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Jan 15, 2020

उदंती.com, जनवरी 2020

वर्ष-12, अंक- 6


 नई किरन
- रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

नई भोर की
नई किरन का
स्वागत कर लो!
आँखों में सब
आशाओं का
सागर भर लो!
भूलो, बिसरी बातें
दर्द-भारी अँधियारी रातें
शुभकामना की
देहरी पर
सूरज धर लो!
बैर-भाव मिट जाए
मन से, तन से
इस जीवन से,
जगे प्रेम नित
दु:ख सारी
दुनिया का हर लो!

युवा शक्ति - दशा और दिशा...

 युवा शक्ति - दशा और दिशा...  
- डॉ. रत्ना वर्मा 
 आजकल शिक्षा प्राप्त करने वाली संस्थाओं में पढऩे वाले युवा शिक्षा और रचनात्मकता के लिए अपनी आवाज उठाने के बजाय देश के अन्य मामलों को लेकर विरोध प्रदर्शन, और आंदोलन करते हैं, जिनका उनके ज्ञान, उनके कैरियर या उनके भविष्य को लेकर कोई लेना-देना नहीं होता। इससे अधिक अफसोस की बात तो ये है कि हमारे देश की राजनैतिक पार्टियाँ उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल अपने राजनैतिक फायदे के लिए करती हैं, फलस्वरूप अपना जो बहुमूल्य समय इन युवाओं को अपनी शिक्षा को देना चाहिए ,उसे वे विध्वंसक गतिविधियों में खर्च कर देते हैं। पढ़ाई के नाम पर आजकल के विश्वविद्यालयों में नेतागिरी अधिक होने लगी है। शिक्षा केन्द्रों में राजनैतिक दखलंदाजी किसी भी देश के लिए उचित नहीं माना जा सकता। अपनी बात कहने की आजादी सबको है ,परंतु बात कहने का जो तरीका आजकल के युवा अपना रहे हैं, या उन्हें अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है, वह न उनके हित में है न देश हित में। आज़ादी और अराजकता दो अलग-अलग बातें है। सरकारी सम्पत्ति नष्ट करना आज़ादी नहीं, देशद्रोह है। यह वही सम्पत्ति है जिसे जनता ने  अपनी गाढ़ी कमाई से टैक्स के रूप में भरा है ।
जब माता- पिता अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला करवते हैं तो उन्हें यह विश्वास होता है कि वे अपने बच्चे का भविष्य बेहतर हाथों में सौंप रहे हैं और स्कूल- कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करते हुए उनका बच्चा देश का एक ऐसा नागरिक बनकर निकलेगा, जिसपर न सिर्फ उन्हें बल्कि पूरे देश को गर्व होगा। शिक्षा ज्ञान -प्राप्ति का ऐसा माध्यम है ,जिससे जरिए हम स्वयं का, परिवार का, समाज का और देश की तरक्की के साथ उसकी मजबूती के लिए एक बेहतर जीवन के बारे में सोच विकसित करते हैं। शिक्षा, संस्कार और संस्कृति के जरिए हम प्यार, शांति और सुकून के विषय में बात करते हैं ,न कि विध्वंस की। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तात्पर्य यह तो नहीं कि आप मनमानी पर उतर आएँ। स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने का अधिकार कोई भी संविधान नहीं देता। गलत राह दिखाकर, बरगलाकर यदि जनता की समझ को, उनके विचारों को मोड़ दे दिया जाए तो परिणाम भयावह हो सकते हैं। 
यह तो हम सभी को पता है कि कोई भी देश अपनी पुरातन संस्कृति, इतिहास परम्परा से कटकर समाज को मज़बूत नहीं कर सकता। यह अफ़सोस का विषय है कि हमारे देश  के जिन वीरों और महापुरुषों के बलिदान और उनके द्वारा सामाजिक उत्त्थान की अनेक गाथाएँ आज़ादी से पहले घर-घर में गूँजा करती थीं ,वे आज़ादी के बाद कैसे विलुप्त हो गए? महाराणा प्रताप, शिवाजी, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस जैसे महापुरुषों की वीर गाथाएँ हमारी नई पीढ़ी के पाठ्यक्रम से कैसे विलुप्त होते चली गईं? कैसे इन सबका स्थान अलाउद्दीन खिलजी, अहमद शाह अब्दाली, औरंगजेब जैसे अत्याचारियों ने ले लिया। ये कौन इतिहासकार हैं ,जो भारतीय अस्मिता से खिलवाड़ करने में लगे हुए हैं। हमारे पाट्यक्रम में हिन्दू पंचऔर चाँदका फाँसी अंक जैसी कालजयी पुस्तकें क्यों शामिल नहीं की जातीं। आजादी के आन्दोलन के समय प्रतिबन्धित भारतीय साहित्य के वे असंख्य गीत और पुस्तकें युवाओं की पहुँच से क्यों दूर हैं?
जिस राष्ट्रीय भावना को आज़ादी के बाद अधिक सशक्त होना था, उसे शनै: शनै: कैसे खोखला किया गया, इसके कारणों पर गम्भीरता से सोचना होगा।  अनपढ़ लोगों को चालाकी से किस प्रकार गुमराह किया जाता है, यह सी ए जैसे बिल के विरोध में प्रायोजित आन्दोलन से समझ में आ जाएगा। जो कानून  भारत के नागरिकों के लिए नहीं है, उसको निहित स्वार्थों के कारण गलत ढंग से पेश करके लोगों को बहकाया जा रहा है। आश्चर्य तो तब होता है , जब राजनैतिक दल लोगों  को गुमराह करने की बाकायदा  मुहिम चलाने के लिए सभी पैंतरे  आजमाने  लगते  हैं। इन सबके लिए ठण्डे दिमाग से सोचने की ज़रूरत है।  जागरूकता की कमी किसी भी देश के लिए बहुत घातक है। सही गणतन्त्र तभी माना जाएगा, जब  लोग मिलजुलकर चलें, देश को मज़बूत बनाएँ। देश को लूटने वालों की पहचान भी ज़रूरी है। सरकारी धन का दुरुपयोग करने वालों, सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने वालों से पाई-पाई की वसूली होनी चाहिए। ऐसे लोगों को मासूम नही, बल्कि राष्ट्र द्रोही की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।


