होशंगाबाद से पचमढ़ी के सडक़ रास्ते कोई चालीस किलोमीटर दूर है सोहागपुर, वहां से दायें मुडक़र करीब बाइस किलोमीटर अन्दर मड़ई जो इधर से सतपुड़ा के भीतर जाने का दरवाजा है एक तरह से।
सोनभद्र को पीछे छोड़ ऊपर पहाड़ी पर चढ़े तो एक जगह लंगुरों की संसद लगी हुई थी। एक ऊंची-सी चट्टान पर एक बड़ा लंगूर स्पीकर-सा बैठा था। सामने करीब-करीब आयताकार लाइनों में बैठे ढेर लंगूर, सब सामने वो बड़े लंगूर की तरफ मुखातिब, सबके चेहरे गम्भीर। हमारी संसद में जो हो-हल्ला, शोर शराबा, कभी-कभी बाहुबल का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है।
- गोविन्द मिश्र
सतपुड़ा से मेरा परिचय तब हुआ था, जब मैं मुंबई से अपने उपन्यास को आगे बढ़ाने के ख्याल से दसेक दिनों के लिए पचमढ़ी पहली बार गया। छोटी पहाडि़यां, छोटे कद के वृक्ष किंतु घने, हरे भरे आंवा की गंध से सराबोर जंग। आगन्तुक को, (बशर्ते वह शहर की चीजें शहर में छोडक़र खुद को खाली करके आए) अपने आगोश में लेने वाला, आत्मीयता की ऊष्मा से भर देने वाला... सतपुड़ा। पचमढ़ी से ऐसा बंधा मैं कि यहां बार-बार आने लगा। तब पचमढ़ी पर्यटकों के शोर से दूर थी। मैंने गौर किया कि यहां आने के दूसरे दिन ही छोटे पेड़ों, छोटी पहाडि़यों, छोटे जंगों के बीच घुमाते हुए सतपुड़ा आपको एक अजीब विस्मृति में ले जाता है - आप अपने परिवार में किसके क्या हैं, कहां क्या करते हैं... यहां तक कि किस साल के किस माह की कौन सी तारीख में हैं... सारे फालतू सवाल झर जाते हैं। हम काल के अनन्त प्रवाह में (कालोहि निरवधि:) विपु पृथ्वी (विपुला च पृथ्वी) पर तैरते एक बिन्दु हैं: सतपुड़ा सत्य से परिचित कराता है जो हमें एक अनोखे उल्लास से भर देती है।
तब से पचमढ़ी बीसों बार गया होऊंगा और हर बार दस-दस दिनों के लिए, अकेले। 'तुम्हारी रोशनी में' और बाद के सभी उपन्यासों की गुत्थियां यहीं सुझी, उन्हें आकार यहीं प्राप्त हुआ। हर मौसम में आया। तपती गर्मी, जब दोपहर बगैर सिर पर कुछ लपेटे आप बाहर नहीं निकल सकते, लेकिन सुबह-शाम सुहावनी। सवेरे छोटे-छोटे रसगुल्लें की तरह घास पर बिखरे सफेद महुवे ... बीनो तो ऊपर से टप टप चुएं। पेड़ों के बीच ठहरी महुवों की सोंधी-सोंधी गन्ध। महुवे खाकर लंगूर खूब ऊधम मचाते, नशेडि़यों की तरह हल-गुल करते, हॉली डे होम्स के छप्परों पर कूदते और खप्परों पर बड़े-बड़े छेद कर देते। बरसात हुई तो मटकुली के आगे जगह-जगह पोखर बने हुए, देनवा नदी के रपटे पर ऊपर से पानी बहता मिले तो टक गए, आप इस किनारे। जब तक पानी रपटे से उतर नहीं जाता, इन्तजार करिए। पंचमढ़ी पहुंचे तो छोटे-बड़े झरने बस्ती में धमनियों से फैले, पानी ही पानी, हॉली डे होम्स के खप्परों से पानी कमरे में, बाथरूम में चुए ... 'क्या करें साब, इन नकची बन्दरों ने कूद-कूद कर सुराख कर दिए।' जाड़े में पचमढ़ी आइए तो क्या गुनगुनी धूप लेकिन रात प्राय: दो बजे करीब जाड़ा ऐसा सिर में चढ़े कि विरह से नहीं, ठंड से बाकी रात बीते ... 'करवट बदल बदल कर' !
