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Jan 30, 2009

उदंती.com, जनवरी 2009

उदंती.com, वर्ष 1, अंक 6, जनवरी 2009

वास्तविक महान व्यक्ति तीन बातों द्वारा जाना जाता है- योजना में उदारता, उसे पूरी करने में मनुष्यता और सफलता में संयम। - बिस्मार्क



अनकही: जनता की आशाओं का कमल फिर खिला
यात्रा कथा/वादियां :ऊष्मा से भर देने वाला सतपुड़ा - गोविंद मिश्र
राजनीति/छत्तीसगढ़: विकास की धमक और चावल की महक - परितोष चक्रवर्ती
बातचीत/ महेश भट्ट : पैसा कमाना फिल्म की बुनियादी शर्त है - मधु अरोड़ा
गजले : नया साल हमसे दगा न करे - देवमणि पांडेय
कल/चित्रकार : रंग मुझे अपनी ओर बुलाते हैं : सुनीता वर्मा - उदंती फीचर्स
पर्यावरण/ग्लोबल वार्मिंग : संकट के भूरे बादल - प्रो. राधाकांत चतुर्वेदी
यादें/पुण्य तिथि : जब गुलाब के फूल देख कर कमलेश्वर गदगद हुए - महावीर अग्रवाल
लघुकथाएं 1. थप्पड़ 2. सार्थक चर्चा - आलोक सातपुते
नोबेल पुरस्कार/साहित्य : भारतीय संस्कृति के उपासक क्लेजिओ - पी. एस. राठौर
अंतरिक्ष/बढ़ते कदम : आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं - प्रवीण कुमार
क्या खूब कही : एक फोन से पूरी ..., बूढ़े बिल्ले ने पहने...
अभियान/मुझे भी आता है गुस्सा :  इन्हें क्यों नहीं आती शर्म ? -वी. एन. किशोर
इस अंक के रचनाकार
आपके पत्र/मेल बॉक्स
रंग बिरंगी दुनिया- 1 सोलर कार में.. 2.अनोखा क्लब 3.खोई अंगूठी का मिलना

Jan 20, 2009

जनता की आशाओं का कमल फिर खिला


जनता की आशाओं का कमल फिर खिला
-डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले माह सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ की जनता ने डॉ. रमन सिंह को पुन: सत्ता सौंपकर यह जता दिया है कि जो सरकार काम करेगी वही राज भी करेगी। दरअसल छत्तीसगढ़ में कमल के पुन: खिलने का पूरा श्रेय अकेले डॉ. रमन सिंह ले जाते हैं कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह जीत उनकी सरल, सौम्य और स्वच्छ छवि का नतीजा है। पिछले सालों में उन्होंने अपनी साफ सुथरी छवि की बदौलत भाजपा की स्थिति को मजबूत तो किया ही है साथ ही उनके प्रति जनता का विश्वास भी बढ़ा है।

इन सबके बावजूद जब लोकप्रिय नेता सत्तासीन होता है तो जनता की आकांक्षाओं के बादल बहुत घने छाते हैं, ऐसे में सरकार का भी यह दायित्व बनता है कि वह जनता की उन आकांक्षाओं को समझे और उन्हें पूरा करने की दिशा में उचित कदम उठाए, तभी उनका पुन: सत्ता में वापस आना सार्थक होगा और तब कहीं जाकर वे आगामी पारी में बिना किसी झिझक के वापस आने की दावेदारी प्रस्तुत कर सकेंगे। इसलिए अनिवार्य हो जाता है कि नेता अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति से इन आकांक्षाओं के बादलों से लोक कल्याण के कार्यों की वर्षा करें।

आम जनता की प्राथमिक जरुरतों के बारे में यदि बात करें तो कुछ बुनियादी बातों की ओर सर्वप्रथम ध्यान दिया जाना चाहिए जैसे बिजली, पानी, सडक़, स्वास्थ्य सुविधाएं, रोजगार के साधन और प्राथमिक शिक्षा। इस संदर्भ में मुख्यमंत्री ने शपथ लेने के बाद अपने पहले संबोधन में कहा भी है कि राज्य में गांव के अंतिम कोने तक बिजली जाएगी। तो इस संदर्भ में हमारा निवेदन है कि बिजली अंतिम कोने तक जाए यह तो बड़ी खुशी की बात है, पर वह बिजली जले भी इसका भी ध्यान रखा जाना बेहद जरुरी है।

पिछले दशक की ओर नजर डालें तो यह छत्तीसगढ़ का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि प्राकृतिक और खनिज सम्पदा के मामले में सम्पन्न होते हुए भी छत्तीसगढ़ बनने के बाद और उससे पहले भी इस प्रदेश की उपेक्षा ही हुई है। जब हम मध्यप्रदेश में समाहित थे तो हम पर पिछड़ेपन का ठप्पा ही लगा रहा। स्वतंत्र राज्य बनने के बाद भी इसकी खुशहाली की दिशा में बहुत अधिक प्रयास किया गया हो ऐसा भी नहीं है। ऐसी स्थिति में रमन सरकार को अब कुछ मूल मुद्दों पर काम करने हेतु सख्ती बरतनी होगी।

यह तो हम सभी जानते हैं कि किसी भी प्रदेश की सम्पन्नता का पैमाना वहां की शिक्षा का प्रतिशत होता है और वह भी प्राथमिक शिक्षा का अत: प्राथमिक शिक्षा को जब तक प्राथमिकता की श्रेणी में नहीं लाया जाएगा प्रदेश के विकास की बात करना बेमानी ही होगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात है छत्तीसगढ़ जो कभी 'धान का कटोरा' कहलाता था के किसानों की अड़चनों को जमीनी स्तर पर समझना, उनकी समस्याओं के निराकरण के बगैर हम छत्तीसगढ़ की उन्नति की बात कर ही नहीं सकते, यह खुशी की बात है कि मुख्यमंत्री ने जीत के तुरंत बाद किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिए जाने की घोषणा करके उनकी महत्ता को स्वीकार किया है। तीसरी महत्वपूर्ण बात जो सीधे राज्य के विकास से जुड़ी है वह है इस धरती की भरपूर प्राकृतिक व खनिज सम्पदा को क्षेत्र के विकास से जोडऩा तथा नए उद्योग धंधों से रोजगार के अवसर पैदा करके जनता की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के साथ क्षेत्रीय धन-धान्य और कला संस्कृति से भरपूर इस धरती की प्राकृतिक सुषमा को बचाकर रखना और उसे संरक्षित संवर्धित करने की दिशा में जरुरी कदम उठाना। जिस प्रदेश में चित्रकुट जैसा जलप्रपात हो जहां सिरपुर जैसी प्राचीन संस्कृति को रेखांकित करने वाली, विश्व विरासत की श्रेणी में रखे जाने लायक पुरातत्वीय धरोहर हो ऐसी खूबसूरत धरती को यदि पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जाएगा तो प्रदेश में बाहरी पर्यटकों के आवागमन से छत्तीसगढ़ की धरती के स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत तो होगी ही बेरोजगारी की समस्या से भी मुक्ति मिलेगी और विश्व के नक्शे पर पर्यटन की दृष्टि से यह अग्रणी प्रदेश भी बनेगा।

रमन सिंह के सामने एक चुनौती नक्सलवाद की समस्या से नक्सल प्रभावित जनता को राहत दिलाना भी है। क्योंकि चुनाव नतीजों से भी यह साफ है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्र की जनता ने उनपर सबसे ज्यादा विश्वास व्यक्त किया है अत: उनके जीवन में शांति लाना उनका प्राथमिक कत्र्तव्य होना चाहिए।
जनता ने रमन सिंह पर विश्वास जताकर कमल को फिर से खिलने का जो मौका दिया है उस विश्वास को कायम रखते हुए वे अपनी दूसरी पारी को बखूबी निभाएंगे, हमारी यही सुभेच्छा है।

पाठकों को नव- वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

विकास की धमक और चावल की महक

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के परिणाम जनता के सोच के अनुरूप ही रहा। मतदाताओं ने अपने मन की टोह लेने की अनुमति किसी को नहीं दी।
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चुनाव घोषणा के पहले से ही कांग्रेस ने यदि तीन रुपए किलो चाव की योजना को चुनावी स्टंट कहना प्रारंभ कर दिया था तो भाजपा के लिए यह निश्चित रूप से चुनावी मुद्दा रहा।


-परितोष चक्रवर्ती
छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे देश में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के विषय में यह बात फै चुकी है कि वे सहज, सर एवं बेदाग हैं। उनके पिछेल पांच वर्ष के कार्यकाल में उनके सहयोगी मंत्रियों के नाम पर कुछ आरोप-प्रत्यारोप गे जरुर लकिन मतदाताओं ने इस पर नोटिस नहीं मिला । खतरा यह है कि इस बार के मंत्रिमंडल में शामिल सहयोगी यदि यह मानकर चले कि जिस तरह चुनाव के समय जनता ने अन्य मंत्रियों पर लगे आरोपों का नोटिस नहीं मिला था, इस बार भी नहीं लेगें। तो ऐसे मुगाते वे न ही पालें तो अच्छा।



मुख्यमंत्री ने चुनाव के नतीजे आते ही अपने वक्तव्य में एक महत्वपूर्ण बात कही है- 'कोटवार से लेकर मुख्यमंत्री तक जवाबदेही तय की जाएगी।' संभवत: डॉ. रमन सिंह को इस वक्तव्य की पृष्ठभूमि में उपस्थित चुनौतियों का आभास अवश्य होगा। यदि इसके अनुपान में कड़ाई बरती जावेगी तो जो मंजर सामने आने लगेंगे उनका समायोजन बेहद कठिन कार्य होगा। पिछले मंत्रिमंडल में जब उन्होंने पहली बार फेरबद किया था तब की परिस्थितियों को वे भूले नहीं होंगे। ग्राम सुराज अभियान के समय जितने आवेदन पत्र इकट्ठे होते थे उन सभी पर नौकरशाहों द्वारा कार्यवाही नहीं होती थी इसकी जानकारी मिने के बाद दूसरे दौर में उन्होंने विकास यात्रा की योजना बनाकर, अधिकारियों को एक तरह से बाध्य किया जाना ने भी उनके अनुभवों को और पुख्ता किया। लेकिन विरासत में इस नई सरकार में भी उन्हें वे ही अधिकारी मिले हैं और उन्हीं कंधें पर जवाबदेही को टिकाना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा।
सारे कयासों को एक तरफ रखकर छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के परिणाम जनता की सोच के अनुरूप ही रहा। छत्तीसगढ़ में मीडिया एवं छत्तीसगढ़ के चुनाव समीक्षकों के लिए इस बार के चुनाव परिणामों को लेकर एक धुंधलका सा भी बना हुआ था। लेकिन प्रदेश के मतदाताओं ने अपेक्षित एवं परिपक्व व्यवहार किया। चुनाव से पहले मतदाताओं ने अपने मन की टोह लेने की अनुमति किसी को नहीं दी। किंतु पहले चरण के मतदान के बाद अचानक कांग्रेसी खेमे के उत्साह में बहुत वृद्धि हो गई। छत्तीसगढ़ में ही नहीं मध्यप्रदेश और दिल्ली तक के कांग्रेस हितैषी चेहरों पर एक सुकून तैरने गा था। कुछ ऐसे समीक्षक भी थे जो पहले चरण के मतदान के पहले तक भाजपा के जीतने की भविष्यवाणी कर रहे थे बाद में उन्होंने भी अपने को सिकोड़ लिया . अंतिम चरण के मतदान के संपन्न होने के बाद के अट्ठारह दिन दोनों तरफ के राजनीतिज्ञों के रात-दिन काफी तनाव में गुजरे। अंतत: जो परिणाम आए उसे देखते हुए साफ तौर पर कहा जा सकता है कि एकीकृत मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ के मतदाता अब पूर्णत: जागृत मतदाता की श्रेणी में आकर अपने स्वयं के मुद्दे तय करने की स्थिति में आ गए हैं।
चुनाव घोषणा के पहले अलग से ही कांग्रेस ने यदि तीन रुपए किलो चावल की योजना को चुनावी स्टंट कहना प्रारंभ कर दिया था तो भाजपा के लिए यह निश्चित रूप से चुनावी मुद्दा रहा। कांग्रेस की यह आलोचना गांव के लोगों तक को सुनाई दी और उन्हें ऐसा गा जैसे सस्ते में गरीबों को चाव मिना कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। कुछ लोग उल्टे गांव वालों के परिश्रम पर सवाल उठाने लगे कि इस सस्ते चावल के चलते मजदूर काम करने शहर नहीं आ रहे हैं। इस बात ने भी ग्रामीणों को तकलीफ पहुंचाई। भाजपा ने भी इसे एक हर के रूप में स्वीकार कर लिया, यहां तक कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को चाउंर वो बबा का संबोधन चाहे किसी ने दिया या न दिया हो लेकिन भाजपा ने इसे बहुत सहजता से चुनाव प्रचार में उपयोग किया। उधर कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को हथियार की तरह उपयोग के लिए कमर कस ली थी। लेकिन भ्रष्टाचार को प्रमाणित करने के लिए जो धार चाहिए थी उनके हथियारों में नदारत रही। मतदाताओं को संभवत: पूर्व मुख्यमंत्री जोगी के द्वारा भ्रष्टाचार का विरोध करना उतना रास नहीं आया, किंतु दूसरी ओर भ्रष्टाचार की अति जहां और जिससे हुई वहां मतदाताओं ने संबंधित प्रत्याशी को अवश्य ही उसकी सजा दी। मुद्दों को तय करते वक्त कांग्रेस से एक गलती अवश्य हुई है, एक तरह उन्होंने तीन रूपए चावल की योजना का वादा जोडक़र भाजपा के ही मुद्दे को मजबूत कर दिया।
शहरी मतदाताओं को, इलेक्ट्रानिक चैन में जोगी की बॉडी लेग्वैंज और उनका यह कहना कि हां वे तानाशाह है, (5 प्रतिशत भ्रष्टाचार एवं जमाखोरी करने वो के लिए) संभवत: भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी बड़े नेता द्वारा पहली बार अपने को खुलेआम तानाशाह घोषित किया गया। प्रबुद्ध लोगों का कहना यह था कि कैसे कोई बड़ी पार्टी का बड़ा नेता अपने को जाहिर तौर पर तानाशाह कह सकता है? जमाखोर एवं भ्रष्टाचारी कोई सर्टिफिकेट धारी नहीं होते अत: उस 5 प्रतिशत के बहाने जोगी किसी निरीह व्यक्ति के लिए तानाशाह नहीं होंगे इसकी क्या गारंटी है? इस कथन ने व्यापारियों के एक बड़े वर्ग को नाराज किया। दूसरी तरफ जहां-जहां भी जोगी के मुखा-मुखी डॉ. रमन सिंह हुए वहां-वहां डॉ. रमन की सादगी, शालीनता और संतुलन ने जनता को प्रभावित किया।