युवाओं के साथ- साथ इस विषय पर बात सामान्य जनता की भी की जाए- उन्हें उनके कर्तव्यों की जानकारी तो कुछ- कुछ दे दी गई है; परंतु उनके अधिकारों की जानकारी क्यों नहीं दी गईहमारी आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को अच्छी शिक्षा से वंचित रखकर उन्हें क्रूर राजनीति और प्रशासन की कठपुतली बनाकर क्यों रखा गया? आज वह  वर्ग  केवल वोटबैंक बनकर क्यों रह गया हैतुष्टीकरण का यह षडयंत्र देश की सद्भावना और शांति में किस प्रकार बाधक बन रहा है यह वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। जम्मू कश्मीर में पिछले 60 वर्षों में एक विशेष वर्ग को क्यों उसके अधिकारों से वंचित किया गया? क्यों किसी प्रदेश में बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक कहकर  पूरे देश को अँधेरे में रखा गया। इन सबके मूल में अशिक्षा, असमानता का व्यवहार और आज़ादी के अर्थ को ठीक से न समझना ही है। जरुरत पूरे देश में एक स्वस्थ माहौल, बेहतर शिक्षा और देश के हित में की जाने वाली राजनीति की है, तभी हम शांतिपूर्ण और एक खुशहाल देश की कल्पना कर सकते हैं।
जो संविधान की बात नहीं मानते, जिनका न्यायपालिका में विश्वास नहीं, जिनका  एकमात्र उद्देश्य छल-प्रपंच से देश को लूटना है, उनके साथ छूट क्यों? राष्ट्र को खोखला करने वालों को जेल के सींखचों में होना चाहिए। जो निरीह लोगों के अमानवीय शोषण में शामिल हों, हत्या , लूट -खसोट में शामिल हों, उनके लिए  मानव अधिकारों की दलील क्यों दी जाती है? आज इन  सब  बातों पर खुले दिमाग से  सोचना होगा। यही समय की माँग है।

नए वर्ष में धरती की रक्षा से जुड़ें

नए वर्ष में धरती की रक्षा से जुड़ें
-भारत डोगरा
नए वर्ष का समय मित्रों व प्रियजनों को शुभकामनाएँ देने का समय है। इसके साथ यह जीवन में अधिक सार्थकता के लिए सोचते-समझने का भी समय है; क्योंकि एक नया वर्ष अपनी तमाम संभावनाओं के साथ हमारे सामने है।
इस सार्थकता की खोज करें, तो स्पष्ट है कि धरती की गंभीर व बड़ी समस्याओं के समाधान से जुड़ने में ही सबसे बड़ी सार्थकता है। इस समय समस्याएँ तो बहुत हैं, पर संभवत: सबसे बड़ी व गंभीर समस्या यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है।
वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों (जिनमें उस समय जीवित नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों में से लगभग आधे वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) ने एक बयान जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था, हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है, अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर - यह पृथ्वी - इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।
इन वैज्ञानिकों ने आगे कहा था कि तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों, सभी पर पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति शैली के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए।
इस चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 में फिर एक नई चेतावनी जारी की। इस चेतावनी पर कहीं अधिक वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया है कि वर्ष 1992 में जो चिंता के बिंदु गिनाए गए थे उनमें से अधिकतर पर अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं हुई है व कई मामलों में स्थितियाँ पहले से और बिगड़ गई हैं।
इससे पहले एमआईटी द्वारा प्रकाशित चर्चित अध्ययन इम्पेरिल्ड प्लैनेट’(संकटग्रस्त ग्रह) में एडवर्ड गोल्डस्मिथ व उनके साथी पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा था कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता सदा ऐसी ही बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस रिपोर्ट में बताया गया सबसे बड़ा खतरा यही है कि हम उन प्रक्रियाओं को ही अस्त-व्यस्त कर रहे हैं, जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बनती है।
स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है, जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएँ है - जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्रास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव। इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएँ  ऐसी हैं जिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं - भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव।
इस अनुसंधान में सामने आ रहा है कि इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक टिपिंग पॉइंट’ (यानी डगमगाने के बिंदु) के आगे पहुँच गई, तो अचानक बड़े पर्यावरणीय बदलाव हो सकते हैं। ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सकेगा या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटाया न जा सकेगा। वैज्ञानिकों की तकनीकी भाषा में, ये बदलाव शायद रिवर्सिबल यानी उत्क्रमणीय न हो।
इन चिंताजनक स्थितियों को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि अधिक से अधिक लोग इन समस्याओं के समाधान से जुड़ें। इसके लिए इन समस्याओं की सही जानकारी लोगों तक ले जाना बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों व विज्ञान की अच्छी जानकारी रखने वाले नागरिकों की भूमिका व विज्ञान मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। जन साधारण को इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जोड़ने के लिए पहला ज़रूरी कदम यह है कि उन तक इन गंभीर समस्याओं व उनके समाधानों की सही जानकारी पहुँचे।
नए वर्ष के आगमन का समय इन बड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखने, इन पर सोचने-विचारने का समय भी है ताकि नए वर्ष में इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जुड़कर अपने जीवन में अधिक सार्थकता ला सकें। (स्रोत फीचर्स)