एक बार भोपाल से रेलमार्ग द्वारा पिपरिया (रेल्वे स्टेशन जहां से ऊपर पचमढ़ी जाते हैं) पहुंचा। मुश्किल से तीन-चार घंटे की यात्रा और आप रेल में बैठे-बैठे क्या-क्या देख लेते हैं। विंध्याचल के भीतर से रेल जाती है, होशंगाबाद के पहले नर्मदा, इटारसी के बाद सतपुड़ा, बीच में बहती तवा (नर्मदा की सहायक नदी, जिसकी भी सहायक है देनवा) यानी देश के दो मुख्य पर्वत और दो बड़ी नदियां ..., सिर्फ चार घंटों में।
पचमढ़ी फिर भी सतपुड़ा का नगरीय रूप है, सतपुड़ा की रानी ठहरी। मैं देखना चाहता था सतपुड़ा को अपने अस्त-व्यस्त रूप में, भीतर से...। पर्यटक क्या, मानुसगंध से भी यथासंभव अछूता। सतपुड़ा जिस आत्मीयता से चिपकाता है ... उसका उत्स कहां है।
होशंगाबाद से पचमढ़ी के सडक़ रास्ते कोई चालीस किलोमीटर दूर है सोहागपुर, वहां से दायें मुडक़र करीब बाइस किलोमीटर अन्दर मड़ई जो इधर से सतपुड़ा के भीतर जाने का दरवाजा है एक तरह से। इस बार हमारी यात्रा मड़ई से भीतर-भीतर जंगल-जंगल होते हुए पचमढ़ी निकलने की थी। सोहागपुर से मुड़ते ही सतपुड़ा की बाहरी पहाडि़यां दिखाई देने लगती हैं। पहाडि़यों के ठीक नीचे देनवा नदी जिसे नाव से पार कर मड़ई गेस्ट हाउस में हम पहुंचे। अंग्रेजों के जमाने के दो कमरों वो इस गेस्ट हाउस में अब भी बिजली नहीं है, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नहीं पहुंचाई गई। गेस्ट हाउस का उत्तरी हिस्सा गोलगुंबद जैसा हैं, कांच से ढका हुआ। एक जमाने में गेस्ट हाउस के आस- पास शेर चीते आ जाते थे, ऊपर की कांच वाली खिड़कियों से उन्हें देखा जाता या शिकार किया जाता था। अब वह बात नहीं... इसलिए इत्मीनान से बाहर बैठा जा सकता है।
हम चार थे - चन्द्रा, पंड्या, मोराब और मैं। सभी साठोत्तरी। सभी जंगल घूमने के शौकीन और खूब घूमे हुए भी। चन्द्रा फोटो आर्टिस्ट, नई से नई तकनीक वाला कैमरा रखने वाले, जितना शौक फोटो खींचने का, उतना ही इसका कि उनके कैमरे के उपकरण दो-चार आस-पास के लोग संभालें, जब वे फोटो ले रहे हों। किशोर मोराब जवानी में संजीव कुमार लगते थे, अब चांद पर हाथ फेरते हैं। शराब, टेनिस के साथ पूजा, योग, ध्यान और आध्यात्म को भी जीवन में गूंथे हैं। इस उम्र में संगीत सीखने संगीत विद्यालय जाते हैं। शरीर से हाथी, पर भीतर पत्ते जैसे मुलायम। इतना धीमे बोंलगे कि दूसरे के कानों को तकलीफ न पहुंचे। कदम भरते हैं तो इस तरह कि पृथ्वी को कहीं चोट न लगा बैठें। मिलने पर नमस्कार की जगह शुद्घ संगीतमय - 'भैया! जय रामजी की।' पंड्या गोल-मटोल, फुटबाल। जीवन का सबसे बड़ा शौक खाना। यह पहला शख्स मिला है जिसे खाने के पहले भी डकारें आती हैं। कहता है भूख की डकारें हैं।
सुबह उन दो हिरनों की खाने की तलाश फिर शुरू हो गई थी। लगता था वे गेस्ट हाउस के आसपास ही रहते हैं। यों भी हिरनियों के छोटे शावकों को वन के जंगली जानवरों से सुरक्षा रहती है। शावक शुरू-शुरू में तेज भागकर अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते। फिर उन्हीं में से कुछ यहीं रहे आते हैं।
थोड़ी देर में शेरनी पलटी और हमारी तरफ यों देखा, जैसे हम माटी के ढेले हों। उसकी एक उपेक्षा भरी निगाह, इधर हमारी धौंकनी चलने लगी। जीप जल्दी से पीछे नहीं हो सकती थी, आगे जा नहीं सकते थे, एक छलांग में वह जीप पर हो सकती थी। हम वहीं रूक गए, जीप स्टार्ट रखी। शेरनी के हमारी तरफ रूख करने के दौरान दिखाई दिया उसके शरीर का विस्तार: साफ, उजला, फैला और सुतला हुआ ...। कहीं से एक भी ऐसी चीज नहीं जो भव्य से नीचे हो, उसके हमारी तरफ देखने का अन्दाज भी। कि वह फिर अपने रास्ते चल दी। वह आगे-आगे, हम पीछे-पीछे। एक मिनट के बाद उसने बाईं तरफ की एक चट्टान पर पेशाब की एक पिचकारी छोड़ी और कच्चा रास्ता छोड़ दाईं तरफ की चट्टानों पर चली गयी। इस तरह शेर के उस तक पहुंचने के लिए उसने अपने निशान छोड़े थे। रास्ते से हमने उसे फिर भरपूर देखा। फैला चुस्त शरीर ... वन की ताजगी और ऊर्जा से भरा हुआ। हम मुग्ध देखे जा रहे थे कि वह चट्टान से नीचे उतर ओझल हो गई।
किशोर मुराब के पास शेरों के इस तरह प्राकृतिक अवस्था में दिखने के ढेरों किस्से हैं क्योंकि वे तब से यहां हैं जब जहां आज नया भोपाल है वहां भी जंगल होता था, पहाडि़यां हरी-भरी थीं ... लेकिन मैंने तो शेर इस अवस्था में सिर्फ रणथम्भौर अभयारण्य में देखा था। वह भी शेरनी थी, वन के दोनों रास्तें जीपें थम गयी थीं। जब रानी साहिबा की सवारी बीच रास्ते से इधर से उधर हुई, एक झलक। यहां तो हमारे अलावा कोई नहीं और हमें पूरे सात आठ मिनट दर्शन होते रहे। शेर को यों देखना कितनी बड़ी खुशनसीबी है क्योंकि आधुनिक आदमी की व्यापार-बुद्घि के चलते हिन्दुस्तान में शेर अब 1800 के करीब ही बचे हैं। उनमें से एक को देख रहे थे हम!
