युवा
शक्ति - दशा और दिशा...
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डॉ. रत्ना वर्मा
आजकल शिक्षा प्राप्त करने वाली संस्थाओं में
पढऩे वाले युवा शिक्षा और रचनात्मकता के लिए अपनी आवाज उठाने के बजाय देश के अन्य
मामलों को लेकर विरोध प्रदर्शन, और आंदोलन करते हैं, जिनका उनके ज्ञान, उनके कैरियर या उनके भविष्य को
लेकर कोई लेना-देना नहीं होता। इससे अधिक अफसोस की बात तो ये है कि हमारे देश की
राजनैतिक पार्टियाँ उनकी ऊर्जा का इस्तेमाल अपने राजनैतिक फायदे के लिए करती हैं,
फलस्वरूप अपना जो बहुमूल्य समय इन युवाओं को अपनी शिक्षा को देना
चाहिए ,उसे वे विध्वंसक गतिविधियों में खर्च कर देते हैं।
पढ़ाई के नाम पर आजकल के विश्वविद्यालयों में नेतागिरी अधिक होने लगी है। शिक्षा
केन्द्रों में राजनैतिक दखलंदाजी किसी भी देश के लिए उचित नहीं माना जा सकता। अपनी
बात कहने की आजादी सबको है ,परंतु बात कहने का जो तरीका आजकल
के युवा अपना रहे हैं, या उन्हें अपनाने के लिए बाध्य किया
जाता है, वह न उनके हित में है न देश हित में। आज़ादी और
अराजकता दो अलग-अलग बातें है। सरकारी सम्पत्ति नष्ट करना
आज़ादी नहीं, देशद्रोह है। यह वही सम्पत्ति है जिसे जनता
ने अपनी गाढ़ी कमाई से टैक्स के रूप में
भरा है ।
जब माता- पिता अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला
करवते हैं तो उन्हें यह विश्वास होता है कि वे अपने बच्चे का भविष्य बेहतर हाथों
में सौंप रहे हैं और स्कूल- कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करते हुए उनका बच्चा देश का
एक ऐसा नागरिक बनकर निकलेगा, जिसपर न सिर्फ उन्हें बल्कि
पूरे देश को गर्व होगा। शिक्षा ज्ञान -प्राप्ति का ऐसा
माध्यम है ,जिससे जरिए हम स्वयं का, परिवार
का, समाज का और देश की तरक्की के साथ उसकी मजबूती के लिए एक
बेहतर जीवन के बारे में सोच विकसित करते हैं। शिक्षा, संस्कार
और संस्कृति के जरिए हम प्यार, शांति और सुकून के विषय में
बात करते हैं ,न कि विध्वंस की। संविधान में अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता का तात्पर्य यह तो नहीं कि आप मनमानी पर उतर आएँ। स्वतंत्रता का
दुरुपयोग करने का अधिकार कोई भी संविधान नहीं देता। गलत राह दिखाकर, बरगलाकर यदि जनता की समझ को, उनके विचारों को मोड़
दे दिया जाए तो परिणाम भयावह हो सकते हैं।
यह तो हम सभी को पता है कि कोई भी देश अपनी
पुरातन संस्कृति, इतिहास परम्परा से कटकर समाज
को मज़बूत नहीं कर सकता। यह अफ़सोस का विषय है कि हमारे देश के जिन वीरों और महापुरुषों के बलिदान और उनके
द्वारा सामाजिक उत्त्थान की अनेक गाथाएँ आज़ादी से पहले घर-घर में गूँजा करती थीं ,वे आज़ादी के बाद कैसे विलुप्त हो गए? महाराणा
प्रताप, शिवाजी, भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस जैसे
महापुरुषों की वीर गाथाएँ हमारी नई पीढ़ी के पाठ्यक्रम से कैसे विलुप्त होते चली
गईं? कैसे इन सबका स्थान अलाउद्दीन खिलजी, अहमद शाह अब्दाली, औरंगजेब जैसे अत्याचारियों ने ले
लिया। ये कौन इतिहासकार हैं ,जो भारतीय अस्मिता से खिलवाड़
करने में लगे हुए हैं। हमारे पाट्यक्रम में ‘हिन्दू पंच’
और ‘चाँद’ का फाँसी अंक जैसी
कालजयी पुस्तकें क्यों शामिल नहीं की जातीं। आजादी के आन्दोलन के समय प्रतिबन्धित
भारतीय साहित्य के वे असंख्य गीत और पुस्तकें युवाओं की पहुँच से क्यों दूर हैं?