जैविक खेती की ओर मुड़े बिरहोर

जैविक खेती की ओर मुड़े बिरहोर
-बाबा मायाराम 
मंझगंवां का आनंदराम मिश्रित खेती करते हुए
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले का एक गाँव है समेलीभाठा। मानगुरू पहाड़ और जंगल के बीच स्थित है। यहाँ के बाशिन्दे हैं बिरहोर आदिवासी। जंगल ही इनका जीवन है। वे न सिर्फ जंगल में रहते हैं, उन पर निर्भर हैं, बल्कि जंगल का संरक्षण भी करते हैं। यह उनकी परंपराओं में है, उनकी जीवनशैली में है। अब उन्होंने पौष्टिक अनाजों की जैविक खेती करना भी शुरू किया है। घरों में बाड़ी (किचन गार्डन) में सब्जियों और फलदार वृक्षों की खेती भी कर रहे हैं।
बिर का अर्थ जंगल, और होर का अर्थ आदमी होता है। यानी जंगल का आदमी। बिरहोर आदिवासी विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति में से एक हैं। यह घुमंतू जनजाति मानी जाती है। हालांकि उनके पूर्वज सरगुजा जिले से इधर आए थे, लेकिन अब स्थाई रूप से यहीं बस गए।
मैं अप्रैल माह में यहाँ लम्बी यात्रा कर पहुँचा था। माल्दा, समेलीभाठा और गुडरूमुड़ा गाँव गया था। राजिम की प्रेरक संस्था से जुड़े दो कार्यकर्ता रमाकांत जायसवाल और तिहारूराम बिरहोर ने मुझे इन गाँवों में घुमाया। वे यहाँ आजीविका  संरक्षण, वन अधिकार और जैविक खेती पर बिरहोर आदिवासियों के बीच काम करते हैं। उनकी जिंदगी बेहतर बनाने की कोशिश में जुटे हैं। प्रेरक संस्था ने देसी धान के बीजों का संरक्षण का काम किया है।   
रमाकांत जायसवाल और तिहारूराम बिरहोर ने बताया कि बिरहोर मुख्यतः पूर्व में शिकार करते थे और वनोपज एकत्र करते थे। बंदरों का शिकार उन्हें बहुत प्रिय था; लेकिन अब शिकार पर कानूनी प्रतिबंध है। अब बिरहोर मुख्यतः बाँस के बर्तन बनाते हैं और रस्सी बनाकर बेचते हैं। बांस के बर्तनो में पर्रा, बिजना ( हाथ से हवा करने वाला पंखा), टुकनी ( टोकनी), झउआ ( तसला की तरह), आदि चीजें बनाते हैं । इनमें से ज्यादातर बाँस के बर्तन शादी-विवाद के मौके पर काम आते हैं। पटुआ ( पौधा) और मोगलई ( बेल) की छाल से रस्सी बनती है। खेती-किसानी में काम आनेवाली रस्सियाँ व मवेशियों को बाँधने के लिए रस्सियाँ बनाते हैं। जोत, गिरबाँ, सींका,दउरी आदि चीजें रस्सी बनाते हैं। इनमें से जोत व गिरबाँ गाय बैल को बाँधने व हल बक्खर में काम आते हैं। खेती और पशुपालन साथ साथ होता है। इसके अलावा सरई पत्तों से दोना-पत्तल बनाकर बेचते भी हैं। इस सबसे ही उनकी आजीविका चलती है।
बिरहोरों की आबादी कम है। इनकी जीवनशैली अब भी जंगल पर आधारित है। इनमें पढ़े-लिखे बहुत कम हैं। हालांकि अब साक्षर व शिक्षित होने लगे हैं।  बाँस के बर्तन बनाने, रस्सी बनाने के अलावा बहुत ही कम लोग खेती करते हैं।
गुडरूगुड़ा का दुलार अपनी
पत्नी श्याम बाई के साथ
तिहारूराम ने बताया - पहले अनाज खाने नहीं मिलता था। महुआ फूल को पकाकर खाते थे। ज्वार और बाजरे की रोटी खाते थे। अब पहले जैसी स्थिति नहीं है।
माल्दा, जो तिहारूराम का गाँव है, मैं उनके घर ही रात में ठहरा था। खुले के आसमान के नीचे खाट पर सोने का मौका मिला। तिहारूराम ने मुझे बताया थोड़ी देर में भगवान का लाइट आएगा और अँधेरा भाग जाएगा। मैं आकाश में जगमगाते तारे और चाँद की रोशनी देखते- देखते सो गया। मुझे गहरी नींद आई। खुले आसमान के नीचे सोने का मौका बहुत सालों बाद आया था। सुबह तालाब के ठंडे पानी में स्नान किया। ग्रामीण संस्कृति की मिठास का अनुभव किया। छत्तीसगढ़ की एक पहचान तालाब भी हैं। यहाँ अधिकांश गाँवों में तालाब होते हैं।
