनिन नामक पदार्थ हमारी पाचन प्रणाली को प्रभावित करता है जिससे खाद्य पदार्थों में मौजूद लौह को अवशोषित करने की क्षमता घट जाती है। अत: बहुत अधिक चाय पीने से एनीमिया की समस्या पैदा हो सकती है। चाय में मौजूद टैनिन दातों के एनेमल पर भी बुरा प्रभाव डालता है जिससे दातों पर धब्बे पैदा हाते हैं। अधिक चाय के सेवन से पेशाब अधिक हो सकती है जिसके कारण शरीर का जल एवं पोटेशियम जैसे रासायनिक पदार्थों का संतुलन गड़बड़ा सकता है।
कुछ समय पूर्व प्रयोगशाला में विभिन्न जन्तुओं पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि चाय में मौजूद कैटेचिन नामक पदार्थ कैंसर के विकास को रोकने में सक्षम है। यह ट्यूमर कोशिकाओं के विकास को रोकने में काफी प्रभावशाली साबित हुआ है। परन्तु अभी यह स्पष्ट नहीं है कि ये पदार्थ मानव शरीर पर कितने प्रभावी हैं। कुछ क्षेत्रों में मानव समुदायों पर किए गए अध्ययनों से पता चला है कि अधिक मात्रा में चाय पीने वाले लोगों में स्तन कैंसर, त्वचा कैंसर, पेट का कैंसर, गुदा कैंसर तथा अन्य प्रकार के कैंसर से ग्रस्त होने की संभावना बहुत कम रहती है।
यूएसए के कुछ शोधकत्र्ताओं ने ऐरीजोना क्षेत्र में धूम्रपान करने वाले लोगों को प्रतिदिन चार कप कैफीन- मुक्त हरी चाय पीने को दी। यह प्रयोग लगातार चार महीने तक चलाया गया। प्रयोग के अन्त में पाया गया कि प्रयोग में शामिल धूम्रपानियों के डीएनए की क्षति (जिसके कारण कैंसर हो सकता है) 30 प्रतिशत घट गई। इस प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया कि धूम्रपान करने वाले लोग यदि नियमित रूप से हरी चाय का सेवन करें तो वे कैंसर के खतरे से बच सकते हैं।
हाल ही में जर्नल ऑफ एन्वायरमेंटल पैथालॉजी, टॉक्सिकोलॉजी एण्ड ओन्कोलॉजी में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ है जिसमें बताया गया है कि नियमित रूप से काली चाय का सेवन करने वालों को मुह का कैंसर होने की संभावना बहुत कम रहती है। इसी प्रकार अमेरिकन जर्नल ऑफ कार्डियोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि नियमित रूप से काली चाय पीने वालों को हृदय रोग होने की संभावना बहुत कम रहती है।
तमिलनाडु के बन्नारी आमान इंस्टिट््यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में कार्यरत डा.जी.एस. मुरुगेसन ने अपने शोधों से पता लगाया है कि काली चाय में किण्वन के दौरान उत्पन्न पदार्थ भूमिगत जल में मौजूद आर्सेनिक को हटाने की क्षमता रखता है। आर्सेनिक एक विषैला पदार्थ है जो कोलकाता तथा आसपास के भूमिगत जल में काफी मात्रा में उपस्थित है। आर्सेनिक युक्त इस जल को पीने से लोगों में अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा हो रही हैं। काली चाय की मदद से इस जल को आर्सेनिक के प्रदूषण से मुक्त किया जा
सकता है। (स्रोत फीचर्स)

पिकासो के रोचक संस्मरण

ऑटोग्राफ
एक दिन पिकासो दक्षिणी फ्रांस में समुद्र तट पर अपने एक मित्र के साथ सुस्ता रहे थे। एक छोटा लड़का उनके पास एक कागज लेकर आया। पिकासो समझ गए कि लड़के के माता- पिता किसी बहाने उनका ऑटोग्राफ हासिल करना चाहते थे।
पिकासो ने लड़के का निवेदन नहीं ठुकराया, लेकिन उन्होंने कागज लेकर फाड़ दिया और लड़के की पीठ पर एक आकृति बनाकर अपने हस्ताक्षर कर दिए।
'मुझे लगता है'- पिकासो ने अपने मित्र से कहा- 'अब वे उसे कभी नहीं नहलायेंगे।' ((www.hindizen.com से )