ज्यों ही पचमढ़ी की मुख्य सडक़ पर आए तो चारों तरफ रंग ही रंग। पीला, गुलाबी, लाल, हल्का बादामी, हरा-नीला ... कौन रंग जो नहीं थे। ये रंग फूलों के नहीं, नए आते पत्तों के थे। विभिन्न अवस्थाओं में पत्ते, कोई अभी फूटे, कोई चार दिन के ... नहीं नए, पुराने। ताज्जुब कि जंग के बीच से आते हुए हमें अलग-थलग ऐसे कुछ पेड़ तो दिखे थे जो पूरे के पूरे लाल थे - लेकिन यहां चूंकि पहाडि़यों पर पेड़ घने और अलग-अलग प्रजाति के थे तो जैसे तरह-तरह के रंग, इकट्ठे एक ही पहाड़ी पर उछले थे। अपराह्न में भी कैसा अद्भुत दृश्य। एक इस नजारे के लिए ही आती गर्मियों के दिनों पचमढ़ी आया जा सकता है ...। जब नीचे मैदान में पचमढ़ी की चढ़ाई शुरू होने के पहे तक भी पेड़ उजाड़, सूने, सूखे और उबास छोड़ते होते हैं। पचमढ़ी पहुंचते ही नए-नए किसलयों के, रंगों से भरे मिलते हैं ... चहचहाते पत्ते लिए, खिखिलाते।
गेस्ट हाउस की चढ़ाई के बाईं ओर वह कच्चा चबूतरा जहां जब मैं पहली बार पचमढ़ी आया था तो शहर से पैदल महादेव तक आए थे, ट्रैकिंग करते कोई पन्द्रह किलोमीटर। तब इसी चबूतरे पर अड्डा जमाया था, आसपास से कंडे बीनकर यहां बाटी बनी थीं, घी गुड़ मिलाकर बाटी के लड्डू भी। हमारा लीडर ... इत्तफाक से उसका नाम भी महादेव था, केन्द्रीय विद्यालय का एक साधारण कर्मचारी। वह और तब की पचमढ़ी के कितने लोग दुनियां से चले गए, मैं पीछे छूट गया ... पचमढ़ी के रंगों को देखता फिर रहा हूं। पचमढ़ी में हर बार कुछ नया झलक जाता है जिससे चिपकता हूं।
पर महादेव की याद आ रही है ...। कितना स्वार्थ-विहीन, दूसरों के लिए कुछ भी करने को तत्पर। बुंदेली कवि इसुरी की पंक्तियां, जो मेरे चलते रहने और महादेव के चले जाने ... दोनों को मिलाकर जीवन का रहस्य देखती है - याद आती हैं -
'' ऐंगर (पास) बैठ जाओ, कछु कानै (कहना है)
काम जनम भर रानै (रहेगा)
इत (यहां) की बात इतईं (यही) रै (रह) जैहै (जायेगी)
कैबै (कहने को) खां रै (रह) जैहै (जाएगी)
ऐसे हते (थे) फलाने (वे) ''
जैसे सतपुड़ा कह रहा था, 'ऐंगर, पास बैठ जाओ' यहां छुटपुट दुकानों की कतारें उग आई थीं, पर्यटकों के लिए, वे अब हटा दी गयी हैं। यह वन विभाग की जमीन है। यह सही है कि गन्दगी फैलती है, पर्यावरण प्रदूषित होता है लेकिन उन छोटे-छोटे दुकानदारों की जीविका का साधन भी तो यही है। दूसरी तरफ देखो तो जो पचमढ़ी आज तक साफ सुथरी है, बची हुई है तो इस वजह से कि नगर का प्रशासन फौज के पास है। भोपाल के नेता-अफसर पचमढ़ी को सेना से छीनने के चक्कर में हैं ताकि उसे पर्यटन के लिए विकसित कर सकें , पैसे कमा सकें । जहां वे कामयाब हुए कि पचमढ़ी का कबाड़ा हुआ। वनों की रक्षा के लिए सरकारें पोस्टरें तो खूब चिपकाती है लेकिन पर्यटन के नाम पर उनका सत्यानाश करने की पह भी सरकारें ही करती हैं।