तिहारूराम और रमाकांत जायसवाल ने बताया कि उन्होंने पहले दौर में 10 गाँवों का चयन किया है जिसमें जैविक खेती और किचिन गार्डन का काम किया जा रहा है। जिसमें पौड़ी उपरोड़ा विकासखंड के गाँव मालदा, नागरमूडा, डोंगरतलाई, कटोरी नगोरी, गुडरूमुडा, समेली भाठा और पाली विकासखंड के मंझगवां, उड़ता, टेढ़ीचुआ, भंडार खोल शामिल हैं। इन गाँवों में जैविक खेती के लिए 50 किसानों को देसी बीजों का वितरण किया गया हैं। इसके लिए मालदा में बीज बैंक है। बाड़ियों ( किचिन गार्डन) के लिए भी देसी सब्जियों के देसी बीज दिए गए हैं।
वे आगे बताते हैं कि इन गाँवों में जैविक खेती में धान, झुनगा, अरहर, उड़द, हिरवां, बेड़े आदि खेतों में बोया गया है। और बाड़ियों में लौकी, भिंडी, बरबटी, कुम्हड़ा, तोरई, डोडका, मूली, पालक, भटा, करेला, चेंच भाजी, लाल भाजी इत्यादि। इसके अलावा, फलदार वृक्षों में मुनगा, बेर, पपीता, आम, जाम, आँवला, नीम, कटहल आदि के पौधे भी वितरित किए गए हैं।
अगले दिन हम पहाड़ पर बसे समेलीभाठा गाँव गए। यह पौड़ी विकासखंड के अंतर्गत आता है। यहाँ करीब 35 घर हैं। आदिवासियों के घर विरल हैं, घनी बस्ती नहीं है। छोटे- छोटे घर लकड़ियों के बने हैं और उनकी बागुड़ ( बाउन्ड्री) भी लकड़ियों से ही बनी है। घरों की दीवार भी लकड़ियों की ही थी। बहुत मामूली स्थानीय चीजों से बने पर बहुत ही सुघड़ता से गोबर से लिपे-पुते। न कोई तामझाम, न दिखावा। इनमें आँखें टिक जाती थीं। अब शासकीय आवास योजना में पक्के घर भी बन गए हैं।
यहाँ के एतोराम बिरहोर, लछमन बिरहोर, रतीराम बिरहोर, बंकट, दुकालू और जगतराम ने बताया उनका जीवन पूरी तरह जंगल पर निर्भर है। जंगल से महुआ, चार, तेंदू, भिलवाँ, आम, बोईर (बेर), अमली ( इमली), हर्रा, बहेड़ा, आँवला इत्यादि वनोपज मिलते हैं।
हरी पत्तीदार भाजियों में कोयलार, मुनगा, आमटी, सोल, फांग, चरौटा, कोसम और पीपल भाजी मिलती है। इसके अलावा, कडुवां कांदा, नकवा कांदा, बरहा कांदा, सियो कांदा, पिठारू कांदा, कुदरू, केउ कांदा, गिलारू कांदा आदि मिलता है। कई तरह के पुटू ( मशरूम) भी जंगल से मिलते हैं। मसलन- गुहिया, चरकनी, सुआ मुंडा, पटका, चिरको, कुम्मा, पतेरी इत्यादि।
इसके अलावा, बिरहोर जड़ी-बूटियों से इलाज करना जानते हैं। उन्हें किस बीमारी में कौन-सी जड़ी काम आती है, इसकी जानकारी है।  धौंरा की छाल को वे चाय पत्ती की तरह डालकर तरोताजा होने के लिए पीते हैं। वे अब भी कुछ छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज जड़ी-बूटी से कर लेते हैं।
बिरहोर आदिवासियों का मुख्य त्योहार खरबोज है। ठाकुरदेव, बूढादेव, नागदेवता जंगल में है। माघ पूर्णिमा में यह त्यौहार मनाया जाता है। कर्मा नाचते हैं। नवापानी मनाते हैं। यह नए अनाजों के घर में आने की खुशी में मनाया जाता है, जिसे अन्य जगहों पर नुआखाई भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ और ओडिशा में नुआखाई का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
हिरवां के खेत में आनंदराम
अपनी भाभी के साथ

