छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के परिणाम जनता के सोच के अनुरूप ही रहा। मतदाताओं ने अपने मन की टोह लेने की अनुमति किसी को नहीं दी।
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चुनाव घोषणा के पहले से ही कांग्रेस ने यदि तीन रुपए किलो चाव की योजना को चुनावी स्टंट कहना प्रारंभ कर दिया था तो भाजपा के लिए यह निश्चित रूप से चुनावी मुद्दा रहा।
चुनाव घोषणा के पहले अलग से ही कांग्रेस ने यदि तीन रुपए किलो चावल की योजना को चुनावी स्टंट कहना प्रारंभ कर दिया था तो भाजपा के लिए यह निश्चित रूप से चुनावी मुद्दा रहा। कांग्रेस की यह आलोचना गांव के लोगों तक को सुनाई दी और उन्हें ऐसा गा जैसे सस्ते में गरीबों को चाव मिना कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। कुछ लोग उल्टे गांव वालों के परिश्रम पर सवाल उठाने लगे कि इस सस्ते चावल के चलते मजदूर काम करने शहर नहीं आ रहे हैं। इस बात ने भी ग्रामीणों को तकलीफ पहुंचाई। भाजपा ने भी इसे एक हर के रूप में स्वीकार कर लिया, यहां तक कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को चाउंर वो बबा का संबोधन चाहे किसी ने दिया या न दिया हो लेकिन भाजपा ने इसे बहुत सहजता से चुनाव प्रचार में उपयोग किया। उधर कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को हथियार की तरह उपयोग के लिए कमर कस ली थी। लेकिन भ्रष्टाचार को प्रमाणित करने के लिए जो धार चाहिए थी उनके हथियारों में नदारत रही। मतदाताओं को संभवत: पूर्व मुख्यमंत्री जोगी के द्वारा भ्रष्टाचार का विरोध करना उतना रास नहीं आया, किंतु दूसरी ओर भ्रष्टाचार की अति जहां और जिससे हुई वहां मतदाताओं ने संबंधित प्रत्याशी को अवश्य ही उसकी सजा दी। मुद्दों को तय करते वक्त कांग्रेस से एक गलती अवश्य हुई है, एक तरह उन्होंने तीन रूपए चावल की योजना का वादा जोडक़र भाजपा के ही मुद्दे को मजबूत कर दिया।
शहरी मतदाताओं को, इलेक्ट्रानिक चैन में जोगी की बॉडी लेग्वैंज और उनका यह कहना कि हां वे तानाशाह है, (5 प्रतिशत भ्रष्टाचार एवं जमाखोरी करने वो के लिए) संभवत: भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी बड़े नेता द्वारा पहली बार अपने को खुलेआम तानाशाह घोषित किया गया। प्रबुद्ध लोगों का कहना यह था कि कैसे कोई बड़ी पार्टी का बड़ा नेता अपने को जाहिर तौर पर तानाशाह कह सकता है? जमाखोर एवं भ्रष्टाचारी कोई सर्टिफिकेट धारी नहीं होते अत: उस 5 प्रतिशत के बहाने जोगी किसी निरीह व्यक्ति के लिए तानाशाह नहीं होंगे इसकी क्या गारंटी है? इस कथन ने व्यापारियों के एक बड़े वर्ग को नाराज किया। दूसरी तरफ जहां-जहां भी जोगी के मुखा-मुखी डॉ. रमन सिंह हुए वहां-वहां डॉ. रमन की सादगी, शालीनता और संतुलन ने जनता को प्रभावित किया।