शाम वन विभाग के गेस्ट हाउस के बरामदे में। ठीक सामने चौरागढ़ का मन्दिर। मन्दिर भी शिवंलिग के आकार का है। देर रात तक वहां की हल्की टिमटिमाती रोशनी हम तक आती रही। किशोर भाई ने गाने गाए, पंड्या हमारी तरफ पीठ करके साफ आसमान में चांद देखता रहा, जवानी के दिनों को पकडऩे की कोशिश कर रहा था ...। वे दिन जब खाना नहीं.. 'चाह' बरबाद करती थी। वे दिन कब के गए पर जैसे आज भी पीठ पर चिपके हैं। सवेरे जब मैं बिस्तर से उठा तो किशोर भाई पहले ही नहा धोकर, बरामदे में बैठकर पाठ कर रहे थे। पाठ की पुस्तक जैसे ही बन्द की कि गुनगुनाने लगे, 'मैं चोर हूं काम है चोरी, दुनियां में हूं बदनाम ... हाय हाय!' जैसे मुझमें ... वैसे किशोर में भी सतपुड़ा नई ऊर्जा भर रहा था।
सोनभद्र को पीछे छोड़ ऊपर पहाड़ी पर चढ़े तो एक जगह लंगुरों की संसद लगी हुई थी। एक ऊंची-सी चट्टान पर एक बड़ा लंगूर स्पीकर-सा बैठा था। सामने करीब-करीब आयताकार लाइनों में बैठे ढेर लंगूर, सब सामने वो बड़े लंगूर की तरफ मुखातिब, सबके चेहरे गम्भीर। हमारी संसद में जो हो-हल्ला, शोर शराबा, कभी-कभी बाहुबल का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है।
- गोविन्द मिश्र
सतपुड़ा से मेरा परिचय तब हुआ था, जब मैं मुंबई से अपने उपन्यास को आगे बढ़ाने के ख्याल से दसेक दिनों के लिए पचमढ़ी पहली बार गया। छोटी पहाडि़यां, छोटे कद के वृक्ष किंतु घने, हरे भरे आंवा की गंध से सराबोर जंग। आगन्तुक को, (बशर्ते वह शहर की चीजें शहर में छोडक़र खुद को खाली करके आए) अपने आगोश में लेने वाला, आत्मीयता की ऊष्मा से भर देने वाला... सतपुड़ा। पचमढ़ी से ऐसा बंधा मैं कि यहां बार-बार आने लगा। तब पचमढ़ी पर्यटकों के शोर से दूर थी। मैंने गौर किया कि यहां आने के दूसरे दिन ही छोटे पेड़ों, छोटी पहाडि़यों, छोटे जंगों के बीच घुमाते हुए सतपुड़ा आपको एक अजीब विस्मृति में ले जाता है - आप अपने परिवार में किसके क्या हैं, कहां क्या करते हैं... यहां तक कि किस साल के किस माह की कौन सी तारीख में हैं... सारे फालतू सवाल झर जाते हैं। हम काल के अनन्त प्रवाह में (कालोहि निरवधि:) विपु पृथ्वी (विपुला च पृथ्वी) पर तैरते एक बिन्दु हैं: सतपुड़ा सत्य से परिचित कराता है जो हमें एक अनोखे उल्लास से भर देती है।
तब से पचमढ़ी बीसों बार गया होऊंगा और हर बार दस-दस दिनों के लिए, अकेले। 'तुम्हारी रोशनी में' और बाद के सभी उपन्यासों की गुत्थियां यहीं सुझी, उन्हें आकार यहीं प्राप्त हुआ। हर मौसम में आया। तपती गर्मी, जब दोपहर बगैर सिर पर कुछ लपेटे आप बाहर नहीं निकल सकते, लेकिन सुबह-शाम सुहावनी। सवेरे छोटे-छोटे रसगुल्लें की तरह घास पर बिखरे सफेद महुवे ... बीनो तो ऊपर से टप टप चुएं। पेड़ों के बीच ठहरी महुवों की सोंधी-सोंधी गन्ध। महुवे खाकर लंगूर खूब ऊधम मचाते, नशेडि़यों की तरह हल-गुल करते, हॉली डे होम्स के छप्परों पर कूदते और खप्परों पर बड़े-बड़े छेद कर देते। बरसात हुई तो मटकुली के आगे जगह-जगह पोखर बने हुए, देनवा नदी के रपटे पर ऊपर से पानी बहता मिले तो टक गए, आप इस किनारे। जब तक पानी रपटे से उतर नहीं जाता, इन्तजार करिए। पंचमढ़ी पहुंचे तो छोटे-बड़े झरने बस्ती में धमनियों से फैले, पानी ही पानी, हॉली डे होम्स के खप्परों से पानी कमरे में, बाथरूम में चुए ... 'क्या करें साब, इन नकची बन्दरों ने कूद-कूद कर सुराख कर दिए।' जाड़े में पचमढ़ी आइए तो क्या गुनगुनी धूप लेकिन रात प्राय: दो बजे करीब जाड़ा ऐसा सिर में चढ़े कि विरह से नहीं, ठंड से बाकी रात बीते ... 'करवट बदल बदल कर' !