बिरहोर जंगल से लेते ही नहीं हैं, बल्कि उसको बचाते भी हैं। जंगल के प्रति जवाबदारी भी समझते हैं। उनका जंगल से  माँ-बेटे का रिश्ता है। वे जंगल से उतना ही लेते हैं जितनी जरूरत है। उन्होंने ऐसे नियम कायदे बनाए हैं कि जिससे जंगल का नुकसान न हो।
ग्रामीण बताते हैं कि वे कभी भी फलदार वृक्ष जैसे महुआ, चार, आम के पेड़ नहीं काटते। फलदार वृक्षों से कच्चे फलों को नहीं तोड़ते। किसी भी पेड़ की गीली लकड़ी को नहीं काटते। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले जंगल में घूमकर सूखी लकड़ी तलाशते हैं, उसे ही काम में लेते हैं।
गुडरूमुड़ा के बुधेराम, मंगल, घसियाराम, जगेसर, नवलसिंह ने बताया कि अब जंगल भी पहले जैसे नहीं रहे। बाँस मिलने में भी दिक्कत है। जंगलों में बाहरी लोगों का भी आना-जाना बढ़ गया है। इधर कुछ सालों से हाथियों का उत्पात बढ़ गया है, जिससे लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। मौसम बदल रहा है, बारिश नहीं हो रही है।  
जलवायु बदलाव को देखते हुए देसी बीजों की मिश्रित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। जो देसी बीज गुम हो गए हैं, वे बीज छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों से लाकर बिरहोरों को उपलब्ध कराए जा रहे हैं। कोदो, कुटकी, धान की देसी किस्में, जो कम पानी में भी पक जाती हैं। घर की बाड़ियों (किचिन गार्डन) में हरी सब्जियाँ उगाने पर जोर दिया जा रहा है। इसी तरह प्रेरक संस्था  ने कमार आदिवासियों के बीच गरियाबंद इलाके में घर की बाड़ियों का काम किया है। इससे देसी हरी सब्जियाँ व फलदार पेड़ों से फल मिलते हैं। बच्चों को अच्छा पोषण मिलता है। अगर इन फसलों में रोग लगते हैं तो जैव कीटनाशक किसान खुद बनाते हैं और उनका छिड़काव करते हैं।
बिरहोर गाँवों में जैविक व परंपरागत खेती को बढ़ावा देने के लिए देसी बीज व जैविक खेती के प्रयास किए जा रहे हैं। वन अधिकार कानून के तहत् बिरहोर आदिवासियों के व्यक्तिगत अधिकार व सामुदायिक अधिकार के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। इस दिशा में छत्तीसगढ़ सरकार खुद पहल कर रही है। इस सबसे बिरहोर आदिवासियों के जीवन में उम्मीद जगी है, और वे इससे उत्साह में हैं। यह प्रक्रिया चल रही है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बिरहोरों की जीवनशैली प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की है। जंगलों के साथ उनका रिश्ता गहरा है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। जलवायु बदलाव के दौर जंगलों में और वहाँ से मिलने वाले कंद-मूल व खाद्य पदार्थों में कमी आई है। इसलिए जैविक खेती उपयोगी हो गई है। विशेषकर कम पानी वाली और बिना रासायनिक वाली जैविक खेती से भोजन सुरक्षा के साथ मिट्टी पानी का संरक्षण और संवर्धन होगा। बाड़ियों में हरी सब्जियाँ व फलदार वृक्षों से पोषण मिलेगा। सब्जियों के लिए बाजार पर कम निर्भरता होगी। जो कमी मौसम बदलाव के दौर में जंगलों से कंद-मूल व सब्जियों में आ रही है, उसकी पूर्ति होगी। जंगल हरा-भरा होगा। लुप्त हो रहे देसी बीज बचेंगे और जैव विविधता बचेगी और पर्यावरण भी बचेगी। कृषि और गाँव संस्कृति बचेगी। खान-पान की पारंपरिक संस्कृति बचेगी। इस दिशा में प्रेरक संस्था अनूठी पहल कर रही है। बिरहोर आदिवासियों के जंगल संरक्षण की सीख सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।  (विकल्प संगम से साभार)