चेजर ने बनाया 1200 शब्द सीखने का रेकॉर्ड

जानवर कितना सीख सकते हैं? खासतौर से भाषा जैसी चीज को सीखने में वे कहां तक जा सकते हैं? इस मामले में बॉर्डर कोली नस्ल के एक कुत्ते चेजर ने 1200 शब्द सीखकर एक रेकॉर्ड बनाया है।
चेजर न सिर्फ शब्द सुनकर उससे सम्बंधित वस्तु को पहचान सकता है बल्कि वह उन चीजों को उनके आकार व काम के मुताबिक वर्गीकृत भी कर सकता है। शोधकर्ता मानते हैं कि इन्सान का बच्चा यह सब तीन वर्ष की उम्र में सीखता है।
चेजर के साथ यह प्रयोग स्पार्टनबर्ग के वोफोर्ड कॉलेज के मनोविज्ञानी एलिस्टन रीड और जॉन पाइली ने किया है। चेजर को प्रशिक्षित करने का तरीका यह था कि उसे एक- एक चीज से परिचित कराया जाता था और उसका नाम बताया जाता था। इसके बाद उससे कहा जाता था कि दूसरे कमरे में रखी कई सारी चीजों में से वह वस्तु उठाकर लाए। जब वह सही वस्तु ले आता था तो फिर से उसका नाम दोहराकर पुष्टि की जाती थी।
चेजर की परीक्षा भी ली जाती थी। जैसे एक कमरे में 20 खिलौने रखकर चेजर से कहा जाता था कि वह नाम सुनकर उनमें से सही खिलौना उठाकर लाए। चेजर ने 3 साल की अवधि में ऐसी 838 परीक्षाएं दीं और उसे 20 में 18 से कम अंक कभी नहीं मिले।
चेजर से वस्तुओं के नामों के आधार पर वर्गीकरण भी करवाया गया। इसके लिए उसे यह सिखाया गया था कि किसी एक समूह की वस्तुओं को वह अपने पंजे से छुएगा तो किसी अन्य समूह की वस्तुओं को अपनी नाक से छूकर बताएगा। इसमें भी वह काफी सफल रहा।
और तो और चेजर को एक ढेर में ऐसी वस्तुएं दिखाई गईं, जिनमें से एक के अलावा शेष सभी के नाम वह जानता था। अब उससे एक अपरिचित नाम वाली वस्तु को उठाने को कहा गया। चेजर ने बगैर चूके वह नई वाली वस्तु उठाई। यानी वह यह तर्क लगा सकता है कि यदि नाम नया है तो वस्तु वही होगी जिसका नाम वह नहीं जानता।
इससे पहले भी जानवरों को सिखाने के कई प्रयोग हो चुके हैं। जैसे एक प्रयोग में एक कुत्ते रिको ने 200 शब्द सीखे थे। इसी प्रकार से एलेक्स नाम के तोते ने 100 शब्द भी सीखे थे और वह उनके वाक्य भी बना लेता था। चेजर ने इस मामले में उन दोनों को पीछे छोड़ दिया है। मगर एलेक्स न सिर्फ शब्द पहचानता था, वह उन्हें बोल भी सकता था। चेजर इस मामले में एकदम फिसड्डी है।

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हर विधा का संतुलित रूप
कुछ समय से हिन्दी पत्रिका उदंती को ऑनलाइन पढ़ता आ रहा हूं। इसमें प्रकाशित उत्कृष्ट आलेख, कहानी, कविता, लघुकथा आदि को पढ़ा और पाया कि यह पत्रिका हर विधा को संतुलित रूप में सामने रखने वाली कुछेक पत्रिकाओं में से एक है। पढऩे के साथ- साथ मन में कहीं अपनी रचना भी इसमें प्रकाशित होते देखने की इच्छा बलवती हुई। चूंकि मैं भारत से बाहर यहां यू.के. में अनुसन्धानरत हूं तो क्या डाक के बजाए ई-मेल द्वारा रचनाएं भेजने का प्रावधान है? यदि उनमें से कोई रचना आपको पत्रिका के स्तर के अनुरूप लगे तो स्थान देने की कृपा करें।
- दीपक चौरसिया 'मशाल', उत्तरी आयरलैंड (यू.के.)
mashal.com@gmail.com
नहीं, ये तुम्हारा काम है
पिकासो के संस्मरण पढ़ कर यह कहना पड़ता है कि कितने जिंदादिल लोग थे जो विषम परिस्थियों में भी अपना सेंस आफ ह्यूमर नहीं खोते थे।
उदंती में सभी कुछ तो समेट लिया है आपने.. एक संपूर्ण अंक निकालने के लिए बधाई।
- cmpershad
cmpershad@gmail.com
जिजीविषा तिरती नजर आती है
उदंती का जवनरी अंक मुझे दो दिन पहले ही प्राप्त हुआ है। यह अंक बेहद आकर्षक संग्रहनीय एवं सार्थक है। उदंती में एक जिजीविषा तिरती नजर आती है। इसमें सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह है। उदंती के भविष्य के प्रति मंै आशावान हूं। पत्रिका सम्पादकीय गरिमा के अनुरूप है।
-राम किशन भंवर
R.K.Singh, ram_kishans@rediffmail.com
Mobile:9450003746

अनुभवों का शंखनाद
नए अंक की सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं पर इन पंक्तियों में जो बात है वो अभिभूत करती है ...
एक नया साल
नई उम्मीदों के संग
लिपटा है तेरी टहनियों से
नए सपनों की सरसराहट है पत्तों में
तुम्हारे जड़ों की मजबूती
सपनों का हौसला ... रश्मि प्रभा जी की इस रचना प्रस्तुति के लिये आपका आभार।
- sadalikhna.blogpost.com
नए जमाने की बात
पहली दोनों कविता बहुत सुन्दर है... और फिर हाइकु की लड़ी भी अनुपम है...
रश्मिदी की कविता अनुभवों का शंखनाद मुझे बहुत अच्छी लगी... परंपरा के साथ नए जमाने की बात करती हुई...
- Indranil Bhattacharjee
सजीव चित्रण
नए वर्ष पर रश्मि प्रभा, आशा भाटी और भावना कुँअर की रचनाएं बहुत प्रभावशाली हैं। तीनों कविताओं में सजीव चित्रण किया गया है.
- सहज साहित्य, rdkamboj@gmail.com
ईमानदार कौन
वो सुबह कभी तो आएगी... इस मुद्दे को उठाकर आपने बहुत अच्छा किया। पर क्या जनता ये तय कर पाएगी की ईमानदार कौन है? अक्सर ऐसा भी होता है कि गुरबत को खरीदने के लिए अमीरी तत्पर रहती है। हां जनता ईमानदार और निष्ठावान हो तो बात बन सकती है। अशोक भाटिया जी की लघुकथाओं में लघुत्तम तत्व के साथ और भी बारीकियां शामिल हैं जो काहानी को लघुकथा बनाने में सफल होती हैं।
- देवी नागरानी, न्यूजर्सी, यूके