जिस राष्ट्रीय भावना को आज़ादी के बाद अधिक
सशक्त होना था, उसे शनै: शनै: कैसे खोखला किया
गया, इसके कारणों पर गम्भीरता से सोचना होगा। अनपढ़ लोगों को चालाकी से किस प्रकार गुमराह
किया जाता है, यह सी ए जैसे बिल के विरोध में प्रायोजित
आन्दोलन से समझ में आ जाएगा। जो कानून
भारत के नागरिकों के लिए नहीं है, उसको निहित
स्वार्थों के कारण गलत ढंग से पेश करके लोगों को बहकाया जा रहा है। आश्चर्य तो तब
होता है , जब राजनैतिक दल लोगों को गुमराह करने की बाकायदा मुहिम चलाने के लिए सभी पैंतरे आजमाने
लगते हैं। इन सबके लिए ठण्डे दिमाग
से सोचने की ज़रूरत है। जागरूकता की कमी
किसी भी देश के लिए बहुत घातक है। सही गणतन्त्र तभी माना जाएगा, जब लोग मिलजुलकर चलें, देश को मज़बूत बनाएँ। देश को लूटने वालों की पहचान भी ज़रूरी है। सरकारी
धन का दुरुपयोग करने वालों, सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने
वालों से पाई-पाई की वसूली होनी चाहिए। ऐसे लोगों को मासूम
नही, बल्कि राष्ट्र द्रोही की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
युवाओं के साथ- साथ इस विषय पर बात सामान्य
जनता की भी की जाए- उन्हें उनके कर्तव्यों की जानकारी तो कुछ- कुछ दे दी गई है;
परंतु उनके अधिकारों की जानकारी क्यों नहीं दी गई? हमारी आबादी के एक बहुत बड़े
हिस्से को अच्छी शिक्षा से वंचित रखकर उन्हें क्रूर राजनीति और प्रशासन की कठपुतली
बनाकर क्यों रखा गया? आज वह वर्ग
केवल वोटबैंक बनकर क्यों रह गया है? तुष्टीकरण का यह षडयंत्र देश की
सद्भावना और शांति में किस प्रकार बाधक बन रहा है यह वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। जम्मू
कश्मीर में पिछले 60 वर्षों में एक विशेष वर्ग को क्यों उसके
अधिकारों से वंचित किया गया? क्यों किसी प्रदेश में
बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक कहकर पूरे देश को
अँधेरे में रखा गया। इन सबके मूल में अशिक्षा, असमानता का
व्यवहार और आज़ादी के अर्थ को ठीक से न समझना ही है। जरुरत पूरे देश में एक स्वस्थ
माहौल, बेहतर शिक्षा और देश के हित में की जाने वाली राजनीति
की है, तभी हम शांतिपूर्ण और एक खुशहाल देश की कल्पना कर
सकते हैं।
जो संविधान की बात नहीं मानते, जिनका न्यायपालिका में
विश्वास नहीं, जिनका एकमात्र उद्देश्य छल-प्रपंच से देश को लूटना है, उनके साथ छूट क्यों? राष्ट्र को खोखला करने
वालों को जेल के सींखचों में होना चाहिए। जो निरीह लोगों के अमानवीय शोषण में
शामिल हों, हत्या , लूट -खसोट में शामिल हों, उनके लिए मानव
अधिकारों की दलील क्यों दी जाती है? आज इन सब बातों पर खुले दिमाग से सोचना होगा। यही समय की माँग है।
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