भाजपा अपनी पुरानी ताकत को दोहराने जा रही है यह कयास भी स्पष्टत: लोग नहीं गा पा रहे थे इसके पीछे निश्चित रूप से मतदाताओं की चुप्पी, कारक थी। इसके इतर मतदान का अधिक प्रतिशत पारंपरिक विश्लेषणों को यह आभास दे रहा था कि यह मतदान प्रतिशत संभवत: व्यवस्था विरोधी मत ही है, जो कांग्रेस के खेमे में गए। परिणाम आने के बाद मतदाताओं से बातचीत होने पर अधिक मतदान का जो खुलासा हुआ वह यह है कि वर्षो बाद पही बार एटीएम कार्ड की तरह खूबसूरत मतपत्र मिले थे जिसे उपयोग में लाने का उत्साह बड़े पैमाने पर मतदान का कारक बने। सभी राजनैतिक दों ने इस बार ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को बूथ तक लाने की मेहनत भी की थी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ की आम जनता में राजनैतिक चेतना का विकास भी अपेक्षित स्तर पर हुआ। इस क्रम का जारी रहना ही लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है।
इस बार बसपा ने जितने जोर शोर से अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे उसकी तुना में उनकी प्राप्ति न के बराबर रही, केव दो सीटों में ही वे सिमट के रह गए। इसके कारणों की व्याख्या में लोग बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में बसपा का जनाधार अकेले अपने बूते पर अभी भी नहीं बन पाया है, यह किसी दूसरी बड़ी पार्टी के साथ जुडऩे पर ही अपनी सीट बढ़ा पाएगी। छत्तीसगढ़ बसपा में बड़े कद के नेता का अभाव भी एक दूसरा कारण है। इसी क्रम में एनसीपी इस बार कांग्रेस के साथ मिकर तीन सीट में चुनाव डऩे के बाद भी एक भी सीट नहीं निका पाई। इससे साफ हो गया कि एनसीपी का वजूद भी छत्तीसगढ़ में न के बराबर है। इसी तरह स्वतंत्र प्रत्याशियों को जनता ने तवज्जों नहीं दी। स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में दोनों ही बड़ी पार्टियों के बागियों ने बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। न ही वे परिणाम को प्रभावित कर पाए न ही जीत पाए।

दोनों ही बड़ी पार्टियों ने विज्ञापन तंत्र के जरिए मीडिया में समान रूप से जगह बनाई किंतु विज्ञापन भी समाचार की तर्ज पर छपे होने के कारण पाठकों को धुंधके से बाहर नहीं ला पाए अर्थात स्थानीय अखबारों को पढक़र कोई भी पाठक परिणामों के विषय में पूर्वानुमान नहीं लगा पा रहा था।
ग्रामीण मतदाताओं को इलेक्ट्रानिक चैनल से कोई भी वास्ता नहीं रहा। वे अपने आसपास खेती-किसानी से लेकर सडक़, बिजली, पानी की सुविधा और धान के समर्थन मूल्य के मुद्दों पर भाजपा से काफी कुछ आश्वस्त थे। वे पिछे पांच वर्ष से कांग्रेस एवं दिगर पार्टियों से उनकी वांछित भूमिका की भी बाट जोह रहे थे, मगर देख समझ रहे थे कि कांग्रेस में आपसी खींचतान की ड़ाई टिकट वितरण तक जारी रही। एक ही पार्टी के तीन अध्यक्ष हो गए, एक के साथ दो कार्यकारी, बोनस में महेन्द्र कर्मा के तेवर एकदम अग थे। वी.सी. शुक्ल बिना पद पासंग की तरह समायोजन के लिए रखे जरूर गए थे लेकिन वे भी प्रभावी नहीं रहे। ऐन चुनाव के वक्त भ्रष्टाचार का आरोप, जो विधानसभा के पट पर कमजोर प्रमाणों के चलते दम तोड़ चुका हो जनता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया। यहां पर एक बात अवश्य विचारणीय है कि नए छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में बिताए अपने तीन सा में जोगी अपनी टीम में सभी सकारात्मक एवं नकारात्मक बातों के लिए जिम्मेदार रहे किंतु बाद के पांच वर्ष के भाजपाई शासन में अकेले मुख्यमंत्री पूरे पार्टी की ओर से बेहतर छवि का निर्वाह कर रहे थे, भे ही पार्टी के कुछ सदस्यों पर दाग-धब्बों के आरोप लगे। दोनों ही मुख्यमंत्री की छवि में इस मूलभूत अंतर को भी आंका गया।
व्यवस्था विरोध की हर बिल्कुल नहीं चली । न ही सलवा जुडुम का मुद्दा भाजपा के खिलफ गया। इसके उलट सरगुजा और बस्तर में जो कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र हैं ने मतों के जरिए भाजपा को पूर्ण समर्थन दिया। बस्तर में कवासी लखमा की सीट पर विवाद का साया अभी भी हटा नहीं। ऐसी परिस्थिति में यदि मतदाताओं के बहुमत को आधार बनाया जाए तो सलवा जुडुम जो आदिवासियों का स्वत:स्फूर्त आंदोलन था उसे तमाम वाममार्गीय कोशिशों के बावजूद व्यापक सहमति मिली ।

अब यहां पर प्रश्न यह उठ सकता है कि महेन्द्र कर्मा को बलि क्यों देनी पड़ी? राजनीतिक समीकरण बताते हैं कि कभी-कभी सच्चाई का साथ देने की कीमत किसी न किसी को चुकानी पड़ती है। भे ही अकेले महेन्द्र कर्मा सलवा जुडुम के साथ थे किंतु उनकी पार्टी, कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से सलवा जुडुम का समर्थन नहीं किया। जोगी एक कांग्रेसी लीडर की हैसियत से सलवा जुडुम का खुलकर विरोध कर रहे थे। यही नहीं इस चुनाव ने जोगी की आदिवासी मुख्यमंत्री वाली कुटनीतिक मांग को भी ध्वस्त किया। यह बात जाहिरी तौर पर स्पष्ट है कि सलवा जुडुम के मसले में नक्सल गतिविधियों के चलते बेघर हुए लोगों के लिए शिविर की व्यवस्था किसी भी सरकार को करनी ही पड़ती। यदि आज ये शिविर बंद कर दिए जाएं और फिर से आदिवासी नक्सली हमलें के शिकार हों तो फिर विपक्ष में चाहे कोई भी हो, वह मानवीय संवदेना का मुद्दा उठायेगा।
भाजपा को अपनी सोशल इंजीनियरिंग एवं गांव-गांव तक विकास की धमक पहुंचाने की ललक और निश्चित रूप से चावल की महक ने अपनी पारी दोहराने का अवसर प्रदान किया। इन तमाम उपब्धियों के साथ डॉ. रमन सिंह की छवि ने भ्रष्टाचार के आरोपों को भी निरूत्साहित करने में सफलता पाई।

इन परिस्थितियों के विश्लेषण करने पर पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के चुनाव समीकरण में अभी भी भाजपा और कांग्रेस ही दो प्रमुख प्रतिद्वंदी है और अब जनहित के छोटे-छोटे मुद्दे ही भविष्य के चुनाव में जीत हार के प्रमुख कारक साबित होंगे।
अविभाजित मध्यप्रदेश में जो कुछ भी छत्तीसगढ़ के हाथ लगा था वह मध्यप्रदेश के उतरन जैसा था। लेकिन पिछले पांच वर्ष में ढांचागत विकास के नाम पर सडक़, बिजली एवं पानी को छोड़ दें तो बड़े उद्योगों के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठे। अभी भी छत्तीसगढ़ में बड़े उद्योगों के खाते में सिर्फ दो नाम हैं बाल्को एवं जिंदल। जबकि बड़े उद्योगों से जुड़ती हैं रोजगार की संभावनाएं। रोजगार के क्षेत्र में भी नई सरकार से ढेर सी अपेक्षाएं हैं। आईटी उद्योग पर सरकार की नजर अभी भी स्पष्ट नहीं है। जबकि छत्तीसगढ़ में आईटी आधारित उद्योग की संभावना बहुत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी अपेक्षित ऊंचाई तक आना अभी शेष है।

आज के युग में कोई भी मनुष्य चाहे कितनी भी ऊंची कुर्सी पर बैठा हो उसे अगर अपनी छवि की चिंता है तो अपनी छवि बचाने की कीमत हर व्यक्ति को चुकानी पड़ती है यह कीमत किस स्वरूप में हो यह समय तय करता है व्यक्ति नहीं। इन परिस्थितियों में अपनी छवि को डॉ. रमन सिंह कितनी कुशलता से बनाए रखते हैं, यह आगामी पांच सालों में छत्तीसगढ़ भाजपा सरकार की नियति को भी तय करेगा।

ऊष्मा से भर देने वाला सतपुड़ा

होशंगाबाद से पचमढ़ी के सडक़ रास्ते कोई चालीस किलोमीटर दूर है सोहागपुर, वहां से दायें मुडक़र करीब बाइस किलोमीटर अन्दर मड़ई जो इधर से सतपुड़ा के भीतर जाने का दरवाजा है एक तरह से।



सोनभद्र को पीछे छोड़ ऊपर पहाड़ी पर चढ़े तो एक जगह लंगुरों की संसद लगी हुई थी। एक ऊंची-सी चट्टान पर एक बड़ा लंगूर स्पीकर-सा बैठा था। सामने करीब-करीब आयताकार  लाइनों में बैठे ढेर लंगूर, सब सामने वो बड़े लंगूर की तरफ मुखातिब, सबके चेहरे गम्भीर। हमारी संसद में जो हो-हल्ला, शोर शराबा, कभी-कभी बाहुबल का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है।