भाजपा अपनी पुरानी ताकत को दोहराने जा रही है यह कयास भी स्पष्टत: लोग नहीं गा पा रहे थे इसके पीछे निश्चित रूप से मतदाताओं की चुप्पी, कारक थी। इसके इतर मतदान का अधिक प्रतिशत पारंपरिक विश्लेषणों को यह आभास दे रहा था कि यह मतदान प्रतिशत संभवत: व्यवस्था विरोधी मत ही है, जो कांग्रेस के खेमे में गए। परिणाम आने के बाद मतदाताओं से बातचीत होने पर अधिक मतदान का जो खुलासा हुआ वह यह है कि वर्षो बाद पही बार एटीएम कार्ड की तरह खूबसूरत मतपत्र मिले थे जिसे उपयोग में लाने का उत्साह बड़े पैमाने पर मतदान का कारक बने। सभी राजनैतिक दों ने इस बार ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को बूथ तक लाने की मेहनत भी की थी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ की आम जनता में राजनैतिक चेतना का विकास भी अपेक्षित स्तर पर हुआ। इस क्रम का जारी रहना ही लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है।
इस बार बसपा ने जितने जोर शोर से अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे उसकी तुना में उनकी प्राप्ति न के बराबर रही, केव दो सीटों में ही वे सिमट के रह गए। इसके कारणों की व्याख्या में लोग बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में बसपा का जनाधार अकेले अपने बूते पर अभी भी नहीं बन पाया है, यह किसी दूसरी बड़ी पार्टी के साथ जुडऩे पर ही अपनी सीट बढ़ा पाएगी। छत्तीसगढ़ बसपा में बड़े कद के नेता का अभाव भी एक दूसरा कारण है। इसी क्रम में एनसीपी इस बार कांग्रेस के साथ मिकर तीन सीट में चुनाव डऩे के बाद भी एक भी सीट नहीं निका पाई। इससे साफ हो गया कि एनसीपी का वजूद भी छत्तीसगढ़ में न के बराबर है। इसी तरह स्वतंत्र प्रत्याशियों को जनता ने तवज्जों नहीं दी। स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में दोनों ही बड़ी पार्टियों के बागियों ने बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। न ही वे परिणाम को प्रभावित कर पाए न ही जीत पाए।
दोनों ही बड़ी पार्टियों ने विज्ञापन तंत्र के जरिए मीडिया में समान रूप से जगह बनाई किंतु विज्ञापन भी समाचार की तर्ज पर छपे होने के कारण पाठकों को धुंधके से बाहर नहीं ला पाए अर्थात स्थानीय अखबारों को पढक़र कोई भी पाठक परिणामों के विषय में पूर्वानुमान नहीं लगा पा रहा था।
ग्रामीण मतदाताओं को इलेक्ट्रानिक चैनल से कोई भी वास्ता नहीं रहा। वे अपने आसपास खेती-किसानी से लेकर सडक़, बिजली, पानी की सुविधा और धान के समर्थन मूल्य के मुद्दों पर भाजपा से काफी कुछ आश्वस्त थे। वे पिछे पांच वर्ष से कांग्रेस एवं दिगर पार्टियों से उनकी वांछित भूमिका की भी बाट जोह रहे थे, मगर देख समझ रहे थे कि कांग्रेस में आपसी खींचतान की ड़ाई टिकट वितरण तक जारी रही। एक ही पार्टी के तीन अध्यक्ष हो गए, एक के साथ दो कार्यकारी, बोनस में महेन्द्र कर्मा के तेवर एकदम अग थे। वी.सी. शुक्ल बिना पद पासंग की तरह समायोजन के लिए रखे जरूर गए थे लेकिन वे भी प्रभावी नहीं रहे। ऐन चुनाव के वक्त भ्रष्टाचार का आरोप, जो विधानसभा के पट पर कमजोर प्रमाणों के चलते दम तोड़ चुका हो जनता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया। यहां पर एक बात अवश्य विचारणीय है कि नए छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में बिताए अपने तीन सा में जोगी अपनी टीम में सभी सकारात्मक एवं नकारात्मक बातों के लिए जिम्मेदार रहे किंतु बाद के पांच वर्ष के भाजपाई शासन में अकेले मुख्यमंत्री पूरे पार्टी की ओर से बेहतर छवि का निर्वाह कर रहे थे, भे ही पार्टी के कुछ सदस्यों पर दाग-धब्बों के आरोप लगे। दोनों ही मुख्यमंत्री की छवि में इस मूलभूत अंतर को भी आंका गया।