बाल- मनोविज्ञान



 उत्कृष्टता की परम्परा फूलदेई !
 -डॉ. कविता भट्ट

रंग-बिरंगी तितलियों के पीछे भागता, फूलों के साथ मुस्कुराता, पहाड़ी झरनों-सा थिरकता, वादियों में गूँजती लय के साथ सुर में गाता-गुनगुनाता, पहाड़ी नदी के संगीत-सा खिलखिलाकर हँसता तथा दूर-दूर तक हिरनों-सा कुलाँचें भरता हुआ निश्छल एवं निर्द्वन्द्व बचपन किसे अच्छा नहीं लगता। ये पंक्तियाँ बीते समय के उस बचपन को दर्शाता है; जिसमें न तो तकनीक थी, न भौतिक सुख-सुविधा-मोबाइल, कम्प्यूटर एवं वीडियो गेम आदि; किन्तु वह सच में बचपन था। मानव का ईश्वरीय चेतना से युक्त बचपन। उस समय के खेल-खिलौने, पर्व-व्रत-त्योहार एवं मेले आदि सभी कुछ मनोभावों के अनुकूल एवं इनके लिए पोषक थे। राग-द्वेष-प्रतिस्पर्धा आदि से रहित अपनी ही मस्ती में मस्त बचपन वाले जमाने थे वे; परन्तु वही बचपन अब गुम है; सिसक रहा है और स्वच्छन्द होने की याचना कर रहा है। क्या बचपन फिर से उन्मुक्त और स्वच्छन्द हो सकेगा। यह यक्षप्रश्न ही है-आज के भौतिकवादी युग में।
मुझे यह लिखने में तनिक भी संदेह एवं संकोच नहीं कि आज हम बच्चों को एक अच्छा व्यक्ति बनाने के स्थान पर उन्हें भावी नोट छापने की मशीन बना रहे हैं। मानवीय सद्गुणों तथा इसके पोषक कारकों को बच्चों के जीवन से दूर कर दिया हमने। आधुनिक सुख-सुविधाएँ, कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल से युक्त बचपन तथा माता-पिता के झूठे स्टेटस सिंबल के अतिरिक्त छुटपन से ही 99 प्रतिशत प्राप्तांक के बोझ तले दबे हुए बचपन से एक अच्छा मानव बनने की आशा रखना मृगतृष्णा ही है। पहले उन्हें नोट कमाने की मशीन बनाया जाता है; उसके बाद इस बात का रोना रोया जाता है कि घर में अकेले रह रहे बुजुर्गों के कंकाल सोफे पर मिलते हैं। आखिर एक निश्छल बच्चे को तथाकथित विकसित एवं संवेदनहीन व्यक्ति बनाने के उत्तरदायी हम स्वयं ही तो हैं।
प्राचीन समय में हमारे पूर्वजों ने पर्वादि को भी बहुत ही सोच-समझकर स्वस्थ परम्पराएँ विकसित की थी। वे श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक एवं समाज निर्माता थे। स्वस्थ समाज हेतु इन परम्पराओं को अपनाये जाने की आवश्यकता आज पहले से भी अधिक है। एक उक्ति है-'भारतमाता ग्रामवासिनी' ; जिसका भाव यह है कि भारतवर्ष की आत्मा गाँवों में बसती है। इन गाँवों में बसने वाले जनमानस के मनोभावों के अनुकूल अनेक ऐसे  त्योहार हैं; जो क्षेत्रीय स्तर पर मनाए जाते हैं; किन्तु इनके अत्यंत व्यापक विशिष्ट शारीरिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक निहितार्थ हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति में लोकपर्वों का सदैव विशिष्ट स्थान रहा है। लोकपर्व अर्थात् जो जनसाधारण की भावनाओं के अनुकूल परम्परा को स्वयं में समाविष्ट किए हुए हों। ऐसा ही एक पर्व है-उत्तराखण्ड पहाड़ी अंचलों में मनाया जाने वाला फूलदेई. फूलदेई यों तो सदैव प्रासंगिक रहा; किन्तु आज के भौतिक प्रतिस्पर्धा से युक्त युग में बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। प्रस्तुत आलेख के माध्यम से फूलदेई के मनोवैज्ञानिक पक्ष को रेखांकित करेंगे; किन्तु उससे पूर्व फूलदेई लोकपर्व की परम्परा को संक्षेप में जानना आवश्यक है।
फूलदेई उत्तराखण्ड की लोकभाषा का शब्द है; जिसका अर्थ है-फूल देने वाली। बसंत ऋतु में चैत्र मास की संक्रान्ति को स्थानीय भाषा में फूल-संग्रान्द कहा जाता है। इसी दिन से यह पर्व प्रारम्भ होता है; जो बच्चों एवं इनकी बालसुलभ क्रीड़ाओं से सम्बन्धित है। पहाड़ की लोकसंस्कृति के अनुसार बसंत की देवी स्थानीय भाषा में ‘गोगा माता’ के नाम से पुकारी जाती है। बच्चे प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व आस-पास के खेतों एवं जंगलों से ताजे फूल चुनकर छोटी-छोटी टोकरियों में भरते हैं तथा उन्हें घर की सभी देहरियों पर दोनों ओर डाला जाता है। फूलों से भरी इन टोकरियों को फूलकंडी कहा जाता है। ये 'रिंगाल' (टोकरी बनाने में प्रयोग किया जाने वाला पौधा) की बनी होती है। बच्चे प्रातःकाल ही टोलियों में पहाड़ी धुनों पर गीत गाते हुए फूल चुनकर लाते हैं; इन बच्चों को स्थानीय भाषा में फुलारी कहा जाता है। प्रत्येक दिन नये फूल टोकरी में लाने को अधिक उत्तम माना जाता है और विभिन्न फूल जैसे-बुराँस, फ्योंली, किनगोड़, लैय्या तथा डुंडबिराल़ी आदि चुने जाते हैं; किन्तु  फ्योंली (एक पीले रंग का सुन्दर फूल) विशेष महत्त्व रखता है। बच्चों द्वारा विशेष पहाड़ी गीत भी गाये जाते हैं; जैसे-