- गोविन्द मिश्र
सतपुड़ा से मेरा परिचय तब हुआ था, जब मैं मुंबई से अपने उपन्यास को आगे बढ़ाने के ख्याल से दसेक दिनों के लिए पचमढ़ी पहली बार गया। छोटी पहाडि़यां, छोटे कद के वृक्ष किंतु घने, हरे भरे आंवा की गंध से सराबोर जंग। आगन्तुक को, (बशर्ते वह शहर की चीजें शहर में छोडक़र खुद को खाली करके आए) अपने आगोश में लेने वाला, आत्मीयता की ऊष्मा से भर देने वाला... सतपुड़ा। पचमढ़ी से ऐसा बंधा मैं कि यहां बार-बार आने लगा। तब पचमढ़ी पर्यटकों के शोर से दूर थी। मैंने गौर किया कि यहां आने के दूसरे दिन ही छोटे पेड़ों, छोटी पहाडि़यों, छोटे जंगों के बीच घुमाते हुए सतपुड़ा आपको एक अजीब विस्मृति में ले जाता है - आप अपने परिवार में किसके क्या हैं, कहां क्या करते हैं... यहां तक कि किस साल के किस माह की कौन सी तारीख में हैं... सारे फालतू सवाल झर जाते हैं। हम काल के अनन्त प्रवाह में (कालोहि निरवधि:) विपु पृथ्वी (विपुला च पृथ्वी) पर तैरते एक बिन्दु हैं: सतपुड़ा सत्य से परिचित कराता है जो हमें एक अनोखे उल्लास से भर देती है।
तब से पचमढ़ी बीसों बार गया होऊंगा और हर बार दस-दस दिनों के लिए, अकेले। 'तुम्हारी रोशनी में' और बाद के सभी उपन्यासों की गुत्थियां यहीं सुझी, उन्हें आकार यहीं प्राप्त हुआ। हर मौसम में आया। तपती गर्मी, जब दोपहर बगैर सिर पर कुछ लपेटे आप बाहर नहीं निकल सकते, लेकिन सुबह-शाम सुहावनी। सवेरे छोटे-छोटे रसगुल्लें की तरह घास पर बिखरे सफेद महुवे ... बीनो तो ऊपर से टप टप चुएं। पेड़ों के बीच ठहरी महुवों की सोंधी-सोंधी गन्ध। महुवे खाकर लंगूर खूब ऊधम मचाते, नशेडि़यों की तरह हल-गुल करते, हॉली डे होम्स के छप्परों पर कूदते और खप्परों पर बड़े-बड़े छेद कर देते। बरसात हुई तो मटकुली के आगे जगह-जगह पोखर बने हुए, देनवा नदी के रपटे पर ऊपर से पानी बहता मिले तो टक गए, आप इस किनारे। जब तक पानी रपटे से उतर नहीं जाता, इन्तजार करिए। पंचमढ़ी पहुंचे तो छोटे-बड़े झरने बस्ती में धमनियों से फैले, पानी ही पानी, हॉली डे होम्स के खप्परों से पानी कमरे में, बाथरूम में चुए ... 'क्या करें साब, इन नकची बन्दरों ने कूद-कूद कर सुराख कर दिए।' जाड़े में पचमढ़ी आइए तो क्या गुनगुनी धूप लेकिन रात प्राय: दो बजे करीब जाड़ा ऐसा सिर में चढ़े कि विरह से नहीं, ठंड से बाकी रात बीते ... 'करवट बदल बदल कर' !

एक बार भोपाल से रेलमार्ग द्वारा पिपरिया (रेल्वे स्टेशन जहां से ऊपर पचमढ़ी जाते हैं) पहुंचा। मुश्किल से तीन-चार घंटे की यात्रा और आप रेल में बैठे-बैठे क्या-क्या देख लेते हैं। विंध्याचल के भीतर से रेल जाती है, होशंगाबाद के पहले नर्मदा, इटारसी के बाद सतपुड़ा, बीच में बहती तवा (नर्मदा की सहायक नदी, जिसकी भी सहायक है देनवा) यानी देश के दो मुख्य पर्वत और दो बड़ी नदियां ..., सिर्फ चार घंटों में।

पचमढ़ी फिर भी सतपुड़ा का नगरीय रूप है, सतपुड़ा की रानी ठहरी। मैं देखना चाहता था सतपुड़ा को अपने अस्त-व्यस्त रूप में, भीतर से...। पर्यटक क्या, मानुसगंध से भी यथासंभव अछूता। सतपुड़ा जिस आत्मीयता से चिपकाता है ... उसका उत्स कहां है।
होशंगाबाद से पचमढ़ी के सडक़ रास्ते कोई चालीस किलोमीटर दूर है सोहागपुर, वहां से दायें मुडक़र करीब बाइस किलोमीटर अन्दर मड़ई जो इधर से सतपुड़ा के भीतर जाने का दरवाजा है एक तरह से। इस बार हमारी यात्रा मड़ई से भीतर-भीतर जंगल-जंगल होते हुए पचमढ़ी निकलने की थी। सोहागपुर से मुड़ते ही सतपुड़ा की बाहरी पहाडि़यां दिखाई देने लगती हैं। पहाडि़यों के ठीक नीचे देनवा नदी जिसे नाव से पार कर मड़ई गेस्ट हाउस में हम पहुंचे। अंग्रेजों के जमाने के दो कमरों वो इस गेस्ट हाउस में अब भी बिजली नहीं है, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नहीं पहुंचाई गई। गेस्ट हाउस का उत्तरी हिस्सा गोलगुंबद जैसा हैं, कांच से ढका हुआ। एक जमाने में गेस्ट हाउस के आस- पास शेर चीते आ जाते थे, ऊपर की कांच वाली खिड़कियों से उन्हें देखा जाता या शिकार किया जाता था। अब वह बात नहीं... इसलिए इत्मीनान से बाहर बैठा जा सकता है।

हम चार थे - चन्द्रा, पंड्या, मोराब और मैं। सभी साठोत्तरी। सभी जंगल घूमने के शौकीन और खूब घूमे हुए भी। चन्द्रा फोटो आर्टिस्ट, नई से नई तकनीक वाला कैमरा रखने वाले, जितना शौक फोटो खींचने का, उतना ही इसका कि उनके कैमरे के उपकरण दो-चार आस-पास के लोग संभालें, जब वे फोटो ले रहे हों। किशोर मोराब जवानी में संजीव कुमार लगते थे, अब चांद पर हाथ फेरते हैं। शराब, टेनिस के साथ पूजा, योग, ध्यान और आध्यात्म को भी जीवन में गूंथे हैं। इस उम्र में संगीत सीखने संगीत विद्यालय जाते हैं। शरीर से हाथी, पर भीतर पत्ते जैसे मुलायम। इतना धीमे बोंलगे कि दूसरे के कानों को तकलीफ न पहुंचे। कदम भरते हैं तो इस तरह कि पृथ्वी को कहीं चोट न लगा बैठें। मिलने पर नमस्कार की जगह शुद्घ संगीतमय - 'भैया! जय रामजी की।' पंड्या गोल-मटोल, फुटबाल। जीवन का सबसे बड़ा शौक खाना। यह पहला शख्स मिला है जिसे खाने के पहले भी डकारें आती हैं। कहता है भूख की डकारें हैं।

मड़ई पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो आया था। गेस्ट हाउस के बाहर हमने नशिस्त जमाई। पूर्णमासी के ठीक बाद वाला दिन था। पूरब की पहाडि़यों से चांद निकलने को हुआ कि उजास देनवा के पानी में उतराने लगी, ऊपर से हम तक बड़े-बड़े पेड़ों से छनकर आ रही थी। हम उजास की सिहरन महसूस कर रहे थे कि दो छोटे हिरन कभी इसे, कभी उसे, अपने मुंह और सीगों से खुजला देते.... आंखें निश्छल, मुंह एकदम साफ, धुला हुआ-सा। छोटे-छोटे सीगों से उनकी भाषा निकल रही थी। हमारी तरफ देखो। कभी खुजाना, कभी कई बार खुजलाकर मनुहार करना और कभी सींग गड़ाकर जिद्द करना: खाने को दो, भूख लगी है। हम डरते थे, लेकिन वे हमारे शरीर पर सींग इस तरह फिराते थे कि चोट न लगे... यहां तक कि खाने को न मिलने पर नाराजगी में जो वे सींगों को नीचे से थोड़ा गड़ाकर ऊपर को निकालते ... वह भी इस सफाई से कि खरोंच भी न आए। हम इस बहस में उलझे थे कि जीवन में सबसे कीमती चीज क्या है-स्वास्थ्य, धन, प्रतिष्ठा या फिर प्रेम ... और हिरन के वे बच्चे जैसे कहते होते, नहीं, नहीं ... वह सब कुछ नहीं। महत्वपूर्ण है आज, यह वक्त, इसमें हमारा होना, जीवित होना। सतपुड़ा के नीचे चांद तले देनवा के किनारे ... जो भी होने की प्रतीति दे वह सब महत्वपूर्ण है। मड़ई से राष्ट्रीय उद्यान लग जाता है। भीतर शेर, चीते हैं। कम हिरन होते होंगे जो स्वाभाविक मृत्यु पाते हों, आज नहीं कल उन्हें शेर का भोजन बनना ही है। दरम्यान जो है, वही है यह फुदकना, खाने के लिए वह मचलना, बीच-बीच में प्यार-मोहब्बत भी। कुदरत ने जो निर्धारित किया, उस रास्ते चना। आदमी की जिंदगी भी कुल मिलाकर फर्क कहां ... पर वह सोच-सोचकर गर्क कर डालता है जैसे हम यहां बहस कर रहे थे। अरे पिओ ... इस फिजां को पिओ ... यही महत्वपूर्ण है।

सुबह उन दो हिरनों की खाने की तलाश फिर शुरू हो गई थी। लगता था वे गेस्ट हाउस के आसपास ही रहते हैं। यों भी हिरनियों के छोटे शावकों को वन के जंगली जानवरों से सुरक्षा रहती है। शावक शुरू-शुरू में तेज भागकर अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते। फिर उन्हीं में से कुछ यहीं रहे आते हैं।

रास्ते के लिए पानी, खाना ले हम मड़ई से निकल पड़े। पचमढ़ी तक का यह रास्ता कोई सत्तर किलोमीटर का था। जहां वह सतपुड़ा की श्रेणियों के बीच से निकलता वहां रास्ता मुरम के जैसा दिखता, जहां किसी श्रेणी के पहाड़ के ऊपर से जाता वहां गायब हो जाता था। जीप जहां से जाती वह जगह चिकनी, संकरी होती, खासा खतरनाक। जीप जरा इधर-उधर हुई कि नीचे खाई में लुढक़ सकती थी। फोर व्हील ड्राइव और अनुभवी ड्राइवर मुकेश, ये ही हमारी सुरक्षा थे। रास्ते में हिरन-चीतल, एक जगह काला हिरन भी, जंगली भैंसे, जिनकी यहां की विशेष प्रजाति को गौर कहते हैं, को अगल-बगल देखते हुए हम आगे बढ़े। गौर की टांगों का निचला हिस्सा जैसे सफेद मोजे पहन रखे हों, सींग नीचे रक्तिम, ऊपर काले। लगड़ा फॉरेस्ट कैम्प के आगे सोनभद्र नदी मिली। यह सतपुड़ा के भीतर-भीतर बोरी की तरफ से इधर आती है। एक तरफ पहाड़ी पर गहरे सरोवर-सी टिकी, दूसरी तरफ बरसाती पतले-पतले झरनों सी कल कल आगे बहती ...। बीच में जीप भर निकलने की जगह। वहां एक-एक बीत्ता पानी। नीचे रेत, ऊपर जमाए गए बांसों के गट्ठर पर रपटा जैसा बनाया गया था। सरोवर वो हिस्से में कहीं-कहीं मुंह पानी के ऊपर उठाये घड़याल दिखते। झरने वो हिस्से में नहाने का लुत्फ उठाया जा सकता था लेकिन घड़याल भले ही दूसरे हिस्से में हों, पर वे बहुत पास थे, खतरा नहीं उठाया जा सकता था।

सोनभद्र को पीछे छोड़ ऊपर पहाड़ी पर चढ़े तो एक जगह लंगूरों की संसद लगी हुई थी। एक ऊंची-सी चट्टान पर एक बड़ा लंगूर स्पीकर-सा बैठा था। सामने करीब-करीब आयताकार लाइनों में बैठे ढेर लंगूर, सब सामने वो बड़े लंगूर की तरफ मुखातिब, सबके चेहरे गम्भीर। हमारी संसद में जो हो-हल्ला, शोर शराबा, कभी-कभी बाहुबल का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है, उसके मुकाबले यह सभा कितनी सुसभ्य और शालीन, बंदरों के स्वभाव के विपरीत जबकि संसद का मनुष्य स्वयं को चिन्तशील प्राणी कहता है। सांसद है, तो हमारा भाग्यविधाता, भे वह चिन्तन सिर्फ अपने भाग्य का करता हो।