व्यवस्था विरोध की हर बिल्कुल नहीं चली । न ही सलवा जुडुम का मुद्दा भाजपा के खिलफ गया। इसके उलट सरगुजा और बस्तर में जो कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र हैं ने मतों के जरिए भाजपा को पूर्ण समर्थन दिया। बस्तर में कवासी लखमा की सीट पर विवाद का साया अभी भी हटा नहीं। ऐसी परिस्थिति में यदि मतदाताओं के बहुमत को आधार बनाया जाए तो सलवा जुडुम जो आदिवासियों का स्वत:स्फूर्त आंदोलन था उसे तमाम वाममार्गीय कोशिशों के बावजूद व्यापक सहमति मिली ।
अब यहां पर प्रश्न यह उठ सकता है कि महेन्द्र कर्मा को बलि क्यों देनी पड़ी? राजनीतिक समीकरण बताते हैं कि कभी-कभी सच्चाई का साथ देने की कीमत किसी न किसी को चुकानी पड़ती है। भे ही अकेले महेन्द्र कर्मा सलवा जुडुम के साथ थे किंतु उनकी पार्टी, कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से सलवा जुडुम का समर्थन नहीं किया। जोगी एक कांग्रेसी लीडर की हैसियत से सलवा जुडुम का खुलकर विरोध कर रहे थे। यही नहीं इस चुनाव ने जोगी की आदिवासी मुख्यमंत्री वाली कुटनीतिक मांग को भी ध्वस्त किया। यह बात जाहिरी तौर पर स्पष्ट है कि सलवा जुडुम के मसले में नक्सल गतिविधियों के चलते बेघर हुए लोगों के लिए शिविर की व्यवस्था किसी भी सरकार को करनी ही पड़ती। यदि आज ये शिविर बंद कर दिए जाएं और फिर से आदिवासी नक्सली हमलें के शिकार हों तो फिर विपक्ष में चाहे कोई भी हो, वह मानवीय संवदेना का मुद्दा उठायेगा।
भाजपा को अपनी सोशल इंजीनियरिंग एवं गांव-गांव तक विकास की धमक पहुंचाने की ललक और निश्चित रूप से चावल की महक ने अपनी पारी दोहराने का अवसर प्रदान किया। इन तमाम उपब्धियों के साथ डॉ. रमन सिंह की छवि ने भ्रष्टाचार के आरोपों को भी निरूत्साहित करने में सफलता पाई।
इन परिस्थितियों के विश्लेषण करने पर पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के चुनाव समीकरण में अभी भी भाजपा और कांग्रेस ही दो प्रमुख प्रतिद्वंदी है और अब जनहित के छोटे-छोटे मुद्दे ही भविष्य के चुनाव में जीत हार के प्रमुख कारक साबित होंगे।
अविभाजित मध्यप्रदेश में जो कुछ भी छत्तीसगढ़ के हाथ लगा था वह मध्यप्रदेश के उतरन जैसा था। लेकिन पिछले पांच वर्ष में ढांचागत विकास के नाम पर सडक़, बिजली एवं पानी को छोड़ दें तो बड़े उद्योगों के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठे। अभी भी छत्तीसगढ़ में बड़े उद्योगों के खाते में सिर्फ दो नाम हैं बाल्को एवं जिंदल। जबकि बड़े उद्योगों से जुड़ती हैं रोजगार की संभावनाएं। रोजगार के क्षेत्र में भी नई सरकार से ढेर सी अपेक्षाएं हैं। आईटी उद्योग पर सरकार की नजर अभी भी स्पष्ट नहीं है। जबकि छत्तीसगढ़ में आईटी आधारित उद्योग की संभावना बहुत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी अपेक्षित ऊंचाई तक आना अभी शेष है।