एक बार भोपाल से रेलमार्ग द्वारा पिपरिया (रेल्वे स्टेशन जहां से ऊपर पचमढ़ी जाते हैं) पहुंचा। मुश्किल से तीन-चार घंटे की यात्रा और आप रेल में बैठे-बैठे क्या-क्या देख लेते हैं। विंध्याचल के भीतर से रेल जाती है, होशंगाबाद के पहले नर्मदा, इटारसी के बाद सतपुड़ा, बीच में बहती तवा (नर्मदा की सहायक नदी, जिसकी भी सहायक है देनवा) यानी देश के दो मुख्य पर्वत और दो बड़ी नदियां ..., सिर्फ चार घंटों में।
पचमढ़ी फिर भी सतपुड़ा का नगरीय रूप है, सतपुड़ा की रानी ठहरी। मैं देखना चाहता था सतपुड़ा को अपने अस्त-व्यस्त रूप में, भीतर से...। पर्यटक क्या, मानुसगंध से भी यथासंभव अछूता। सतपुड़ा जिस आत्मीयता से चिपकाता है ... उसका उत्स कहां है।
होशंगाबाद से पचमढ़ी के सडक़ रास्ते कोई चालीस किलोमीटर दूर है सोहागपुर, वहां से दायें मुडक़र करीब बाइस किलोमीटर अन्दर मड़ई जो इधर से सतपुड़ा के भीतर जाने का दरवाजा है एक तरह से। इस बार हमारी यात्रा मड़ई से भीतर-भीतर जंगल-जंगल होते हुए पचमढ़ी निकलने की थी। सोहागपुर से मुड़ते ही सतपुड़ा की बाहरी पहाडि़यां दिखाई देने लगती हैं। पहाडि़यों के ठीक नीचे देनवा नदी जिसे नाव से पार कर मड़ई गेस्ट हाउस में हम पहुंचे। अंग्रेजों के जमाने के दो कमरों वो इस गेस्ट हाउस में अब भी बिजली नहीं है, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नहीं पहुंचाई गई। गेस्ट हाउस का उत्तरी हिस्सा गोलगुंबद जैसा हैं, कांच से ढका हुआ। एक जमाने में गेस्ट हाउस के आस- पास शेर चीते आ जाते थे, ऊपर की कांच वाली खिड़कियों से उन्हें देखा जाता या शिकार किया जाता था। अब वह बात नहीं... इसलिए इत्मीनान से बाहर बैठा जा सकता है।
हम चार थे - चन्द्रा, पंड्या, मोराब और मैं। सभी साठोत्तरी। सभी जंगल घूमने के शौकीन और खूब घूमे हुए भी। चन्द्रा फोटो आर्टिस्ट, नई से नई तकनीक वाला कैमरा रखने वाले, जितना शौक फोटो खींचने का, उतना ही इसका कि उनके कैमरे के उपकरण दो-चार आस-पास के लोग संभालें, जब वे फोटो ले रहे हों। किशोर मोराब जवानी में संजीव कुमार लगते थे, अब चांद पर हाथ फेरते हैं। शराब, टेनिस के साथ पूजा, योग, ध्यान और आध्यात्म को भी जीवन में गूंथे हैं। इस उम्र में संगीत सीखने संगीत विद्यालय जाते हैं। शरीर से हाथी, पर भीतर पत्ते जैसे मुलायम। इतना धीमे बोंलगे कि दूसरे के कानों को तकलीफ न पहुंचे। कदम भरते हैं तो इस तरह कि पृथ्वी को कहीं चोट न लगा बैठें। मिलने पर नमस्कार की जगह शुद्घ संगीतमय - 'भैया! जय रामजी की।' पंड्या गोल-मटोल, फुटबाल। जीवन का सबसे बड़ा शौक खाना। यह पहला शख्स मिला है जिसे खाने के पहले भी डकारें आती हैं। कहता है भूख की डकारें हैं।
मड़ई पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो आया था। गेस्ट हाउस के बाहर हमने नशिस्त जमाई। पूर्णमासी के ठीक बाद वाला दिन था। पूरब की पहाडि़यों से चांद निकलने को हुआ कि उजास देनवा के पानी में उतराने लगी, ऊपर से हम तक बड़े-बड़े पेड़ों से छनकर आ रही थी। हम उजास की सिहरन महसूस कर रहे थे कि दो छोटे हिरन कभी इसे, कभी उसे, अपने मुंह और सीगों से खुजला देते.... आंखें निश्छल, मुंह एकदम साफ, धुला हुआ-सा। छोटे-छोटे सीगों से उनकी भाषा निकल रही थी। हमारी तरफ देखो। कभी खुजाना, कभी कई बार खुजलाकर मनुहार करना और कभी सींग गड़ाकर जिद्द करना: खाने को दो, भूख लगी है। हम डरते थे, लेकिन वे हमारे शरीर पर सींग इस तरह फिराते थे कि चोट न लगे... यहां तक कि खाने को न मिलने पर नाराजगी में जो वे सींगों को नीचे से थोड़ा गड़ाकर ऊपर को निकालते ... वह भी इस सफाई से कि खरोंच भी न आए। हम इस बहस में उलझे थे कि जीवन में सबसे कीमती चीज क्या है-स्वास्थ्य, धन, प्रतिष्ठा या फिर प्रेम ... और हिरन के वे बच्चे जैसे कहते होते, नहीं, नहीं ... वह सब कुछ नहीं। महत्वपूर्ण है आज, यह वक्त, इसमें हमारा होना, जीवित होना। सतपुड़ा के नीचे चांद तले देनवा के किनारे ... जो भी होने की प्रतीति दे वह सब महत्वपूर्ण है। मड़ई से राष्ट्रीय उद्यान लग जाता है। भीतर शेर, चीते हैं। कम हिरन होते होंगे जो स्वाभाविक मृत्यु पाते हों, आज नहीं कल उन्हें शेर का भोजन बनना ही है। दरम्यान जो है, वही है यह फुदकना, खाने के लिए वह मचलना, बीच-बीच में प्यार-मोहब्बत भी। कुदरत ने जो निर्धारित किया, उस रास्ते चना। आदमी की जिंदगी भी कुल मिलाकर फर्क कहां ... पर वह सोच-सोचकर गर्क कर डालता है जैसे हम यहां बहस कर रहे थे। अरे पिओ ... इस फिजां को पिओ ... यही महत्वपूर्ण है।