उस पहाड़ी के दूसरी तरफ नीचे जैसे ही हम उतरे, तो एक मोड़ पर हमारे ड्राइवर ने हुफुलाकर कहा - 'टाइगर' और जीप थोड़ा तेज कर दी। वह शेरनी थी, मोड़ के बगल वो बड़े टीले के नीचे-नीचे चलने लगी। फिर बाएं मुडक़र ठीक हमारे सामने आ गयी, जीप वो कच्चे रास्ते पर। वह आगे-आगे, जीप पीछे-पीछे। उस तरह चलते हुए उसका पीछे का हिस्सा भर दिखता था-साधारण कद के एक जानवर जैसा ही। चार-पांच मिनट गुजर गए, मुकेश बीस-पचीस गज की दूरी पर जीप रखे था।
थोड़ी देर में शेरनी पलटी और हमारी तरफ यों देखा, जैसे हम माटी के ढेले हों। उसकी एक उपेक्षा भरी निगाह, इधर हमारी धौंकनी चलने लगी। जीप जल्दी से पीछे नहीं हो सकती थी, आगे जा नहीं सकते थे, एक छलांग में वह जीप पर हो सकती थी। हम वहीं रूक गए, जीप स्टार्ट रखी। शेरनी के हमारी तरफ रूख करने के दौरान दिखाई दिया उसके शरीर का विस्तार: साफ, उजला, फैला और सुतला हुआ ...। कहीं से एक भी ऐसी चीज नहीं जो भव्य से नीचे हो, उसके हमारी तरफ देखने का अन्दाज भी। कि वह फिर अपने रास्ते चल दी। वह आगे-आगे, हम पीछे-पीछे। एक मिनट के बाद उसने बाईं तरफ की एक चट्टान पर पेशाब की एक पिचकारी छोड़ी और कच्चा रास्ता छोड़ दाईं तरफ की चट्टानों पर चली गयी। इस तरह शेर के उस तक पहुंचने के लिए उसने अपने निशान छोड़े थे। रास्ते से हमने उसे फिर भरपूर देखा। फैला चुस्त शरीर ... वन की ताजगी और ऊर्जा से भरा हुआ। हम मुग्ध देखे जा रहे थे कि वह चट्टान से नीचे उतर ओझल हो गई।

किशोर मुराब के पास शेरों के इस तरह प्राकृतिक अवस्था में दिखने के ढेरों किस्से हैं क्योंकि वे तब से यहां हैं जब जहां आज नया भोपाल है वहां भी जंगल होता था, पहाडि़यां हरी-भरी थीं ... लेकिन मैंने तो शेर इस अवस्था में सिर्फ रणथम्भौर अभयारण्य में देखा था। वह भी शेरनी थी, वन के दोनों रास्तें जीपें थम गयी थीं। जब रानी साहिबा की सवारी बीच रास्ते से इधर से उधर हुई, एक झलक। यहां तो हमारे अलावा कोई नहीं और हमें पूरे सात आठ मिनट दर्शन होते रहे। शेर को यों देखना कितनी बड़ी खुशनसीबी है क्योंकि आधुनिक आदमी की व्यापार-बुद्घि के चलते हिन्दुस्तान में शेर अब 1800 के करीब ही बचे हैं। उनमें से एक को देख रहे थे हम!

ड्राइवर मुकेश वायरैस पर इधर-उधर खबर दे रहा था। शेरनी, जमुनानाला के पास। उसने आगे, मरका नाला कैम्प पर जीप रोकी। यहां वन विभाग के दो हाथी थे। अब शायद उस शेरनी को एक जगह हाथियों की उपस्थिति से छेंककर रखने का कार्यक्रम बने लेकिन यहां कहां किसी पर्यटक को दिखाना है। कभी-कभी शेर-शेरनी के समीप लाने के लिए भी छेंकना होता है। शेरों की संख्या बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं। आगे जीप एक जगह पत्थर के टुकड़ों वो रपटे से गुजरी, रपटे के ऊपर झरने सा बहता पानी ... इतना साफ कि एक-एक पत्थर दिखता था। हम ठीक से देख भी न पाए कि मुकेश जीप को दूसरी तरफ निका ले गया। नहाने की मन्शा उसे बता चुके थे, फिर भी। मेरी तबीयत छूटी हुई जगह में अटक कर रह गयी थी।

यह कोई नाला नहीं, नागद्वारी नदी थी, पतली, छोटी-सी। मुकेश हमें थोड़ा घूम कर वहां ले आया जो उसके हिसाब से हमारे नहाने के लिए ज्यादा उपयुक्त जगह थी। पानी यहां बंधा था, सीमेंट की एक दीवार जैसी उठी थी। मुझे वह जगह नहीं जमी, वापस रपटे की तरफ लौटे। जिधर जीप खड़ी हुई, उस तरफ नदी का बहाव तेज था। किनारे पर ऊंची-ऊंची घास भी थी। उधर के किनारे पर थोड़ी रेत और चट्टानें थी। नहाने के लिए वह किनारा उपयुक्त था। बहती नदी ... मेरा मन तत्काल पानी को छू लेने के लिए उछलने लगता है। अगर पानी ज्यादा न हो, छुलछुल बहता हो तो फट से नदी में घुस जाने को इच्छा होने गती है। शायद बचपन में बांदा की केन नदी के ऐसे ही घाट थे, जिसे छुछुयिला घाट कहते थे, जहां मैं दिनोंदिन, महीनों, सालों नहाया हूंगा। वहां की याद है जो सोयी हुई भीतर बैठी रहती है। ऐसी जगहें देखकर कुनमुनाने गती है। तो मैंने आव देखा न ताव, अपना बैग कन्धे पर टका, जूते उतार, पैंट घुटनों तक मोड़, रपटे से उस पार जाने के लिए बहाव में उतर गया। रपटे पर पानी तो एक बीत्ता से ज्यादा नहीं था पर बहाव में तेजी थी। पानी के नीचे पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े, काई लगे। फिसलकर गिरने की पूरी संभावना, पर मैं बिना सोचे समझे जो चल देता हूं। इसके पीछे भी मेरे भीतर बैठी बचपन की एक ग्रन्थि है। अतर्रा में ... मैं कुछ ही सालों का रहा हूंगा। एक लगी में एक मधुमक्खी भिनभिनाती हुई मेरे ऊपर उड़ती, मुझे काटने की धमकी देती आ रही थी। मैं हाथों के झटकों से उसे परे करने की कोशिश करता, वह उड़ जाती पर फिर आ जाती। कभी जाकर छत्ते में छिप जाती। मैं भनभनाता हुआ घर गया, एक लट्ठ लेकर आया और धम्म से छत्ते पर मारा। मधुमक्खियां गुस्सा होकर मुझ पर पिल पड़ीं। मेरे पूरे सिर को चींथ डाला। मैं बुखार में पड़ गया। उन्हीं दिनों मधुमक्खियों के काटे एक बच्चे की मृत्यु हुई थी लेकिन मैं बच गया। तब मैं खूब संभल-संभलकर पैर जमाते हुए चल रहा था, पर कई जगह फिसलते-फिसलते बचा। मारने वाले और बचाने वाले अक्सर एक ही जगह मौजूद होते हैं। आपकी नियति कि किसका पड़ा भारी पड़े। मेरे अपने लिए हमेशा बचाने वालों का पड़ा भारी बैठा है और मैं हूं कि अक्सर श्रेय खुद को देने बैठ जाता हूं जैसे कि तब बिना गिरे उस पार पहुंचकर हल्का गर्व महसूस कर रहा था कि मैं अब भी स्वयं को सन्तुति रख सकता हूं, एक वजनी बैग कंधे पर टका कर, बहते पानी और काई गे पत्थरों पर चलते हुए भी। हम दो घंटे नहाए, रपटे के नीचे जहां पानी पती, मोटी, छोटी-छोटी धारों में गिरता था। धारों के नीचे सिर रखकर। पानी की पड़-पड़, पड़-पड़ खोपड़े पर ...। पानी के साथ रेत और छोटे-छोटे पत्थरों पर कुछ दूर तक बहना, फिर लौटना। बाहर-भीतर सिर्फ नागद्वारी ...। दूसरी कोई आवाज नहीं, सिर्फ नागद्वारी के बहने की तरह-तरह की आवाज। हम नागद्वारीमय हो गये थे। नदी में ही घुसे-घुसे खाया-पिया। चले तब तक धूप तेज हो गयी थी। रास्ता घाटी से न होकर पहाड़ी पर से था... इसलिए तपती चट्टानों की भी गर्मी। नीमधान कैम्प पहुंचे तो दरख्तों की छांह में सोने का मन होने लगा लेकिन आगे चलते गए। उतार आया तो गर्मी से थोड़ी राहत मिली। शेरनाला रपटा ... पानी पेड़ों से करीब-करीब ढका हुआ। एक ऐसा बरगद का पेड़ जिसकी जड़ें एक विशाल शिला पर चिपकी हुईं थीं जैसे जिस्म के भीतर नसें। मुरम का वह रास्ता पनारपानी पहुंचकर पचमढ़ी वाली पक्की सडक़ से मिला। पनारपानी में नदी में होने वो पौधों की नर्सरी है। यह पचमढ़ी के महादेव की तरफ वाला इलाका था। हमें ठहरना भी इसी तरफ था।

ज्यों ही पचमढ़ी की मुख्य सडक़ पर आए तो चारों तरफ रंग ही रंग। पीला, गुलाबी, लाल, हल्का बादामी, हरा-नीला ... कौन रंग जो नहीं थे। ये रंग फूलों के नहीं, नए आते पत्तों के थे। विभिन्न अवस्थाओं में पत्ते, कोई अभी फूटे, कोई चार दिन के ... नहीं नए, पुराने। ताज्जुब कि जंग के बीच से आते हुए हमें अलग-थलग ऐसे कुछ पेड़ तो दिखे थे जो पूरे के पूरे लाल थे - लेकिन यहां चूंकि पहाडि़यों पर पेड़ घने और अलग-अलग प्रजाति के थे तो जैसे तरह-तरह के रंग, इकट्ठे एक ही पहाड़ी पर उछले थे। अपराह्न में भी कैसा अद्भुत दृश्य। एक इस नजारे के लिए ही आती गर्मियों के दिनों पचमढ़ी आया जा सकता है ...। जब नीचे मैदान में पचमढ़ी की चढ़ाई शुरू होने के पहे तक भी पेड़ उजाड़, सूने, सूखे और उबास छोड़ते होते हैं। पचमढ़ी पहुंचते ही नए-नए किसलयों के, रंगों से भरे मिलते हैं ... चहचहाते पत्ते लिए, खिखिलाते।

गेस्ट हाउस की चढ़ाई के बाईं ओर वह कच्चा चबूतरा जहां जब मैं पहली बार पचमढ़ी आया था तो शहर से पैदल महादेव तक आए थे, ट्रैकिंग करते कोई पन्द्रह किलोमीटर। तब इसी चबूतरे पर अड्डा जमाया था, आसपास से कंडे बीनकर यहां बाटी बनी थीं, घी गुड़ मिलाकर बाटी के लड्डू भी। हमारा लीडर ... इत्तफाक से उसका नाम भी महादेव था, केन्द्रीय विद्यालय का एक साधारण कर्मचारी। वह और तब की पचमढ़ी के कितने लोग दुनियां से चले गए, मैं पीछे छूट गया ... पचमढ़ी के रंगों को देखता फिर रहा हूं। पचमढ़ी में हर बार कुछ नया झलक जाता है जिससे चिपकता हूं।

पर महादेव की याद आ रही है ...। कितना स्वार्थ-विहीन, दूसरों के लिए कुछ भी करने को तत्पर। बुंदेली कवि इसुरी की पंक्तियां, जो मेरे चलते रहने और महादेव के चले जाने ... दोनों को मिलाकर जीवन का रहस्य देखती है - याद आती हैं -

'' ऐंगर (पास) बैठ जाओ, कछु कानै (कहना है)

काम जनम भर रानै (रहेगा)

इत (यहां) की बात इतईं (यही) रै (रह) जैहै (जायेगी)

कैबै (कहने को) खां रै (रह) जैहै (जाएगी)

ऐसे हते (थे) फलाने (वे) ''

जैसे सतपुड़ा कह रहा था, 'ऐंगर, पास बैठ जाओ' यहां छुटपुट दुकानों की कतारें उग आई थीं, पर्यटकों के लिए, वे अब हटा दी गयी हैं। यह वन विभाग की जमीन है। यह सही है कि गन्दगी फैलती है, पर्यावरण प्रदूषित होता है लेकिन उन छोटे-छोटे दुकानदारों की जीविका का साधन भी तो यही है। दूसरी तरफ देखो तो जो पचमढ़ी आज तक साफ सुथरी है, बची हुई है तो इस वजह से कि नगर का प्रशासन फौज के पास है। भोपाल के नेता-अफसर पचमढ़ी को सेना से छीनने के चक्कर में हैं ताकि उसे पर्यटन के लिए विकसित कर सकें , पैसे कमा सकें । जहां वे कामयाब हुए कि पचमढ़ी का कबाड़ा हुआ। वनों की रक्षा के लिए सरकारें पोस्टरें तो खूब चिपकाती है लेकिन पर्यटन के नाम पर उनका सत्यानाश करने की पह भी सरकारें ही करती हैं।

शाम वन विभाग के गेस्ट हाउस के बरामदे में। ठीक सामने चौरागढ़ का मन्दिर। मन्दिर भी शिवंलिग के आकार का है। देर रात तक वहां की हल्की टिमटिमाती रोशनी हम तक आती रही। किशोर भाई ने गाने गाए, पंड्या हमारी तरफ पीठ करके साफ आसमान में चांद देखता रहा, जवानी के दिनों को पकडऩे की कोशिश कर रहा था ...। वे दिन जब खाना नहीं.. 'चाह' बरबाद करती थी। वे दिन कब के गए पर जैसे आज भी पीठ पर चिपके हैं। सवेरे जब मैं बिस्तर से उठा तो किशोर भाई पहले ही नहा धोकर, बरामदे में बैठकर पाठ कर रहे थे। पाठ की पुस्तक जैसे ही बन्द की कि गुनगुनाने लगे, 'मैं चोर हूं काम है चोरी, दुनियां में हूं बदनाम ... हाय हाय!' जैसे मुझमें ... वैसे किशोर में भी सतपुड़ा नई ऊर्जा भर रहा था।

Jan 19, 2009

बातचीत

पैसा कमाना फिल्म निर्माण की बुनियादी शर्त है- महेश भट्ट
-मधु अरोड़ा

महेश भट्ट एक जाने माने फिल्म निर्माता-निर्देशक और लेखक हैं वे अपनी फिल्मों को लेकर हमेशा विवादों में रहते हैं उन्होंने अब तक जनम, सारांश, अर्थ, जख्म जैसी सार्थक फिल्में बनाई तो कई मसाला फिल्में भी बनाई। इसके पीछे वे कारण भी बतातें है कि सार्थक फिल्में बनाने से पेट नहीं भरता, जीने के लिए पैसा भी जरुरी है। प्रस्तुत है फिल्म और साहित्य को लेकर उनसे की गई बातचीत के अंश...