फूल माई दाल-चौल...जै घोघा माता की जय ...
चला फुलारी फूलो को...भाँति-भाँति का फूल लयोला...
इस प्रकार गाते हुए सर्वप्रथम फूल अपने कुलदेवी / कुलदेवता / इष्टदेव को समर्पित किए जाते हैं; उसके पश्चात् सुगन्धित एवं सुन्दर फूलों को घर की सभी देहरियों में चढाया जाता है। बच्चे इसी समय बड़े-बुजुर्गों के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लेते हैं। घर के सभी बड़े सदस्य विशेषकर महिलाएँ ममतास्वरूप सभी बच्चों को चावल, गुड़, मिठाई तथा दक्षिणा आदि देते हैं। यह त्यौहार पूरे एक महीने चलता है। बच्चे अपने हों या किसी दूसरे के; बिना भेदभाव के सभी को सब कुछ दिया जाता है।
चैत्र मास से प्रारम्भ होने वाला हिन्दू नववर्ष भी इसी त्यौहार के प्रारम्भिक सप्ताह से प्रारम्भ होता है। यह त्योहार बैशाखी को सम्पन्न होता है; उस दिन प्रत्येक पहाड़ी घर में स्वाल़ी (कचौड़ी) , पापड़ी (पापड़) तथा पूरी-पकवान आदि बनाए जाते हैं। ये पकवान एवं दक्षिणा इष्टदेव को समर्पित करके बच्चे फूल भी चढ़ाते हैं। देहरियाँ फूलों से भर जाती हैं; और हँसते-खिलखिलाते बचपन की मुस्कुराहट जैसी पवित्रता से भरपूर हो जाती हैं। इसी पर्व के अन्तर्गत सुखी-सम्पन्न होने की प्रार्थना भी की जाती है। इस त्यौहार के बैशाखी को सम्पन्न होने के उपरान्त ही पहाड़ में थौल़ या कौथिग (मेलों) का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है; जो पूरे बैशाख के महीने चलता रहता है।
बच्चों के लिए मनोरंजन के साथ ही इस पर्व के बड़े मनोवैज्ञानिक प्रभाव हैं। जैसे-उनको प्रकृति से निकटता का अनुभव करवाना, तनाव से मुक्ति, सामाजिक सौहार्द का पाठ पढ़ाना, बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करना, प्रातःकालीन बेला में जागना, पवित्र-शान्त वातावरण तथा पर्यावरण का आनन्द प्रदान करना तथा आध्यात्मिक बनाना आदि। इन सब रोचक मनोवैज्ञानिक तथ्यों को स्वयं में समेटे हुए फूलदेई अब पहाड़ के ग्रामीण अंचलों तक ही सिमट गया है और धीरे-धीरे यहाँ पर भी  एक परम्परा मात्र को मनाने के समान औपचारिक हो गया है।
इस प्रकार के त्योहारों से बच्चों को जोड़ने का प्रयास इसलिए आवश्यक है; कि वे भारी बस्ते, किताब-कॉपी, रबर-पेंसिल, मोबाइल, कम्प्यूटर, टीवी तथा वीडियो गेम की आभासी दुनिया से कुछ समय के लिए बाहर निकलकर अपने बचपन को सही मायनों में जी सकें। साथ ही सामाजिक एवं पारिवारिक सौहार्द के मायने भी उन्हें समझ में आएँ; अन्यथा आजकल बच्चे एकाकी एवं जिद्दी होते जा रहे हैं। इसके साथ ही बच्चों को नैतिक सद्गुणों तथा आध्यात्मिकता का पाठ भी ऐसे त्योहारों के माध्यम से मिलता है।
उल्लेखनीय है कि बाल एवं किशोर अपराध निरन्तर बढ़ते जा रहे हैं; इसके लिए वे बच्चे कम किन्तु उन्हें यह तनाव वाला माहौल परोसने वाला युगधर्म अधिक जिम्मेदार है। अतः प्रकृति, संस्कार, आध्यात्मिकता, सद्गुणों, स्वस्थ मनोरंजन एवं सौहार्द के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाने वाले फूलदेई जैसे लोकपर्व आज और भी अधिक प्रासंगिक हैं तथा इन्हें उत्तराखंड ही नहीं; अपितु क्षेत्र, धर्म, जाति, राष्ट्र आदि की परिधियों से ऊपर उठकर सार्वभौम रूप से मनाये जाने की आवश्यकता है। ताकि एक स्वस्थ बचपन को जीने के बाद बच्चा एक मशीन नहीं; अपितु एक स्वस्थ मानव बन सके. अपराध, छल-कपट एवं झूठ आदि अनैतिक गतिविधियों के स्थान पर वे नैतिक सद्गुणों से युक्त श्रेष्ठ मानव बनकर श्रेष्ठ एवं स्वस्थ मानव समाज का निर्माण कर सकें।

