रवीन्द्रनाथ ठाकुर की क्षणिकाएँ
(अंग्रेजी से हिन्दी में
काव्य-रूपान्तर: डॉ. कुँवर दिनेश सिंह)
1
तुम्हारी
कौन सी भाषा है, ओ
सागर?’
‘सतत
प्रश्न की भाषा।’
‘तुम्हारे
उत्तर की कौन सी भाषा है, ओ गगन?’
‘सतत
मौन की भाषा।’
-0-
‘हम
सरसराते पत्तों की आवाज
तूफानों
को जवाब देती है,
पर तुम
कौन हो - इतने खामोश?’
‘मैं
तो सिर्फ एक फूल हूँ।’
जल में
मछली खामोश है,
धरा पर
जानवरों का शोर है,
हवा
में पंछी गा रहा है।
लेकिन
मानव के अन्तर में
समुद्र
की खामोशी है,
धरा का
शोर है, और
हवा का
संगीत है।
-0-
मेरा
दिन बीत गया है,
और मैं
हूँ किनारे पर पहुँची हुई
किश्ती
की तरह,
सन्ध्या-समय
सुन रहा हूँ
लहरों
के नर्तन-संगीत को।
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कवि-पवन
निकल पड़ा है
समुद्र
में
और वन
में
अपने
निजी स्वर की तलाश में।
मृत्यु
में अनेक हो जाते हैं एक,
जीवन
में एक बन जाता है अनेक।
उस दिन
धर्म एक हो जाएगा -
जिस
दिन ईश्वर मृत हो जाएगा।
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‘ए
फल, तुम मुझसे कितना दूर हो?’
‘ए
फूल, मैं तो छिपा हूँ तुम्हारे ही हृदय में।’
-0-
‘चाँद
में तुम भेजते हो प्रेम-पत्र मुझे,’
कहा
रात ने सूर्य से।
‘मैं
घास पर आँसुओं में
भेजती
हूँ जवाब अपने।’
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सम्भव
ने असम्भव से पूछा,
‘तुम्हारा
घर कहाँ है?’
जवाब
मिला
‘नपुंसक
के स्वप्नों में।’
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बारिश
की बूँद ने
चमेली
के कान में कहा,
‘मुझे
हमेशा अपने दिल में रखना।’
चमेली
बोली ‘आह’, और
गिर
पड़ी ज़मीन पर।
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डॉ. कुँवर दिनेश सिंह की कुछ
मौलिक क्षणिकाएँ
छाया-युद्ध
चाहता
तो हूँ
अन्धकार
को जीतना
मैं
प्रयास करता हूँ
प्रकाश
से
आगे
बढ़ने का
किन्तु
मैं यह जाता हूँ
बनकर
सिर्फ
एक छाया ----
बरसाती
नाला
मत
सोचो सैलाब लाऊँगा
मैं तो
हूँ
एक
बरसाती नाला
उतर
आया हूँ
सड़क पर,
मैं
चला जाऊँगा
बारिश
थम जाने पर ----
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नज़रबट्टू
गुलाबों
के साथ काँटे
और
चंदन के साथ भुजंग
नहीं
करते भंग
उनकी
मर्यादा को, शान
को,
मगर
बचाते हैं
बुरी
नज़र से उनको ....
नदी की
मजबूरी
मैंने
माँगी शरण
नदी से,
किंतु
वह बहती रही
बेपरवाह, बेरुख सी,
मैं
नहीं जानता था
नदी
स्वयं
ढूँढ
रही थी कोई
शरण ...
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-0-
भँवर
का रास्ता
शुरू
होता है
मेरे
हृदय से
और
जाता है
उसके
हृदय तक
और
बचने का कोई रास्ता
मुझे
सूझता ही नहीं…।
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