सुबह उन दो हिरनों की खाने की तलाश फिर शुरू हो गई थी। लगता था वे गेस्ट हाउस के आसपास ही रहते हैं। यों भी हिरनियों के छोटे शावकों को वन के जंगली जानवरों से सुरक्षा रहती है। शावक शुरू-शुरू में तेज भागकर अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते। फिर उन्हीं में से कुछ यहीं रहे आते हैं।
रास्ते के लिए पानी, खाना ले हम मड़ई से निकल पड़े। पचमढ़ी तक का यह रास्ता कोई सत्तर किलोमीटर का था। जहां वह सतपुड़ा की श्रेणियों के बीच से निकलता वहां रास्ता मुरम के जैसा दिखता, जहां किसी श्रेणी के पहाड़ के ऊपर से जाता वहां गायब हो जाता था। जीप जहां से जाती वह जगह चिकनी, संकरी होती, खासा खतरनाक। जीप जरा इधर-उधर हुई कि नीचे खाई में लुढक़ सकती थी। फोर व्हील ड्राइव और अनुभवी ड्राइवर मुकेश, ये ही हमारी सुरक्षा थे। रास्ते में हिरन-चीतल, एक जगह काला हिरन भी, जंगली भैंसे, जिनकी यहां की विशेष प्रजाति को गौर कहते हैं, को अगल-बगल देखते हुए हम आगे बढ़े। गौर की टांगों का निचला हिस्सा जैसे सफेद मोजे पहन रखे हों, सींग नीचे रक्तिम, ऊपर काले। लगड़ा फॉरेस्ट कैम्प के आगे सोनभद्र नदी मिली। यह सतपुड़ा के भीतर-भीतर बोरी की तरफ से इधर आती है। एक तरफ पहाड़ी पर गहरे सरोवर-सी टिकी, दूसरी तरफ बरसाती पतले-पतले झरनों सी कल कल आगे बहती ...। बीच में जीप भर निकलने की जगह। वहां एक-एक बीत्ता पानी। नीचे रेत, ऊपर जमाए गए बांसों के गट्ठर पर रपटा जैसा बनाया गया था। सरोवर वो हिस्से में कहीं-कहीं मुंह पानी के ऊपर उठाये घड़याल दिखते। झरने वो हिस्से में नहाने का लुत्फ उठाया जा सकता था लेकिन घड़याल भले ही दूसरे हिस्से में हों, पर वे बहुत पास थे, खतरा नहीं उठाया जा सकता था।
सोनभद्र को पीछे छोड़ ऊपर पहाड़ी पर चढ़े तो एक जगह लंगूरों की संसद लगी हुई थी। एक ऊंची-सी चट्टान पर एक बड़ा लंगूर स्पीकर-सा बैठा था। सामने करीब-करीब आयताकार लाइनों में बैठे ढेर लंगूर, सब सामने वो बड़े लंगूर की तरफ मुखातिब, सबके चेहरे गम्भीर। हमारी संसद में जो हो-हल्ला, शोर शराबा, कभी-कभी बाहुबल का प्रदर्शन भी देखने को मिलता है, उसके मुकाबले यह सभा कितनी सुसभ्य और शालीन, बंदरों के स्वभाव के विपरीत जबकि संसद का मनुष्य स्वयं को चिन्तशील प्राणी कहता है। सांसद है, तो हमारा भाग्यविधाता, भे वह चिन्तन सिर्फ अपने भाग्य का करता हो।
उस पहाड़ी के दूसरी तरफ नीचे जैसे ही हम उतरे, तो एक मोड़ पर हमारे ड्राइवर ने हुफुलाकर कहा - 'टाइगर' और जीप थोड़ा तेज कर दी। वह शेरनी थी, मोड़ के बगल वो बड़े टीले के नीचे-नीचे चलने लगी। फिर बाएं मुडक़र ठीक हमारे सामने आ गयी, जीप वो कच्चे रास्ते पर। वह आगे-आगे, जीप पीछे-पीछे। उस तरह चलते हुए उसका पीछे का हिस्सा भर दिखता था-साधारण कद के एक जानवर जैसा ही। चार-पांच मिनट गुजर गए, मुकेश बीस-पचीस गज की दूरी पर जीप रखे था।
किशोर मुराब के पास शेरों के इस तरह प्राकृतिक अवस्था में दिखने के ढेरों किस्से हैं क्योंकि वे तब से यहां हैं जब जहां आज नया भोपाल है वहां भी जंगल होता था, पहाडि़यां हरी-भरी थीं ... लेकिन मैंने तो शेर इस अवस्था में सिर्फ रणथम्भौर अभयारण्य में देखा था। वह भी शेरनी थी, वन के दोनों रास्तें जीपें थम गयी थीं। जब रानी साहिबा की सवारी बीच रास्ते से इधर से उधर हुई, एक झलक। यहां तो हमारे अलावा कोई नहीं और हमें पूरे सात आठ मिनट दर्शन होते रहे। शेर को यों देखना कितनी बड़ी खुशनसीबी है क्योंकि आधुनिक आदमी की व्यापार-बुद्घि के चलते हिन्दुस्तान में शेर अब 1800 के करीब ही बचे हैं। उनमें से एक को देख रहे थे हम!
