जैविक खेती की ओर मुड़े
बिरहोर
-बाबा
मायाराम
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मंझगंवां का आनंदराम मिश्रित खेती करते हुए |
छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले का एक गाँव है समेलीभाठा।
मानगुरू पहाड़ और जंगल के बीच स्थित है। यहाँ के बाशिन्दे हैं बिरहोर आदिवासी।
जंगल ही इनका जीवन है। वे न सिर्फ जंगल में रहते हैं, उन पर निर्भर हैं, बल्कि जंगल का संरक्षण भी करते हैं। यह उनकी परंपराओं में है, उनकी जीवनशैली में है। अब उन्होंने पौष्टिक अनाजों की जैविक खेती करना भी
शुरू किया है। घरों में बाड़ी (किचन गार्डन) में सब्जियों और फलदार वृक्षों की
खेती भी कर रहे हैं।
बिर का अर्थ जंगल, और होर का अर्थ आदमी
होता है। यानी जंगल का आदमी। बिरहोर आदिवासी विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति में से एक
हैं। यह घुमंतू जनजाति मानी जाती है। हालांकि उनके पूर्वज सरगुजा जिले से इधर आए
थे, लेकिन अब स्थाई रूप से यहीं बस गए।
मैं
अप्रैल माह में यहाँ लम्बी यात्रा कर पहुँचा था। माल्दा, समेलीभाठा और गुडरूमुड़ा गाँव
गया था। राजिम की प्रेरक संस्था से जुड़े दो कार्यकर्ता रमाकांत जायसवाल और
तिहारूराम बिरहोर ने मुझे इन गाँवों में घुमाया। वे यहाँ आजीविका संरक्षण,
वन अधिकार और जैविक खेती पर बिरहोर आदिवासियों के बीच काम करते हैं।
उनकी जिंदगी बेहतर बनाने की कोशिश में जुटे हैं। प्रेरक संस्था ने देसी धान के
बीजों का संरक्षण का काम किया है।
रमाकांत
जायसवाल और तिहारूराम बिरहोर ने बताया कि बिरहोर मुख्यतः पूर्व में शिकार करते थे
और वनोपज एकत्र करते थे। बंदरों का शिकार उन्हें बहुत प्रिय था; लेकिन अब शिकार पर कानूनी प्रतिबंध
है। अब बिरहोर मुख्यतः बाँस के बर्तन बनाते हैं और रस्सी बनाकर बेचते हैं। बांस के
बर्तनो में पर्रा, बिजना ( हाथ से हवा करने वाला पंखा),
टुकनी ( टोकनी), झउआ ( तसला की तरह), आदि चीजें बनाते हैं । इनमें से ज्यादातर बाँस के बर्तन शादी-विवाद के
मौके पर काम आते हैं। पटुआ ( पौधा) और मोगलई ( बेल) की छाल से रस्सी बनती है। खेती-किसानी
में काम आनेवाली रस्सियाँ व मवेशियों को बाँधने के लिए रस्सियाँ बनाते हैं। जोत,
गिरबाँ, सींका,दउरी आदि
चीजें रस्सी बनाते हैं। इनमें से जोत व गिरबाँ गाय बैल को बाँधने व हल बक्खर में
काम आते हैं। खेती और पशुपालन साथ साथ होता है। इसके अलावा सरई पत्तों से
दोना-पत्तल बनाकर बेचते भी हैं। इस सबसे ही उनकी आजीविका चलती है।
बिरहोरों
की आबादी कम है। इनकी जीवनशैली अब भी जंगल पर आधारित है। इनमें पढ़े-लिखे बहुत कम
हैं। हालांकि अब साक्षर व शिक्षित होने लगे हैं। बाँस के बर्तन बनाने, रस्सी बनाने के अलावा बहुत ही
कम लोग खेती करते हैं।
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गुडरूगुड़ा का दुलार अपनी पत्नी श्याम बाई के साथ |
तिहारूराम
ने बताया - “पहले अनाज खाने नहीं मिलता था। महुआ फूल को पकाकर खाते थे। ज्वार और बाजरे
की रोटी खाते थे। अब पहले जैसी स्थिति नहीं है।”
माल्दा, जो तिहारूराम का गाँव है,
मैं उनके घर ही रात में ठहरा था। खुले के आसमान के नीचे खाट पर सोने
का मौका मिला। तिहारूराम ने मुझे बताया थोड़ी देर में भगवान का लाइट आएगा और अँधेरा
