-सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
"लो! जब पापा कमजोर पड़े तो
हमेशा की तरह शुरू हो गया माँ को पीटना। पहले दोनों के बीच थी अबोले की लड़ाई ! फिर
बात बढ़ते-बढ़ते शुरू हुआ था आपस में झगड़ना! और अब..!” पापा के कमरे से आती माँ की
रोने की आवाज को सुनकर बेटा झल्लाहट में बोला।"अक्सर होती ये लड़ाइयाँ देखते-देखते हम दोनों बड़े हो गए। बहुत हो गया अब, जाकर कहती हूँ पापा से।"
"नहीं दीदी! पापा, फिर तुम्हें भी मारेंगे।"
"तुझे गाँधी जी के तीन बन्दर बने रहना है, तो बैठा रह!" कहकर बिजली की तेजी से कमरे से बाहर निकल गई।
"तू जा बिटिया!" माँ ने बेटी को देखते ही रुँधे गले से कहा ।
"देखो भला, बेटी मुझे आँख दिखा रही! बिटिया को यही शिक्षा दी है तुमने!" कहकर उसने पत्नी को एक तमाचा और जड़ दिया ।
"बस.. कीजिए पापा... !" बेटी चीखी।
"तू मुझे रोकेगी !" कहते हुए पिता ने हाथ उठाया ही था कि बिटिया ने हाथ पकड़कर झटक दिया ।
"माँ! तुम्हीं ने तो शिक्षा दी है न कि अन्याय के खिलाफ बोलना चाहिए!" बेटी अपनी माँ से मुख़ातिब हुई।
"अच्छा....! तो आग इसी ने लगाई है।" कहकर तैश में आ फिर से पिता आगे बढ़े ।
"हम दोनों जवान हो गए हैं पापा। आप भूल रहे हैं, आप बूढ़े और कमजोर हो गए हैं। माँ भी पलटकर एक लगा सकती हैं, लेकिन वह रूढ़ियो में जकड़ी हैं, पर हम भाई-बहन नहीं...।" क्रोध और आवेश से भरा बेटे का स्वर कमरे में गूँज गया।
"चुपकर बेटा!" खुद की दी हुई शिक्षा अपने ही पति पर लागू न हो जाए ,इस डर से बच्चों के पास आकर माँ, उन्हें बाहर जाने को कहने लगी।
बेटी के दुस्साहस से पिता आहत हुए थे। अभी वे सम्हल भी नहीं पाए थे कि बेटे ने भी चुटीले शब्दों की आहुति डाल दी थी। सुनकर पिता का चेहरा तमतमा गया।
सामने बिस्तर पर पड़े हुए अखबार में ‘पत्नी के साथ घर में गर्लफ्रैंड रख सकते हैं’ हेडिंग देखकर बेटी ने हिम्मत बटोर पिता से कहा - "माँ को जिस कानून की धमकी दे रहे हैं आप, जाकर उन आंटी से कभी यही कहके देखिएगा। माँ के साथ आप जो करते हैं न, वही आपके साथ वह करेंगी।"
बेटी के मुख से निकले शब्दों को सुनकर शर्मिंदगी के बोझ से पिता का सिर झुक गया ।
"कानूनी आदेश का सहारा लेकर जो आप धौंस दे रहे हैं! माँ यदि कानून की राह चली होती, तो आप न जाने कब के जेल में होते। घरेलू हिंसा भी अपराध है पापा, वकील होकर भी आपको यह नहीं पता है ।" बेटा बिना पूर्णाहुति दिए कैसे चुप रहता।
"चुप करो बच्चों, कानून का डर दिखाकर रिश्तों की डोर मजबूत नहीं हुआ करती है, हाँ टूट जरूर जाती है।" कहकर उनकी माँ जोर-जोर से रोने लगी। मार खाकर भी वह इतना नहीं रोई थी।
पत्नी और जवान बच्चों के मुख से निकले एक-एक शब्द हवा में नहीं बल्कि पिता के गाल पर पड़ रहे थे। थप्पड़ पड़े बिना ही अचानक पिता को अपने दोनों गालों पर जलन महसूस हुई, अपने गालों को सहलाते हुए वह वही रखी कुर्सी में धँस गए।
2-खुलती गिरहें
पत्नी और माँ के बीच होते झगड़े से आज़िज आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा। सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला- "बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी।"
"बहू! बेटी बन सकती है?" पूछ अपनी दुल्हन से।" भौंहों को चढ़ाते हुए पूछा ।
"हाँ, क्यों नहीं?" आश्वस्त हो, बेटा ही बोल पड़ा।
"ठीक से एक बहू तो बन नहीं पा रही है, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह।" गुस्से से माँ ने जवाब दिया।
"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ ?" सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली।
"बहू तो ठीक-ठाक है, पर तू बेटी नहीं बन सकती ।"
"माँ जी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ। आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं।" बहू ने अपनी बात कही।
"जब मेरे सास रूप से तुम्हारा यह हाल है, तो अगर मैं माँ बन गई, तो तुम तो मेरा जीना ही हराम कर दोगी।" सास ने नहले पर दहला मारा।
"कहना क्या चाह रही हैं आप?" अब भौंहें तिरछी करने की बारी बहू की थी।
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी बेटी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा या कभी कहीं जाने से रोका !" सास ने सवाल किया।
"नहीं तो !" छोटा-सा ठंडा जवाब मिला ।
बेटा उन दोनों की बहस से आहत हो बालकनी में पहुँच गया था ।
"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा। न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ ।" बहू को घूरती हुई सास बोली।
"नहीं माँ जी, नमक ज्यादा होने पर भी आप खा लेती हैं सब्जी!" आँखें नीची करके बहू बोली।
"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है। यदि माँ बनकर कहीं मैं तुमसे सुमी जैसा व्यवहार करने लगूँगी, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी !" कहकर सासू की बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।
कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे। चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था ।
"बस कीजिए माँ ! मैं समझ गई। मैं एक अच्छी बहू ही बन के रहूँगी।" सास के जरा करीब आकर बहू बोली।
"अच्छा!"
बहू आगे बोली- "मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं। सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया और मेरे मन में ज़हर भरता गया।"
सास बोलीं- "उनकी बातों को तुमने सुना ही क्यों? यदि सुना तो गुना क्यों?"
बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया।
"गलती हो गई माँ। अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का?" बहू ने मुस्कराकर पूछा।
"दाल-भरी पूरी ..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।" कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल ओंठों पर फैल गई ।
धूप देख कली मुस्कराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गई। कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंक-झोक में तब्दील हो चुकी थी ।
सास फिर थोड़ी आँखें तिरछी करके बोली- "बना लेगी..?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न !!" बहू मुस्करा के चल दी रसोई की ओर।
बेटा मुस्कराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी।"
माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, ज़रूर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न ।"
बालकनी के साथ सोंधी खुशबू से रसोई भी महक उठी।
सम्पर्कः w/o देवेन्द्र नाथ मिश्रा (पुलिस निरीक्षक ), फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी, आगरा, पिनकोड-२८२००२, 2012.savita.mishra@gmail.com, m0. ९४११४१८६२१
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