-महेशजी, आज तक पत्रकार आपसे आपकी फिल्मों, इंडस्ट्री में चल रही गॉसिप या फिर किसी विवाद के बारे में पूछते रहे हैं। मेरा सवाल सबसे हटकर है?

0 बेहतर है कि गॉसिप से हटकर सवाल पूछ रही हैं। गॉसिप वालों के लिये मुझ जैसे आदमी के पास कुछ होता नहीं है। न कोई रोमांस है, न ऐडवेंचर! एक स्ट्रगल है जो लगातार चलता जाता है।

-हिन्दी फिल्म जगत ने बांग्ला, तमिल, पंजाबी, अंग्रेजी साहित्य रचनाओं पर तो अच्छी और बड़ी फिल्में दी है, पर ऐसा क्यों है कि किसी भी बड़े फिल्मकार ने हिन्दी साहित्य की किसी भी कृति पर ऐसी कोई फिल्म नहीं बनाई, जैसे कि अंग्रेजी में Gone with the Wind‚ War and Peace‚ Plays of Shakespeare‚ Withering Heights‚ Novels of Dickens‚ Jane Austen and others बनाई हैं?

0 वह एक दौर था जब साहित्य की कृतियों पर फिल्में बनती थीं। अंग्रेजी, रूसी और बांग्ला कृतियों पर बहुत फिल्में बनीं। उस समय सिनेमा का इतना कमर्शियलाइजेशन नहीं हुआ था। फिल्मों की लागत भी कम होती थी। उस दौर में हिन्दी की कृतियों पर भी फिल्में बनीं। कम बनीं, मगर बनीं जरूर। 'चित्रलेखाÓ पर फिल्म बनी और बाद में प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों पर भी फिल्में बनीं। लेकिन आज के दौर में एक जबरदस्त मॉडर्नाइजेशन आ गया है। जिंदगी बहुत ज्यादा भौतिकवादी और भोगवादी हो गयी है। कमर्शियल एक्सपोज बहुत बढ़ गया है। लागत बहुत बढ़ गयी है। बाजार में जिंदा रहने की जद्दोजहद बढ़ गयी है। कॉम्पिटीशन बहुत है। इधर साहित्य में भी ऐसा कुछ बेहतरीन लिखा नहीं जा रहा जिसका अपना कोई शाश्वत मूल्य हो या बोध हो मैं जानना चाहता हूं कि इस समय हिन्दी की ऐसी कौन सी कृति है जिस पर फिल्म बना कर मैं बाजार की जरूरतों को पूरा कर सकूंगा, एक तेज कॉम्पिटीशन में अपने आपको खड़ा रख सकूंगा। मुझे तो ऐसी कोई कृति नजर नहीं आती।

-आपके साथ जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जैसे साहित्यकार मौजूद हैं, आपने भी उनकी या उनके द्वारा सुझाई गई किसी साहित्यिक कृति का इस्तेमाल फिल्म बनाने के लिए नहीं किया। ऐसा क्यों?

0 इस बात को फिर दोहराना चाहूंगा कि सिनेमा एक बहुत ही कमर्शियल माध्यम है। अच्छी साहित्यिक कृतियां सफल कमर्शियल फिल्में बन सकेंगी, इसमें शक की बहुत बड़ी गुंजाइश है। हम जोखिम तो लेते हैं, लेकिन संभावनाओं के आधार पर। फिल्म लोक माध्यम है, साहित्य लोक माध्यम नहीं है। अपने मूल रूप में साहित्य काफी कुछ एसोटिस्ट है। इसलिये यह जरूरी हो गया है कि हम दोनों को अलग-अलग मानकर देखें। सिनेमा का लोक पक्ष जैसे-जैसे हावी होता जा रहा है, लिखित साहित्य से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है। साहित्यिक कृतियों पर इधर एक दो फिल्मों का रिमेक हुआ है। लेकिन सवाल पूछा जा सकता है कि इनका ओरिजिनल रूप कितना कुछ कायम रखा गया है। दीक्षित एक साहित्यिक लेखक हैं। फिल्मों में भी हम उनका हर संभव उपयोग कर रहे हैं। उनकी लिखी स्क्रिप्ट्स पर सबसे ज्यादा फिल्में मैंने ही बनायी हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।

- मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अथाह पैसा है, फिर भी इंडस्ट्री ने पटकथा लेखन, डायलाग लेखन इत्यादि को विश्वविद्यालयों में विषम के तौर पर लगवाने की मुहिम क्यों नहीं शुरू की?

0 हम लोग फिल्में बनाते हैं। जरूरी होने पर भी बहुत सी मुहिमें शुरू करना हमारा काम नहीं है। अथाह पैसा होने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। यह शिक्षा शास्त्रियों का काम है कि फिल्म लेखन को वे आम शिक्षा का विषय बना दें। कई जगह ऐसा किया भी गया है। 'मास कम्यूनिकेशन' की शिक्षा का काफी विस्तार हो रहा है। जगह-जगह कॉलेजों में इसके विभाग खुल रहे हैं जहां फिल्म कला की शिक्षा दी जा रही है।

-इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि ज्यादातर फिल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट बेहद कमजोर हैं। वे अभी भी गुलशन नंदाई अन्दाज से बाहर नहीं आ पाये है। ऐसा क्यों?

0 फिल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट कमजोर हैं या नहीं, इसका फैसला फिल्म उद्योग से बाहर रहने वाले लोग नहीं कर सकते। इसका फैसला तो वह जनता करती है जो फिल्में देखती है। फिल्म चलती है तो इसका मतलब है कि स्टोरी वालों ने अच्छा काम किया है। बुरा काम करते हैं तो फिल्म पिट जाती है। गुलशन नंदा को बुरा क्यों कहती हैं? उन्होंने बहुत सी हिट फिल्में दी हैं। किसी ऊंचे टावर में बैठकर आम लोग इस बात का फैसला नहीं कर सकते कि यह अच्छा है, यह घटिया या कमजोर है।

-राधाकृष्ण प्रकाशन ने एक नई विधा शुरू की है, जिसे मंजरनामा कहा जाता है, यानि कि गुलजार साहब की आंधी के स्क्रीनप्ले का प्रकाशन। क्या आप भी सोचते हैं कि सारांश, अर्थ, डैडी जैसी फिल्मों का मंजरनामा होना चाहिये?

0 'सारांश', 'अर्थ', 'डैडी' जैसी फिल्मों की पटकथाएं प्रकाशित हों तो अच्छा है। लेकिन जो पटकथाएं प्रकाशित की जा रही हैं, वे सेंसर बोर्ड को दी जानेवाली स्क्रिप्ट हैं। फिल्म के तैयार हो जाने के बाद उसके एक-एक शॉट को देखकर सेंसर बोर्ड के लिये स्क्रिप्ट तैयार की जाती है। यह स्क्रिप्ट वह नहीं होती है जिसको लेकर फिल्म शूट की जाती है। शूटिंग स्क्रिप्ट का अपना एक अलग महत्व होता है।

-मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अधिकतर काम अंग्रेजी जबान में होता है। क्या निर्माता निर्देशक का हिन्दी से परिचय न होना ही तो हिन्दी साहित्य के प्रति अन्याय नहीं करवा रहा?

0 अंग्रेजी का प्रभाव काफी है, इसमें शक नहीं। बहुत से फिल्मकार अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए होते हैं। लेकिन यह दोष फिल्म उद्योग का नहीं है। हमारी पूरा शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी माध्यम को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है। सरकारी कामकाज, व्यापार, व्यवसाय, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। यह समस्या सिर्फ फिल्मों की नहीं है। इसका दायरा काफी बड़ा है। इसके बारे में बड़े पैमाने पर विचार होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के साथ न्याय-अन्याय के सवाल को भी इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। वैसा यह कहना जरूरी है कि हिन्दी साहित्य के साथ क्या हो रहा है, न्याय या अन्याय, यह सोचना फिल्मवालों का काम नहीं है।

- क्या आपको लगता है कि हिन्दी साहित्य में वह बात नहीं जो सिनेमा के पर्दे पर आ कर तहलका मचा सके या फिर मुंबई सिनेमा में कोई दिक्कत है। प्रेमचन्द की कृतियों गोदान, गबन, शतरंज के खिलाड़ी आदि पर भी बहुत कमजोर फिल्में बनीं।

0 फिल्मकारों के लिये हिन्दी साहित्य या कोई और साहित्य महत्वपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूं कि सिनेमा एक लोक कला है और साहित्य पढ़े लिखे लोगों की चीज है, एसीटिस्ट है। इसलिये हिन्दी साहित्य पर किसी और साहित्य में सिनेमा वाली बात का होना जरूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में वो बात नहीं है तो यह स्वाभाविक है। जहां तक प्रेमचंद की कृतियों पर बनीं फिल्मों का सवाल है, मैं आपकी तरह यह जजमेंट नहीं दे सकता कि वे सब की सब कमजोर फिल्में हैं।

-क्या आप हिन्दी साहित्य पढ़ते हैं? अगर हां, तो आपको किन लेखकों की कृतियां प्रभावित करती है?

0 नहीं। हिन्दी साहित्य की कृतियों को पढऩे की ओर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया।

-क्या आप भविष्य में किसी महत्वपूर्ण हिन्दी कृति पर फिल्म बनाना चाहेंगे?

0 बनाना चाहूंगा, बशर्ते कि वह कृति लोकप्रिय सिनेमा की जरूरतों को पूरा करती हो। फिलहाल इसकी संभावना नहीं है।

-आप एक समर्थ कल्पनाशील, वरिष्ठ और संवेदनशील फिल्मकार माने जाते हैं। आपने कैरियर की शुरूआत में सारांश, डैडी और अर्थ जैसी बेहतरीन फिल्में दीं। लेकिन क्या वजह हुई कि बाद में ये सिलसिला जारी रहने के बजाय चालू और फार्मूला फिल्मों की ओर मुड़ गया?

0 बदलते हुए वक्त के साथ बदलना जरूरी है। मैंने यह तो कहा है कि जबरदस्त कॉम्पीटीशन है, जबरदस्त कमर्शियलाइजेशन है, लागत में जबरदस्त वृद्धि है। मैं चालू और फार्मूला फिल्में दे रहा हूं या नहीं, यह कहना मुश्किल है। लेकिन मैं बाजार में जिंदा रहने की कोशिश जरूर कर रहा हूं। एक लड़ाई है जिसका लड़ा जाना जरूरी है। मैं वह लड़ाई लड़ रहा हूं।

-क्या आपकी निगाह में एक फिल्म का कोई खास मकसद होता है? मसलन कोई संदेश या कुछ बेहतरीन कहने की कोशिश? या सिर्फ मनोरंजन और पैसा कमाना ही फिल्मों का मकसद रह गया है?