भाग जाएगा। मैं आकाश में जगमगाते तारे और चाँद की रोशनी देखते- देखते सो गया। मुझे
गहरी नींद आई। खुले आसमान के नीचे सोने का मौका बहुत सालों बाद आया था। सुबह तालाब
के ठंडे पानी में स्नान किया। ग्रामीण संस्कृति की मिठास का अनुभव किया। छत्तीसगढ़
की एक पहचान तालाब भी हैं। यहाँ अधिकांश गाँवों में तालाब होते हैं।
तिहारूराम
और रमाकांत जायसवाल ने बताया कि उन्होंने पहले दौर में 10 गाँवों का चयन किया है जिसमें
जैविक खेती और किचिन गार्डन का काम किया जा रहा है। जिसमें पौड़ी उपरोड़ा विकासखंड
के गाँव मालदा, नागरमूडा, डोंगरतलाई,
कटोरी नगोरी, गुडरूमुडा, समेली भाठा और पाली विकासखंड के मंझगवां, उड़ता,
टेढ़ीचुआ, भंडार खोल शामिल हैं। इन गाँवों में
जैविक खेती के लिए 50 किसानों को देसी बीजों का वितरण किया
गया हैं। इसके लिए मालदा में बीज बैंक है। बाड़ियों ( किचिन गार्डन) के लिए भी
देसी सब्जियों के देसी बीज दिए गए हैं।
वे आगे
बताते हैं कि इन गाँवों में जैविक खेती में धान, झुनगा, अरहर, उड़द, हिरवां, बेड़े आदि खेतों
में बोया गया है। और बाड़ियों में लौकी, भिंडी, बरबटी, कुम्हड़ा, तोरई,
डोडका, मूली, पालक,
भटा, करेला, चेंच भाजी,
लाल भाजी इत्यादि। इसके अलावा, फलदार वृक्षों
में मुनगा, बेर, पपीता, आम, जाम, आँवला, नीम, कटहल आदि के पौधे भी वितरित किए गए हैं।
अगले दिन
हम पहाड़ पर बसे समेलीभाठा गाँव गए। यह पौड़ी विकासखंड के अंतर्गत आता है। यहाँ
करीब 35 घर हैं। आदिवासियों के घर
विरल हैं, घनी बस्ती नहीं है। छोटे- छोटे घर लकड़ियों के बने
हैं और उनकी बागुड़ ( बाउन्ड्री) भी लकड़ियों से ही बनी है। घरों की दीवार भी
लकड़ियों की ही थी। बहुत मामूली स्थानीय चीजों से बने पर बहुत ही सुघड़ता से गोबर
से लिपे-पुते। न कोई तामझाम, न दिखावा। इनमें आँखें टिक जाती
थीं। अब शासकीय आवास योजना में पक्के घर भी बन गए हैं।
यहाँ
के एतोराम बिरहोर, लछमन बिरहोर, रतीराम बिरहोर, बंकट,
दुकालू और जगतराम ने बताया उनका जीवन पूरी तरह जंगल पर निर्भर है।
जंगल से महुआ, चार, तेंदू, भिलवाँ, आम, बोईर (बेर),
अमली ( इमली), हर्रा, बहेड़ा,
आँवला इत्यादि वनोपज मिलते हैं।
हरी
पत्तीदार भाजियों में कोयलार,
मुनगा, आमटी, सोल,
फांग, चरौटा, कोसम और
पीपल भाजी मिलती है। इसके अलावा, कडुवां कांदा, नकवा कांदा, बरहा कांदा, सियो
कांदा, पिठारू कांदा, कुदरू, केउ कांदा, गिलारू कांदा आदि मिलता है। कई तरह के
पुटू ( मशरूम) भी जंगल से मिलते हैं। मसलन- गुहिया, चरकनी,
सुआ मुंडा, पटका, चिरको,
कुम्मा, पतेरी इत्यादि।
इसके
अलावा, बिरहोर जड़ी-बूटियों से इलाज
करना जानते हैं। उन्हें किस बीमारी में कौन-सी जड़ी काम आती
है, इसकी जानकारी है। धौंरा की
छाल को वे चाय पत्ती की तरह डालकर तरोताजा होने के लिए पीते हैं। वे अब भी कुछ
छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज जड़ी-बूटी से कर लेते हैं।
बिरहोर
आदिवासियों का मुख्य त्योहार खरबोज है। ठाकुरदेव, बूढादेव, नागदेवता
जंगल में है। माघ पूर्णिमा में यह त्यौहार मनाया जाता है। कर्मा नाचते हैं।
नवापानी मनाते हैं। यह नए अनाजों के घर में आने की खुशी में मनाया जाता है,