आज के युग में कोई भी मनुष्य चाहे कितनी भी ऊंची कुर्सी पर बैठा हो उसे अगर अपनी छवि की चिंता है तो अपनी छवि बचाने की कीमत हर व्यक्ति को चुकानी पड़ती है यह कीमत किस स्वरूप में हो यह समय तय करता है व्यक्ति नहीं। इन परिस्थितियों में अपनी छवि को डॉ. रमन सिंह कितनी कुशलता से बनाए रखते हैं, यह आगामी पांच सालों में छत्तीसगढ़ भाजपा सरकार की नियति को भी तय करेगा।
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चुनाव घोषणा के पहले से ही कांग्रेस ने यदि तीन रुपए किलो चाव की योजना को चुनावी स्टंट कहना प्रारंभ कर दिया था तो भाजपा के लिए यह निश्चित रूप से चुनावी मुद्दा रहा।
-परितोष चक्रवर्ती
छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे देश में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के विषय में यह बात फै चुकी है कि वे सहज, सर एवं बेदाग हैं। उनके पिछेल पांच वर्ष के कार्यकाल में उनके सहयोगी मंत्रियों के नाम पर कुछ आरोप-प्रत्यारोप गे जरुर लकिन मतदाताओं ने इस पर नोटिस नहीं मिला । खतरा यह है कि इस बार के मंत्रिमंडल में शामिल सहयोगी यदि यह मानकर चले कि जिस तरह चुनाव के समय जनता ने अन्य मंत्रियों पर लगे आरोपों का नोटिस नहीं मिला था, इस बार भी नहीं लेगें। तो ऐसे मुगाते वे न ही पालें तो अच्छा।
मुख्यमंत्री ने चुनाव के नतीजे आते ही अपने वक्तव्य में एक महत्वपूर्ण बात कही है- 'कोटवार से लेकर मुख्यमंत्री तक जवाबदेही तय की जाएगी।' संभवत: डॉ. रमन सिंह को इस वक्तव्य की पृष्ठभूमि में उपस्थित चुनौतियों का आभास अवश्य होगा। यदि इसके अनुपान में कड़ाई बरती जावेगी तो जो मंजर सामने आने लगेंगे उनका समायोजन बेहद कठिन कार्य होगा। पिछले मंत्रिमंडल में जब उन्होंने पहली बार फेरबद किया था तब की परिस्थितियों को वे भूले नहीं होंगे। ग्राम सुराज अभियान के समय जितने आवेदन पत्र इकट्ठे होते थे उन सभी पर नौकरशाहों द्वारा कार्यवाही नहीं होती थी इसकी जानकारी मिने के बाद दूसरे दौर में उन्होंने विकास यात्रा की योजना बनाकर, अधिकारियों को एक तरह से बाध्य किया जाना ने भी उनके अनुभवों को और पुख्ता किया। लेकिन विरासत में इस नई सरकार में भी उन्हें वे ही अधिकारी मिले हैं और उन्हीं कंधें पर जवाबदेही को टिकाना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा।
सारे कयासों को एक तरफ रखकर छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के परिणाम जनता की सोच के अनुरूप ही रहा। छत्तीसगढ़ में मीडिया एवं छत्तीसगढ़ के चुनाव समीक्षकों के लिए इस बार के चुनाव परिणामों को लेकर एक धुंधलका सा भी बना हुआ था। लेकिन प्रदेश के मतदाताओं ने अपेक्षित एवं परिपक्व व्यवहार किया। चुनाव से पहले मतदाताओं ने अपने मन की टोह लेने की अनुमति किसी को नहीं दी। किंतु पहले चरण के मतदान के बाद अचानक कांग्रेसी खेमे के उत्साह में बहुत वृद्धि हो गई। छत्तीसगढ़ में ही नहीं मध्यप्रदेश और दिल्ली तक के कांग्रेस हितैषी चेहरों पर एक सुकून तैरने गा था। कुछ ऐसे समीक्षक भी थे जो पहले चरण के मतदान के पहले तक भाजपा के जीतने की भविष्यवाणी कर रहे थे बाद में उन्होंने भी अपने को सिकोड़ लिया . अंतिम चरण के मतदान के संपन्न होने के बाद के अट्ठारह दिन दोनों तरफ के राजनीतिज्ञों के रात-दिन काफी तनाव में गुजरे। अंतत: जो परिणाम आए उसे देखते हुए साफ तौर पर कहा जा सकता है कि