0 बहुत ही साफ बात है कि फिल्मों का सबसे पहला मकसद है मनोरंजन। पैसा कमानेवाली बात इसी से जुड़ी हुई है। करोड़ों की लागत से फिल्म बनती है। मनोरंजन के माध्यम से पैसा कमाना फिल्म - निर्माण का बुनियादी शर्त है। मकसद या संदेश की बात हमेशा बाद में आती है। संदेश हो तो ठीक है, न हो तो भी ठीक है। जिन लोगों को संदेश देना है, वे भाषणों, प्रवचनों और उपदेशों के कैसेट निकालें। फिल्मकारों के लिये 'संदेश' हमेशा दूसरे नंबर पर है। मैं अपनी फिल्मों में 'संदेश' डालने की कोशिश जरूर करता हूं। लेकिन फिल्म-निर्माण की बुनियादी शर्त आज है मनोरंजन और धनोपार्जन।

-वे कौन से कारण हैं कि एक तरफ फिल्मकार बेहतरीन कृतियों पर फिल्में बनाने से डरते है और दूसरी तरफ अच्छी कृतियों के रचनाकार फिल्मी मीडिया से दूर भागते हैं।

0 सचमुच ऐसा नहीं है कि साहित्यकार फिल्म माध्यम से दूर भागते हैं। मैंने तो देखा है कि लगभग हर साहित्यकार फिल्मों से जुडऩे के लिये उत्सुक ही नहीं, लालायित है। उनकी समस्या यह है कि फिल्म माध्यम में वे जम नहीं पाते। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि लोक माध्यम क्या होता है, वाणिज्यिक जरूरतें क्या है। इसलिये वे असफल हो कर 'रिजेक्ट' हो जाते हैं। हां, कुछ साहित्यकार फिल्म के लोक स्वरूप को समझते हैं। वे बराबर फिल्म माध्यम से जुड़े रहते हैं।

-क्या आपने सोचा है कि अच्छी कृतियों की तलाश करें ताकि उन पर सार्थक फिल्में बन सकें?

0 नहीं। मैं अच्छी साहित्यिक कृतियों को कोई तलाश नहीं कर रहा हूं। न ही इसकी कोई जरूरत महसूस करता हूं। अच्छी कहानियों की तलाश जरूर रहती है जो कहीं से भी आ सकती हैं, सिर्फ साहित्य से नहीं।

क्या कोई अनूठा विषय है जिस पर आप अपनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनाना चाहते हों?

सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनाने के अवसर में मैं नहीं हूं। न ही किसी अनूठे विषय की तलाश कर रहा हूं।

आप अपनी कौन-सी फिल्म सबसे अच्छी मानते हैं? जिससे दर्शकों के साथ-साथ आपको भी सन्तोष मिला हो।

मैंने कहा न कि मैं सर्वश्रेष्ठ के चक्कर में बिल्कुल नहीं हूं। मुझे 'अर्थ' या 'सारांश' भी उतनी ही 'सर्वश्रेष्ठ' लगती है जितनी 'जख्म' बाजार के लिहाज से। 'सडक़' मेरी बहुत ही सफल फिल्म थी।

ग़ज़लें




नया साल हमसे दगा न करे
नया साल हमसे दगा न करे
गए साल जैसी ख़ता न करे
अभी तक छलनी है हमारा शहर
नया ज़ख्म खाए खुदा न करें
नए साल में रब से मांगें दुआ
किसी को किसी से जुदा न करें
मेरी जिंदगी तो है सबके लिए
भले कोई मुझसे वफ़ा न करे
फरिश्ता तुझे मान लेगा जहां
अगर तू किसी का बुरा न करे
मोहब्बत से कह दो परे वो रहे
मेरी जिंदगी  बेमज़ा न करे
झमेले बहुत जिंदगानी के हैं
तुझे भूल जाऊं खुदा न करे
न टूटे कोई ख्वाब इसके सबब
कुछ ऐसा ये बादे-सबा न करे
तो ख्वाबों की ताबीर मुमकिन नहीं
अगर जिंदगानी वफ़ा न करे
अमीरों के दर से न पाएगा कुछ
भिखारी से कह दो दुआ न करे
ख्यालों में तुम्हारें ...
ख्यालों में तुम्हारे जब कभी मैं डूब जाता हूं
जिधर देखूं नजऱ के सामने तुमको ही पाता हूं
मोहब्बत दो दिलों में फ़ासला रहने नहीं देती
मैं तुमसे दूर रहकर भी तुम्हें नज़दीक पाता हूं
किसी लम्हा किसी भी पल ये दिल तनहा नहीं होता
तेरी यादों के फूलों से मैं तनहाई सजाता हूं
तेरी चाहत का जादू चल गया है इस तरह मुझ पर
खुशी में रक्स करता हूं मैं ग़म में मुसकराता हूं
तुझे छूकर तेरी ख़ुशबू हवा जब लेके आती है
कोई दिलकश गज़ल लिखता हूं लिखकर गुनगुनाता हूं
मेरे दिल पर मेरे एहसास पर यूं छा गए हो तुम
तुम्हें जब याद करता हूं मैं सब कुछ भूल जाता हूं
मेरी आंखों में तू ही तू मेरी धडक़न में तू ही तू
मैं हर इक सांस अपनी नाम तेरे लिखता जाता हूं

सुनीता वर्मा -रंग मुझे अपनी ओर बुलाते हैं

सुनीता वर्मा -रंग मुझे अपनी ओर बुलाते हैं
सुनीता वर्मा के चित्रों को देखना यानी प्रकृति से साक्षात्कार करना है। चटख रंग उनकी पेंटिंग की खासियत है। वे जीवन के किसी भी पक्ष को अपने केनवास पर उतार रहीं हों, फूल- पत्तियां, पेड़- पौधे, सूरज, चंद्रमा, नदी पहाड़, चिडिय़ा उनके आस-पास विचरते रहते हैं। छत्तीसगढ़ की बेटी होने के नाते वे अपनी लोक संस्कृति के भी बहुत करीब हैं। उनके चित्रों में लोक की गमक बखूबी नजर आती है- राऊत नाचा, सुआ नृत्य, मेले मड़ई आदि तीज त्योहारों का चित्रांकन।
सुनीता वर्मा अपनी पेंटिंग्स के माध्यम से रंग और प्रकृति के साथ पारंपरिक दृश्य एवं लोक जीवन को एक नया रूप तो देती ही हैं लेकिन वे किसी एक 'फ्रेम' या शैली में बंधकर काम करने वाली चित्रकार नहीं हं। पिछले दो दशक से पेंटिंस की दुनिया से जुड़ी सुनीता इन दिनों अपनी नौकरी से चुराए हुए वक्त का पूरा इस्तेमाल पेंटिंग्स बनाने में करती हैं। उनके घर में चारो ओर बिखरे रंग ब्रश और केनवास किसी चित्रशाला का आभास देते हैं।
चित्रकला में अपनी दिलचस्पी को बताते हुए सुनीता अपने बचपन के दिनों में खो जाती हैं- मेरे जमाने में हायर सेकेन्ड्री के बाद अच्छी पढ़ाई का मतलब डॉक्टर या इंजीनियर ही बनना होता था, माता पिता चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं। तभी मुझे अपनी दोस्त के साथ खैरागढ़ के इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय जाने का मौका मिला, वहां के कलात्मक और संगीतमय माहौल को देखकर मुझे लगा कि कला के क्षेत्र में भी पढ़ाई की जा सकती है, कैरियर बनाया जा सकता है। मैं वहां संगीत और कला के माहौल से अभिभूत हो गई, मुझे महसूस हुआ मानो यहां से मेरी आत्मा का कुछ जुड़ाव है।
प्रकृति के बहुत करीब सुनीता की प्रत्येक पेंटिंग कुछ न कुछ कहने का प्रयास करती हैं। वे कहती हैं कि - मैं बताना चाहती हूं कि अनेक विसंगतियों के बाद भी जीवन खूबसूरत है। मैं अपनी हर पेंटिंग में एक ऐसा स्पेस रखती हूं जहां व्यक्ति अपने को महसूस कर सकें। अपनी 'विंडोज' (खिडक़ी) शृंखला पेंटिंग के माध्यम से उन्होंने इस स्पेस को बखूबी अभिव्यक्त किया है। 'विंडोज' शृंखला के बारे में उनकी बड़ी गहरी सोच है- विंडोका सीरीज मेरे अंदर तब जन्मा जब मुझे लगा कि मैं दुनिया को एक कोने से जाकर नहीं देख सकती, तब मैंने सोचा कि उसे इस खिडक़ी से देखना होगा। विंडो मेरे लिए एक तरह से विद्रोह का प्रतीक भी है, कि मुझे इस खिडक़ी से झांक कर दुनिया की खूबसूरती देखना है।

सुनीता के चित्रों के प्रत्येक रंग कुछ कहते हुए मालूम पड़ते हैं- मेरी पेंटिंग में रंग थीम के साथ आते जाते है। यदि मैं रात की पेंटिंग बना रही हूं तो अपने आप रात के कलर पेंटिंग में ढलते जाते हैं और दिन का दृश्य बना रही हूं तो उजले रंग उसमें समाते जाते हैं। पेंटिंग चाहे रात का हो या दिन का सुनीता उनमें चटख रंगों का इस्तेमाल करती हैं। सुनीता कहती हैं कि- मैं ज्यादातर एक्रिलिक रंगों का प्रयोग करती हूं और मुझे जलरंग (वाटर कलर्स) ज्यादा पसंद हैं क्योंकि यह बहता हुआ रंग है और प्रकृति के बहुत करीब भी, इसमें आप तय नहीं कर सकते कि क्या बनना है। इसमें मुझे रंगों से खेलने का आनंद मिलता है। ये रंग मुझे अपनी ओर बुलाते हुए से प्रतीत होते हैं और यह मुझे अपने स्वभाव के अनुकूल लगता है।

सुनीता अपने गुरूओं को धन्यवाद देना कभी नहीं भूलतीं जिनकी वजह से आज उन्होंने यह मुकाम हासिल किया। खैरागढ़ में पढ़ाई के दौरान वख्यात चित्रकार के. के. हेब्बार चित्रकला विभाग के निमंत्रण पर विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आए हुए थे, मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है। भारत भवन भोपाल में आर्टिस्ट फार आर्टिस्ट स्कालरशिप के दौरान जे. स्वामीनाथन जैसे प्रख्यात चित्रकार के साथ काम करने का अवसर मिला। इनके अलावा के.एस.कुलकर्णी, वाय.के. शुक्ला, दिलीपदास गुप्ता, विकास भट्टाचार्य, महेश चंद्र शर्मा आदि गुणी कलाकारों ने चित्रकला की बारिकियों को समझने में मेरी मदद की।
सुनीता के पसंदीदा चित्रकारों में अमृता शेरगिल, सूजा , रजा, अर्पणा कौर, अर्पिता सिंह जैसे चित्रकार शामिल हैं। सुनीता को जब भी कोई बात बेचैन करती है वह रंग और ब्रश लेकर रंगों से बातें करते हुए अपनी इस बेचैनी को दूर कर लेती हैं। उनका विश्वास है कि हर पेंटिंग सुख- दुख के भाव से मुक्त कर देती है और मन में उमड़ती- घुमड़ती भावनाएं किसी कहानी की तरह उतरती चली जाती है। सच भी है उनकी हर पेंटिंग एक पूरी कहानी है। (उदंती फीचर्स)

परिचयः जन्म: 1964, छत्तीसगढ़ राजनांदगांव में
शिक्षा : इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स।
पुरस्कार : मध्य दक्षिणी सांस्कृतिक केंद्र नागपुर में फोक एंड ट्राइबल पेंटिंग पुरस्कार।
अखिल भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला में कालिदास पुरस्कार तथा कई राज्य स्तरीय सम्मान। प्रदर्शनी : पांच एकल प्रदर्शनी, पहली प्रदर्शनी 1982 में इंदौर में, इसके बाद रायपुर, भिलाई, भोपाल, जबलपुर, उज्जैन के साथ देश के सभी बड़े शहरों दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, केरल, कोलकाता, कोचीन, नागपुर आदि में समूह प्रर्दशनी। साथ ही कई राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी प्रतियोगिता एवं चित्रशाला में भागीदारी।
सम्प्रति : दिल्ली पब्लिक स्कूल भिलाई में आर्ट टीचर।
पता : 8-सी, सडक़ नं. 76, सेक्टर-6, भिलाई - 490006
मोबाईल: 098279 34904

संकट के भूरे बादल



संकट के भूरे बादल
प्रो. राधाकांत चतुर्वेदी

एशिया के 13 महानगरों जैसे मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, बेजिंग, शंघाई, काहिरा, बैंकाक इत्यादि पर तो इन संकट के बादलों का इतना घना जमावड़ा देखा जा रहा है कि इससे सूर्य का प्रकाश भी 25 प्रतिशत तक बाधित हो जाता है।

ये घातक बादल सिर्फ एशिया के लिए ही संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न करते हैं। वास्तविक में तो हवा के बहाव में ये बादल तीन चार दिनों में एशिया जैसा विशाल महाद्वीप लांघकर कभी-कभी अन्य महाद्वीपों पर संकट बरसाने पहुंच जाते हैं। यह भूरे बादल उत्तर और दक्षिण अमरीका, योरप और दक्षिण अफ्रीका के ऊपर मंडराते देखे जाते हैं।

संयुक्त राष्टर द्वारा विश्व के कुछ प्रसिद्ध पर्यावरण वैज्ञानिकों के शोध परिणामों पर आधारित एक रिपोर्ट पिछले दिनों जारी की गई है जिसमें दिए हुए तथ्य हम भारतीयों के लिए रोंगटे खड़े करने वाले हैं।