जो हम देते हैं वो ही हम पाते हैं

व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है दान

जो हम देते हैं वो ही हम पाते हैं
- डॉ. नीलम महेन्द्र 
दान के विषय में हम सभी जानते हैं। दान, अर्थात् देने का भाव, अर्पण करने की निष्काम भावना। भारत वो देश है जहाँ कर्ण ने अपने अंतिम समय में अपना सोने का दाँत ही याचक को देकरऋषि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दान करके और राजा हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को अपना पूरा राज्य दान करके विश्व में दान की वो मिसाल प्रस्तुत की जिसके समान उदाहरण आज भी इस धरती पर अन्यत्र दुर्लभ हैं।
शास्त्रों में दान चार प्रकार के बताए गए हैं , अन्न दान,औषध दान, ज्ञान दान एवं अभयदान
एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अंगदान का भी विशेष महत्त्व है।
दान एक ऐसा कार्य, जिसके द्वारा हम न केवल धर्म का पालन करते हैं ; बल्कि समाज एवं प्राणी मात्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी करते हैं; किन्तु दान की महिमा तभी होती है जब वह निस्वार्थ भाव से किया जाता है।  अगर कुछ पाने की लालसा में दान किया जाए, तो वह व्यापार बन जाता है 
यहाँ समझने वाली बात यह है कि देना उतना जरूरी नहीं होता, जितना कि 'देने का भाव '। अगर हम किसी को कोई वस्तु दे रहे हैं; लेकिन देने का भाव अर्थात् इच्छा नहीं है, तो वह दान झूठा हुआ, उसका कोई अर्थ नहीं।
इसी प्रकार जब हम देते हैं और उसके पीछे कुछ पाने की भावना होती है- जैसे पुण्य मिलेगा या फिर परमात्मा इसके प्रत्युत्तर में कुछ देगा, तो हमारी नजर लेने पर है, देने पर नहीं , तो क्या यह एक सौदा नहीं हुआ  ?
दान का अर्थ होता है देने में आनंद,एक उदारता का भाव प्राणी मात्र के प्रति एक प्रेम एवं दया का भाव; किन्तु जब इस भाव के पीछे कुछ पाने का स्वार्थ छिपा हो तो क्या वह दान रह जाता है ?
गीता में भी लिखा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो । हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है उसके फल पर नहीं।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यह तो संसार एवं विज्ञान का साधारण नियम है ; इसलिए उन्मुक्त ह्रदय से श्रद्धा पूर्वक एवं सामर्थ्य अनुसार दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा।
आज के परिप्रेक्ष्य में दान देने का महत्व इसलिए भी बढ़ गया है कि आधुनिकता एवं भौतिकता की अंधी दौड़ में हम लोग देना तो जैसे भूल ही गए हैं।
हर सम्बन्ध को हर रिश्ते को  पहले प्रेम समर्पण त्याग सहनशीलता से दिल से सींचा जाता था लेकिन आज !आज हमारे पास समय नहीं है क्योंकि हम सब दौड़ रहे हैं और दिल भी नहीं है क्योंकि सोचने का समय जो नहीं है !
हाँ, लेकिन हमारे पास पैसा और बुद्धि बहुत है , इसलिए अब हम लोग हर चीज़ में निवेश करते हैं , चाहे वे रिश्ते अथवा सम्बन्ध ही क्यों न हो ! पहले हम वस्तुओं का उपयोग करते थे और एक दूसरे से प्रेम करते थे; किन्तु आज हम भौतिक वस्तुओं से प्रेम करते हैं तथा एक दूसरे का उपयोग करते हैं।
इतना ही नहीं, हम लोग निस्वार्थ भाव से देना भूल गए हैं। देंगे भी तो पहले सोच लेंगे कि मिल क्या रहा है  और इसीलिए परिवार टूट रहे हैं, समाज टूट रहा है। जब हम अपनों को उनके अधिकार ही नहीं दे पाते तो समाज को दान कैसे दे पाएँगे  ?
अगर दान देने के वैज्ञानिक पक्ष को हम समझें-
जब हम किसी को कोई वस्तु देते हैं तो उस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं रह जाता, वह वस्तु पाने वाले के आधिपत्य में आ जाती है । अत: देने की इस क्रिया से हम कुछ हद तक अपने मोह पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं । दान देना हमारे विचारों एवं हमारे व्यक्तित्व पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है ;इसलिए हमारी संस्कृति हमें बचपन से ही देना सिखाती है न कि लेना 
हर भारतीय घर  में दान को  दैनिक कर्तव्यों में ही शामिल  करके इसे एक परम्परा का ऐसा स्वरूप दिया गया है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे बच्चों में संस्कारों के रूप में शामिल हैं, जैसे भोजन पकाते समय पहली रोटी गाय को, आखिरी रोटी कुत्ते को , चिड़ियों को दाना  आदि।
यह कार्य हमें अपने बच्चों के हाथों से  करवाना चाहिए; ताकि उनमें यह संस्कार बचपन से ही आ जाए और खेल खेल में ही सही, वे देने के सुख को अनुभव करें । यह एक छोटा-सा कदम कालांतर में हमारे बच्चों के व्यक्तित्व एवं उनकी सोच में एक सकारात्मक परिणाम देने वाला सिद्ध होगा।
दान धन का ही हो , यह कतई आवश्यक नहीं , भूखे को रोटी , बीमार का उपचार , किसी व्यथित व्यक्ति को अपना समय, उचित परामर्श , आवश्यकतानुसार वस्त्र , सहयोग , विद्या  यह सभी जब हम सामने वाले की आवश्यकता को समझते हुए  देते हैं और बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करते ,  यह सब दान ही है 
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है।
दानों में विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ दान होता है क्योंकि उसे न तो कोई चुरा सकता है और न ही वह समाप्त होती है बल्कि कालांतर में विद्या बढ़ती ही है और एक  व्यक्ति को शिक्षित करने से हम उसे भविष्य में दान देने लायक एक ऐसा नागरिक बना देते हैं ,जो समाज को सहारा प्रदान करे न कि समाज पर निर्भर रहे ।
इसी प्रकार आज के परिप्रेक्ष्य में रक्त एवं अंगदान समाज की जरूरत है।जो दान किसी जीव के जीवन के प्राणों की रक्षा करे उससे उत्तम और क्या हो सकता है ?
देना तो हमें प्रकृति रोज सिखाती है , सूर्य अपनी रोशनी, फूल अपनी खुशबू , पेड़ अपने फल,नदियाँ अपनी जल, धरती अपना सीना छलनी करि कर भी दोनों हाथों से हम पर अपनी फसल लुटाती है।
न तो सूर्य की रोशनी कम हुई ,न फूलों की खुशबू , न पेड़ों के फल कम हुए न नदियों का जल, अत: दान एक हाथ से देने पर अनेकों हाथों से लौटकर हमारे ही पास वापस आता बस शर्त यह है कि निस्वार्थ भाव से श्रद्धापूर्वक समाज की भलाई के लिए किया जाए । आचार्य विनोबा भावे भी कहते थे कि दान का अर्थ फेंकना नहीं ,बोना होता है।
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रसखान के दोहे

रसखान के दोहे
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥
बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥
अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन कियो उपाय॥
दंपति सुख अरु विषय रस, पूजा निष्ठा ध्यान।
इन हे परे बखानिये, सुद्ध प्रेम रसखान॥
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल॥
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