एकीकृत मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ के मतदाता अब पूर्णत: जागृत मतदाता की श्रेणी में आकर अपने स्वयं के मुद्दे तय करने की स्थिति में आ गए हैं। चुनाव घोषणा के पहले अलग से ही कांग्रेस ने यदि तीन रुपए किलो चावल की योजना को चुनावी स्टंट कहना प्रारंभ कर दिया था तो भाजपा के लिए यह निश्चित रूप से चुनावी मुद्दा रहा। कांग्रेस की यह आलोचना गांव के लोगों तक को सुनाई दी और उन्हें ऐसा गा जैसे सस्ते में गरीबों को चाव मिना कांग्रेस को रास नहीं आ रहा है। कुछ लोग उल्टे गांव वालों के परिश्रम पर सवाल उठाने लगे कि इस सस्ते चावल के चलते मजदूर काम करने शहर नहीं आ रहे हैं। इस बात ने भी ग्रामीणों को तकलीफ पहुंचाई। भाजपा ने भी इसे एक हर के रूप में स्वीकार कर लिया, यहां तक कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को चाउंर वो बबा का संबोधन चाहे किसी ने दिया या न दिया हो लेकिन भाजपा ने इसे बहुत सहजता से चुनाव प्रचार में उपयोग किया। उधर कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को हथियार की तरह उपयोग के लिए कमर कस ली थी। लेकिन भ्रष्टाचार को प्रमाणित करने के लिए जो धार चाहिए थी उनके हथियारों में नदारत रही। मतदाताओं को संभवत: पूर्व मुख्यमंत्री जोगी के द्वारा भ्रष्टाचार का विरोध करना उतना रास नहीं आया, किंतु दूसरी ओर भ्रष्टाचार की अति जहां और जिससे हुई वहां मतदाताओं ने संबंधित प्रत्याशी को अवश्य ही उसकी सजा दी। मुद्दों को तय करते वक्त कांग्रेस से एक गलती अवश्य हुई है, एक तरह उन्होंने तीन रूपए चावल की योजना का वादा जोडक़र भाजपा के ही मुद्दे को मजबूत कर दिया।
शहरी मतदाताओं को, इलेक्ट्रानिक चैन में जोगी की बॉडी लेग्वैंज और उनका यह कहना कि हां वे तानाशाह है, (5 प्रतिशत भ्रष्टाचार एवं जमाखोरी करने वो के लिए) संभवत: भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी बड़े नेता द्वारा पहली बार अपने को खुलेआम तानाशाह घोषित किया गया। प्रबुद्ध लोगों का कहना यह था कि कैसे कोई बड़ी पार्टी का बड़ा नेता अपने को जाहिर तौर पर तानाशाह कह सकता है? जमाखोर एवं भ्रष्टाचारी कोई सर्टिफिकेट धारी नहीं होते अत: उस 5 प्रतिशत के बहाने जोगी किसी निरीह व्यक्ति के लिए तानाशाह नहीं होंगे इसकी क्या गारंटी है? इस कथन ने व्यापारियों के एक बड़े वर्ग को नाराज किया। दूसरी तरफ जहां-जहां भी जोगी के मुखा-मुखी डॉ. रमन सिंह हुए वहां-वहां डॉ. रमन की सादगी, शालीनता और संतुलन ने जनता को प्रभावित किया।
भाजपा अपनी पुरानी ताकत को दोहराने जा रही है यह कयास भी स्पष्टत: लोग नहीं गा पा रहे थे इसके पीछे निश्चित रूप से मतदाताओं की चुप्पी, कारक थी। इसके इतर मतदान का अधिक प्रतिशत पारंपरिक विश्लेषणों को यह आभास दे रहा था कि यह मतदान प्रतिशत संभवत: व्यवस्था विरोधी मत ही है, जो कांग्रेस के खेमे में गए। परिणाम आने के बाद मतदाताओं से बातचीत होने पर अधिक मतदान का जो खुलासा हुआ वह यह है कि वर्षो बाद पही बार एटीएम कार्ड की तरह खूबसूरत मतपत्र मिले थे जिसे उपयोग में लाने का उत्साह बड़े पैमाने पर मतदान का कारक बने। सभी राजनैतिक दों ने इस बार ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को बूथ तक लाने की मेहनत भी की थी। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि छत्तीसगढ़ की आम जनता में राजनैतिक चेतना का विकास भी अपेक्षित स्तर पर हुआ। इस क्रम का जारी रहना ही लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है।