देखा गया है कि पूर्व में ईरान की खाड़ी से लेकर शेष पूरे एशिया पर गहरे भूरे रंग के घने बादल छाये रहते हैं। ये बादल लकड़ी जलाने से निकले धुएं के साथ फैक्टरियों से निकले तमाम तरह के हानिकारक रासायनिक कणों से मिले धुएं के मिलने से बनते हैं। इनसे पूरे विश्व के विशेषतया एशिया के देशों के पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। इन बादलों की मोटाई तीन किलोमीटर तक होती है। अपनी विशाल जनसंख्या के कारण भारत और चीन इस आकाशीय आपदा से सबसे ज्यादा खतरे में हैं।

एशिया के 13 महानगरों जैसे मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, बेजिंग, शंघाई, काहिरा, बैंकाक इत्यादि पर तो इन संकट के बादलों का इतना घना जमावड़ा देखा जा रहा है कि इससे सूर्य का प्रकाश भी 25 प्रतिशत तक बाधित हो जाता है।

इस तरह के बादलों से अनेक तरह की प्रतिकूल प्राकृतिक परिस्थितियां उत्पन्न होती है। विश्वास किया जाता है कि इसी का परिणाम है कि भारत में मानसून के वर्षाकाल में कमी आई है और धान, गेहूं और सोयाबीन जैसी प्रमुख फसलों के उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ा है। इस संकटपूर्ण बादलों में कुछ ऐसे कण होते हैं जो सूर्य के प्रकाश को सोख लेते हैं और वायुमंडल का तापमान बढ़ाते हैं। इससे हिमालय के ग्लेशियर, (बर्फ की नदियां) जो कि एशिया की प्रमुख नदियों के स्त्रोत हैं, तेजी से पिघलने लगी हैं।

चीन की विज्ञान अकादमी के अनुसार 1950 से अब तक हिमालय के ग्लेशियर क्षेत्र में 5 प्रतिशत की कमी हो चुकी है और सन् 2050 तक इसमें 75 प्रतिशत तक की कमी होने की आशंका है। यह बहुत ही भयावह स्थिति होगी। इससे भारत में ही नहीं बल्कि आसपास के अनेक देशों में पानी का अकाल पड़ जाएगा।

इसी अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है इस प्रदूषण जनित बादलों में कुछ ऐसे विषैले रासायनिक कण होते है जिनसे मानव तथा अन्य सभी जीव जन्तुओं और वनस्पति पर इसका घातक प्रभाव पड़ता है। मानव को श्वास प्रणाली संबंधित बीमारियों से भारत और चीन में प्रत्येक वर्ष लगभग साढ़े तीन लाख मनुष्यों की अकाल मृत्यु होती है।
ऐसा नहीं है कि ये घातक बादल सिर्फ एशिया के लिए ही संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न करते हैं। वास्तविक में तो हवा के बहाव में ये बादल तीन चार दिनों में एशिया जैसा विशाल महाद्वीप लांघकर कभी-कभी अन्य महाद्वीपों पर संकट बरसाने पहुंच जाते हैं। यह भूरे बादल उत्तर और दक्षिण अमरीका, योरप और दक्षिण अफ्रीका के ऊपर मंडराते देखे जाते हैं।

संयुक्त राष्टर संघ द्वारा प्रायोजित वैज्ञानिकों के अंर्तराष्टरीय समूह के सात वर्षों के विस्तृत शोध के उपरोक्त निष्कर्षों से यही चेतावनी मिल रही है कि पर्यावरण का प्रदूषण एक विश्वव्यापी विकराल संकट बन चुका है जिससे मानव समाज के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है।


इस संकट से उभरने के लिए संयुक्त राष्टर संघ, सभी देशों की सरकारों, उद्योगों और फैक्टरियां चलाने वाले औद्योगिक समूहों को इस संकटपूर्ण स्थिति से निपटने के लिए युद्धस्तर पर कारगर कदम उठाने के लिए कह ही रही है, परंतु इस चेतावनी से हम सभी को भी व्यक्तिगत स्तर पर भी इस बात का एहसास होना चाहिए कि अब हम ऐसे युग में पहुंच गए हैं कि पर्यावरण के प्रदूषण के कारण हमारा अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो गया है। अतएव हम सभी को निजी स्तर पर भी पर्यावरण को प्रदूषण से बचाए रखने के लिए सक्रिय रहना चाहिए। क्योंकि पर्यावरण की सुरक्षा सर्वोच्च मानवीय धर्म है।

जब गुलाब के फूल देखकर गदगद हुए कमलेश्वर

डायरी से/ 27 जनवरी पुण्यतिथि
जब गुलाब के फूल देखकर 
गदगद हुए कमलेश्वर
- महावीर अग्रवाल 
उनकी ऊर्जा समाज, पाठक व परिवेश है। वे तो महज हाथी के दांत हैं। खाने वाले तो पाठक हैं। वे जो कुछ लिखते हैं उनकी सामग्री समाज से ही मिलती है। उनका पूरा लेखन मनुष्य के लिए है।

मेरी बांछे खिल गई थीं उस दिन 12 जनवरी 2003 को जब 10-12 मित्रों के साथ संध्या समय कमलेश्वर मेरे घर पधारे थे। यह उन दिनों की बात है, जब बख्शी सृजनपीठ भिलाई के अध्यक्ष सतीश जायसवाल के आमंत्रण पर वे माधवराव सप्रे पर केंदित आयोजन में भिलाई आए थे। मेरी डायरी में लिखा हुआ है कमलेश्वर ने पहली सभा में 'गांधी, जिन्ना और अंबेडकर' की कथा सुनाकर जिस तरह तालियां बटोरीं वह चमत्कार से कम नहीं है। दूसरी सभा में जब उन्होंने 'हमलावार कौन' कथा प्रस्तुत की तो सन्नाटा छा गया। अध्यक्षीय आसंदी से अच्युतानंद मिश्र ने कमलेश्वर को बधाई देते हुए साधुवाद दिया। इसी बीच स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्यकार जमुना प्रसाद कसार ने अपनी पुस्तकें अतिथियों को भेंट की। सियाराम शर्मा, लोक बाबू, परमेश्वर वैष्णव, रवि श्रीवास्तव, विनोद मिश्र, गुलबीर सिंह भाटिया, घनश्याम त्रिपाठी, संतोष झांझी, प्रभा सरस, विद्या गुप्ता, मीना शर्मा और महेशचंद्र शर्मा सहित अनेक साथी आपस में चर्चा करते रहे- अभूतपूर्व कथाओं को प्रस्तुत करने में कमलेश्वर के निराले अंदाज में अनोखा परिष्कार ही नहीं मूल्यबद्धता का समर्पित संस्कार भी नजर आया।

कमलेश्वर लगातार दो दिनों तक साहित्यकारों और अपने पाठकों से घिरे रहे। अधिकांश लोगों ने अपने प्रिय लेखक से आटोग्राफ लिए व उनकी कहानियों, उपन्यासों के बारे में जमकर सवाल किए। कमलेश्वर ने अपनी चिरपरिचित शैली में तर्कसम्मत जवाब दिए। उन्हें जब एक बच्ची शुभी (बुशरा सबा खान) से मिलाया गया और यह बताया गया कि यह उनकी नई पाठिका हैं तो वे भावविह्वल हो गए। (सतीश जायसवाल ने 'इंद्रधनुष सचमुच' कहानी बच्ची शुभी पर लिखी और वह कहानी 'कथादेश' में छपी)।

दो दिनों के सफर और कई सत्रों के कार्यक्रम की मसरुफियत व थकान के बावजूद इकहत्तर वर्षीय कमलेश्वर की बातों में उनके साहित्य की तरह ताजगी व उत्साह दिखाई दे रहा था।

थकान, उकताहट या औपचारिकता का भाव कहीं नहीं था। उनसे पूछा कि आप इतना अच्छा व इतनी अधिक कहानियां कैसे लिख लेते हैं तो उन्होंने उलट कर प्रश्न किया कि बताओ मेरी उम्र क्या होगी?

किसी ने साठ किसी से पैंसठ कहा। पर जब कमलेश्वर ने अपनी उम्र इकहत्तर वर्ष बताई तो सभी चौंक पड़े। उन्होंने बताया कि उनकी ऊर्जा समाज, पाठक व परिवेश है। वे तो महज हाथी के दांत हैं। खाने वाले तो पाठक हैं। वे जो कुछ लिखते हैं उनकी सामग्री समाज से ही मिलती है। उनका पूरा लेखन मनुष्य के लिए है। कमलेश्वर ने बताया कि उनका उद्देश्य साहित्य से रोजी कमाना नहीं है। उनके पाठक उनकी असली पूंजी हैं। पाठक तो 'कितने पाकिस्तान' कृति के फोटो के भी दीवाने हैं। यह बात उन्हें संतुष्ट करती है। वे तो अपने लेखन के लिए कभी किसी से अपेक्षा नहीं करते। एक छात्रा ने पूछा कि क्या आप कभी किसी पाकिस्तानी राइटर से मिले हैं और वे भारत के बारे में कैसी राय रखते हैं। जवाब में कमलेश्वर ने बताया कि कई लेखकों से मिल चुके हैं। अहमद फराज, सुल्तान जावेद जैसे पाकिस्तानी लेखक भी भारत- पाक कटुता व आतंकवाद पर हमारी तरह ही इत्तफाक रखते हैं।

आतंकवाद से किसी का भला नहीं होने वाला है। एक छात्रा ने पूछा अव्यवस्था देखकर क्या आप राजनीति में जाना पसंद करेंगे? कमलेश्वर ने कहा, यदि राजनीति में गए तो वे भी राजनीतिकों की तरह सुख सुविधा से प्रभावित हो जाएंगे। वे अपना काम लेखन से कर रहे हैं और करते रहेंगे।

उन्होंने कहा वे कभी भी फिजूलखर्ची नहीं करते। एक छात्रा ने पूछा यदि आपको अपनी फिल्म 'आंधी' व 'मौसम' आज के परिवेश में दोबारा लिखने कहा जाए तो कैसे लिखेंगे? उन्होंने कहा ये दूसरी तरह की फिल्में थीं। आज एक दूसरी तरह की कहानी बनेगी। अभी इंदिरा गांधी पर पटकथा लिख रहा हूं। फिल्म बनने के बाद उसे देखकर आप सब समझ जाएंगे कि मैं फिल्म किस तरह लिखता हूं। कमलेश्वर ने कुछ अन्य सवालों के जवाब में बताया, कहानी हो, कविता हो या उपन्यास हो हर रचना में चाहे वह चित्रकला व मूर्तिकला क्यों न हो अस्मिता की तलाश व समकालीन मूल्यों का समाहित होना जरुरी है। हम एक जागरूक समाज के पक्षधर हैं और जागरुक नागरिक की तरह लेखक समाज का भी अपना देश होता है। दूसरे दिन पहले हम सब 4 बी, स्ट्रीट 33, सेक्टर-9, 'बख्शी सृजनपीठ' पहुंचे, वहां कहानीकार सतीश जायसवाल ने उनका भावभीना स्वागत किया। कमलेश्वर की सहजता और सरलता ने सबको अभिभूत कर दिया। समय बहुत कम था, इसलिए भागते-दौड़ते हुए कुछ मित्रों के साथ उनके प्रिय परदेशीराम वर्मा, कमलेश्वर को अपने घर ले गए, और फिर वे मेरे घर तक आए, जहां सतीश जायसवाल, अशोक सप्रे, परदेशीराम वर्मा, अशोक सिंघई, प्रशांत कानस्कर और विनोद साव ने मिल-बैठकर एक घंटे गपशप की।

घर की बनी हुई केसर की खीर तो कमलेश्वर जी ने बहुत कम खाई लेकिन नमकीन गुजिया और चटपटे आलू की चाट उन्हें बहुत पसंद आई। इतना ही नहीं किचन में पंहुच कर गृहणी से उन्होंने कहा आप सापेक्ष की प्रबंध सम्पादक हैं , आप सापेक्ष नाम के इस दीपक को हमेशा जलाए रखिएगा। फिर दिल्ली अपने घर आने का आमंत्रण भी दे दिया।

हमारे छोटे से बगीचे में 100 से अधिक गुलाबों की छटा देखने के काबिल थी। एक-एक पौधे में सात से सत्रह तक गुलाब के फूल मुस्कुरा रहे थे। काले गुलाब के साथ हल्दिया, गहरे व हल्के बैंगनी, सुर्ख लाल, पंचरंगी गुलाब, पीला, सफेद और इन्द्रधनुषी गुलाबों की रंगत देखकर कमलेश्वर गद्गद् हो गए। अंधेरा घिर आया था, मैंने फटाफट बाहर से बिजली के लट्टू जला दिए। उन्होंने कहा, महावीर जी इतने बड़े-बड़े और स्वस्थ गुलाब किसी के घर में मैंने बहुत कम देखे हैं। इतना सब मेन्टेन करने के लिए आपका पूरा परिवार बधाई का पात्र है। कमलेश्वर जी का छत्तीसगढ़ और मेरे घर आना आज भी जीवित हैं हमारी स्मृतियों के अंतरिक्ष में।

थप्पड़, सार्थक चर्चा


थप्पड़

-आलोक कुमार सातपुते

उस बस स्टैण्ड में तीन दयालु व्यक्ति, और एक कहीं से भी दयालु नहीं लगने वाला व्यक्ति बैठा था। इतने में एक बुढिय़ा अपने दोनों बेटों के विक्षिप्त होने के कारण दाने-दाने को मोहताज होने की जानकारी देते हुए रोने लगी। इस पर पहले दयालु ने कहा- 'तुम लोग भूखे मर रहे हो इसका यह अर्थ है कि, राज्य नीति-निर्देशक तत्वों का पालन नहीं कर रहा है, मैं इस बात को विधानसभा और लोकसभा तक ले जाऊंगा।'
दूसरे दयालु ने कहा - 'ये तुम्हारे गांव वालों के लिए शर्म की बात है कि उनके होते हुए एक परिवार भूख से मर रहा है।'
तीसरे दयालु ने कहा -'माई अब रोना-धोना बंद करो। मैं बड़ा ही भावुक किस्म का आदमी हूं। तुम्हें रोता देखकर मुझे भी रोना आ रहा है।'
चौथा व्यक्ति निस्पृह भाव से उनकी बातें सुनता रहा, और फिर उठकर वहां से चला गया। इस पर दयालु ने कहा- देखो तो, लोग एक शब्द सांत्वना के भी नहीं बोल सकते।
कुछ देर बाद वह व्यक्ति एक थैले में दस किलो चांवल लेकर आया, और बड़ी ही खामोशी से उस बुढिय़ा को थैला सौंप दिया। अचानक तीनों दयालुओं का हाथ अपने-अपने गालों तक पहुंच गया। उन्हें ऐसा लगा, जैसे किसी ने उन्हें झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया हो।
............