जिसे अन्य जगहों पर नुआखाई भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ और ओडिशा में
नुआखाई का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
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हिरवां के खेत में आनंदराम अपनी भाभी के साथ |
बिरहोर
जंगल से लेते ही नहीं हैं, बल्कि उसको बचाते भी हैं। जंगल के प्रति जवाबदारी भी समझते हैं। उनका जंगल
से माँ-बेटे का रिश्ता है। वे जंगल से
उतना ही लेते हैं जितनी जरूरत है। उन्होंने ऐसे नियम कायदे बनाए हैं कि जिससे जंगल
का नुकसान न हो।
ग्रामीण
बताते हैं कि वे कभी भी फलदार वृक्ष जैसे महुआ, चार, आम के पेड़ नहीं काटते। फलदार
वृक्षों से कच्चे फलों को नहीं तोड़ते। किसी भी पेड़ की गीली लकड़ी को नहीं काटते।
जरूरत पड़ने पर सबसे पहले जंगल में घूमकर सूखी लकड़ी तलाशते हैं, उसे ही काम में लेते हैं।
गुडरूमुड़ा
के बुधेराम, मंगल,
घसियाराम, जगेसर, नवलसिंह
ने बताया कि अब जंगल भी पहले जैसे नहीं रहे। बाँस मिलने में भी दिक्कत है। जंगलों
में बाहरी लोगों का भी आना-जाना बढ़ गया है। इधर कुछ सालों से हाथियों का उत्पात
बढ़ गया है, जिससे लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा
है। मौसम बदल रहा है, बारिश नहीं हो रही है।
जलवायु
बदलाव को देखते हुए देसी बीजों की मिश्रित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। जो देसी
बीज गुम हो गए हैं, वे बीज छत्तीसगढ़ के दूसरे इलाकों से लाकर बिरहोरों को उपलब्ध कराए जा रहे
हैं। कोदो, कुटकी, धान की देसी किस्में,
जो कम पानी में भी पक जाती हैं। घर की बाड़ियों (किचिन गार्डन) में
हरी सब्जियाँ उगाने पर जोर दिया जा रहा है। इसी तरह प्रेरक संस्था ने कमार आदिवासियों के बीच गरियाबंद इलाके में घर की बाड़ियों का काम किया
है। इससे देसी हरी सब्जियाँ व फलदार पेड़ों से फल मिलते हैं। बच्चों को अच्छा पोषण
मिलता है। अगर इन फसलों में रोग लगते हैं तो जैव कीटनाशक किसान खुद बनाते हैं और
उनका छिड़काव करते हैं।

कुल
मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बिरहोरों
की जीवनशैली प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की है। जंगलों के साथ उनका रिश्ता गहरा है।
वे एक दूसरे के पूरक हैं। जलवायु बदलाव के दौर जंगलों में और वहाँ से मिलने वाले
कंद-मूल व खाद्य पदार्थों में कमी आई है। इसलिए जैविक खेती उपयोगी हो गई है।
विशेषकर कम पानी वाली और बिना रासायनिक वाली जैविक खेती से भोजन सुरक्षा के साथ
मिट्टी पानी का संरक्षण और संवर्धन होगा। बाड़ियों में हरी सब्जियाँ व फलदार
वृक्षों से पोषण मिलेगा। सब्जियों के लिए बाजार पर कम निर्भरता होगी। जो कमी मौसम
बदलाव के दौर में जंगलों से कंद-मूल व सब्जियों में आ रही है, उसकी पूर्ति होगी। जंगल हरा-भरा होगा। लुप्त हो रहे देसी बीज बचेंगे और
जैव विविधता बचेगी और पर्यावरण भी बचेगी। कृषि और गाँव संस्कृति बचेगी। खान-पान की
पारंपरिक संस्कृति बचेगी। इस दिशा में प्रेरक संस्था अनूठी पहल कर रही है। बिरहोर
आदिवासियों के जंगल संरक्षण की सीख सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। (विकल्प संगम से साभार)
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