इस बार बसपा ने जितने जोर शोर से अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे उसकी तुना में उनकी प्राप्ति न के बराबर रही, केव दो सीटों में ही वे सिमट के रह गए। इसके कारणों की व्याख्या में लोग बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में बसपा का जनाधार अकेले अपने बूते पर अभी भी नहीं बन पाया है, यह किसी दूसरी बड़ी पार्टी के साथ जुडऩे पर ही अपनी सीट बढ़ा पाएगी। छत्तीसगढ़ बसपा में बड़े कद के नेता का अभाव भी एक दूसरा कारण है। इसी क्रम में एनसीपी इस बार कांग्रेस के साथ मिकर तीन सीट में चुनाव डऩे के बाद भी एक भी सीट नहीं निका पाई। इससे साफ हो गया कि एनसीपी का वजूद भी छत्तीसगढ़ में न के बराबर है। इसी तरह स्वतंत्र प्रत्याशियों को जनता ने तवज्जों नहीं दी। स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में दोनों ही बड़ी पार्टियों के बागियों ने बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। न ही वे परिणाम को प्रभावित कर पाए न ही जीत पाए।
दोनों ही बड़ी पार्टियों ने विज्ञापन तंत्र के जरिए मीडिया में समान रूप से जगह बनाई किंतु विज्ञापन भी समाचार की तर्ज पर छपे होने के कारण पाठकों को धुंधके से बाहर नहीं ला पाए अर्थात स्थानीय अखबारों को पढक़र कोई भी पाठक परिणामों के विषय में पूर्वानुमान नहीं लगा पा रहा था।
ग्रामीण मतदाताओं को इलेक्ट्रानिक चैनल से कोई भी वास्ता नहीं रहा। वे अपने आसपास खेती-किसानी से लेकर सडक़, बिजली, पानी की सुविधा और धान के समर्थन मूल्य के मुद्दों पर भाजपा से काफी कुछ आश्वस्त थे। वे पिछे पांच वर्ष से कांग्रेस एवं दिगर पार्टियों से उनकी वांछित भूमिका की भी बाट जोह रहे थे, मगर देख समझ रहे थे कि कांग्रेस में आपसी खींचतान की ड़ाई टिकट वितरण तक जारी रही। एक ही पार्टी के तीन अध्यक्ष हो गए, एक के साथ दो कार्यकारी, बोनस में महेन्द्र कर्मा के तेवर एकदम अग थे। वी.सी. शुक्ल बिना पद पासंग की तरह समायोजन के लिए रखे जरूर गए थे लेकिन वे भी प्रभावी नहीं रहे। ऐन चुनाव के वक्त भ्रष्टाचार का आरोप, जो विधानसभा के पट पर कमजोर प्रमाणों के चलते दम तोड़ चुका हो जनता को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया। यहां पर एक बात अवश्य विचारणीय है कि नए छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में बिताए अपने तीन सा में जोगी अपनी टीम में सभी सकारात्मक एवं नकारात्मक बातों के लिए जिम्मेदार रहे किंतु बाद के पांच वर्ष के भाजपाई शासन में अकेले मुख्यमंत्री पूरे पार्टी की ओर से बेहतर छवि का निर्वाह कर रहे थे, भे ही पार्टी के कुछ सदस्यों पर दाग-धब्बों के आरोप लगे। दोनों ही मुख्यमंत्री की छवि में इस मूलभूत अंतर को भी आंका गया।