 सार्थक चर्चा
रेलवे प्लेटफार्म में एक सीट पर दो अपरिचित व्यक्ति बैठे
हुए हैं। टे्रन आने में कुछ समय है। उनके बीच
औपचारिक बातचीत का सिलसिला प्रारंभ होता है।
पहला - आप कहां सर्विस करते हैं?
दूसरा- जी मंत्रालय में... शिक्षा मंत्री के यहां।
पहला- अरे वाह। आप तो बड़े काम के आदमी हैं। मैं
शासकीय कालेज में हिन्दी विभाग का अध्यक्ष हूं ...
रमाकान्त (दुबे गर्व से)
दूसरा- जी मैं मंत्रालय में निहायत ही मामूली पद पर हूं।
मेरी पहचान एक लेखक के रूप में ही अधिक है।
पहला- किस तरह का लेखन करते हैं आप? मतलब
किस वाद से या विचारधारा से जुड़े हुए हैं?
दूसरा- जी मैं सार्थक लेखन में यकीन करता हूं।
पहला- मैं भी सार्थक चर्चा में यकीन करता हूं। वैसे आपका नाम क्या है?
दूसरा-जी अशोक।
पहला- अशोक और आगे?
दूसरा-अशोर घोरपड़े।
पहला- क्या गिर पड़े?
दूसरा- जी नहीं, घोरपड़े, जीएचओआर...
पहला- अच्छा-अच्छा ठीक है। वैसे आप हैं कहां से?
दूसरा-जी महाराष्ट्र से।
पहला- महाराष्ट्र में तो कई जातियां होती हैं...
आप ?
दूसरा-मेरी जाति का नाम आपकी समझ में नहीं आएगा।
पहला- खैर, कोई बात नहीं... आप एससी, एसटी,
ओबीसी या अन्य किस में आते हैं?
दूसरा- जी एसी में।
पहला (व्यंग्य में)- अच्छा तो आप एससी में आते है...।
(इतने में टे्रन आ जाती है)
पहला (चलते-चलते) - अच्छी सार्थक चर्चा हुई हमारे
बीच। वैसे मंत्रालय में जब भी सेटिंग की जरूरत
पड़ेगी, मै आपको कष्ट दूंगा।

भारतीय संस्कृति के उपासक क्लेजिओ

भारतीय संस्कृति के उपासक क्लेजिओ
- प्रताप सिंह राठौर

ली क्लेजिओ ने उपन्यासकार के तौर पर 1980 में डेजर्ट के साथ सफलता के सोपान की शुरुआत की। उनकी इस कृति के बारे में अकादमी ने कहा कि इसमें उत्तर अमेरिकी रेगिस्तान में खो चुकी संस्कृति के जबर्दस्त बिंब हैं जिसमें यूरोप का निरूपण अवांछित प्रवासियों की आंखों के जरिए किया गया है। ली क्लेजिओ ने इसी कृति के लिए फ्रांसीसी अकादमी से पुरस्कार भी जीता था। स्वीडन की अकादमी के अनुसार ली क्लेजिओ शुरुआत से ही पारिस्थितिकी के पक्षधर लेखक के तौर पर सामने आते हैं जिनका झुकाव द बुक ऑफ लाइट और द जायंट में दिखाई देता है।
क्लेजिओ को भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है अत: वे उपनिषदों का खुल कर उपयोग करते हैं। क्लेजिओ दार्शनिक भी है और भारतीय दर्शन से बहुत प्रभावित हैं।

स्वीडन की साहित्य अकादमी ने वर्ष 2008 के साहित्य का नोबेल पुरस्कार के लिए ज्यां-मरी गस्ताव ली क्लेजिओ को नामांकित करके विश्व के साहित्य जगत को चौंका दिया है। कारण है कि फ्रेंच साहित्य जगत के बाहर क्लेजिओ का नाम शायद ही किसी ने सुना हो और फ्रेंच साहित्य के पाठकों में से भी बहुत ही कम संख्या में इनके प्रशंसक रहे हैं।

लेकिन साहित्य के विद्यार्थी क्लेजिओ को वर्तमान में फ्रेंच साहित्य का सर्वोत्तम साहित्यकार मानते है। अब नोबेल पुरस्कार पाने के बाद क्लेजिओ की पुस्तकों की मांग बढ़ी है तो पाठकों को इस दार्शनिक उपन्यासकार की साहित्यक उत्कृष्टता को स्वीकार करना पड़ा है। नोबेल पुरस्कार देते हुए क्लेजिओ की प्रशस्ति में कहा गया है कि इन्होंने वर्तमान काल की सबसे प्रभावी सभ्यता (पाश्चात्य सभ्यता) से बाहर निकल कर अन्य सभ्यताओं में विकसित मानवता में शोध किया है।

पश्चिमी सभ्यता में जन्म लेने के बावजूद क्लेजिओ के वैश्विक दृष्टिकोण से समृद्ध होने का कारण उनके जीवनी से मिलता है। 68 वर्षीय क्लेजिओ एक अंग्रेज डाक्टर पिता और फ्रेंच मां की संतान हैं। उनका जन्म तो फ्रांस में हुआ परंतु 8 वर्ष की उम्र में अपने पिता के साथ आफ्रीका चले गए। क्लेजिओ की शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में हुई। क्लेजिओ कई वर्षों तक पनामा (दक्षिणी अमरीका) में आदिवासियों के बीच रहकर उनकी सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन करते रहे। इन दिनों क्लेजिओ अमरीका में निवास करते हैं परंतु वास्तव में क्लेजिओ प्रकृति से यायावर हैं अत: दुनियाभर के देशों में भ्रमण करते रहते हैं। इसी कारण से क्लेजिओ अपने को किसी एक देश का मानने के बजाय विश्व का नागरिक मानते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे में क्लेजिओ का दृष्टिकोण वैश्विक है। जब भी उनसे पूछा जाता है कि वह किस देश के नागरिक है तो वह किसी देश की सीमाओं में अपने अस्तित्व को बांधने से इन्कार करते हुए कहते हैं कि बस फ्रेंच भाषा ही एकमात्र ऐसी है जिसके प्रति वे पूर्णतया प्रतिबद्ध हैं। इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में पढऩे के कारण क्लेजिओ अंग्रेजी भाषा पर भी समान अधिकार रखते हैं। फिर भी क्लेजिओ अपनी साहित्य रचनाएं सिर्फ फ्रेंच भाषा में रचते हैं। वे कहते हैं, अंग्रेजी भाषा से, उन्हें साम्राज्यवाद की बू आती है।

क्लेजिओ को भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है अत: वे उपनिषदों का खुल कर उपयोग करते हैं। क्लेजिओ दार्शनिक भी हैं और भारतीय दर्शन से बहुत प्रभावित हैं। 1967 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'मैटीरियल एक्सटैसीÓ में क्लेजिओ ने मुन्डक उपनिषद और ऋगवेद इत्यादि से विस्तृत उद्धहरण दिए हैं। 1969 में प्रकाशित पुस्तक 'द बुक ऑफ लाइट्स' में क्लेजिओ लोभ, दोष की चर्चा करते हुए मोह को सब खराबियों की जड़ बताते हैं। 1985 में प्रकाशित उपन्यास 'द मिसर्फाच्युन स्ट्राइक्स एट नाइट' में क्लेजिओ ने दस्यु अंगुलीमाल के गौतम बुद्ध के शरण में आने के वृत्तांत का उल्लेख किया है। 1985 में ही प्रकाशित उपन्यास 'द प्रासपेक्टर' में शुक और सारिका के आख्यान के साथ-साथ भारतीय नारी की प्रशंसा में वे लिखते हैं 'परंपराओं से आभूषित और प्रकृति में रमी भारतीय नारी का सौन्दर्य और गरिमा झलकती है।' इस प्रकार के असंख्य उदाहरण क्लेजिओ की रचनाओं में बिखरे हुए हैं।

क्लेजिओ की भारतीय सभ्यता और संस्कृतिक से अतरंग प्रेम की जड़ें बहुत गहरी है। मां की शाखा से क्लेजिओ के एक पूर्वज 1789 की फ्रेंच क्रांति में गायब हो गए थे। उस समय तक फ्रांसीसी भारत में पांडिचेरी में पांव जमा चुके थे। अत: क्लेजिओ के पूर्वजों ने परिवार के उस सदस्य की खोज में भारत की यात्रा करने का निर्णय लिया और समुद्री जहाज से चल पड़े। लेकिन मारिशस पहुंचते तक उनका उत्साह काफूर हो चुका था और वे मारिशस में ही बस गए। मारिशस भारत से गिरमिटिया मजदूरों से भरा हुआ था। ये भारतीय अपने साथ अत्यंत समृद्ध भारतीय संस्कृति भी ले गये थे। क्लेजिओ को भारतीय संस्कृति से परिचय मारिशस में प्राप्त हुआ और एक स्थायी प्रेम संबंध में परिवर्तित हो गया। क्लेजिओ की रचनात्मक प्रतिभा और दर्शन मुख्यतया भारतीय दर्शन और संस्कृति से प्रेरित है परंतु उन्होंने अन्य संस्कृतियों में भी शोध किया है। अपने 1980 में प्रकाशित प्रसद्धि उपन्यास 'डेजर्टÓ में क्लेजिओ योरप के भौंडेपन और अज्ञान की तुलना सहारा की विलुप्त तुआरेग कबीले की संस्कृति की उत्कृष्टता से की है। ज्ञात हो कि फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों ने तुआरेग संस्कृति नष्ट कर दी थी।


क्लेजिओ ने लगभग 30 उपन्यास लिखे हैं जिनमें से अभी तक 12 उपन्यास अंगे्रजी में अनुवादित किए जा चुके हैं। ऊपर उनकी जिन किताबों का उल्लेख किया गया है वे उनकी किताबों के अंग्रेजी नाम ही हैं। अब तो उनके सभी उपन्यासों के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध हो जाएंगे जिससे बहुत बड़ी संख्या में लोगों को क्लेजिओ की विलक्षण प्रतिभा से परिचय प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। क्लेजिओ कहते हैं कि वह अपने लेखन में प्रत्येक दिन और प्रत्येक घटना से अपने संबंध का निरुपण करते हैं। उनके अनुसार हम ऐसे संकटपूर्ण युग में जी रहे हैं जिसमें नित्य विचारों और दृश्यों के शोर- शराबे की बमबारी होती रहती है। अत: क्लेजिओ के अनुसार आज साहित्य का उद्देश्य शायद इसी शोर- शराबे को प्रतिध्वनित करना है।

उनकी सबसे हालिया कृतियों में 2007 की बैलेसिनर शामिल है जिसे स्वीडन अकादमी ने उनके जीवन में फिल्म कला के इतिहास और फिल्म के महत्व के बारे में निजी आलेख करार दिया। उनकी पुस्तकों में बच्चों के लिए कई कहानियां भी शामिल हैं जिनमें 1980 की ललेबी और 1985 की बलाबिलोउ प्रमुख हैं। उम्मीद है कि क्लेजिओ की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी शीघ्र ही उपलब्ध होंगे।
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