ड्राइवर मुकेश वायरैस पर इधर-उधर खबर दे रहा था। शेरनी, जमुनानाला के पास। उसने आगे, मरका नाला कैम्प पर जीप रोकी। यहां वन विभाग के दो हाथी थे। अब शायद उस शेरनी को एक जगह हाथियों की उपस्थिति से छेंककर रखने का कार्यक्रम बने लेकिन यहां कहां किसी पर्यटक को दिखाना है। कभी-कभी शेर-शेरनी के समीप लाने के लिए भी छेंकना होता है। शेरों की संख्या बढ़ाने के प्रयास चल रहे हैं। आगे जीप एक जगह पत्थर के टुकड़ों वो रपटे से गुजरी, रपटे के ऊपर झरने सा बहता पानी ... इतना साफ कि एक-एक पत्थर दिखता था। हम ठीक से देख भी न पाए कि मुकेश जीप को दूसरी तरफ निका ले गया। नहाने की मन्शा उसे बता चुके थे, फिर भी। मेरी तबीयत छूटी हुई जगह में अटक कर रह गयी थी।
यह कोई नाला नहीं, नागद्वारी नदी थी, पतली, छोटी-सी। मुकेश हमें थोड़ा घूम कर वहां ले आया जो उसके हिसाब से हमारे नहाने के लिए ज्यादा उपयुक्त जगह थी। पानी यहां बंधा था, सीमेंट की एक दीवार जैसी उठी थी। मुझे वह जगह नहीं जमी, वापस रपटे की तरफ लौटे। जिधर जीप खड़ी हुई, उस तरफ नदी का बहाव तेज था। किनारे पर ऊंची-ऊंची घास भी थी। उधर के किनारे पर थोड़ी रेत और चट्टानें थी। नहाने के लिए वह किनारा उपयुक्त था। बहती नदी ... मेरा मन तत्काल पानी को छू लेने के लिए उछलने लगता है। अगर पानी ज्यादा न हो, छुलछुल बहता हो तो फट से नदी में घुस जाने को इच्छा होने गती है। शायद बचपन में बांदा की केन नदी के ऐसे ही घाट थे, जिसे छुछुयिला घाट कहते थे, जहां मैं दिनोंदिन, महीनों, सालों नहाया हूंगा। वहां की याद है जो सोयी हुई भीतर बैठी रहती है। ऐसी जगहें देखकर कुनमुनाने गती है। तो मैंने आव देखा न ताव, अपना बैग कन्धे पर टका, जूते उतार, पैंट घुटनों तक मोड़, रपटे से उस पार जाने के लिए बहाव में उतर गया। रपटे पर पानी तो एक बीत्ता से ज्यादा नहीं था पर बहाव में तेजी थी। पानी के नीचे पत्थरों के छोटे-बड़े टुकड़े, काई लगे। फिसलकर गिरने की पूरी संभावना, पर मैं बिना सोचे समझे जो चल देता हूं। इसके पीछे भी मेरे भीतर बैठी बचपन की एक ग्रन्थि है। अतर्रा में ... मैं कुछ ही सालों का रहा हूंगा। एक लगी में एक मधुमक्खी भिनभिनाती हुई मेरे ऊपर उड़ती, मुझे काटने की धमकी देती आ रही थी। मैं हाथों के झटकों से उसे परे करने की कोशिश करता, वह उड़ जाती पर फिर आ जाती। कभी जाकर छत्ते में छिप जाती। मैं भनभनाता हुआ घर गया, एक लट्ठ लेकर आया और धम्म से छत्ते पर मारा। मधुमक्खियां गुस्सा होकर मुझ पर पिल पड़ीं। मेरे पूरे सिर को चींथ डाला। मैं बुखार में पड़ गया। उन्हीं दिनों मधुमक्खियों के काटे एक बच्चे की मृत्यु हुई थी लेकिन मैं बच गया। तब मैं खूब संभल-संभलकर पैर जमाते हुए चल रहा था, पर कई जगह फिसलते-फिसलते बचा। मारने वाले और बचाने वाले अक्सर एक ही जगह मौजूद होते हैं। आपकी नियति कि किसका पड़ा भारी पड़े। मेरे अपने लिए हमेशा बचाने वालों का पड़ा भारी बैठा है और मैं हूं कि अक्सर श्रेय खुद को देने बैठ जाता हूं जैसे कि तब बिना गिरे उस पार पहुंचकर हल्का गर्व महसूस कर रहा था कि मैं अब भी स्वयं को सन्तुति रख सकता हूं, एक वजनी बैग कंधे पर टका कर, बहते पानी और काई गे पत्थरों पर चलते हुए भी। हम दो घंटे नहाए, रपटे के नीचे जहां पानी पती, मोटी, छोटी-छोटी धारों में गिरता था। धारों के नीचे सिर रखकर। पानी की पड़-पड़, पड़-पड़ खोपड़े पर ...। पानी के साथ रेत और छोटे-छोटे पत्थरों पर कुछ दूर तक बहना, फिर लौटना। बाहर-भीतर सिर्फ नागद्वारी ...। दूसरी कोई आवाज नहीं, सिर्फ नागद्वारी के बहने की तरह-तरह की आवाज। हम नागद्वारीमय हो गये थे। नदी में ही घुसे-घुसे खाया-पिया। चले तब तक धूप तेज हो गयी थी। रास्ता घाटी से न होकर पहाड़ी पर से था... इसलिए तपती चट्टानों की भी गर्मी। नीमधान कैम्प पहुंचे तो दरख्तों की छांह में सोने का मन होने लगा लेकिन आगे चलते गए। उतार आया तो गर्मी से थोड़ी राहत मिली। शेरनाला रपटा ... पानी पेड़ों से करीब-करीब ढका हुआ। एक ऐसा बरगद का पेड़ जिसकी जड़ें एक विशाल शिला पर चिपकी हुईं थीं जैसे जिस्म के भीतर नसें। मुरम का वह रास्ता पनारपानी पहुंचकर पचमढ़ी वाली पक्की सडक़ से मिला। पनारपानी में नदी में होने वो पौधों की नर्सरी है। यह पचमढ़ी के महादेव की तरफ वाला इलाका था। हमें ठहरना भी इसी तरफ था।