व्यवस्था विरोध की हर बिल्कुल नहीं चली । न ही सलवा जुडुम का मुद्दा भाजपा के खिलफ गया। इसके उलट सरगुजा और बस्तर में जो कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र हैं ने मतों के जरिए भाजपा को पूर्ण समर्थन दिया। बस्तर में कवासी लखमा की सीट पर विवाद का साया अभी भी हटा नहीं। ऐसी परिस्थिति में यदि मतदाताओं के बहुमत को आधार बनाया जाए तो सलवा जुडुम जो आदिवासियों का स्वत:स्फूर्त आंदोलन था उसे तमाम वाममार्गीय कोशिशों के बावजूद व्यापक सहमति मिली ।
अब यहां पर प्रश्न यह उठ सकता है कि महेन्द्र कर्मा को बलि क्यों देनी पड़ी? राजनीतिक समीकरण बताते हैं कि कभी-कभी सच्चाई का साथ देने की कीमत किसी न किसी को चुकानी पड़ती है। भे ही अकेले महेन्द्र कर्मा सलवा जुडुम के साथ थे किंतु उनकी पार्टी, कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से सलवा जुडुम का समर्थन नहीं किया। जोगी एक कांग्रेसी लीडर की हैसियत से सलवा जुडुम का खुलकर विरोध कर रहे थे। यही नहीं इस चुनाव ने जोगी की आदिवासी मुख्यमंत्री वाली कुटनीतिक मांग को भी ध्वस्त किया। यह बात जाहिरी तौर पर स्पष्ट है कि सलवा जुडुम के मसले में नक्सल गतिविधियों के चलते बेघर हुए लोगों के लिए शिविर की व्यवस्था किसी भी सरकार को करनी ही पड़ती। यदि आज ये शिविर बंद कर दिए जाएं और फिर से आदिवासी नक्सली हमलें के शिकार हों तो फिर विपक्ष में चाहे कोई भी हो, वह मानवीय संवदेना का मुद्दा उठायेगा।
भाजपा को अपनी सोशल इंजीनियरिंग एवं गांव-गांव तक विकास की धमक पहुंचाने की ललक और निश्चित रूप से चावल की महक ने अपनी पारी दोहराने का अवसर प्रदान किया। इन तमाम उपब्धियों के साथ डॉ. रमन सिंह की छवि ने भ्रष्टाचार के आरोपों को भी निरूत्साहित करने में सफलता पाई।
इन परिस्थितियों के विश्लेषण करने पर पता चलता है कि छत्तीसगढ़ के चुनाव समीकरण में अभी भी भाजपा और कांग्रेस ही दो प्रमुख प्रतिद्वंदी है और अब जनहित के छोटे-छोटे मुद्दे ही भविष्य के चुनाव में जीत हार के प्रमुख कारक साबित होंगे।
अविभाजित मध्यप्रदेश में जो कुछ भी छत्तीसगढ़ के हाथ लगा था वह मध्यप्रदेश के उतरन जैसा था। लेकिन पिछले पांच वर्ष में ढांचागत विकास के नाम पर सडक़, बिजली एवं पानी को छोड़ दें तो बड़े उद्योगों के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठे। अभी भी छत्तीसगढ़ में बड़े उद्योगों के खाते में सिर्फ दो नाम हैं बाल्को एवं जिंदल। जबकि बड़े उद्योगों से जुड़ती हैं रोजगार की संभावनाएं। रोजगार के क्षेत्र में भी नई सरकार से ढेर सी अपेक्षाएं हैं। आईटी उद्योग पर सरकार की नजर अभी भी स्पष्ट नहीं है। जबकि छत्तीसगढ़ में आईटी आधारित उद्योग की संभावना बहुत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी अपेक्षित ऊंचाई तक आना अभी शेष है।
आज के युग में कोई भी मनुष्य चाहे कितनी भी ऊंची कुर्सी पर बैठा हो उसे अगर अपनी छवि की चिंता है तो अपनी छवि बचाने की कीमत हर व्यक्ति को चुकानी पड़ती है यह कीमत किस स्वरूप में हो यह समय तय करता है व्यक्ति नहीं। इन परिस्थितियों में अपनी छवि को डॉ. रमन सिंह कितनी कुशलता से बनाए रखते हैं, यह आगामी पांच सालों में छत्तीसगढ़ भाजपा सरकार की नियति को भी तय करेगा।
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