ज्यों ही पचमढ़ी की मुख्य सडक़ पर आए तो चारों तरफ रंग ही रंग। पीला, गुलाबी, लाल, हल्का बादामी, हरा-नीला ... कौन रंग जो नहीं थे। ये रंग फूलों के नहीं, नए आते पत्तों के थे। विभिन्न अवस्थाओं में पत्ते, कोई अभी फूटे, कोई चार दिन के ... नहीं नए, पुराने। ताज्जुब कि जंग के बीच से आते हुए हमें अलग-थलग ऐसे कुछ पेड़ तो दिखे थे जो पूरे के पूरे लाल थे - लेकिन यहां चूंकि पहाडि़यों पर पेड़ घने और अलग-अलग प्रजाति के थे तो जैसे तरह-तरह के रंग, इकट्ठे एक ही पहाड़ी पर उछले थे। अपराह्न में भी कैसा अद्भुत दृश्य। एक इस नजारे के लिए ही आती गर्मियों के दिनों पचमढ़ी आया जा सकता है ...। जब नीचे मैदान में पचमढ़ी की चढ़ाई शुरू होने के पहे तक भी पेड़ उजाड़, सूने, सूखे और उबास छोड़ते होते हैं। पचमढ़ी पहुंचते ही नए-नए किसलयों के, रंगों से भरे मिलते हैं ... चहचहाते पत्ते लिए, खिखिलाते।
गेस्ट हाउस की चढ़ाई के बाईं ओर वह कच्चा चबूतरा जहां जब मैं पहली बार पचमढ़ी आया था तो शहर से पैदल महादेव तक आए थे, ट्रैकिंग करते कोई पन्द्रह किलोमीटर। तब इसी चबूतरे पर अड्डा जमाया था, आसपास से कंडे बीनकर यहां बाटी बनी थीं, घी गुड़ मिलाकर बाटी के लड्डू भी। हमारा लीडर ... इत्तफाक से उसका नाम भी महादेव था, केन्द्रीय विद्यालय का एक साधारण कर्मचारी। वह और तब की पचमढ़ी के कितने लोग दुनियां से चले गए, मैं पीछे छूट गया ... पचमढ़ी के रंगों को देखता फिर रहा हूं। पचमढ़ी में हर बार कुछ नया झलक जाता है जिससे चिपकता हूं।
पर महादेव की याद आ रही है ...। कितना स्वार्थ-विहीन, दूसरों के लिए कुछ भी करने को तत्पर। बुंदेली कवि इसुरी की पंक्तियां, जो मेरे चलते रहने और महादेव के चले जाने ... दोनों को मिलाकर जीवन का रहस्य देखती है - याद आती हैं -
'' ऐंगर (पास) बैठ जाओ, कछु कानै (कहना है)
काम जनम भर रानै (रहेगा)
इत (यहां) की बात इतईं (यही) रै (रह) जैहै (जायेगी)
कैबै (कहने को) खां रै (रह) जैहै (जाएगी)
ऐसे हते (थे) फलाने (वे) ''
जैसे सतपुड़ा कह रहा था, 'ऐंगर, पास बैठ जाओ' यहां छुटपुट दुकानों की कतारें उग आई थीं, पर्यटकों के लिए, वे अब हटा दी गयी हैं। यह वन विभाग की जमीन है। यह सही है कि गन्दगी फैलती है, पर्यावरण प्रदूषित होता है लेकिन उन छोटे-छोटे दुकानदारों की जीविका का साधन भी तो यही है। दूसरी तरफ देखो तो जो पचमढ़ी आज तक साफ सुथरी है, बची हुई है तो इस वजह से कि नगर का प्रशासन फौज के पास है। भोपाल के नेता-अफसर पचमढ़ी को सेना से छीनने के चक्कर में हैं ताकि उसे पर्यटन के लिए विकसित कर सकें , पैसे कमा सकें । जहां वे कामयाब हुए कि पचमढ़ी का कबाड़ा हुआ। वनों की रक्षा के लिए सरकारें पोस्टरें तो खूब चिपकाती है लेकिन पर्यटन के नाम पर उनका सत्यानाश करने की पह भी सरकारें ही करती हैं।
शाम वन विभाग के गेस्ट हाउस के बरामदे में। ठीक सामने चौरागढ़ का मन्दिर। मन्दिर भी शिवंलिग के आकार का है। देर रात तक वहां की हल्की टिमटिमाती रोशनी हम तक आती रही। किशोर भाई ने गाने गाए, पंड्या हमारी तरफ पीठ करके साफ आसमान में चांद देखता रहा, जवानी के दिनों को पकडऩे की कोशिश कर रहा था ...। वे दिन जब खाना नहीं.. 'चाह' बरबाद करती थी। वे दिन कब के गए पर जैसे आज भी पीठ पर चिपके हैं। सवेरे जब मैं बिस्तर से उठा तो किशोर भाई पहले ही नहा धोकर, बरामदे में बैठकर पाठ कर रहे थे। पाठ की पुस्तक जैसे ही बन्द की कि गुनगुनाने लगे, 'मैं चोर हूं काम है चोरी, दुनियां में हूं बदनाम ... हाय हाय!' जैसे मुझमें ... वैसे किशोर में भी सतपुड़ा नई ऊर्जा भर रहा था।
1 comment:
सतपुडा यात्रा वृत्तांत लंबा पर रोचक लगा. चित्र भी सुंदर लगे. पहला चित्र संभवतः ग़लत लग गया है. यह भीमबेटका का है. आभार.
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