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Jan 27, 2018

उदन्ती.com जनवरी 2018

उदन्ती.com जनवरी 2018
सत्य से कीर्ति प्राप्त की जाती है और सहयोग से मित्र बनाए जाते हैं।  -कौटिल्य

घटते जीवन मूल्य...

 घटते जीवन मूल्य...
- डॉ. रत्ना वर्मा
 साल दर साल बीतते चले जा रहे हैं .... और ज़िन्दगी है कि बहुत ही मुश्किल होती चली जा रही है- लोग जैसे भागे चले जा रहे हैं। किसके पीछे भाग रहे हैं, पूछो तो कहते हैं- ज़िन्दगी को आसान, आरामदायक, खुशहाल और बच्चों के अच्छे भविष्य के के लिए ही तो भाग रहे हैं।  हँसी तो आती है- ऐसी आपाधापी वाली ज़िन्दगी के भरोसे हम आने वाली पीढ़ी को खुशहाल ज़िन्दगी कैसे दे सकते है? क्या किसी चीज के पीछे भागते रहने से हमारे बच्चों की जिन्दगी की राह आसान हो सकती है?
पिछले दिनों घट रही घटनाओं के संदर्भ में देखें तो बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतन करने की आवश्यकता है। स्कूली बच्चों द्वारा स्कूल परिसर में दिन पर दिन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। आप सब गुडग़ाँव के रेयन स्कूल के ग्यारहवीं क्लास के एक छात्र द्वारा अपने ही स्कूल के दूसरी कक्षा में पढऩे वाले एक बच्चे प्रद्मुम्न ठाकुर की हत्या के मामले को भूले नहीं होंगे। आरोपी बच्चे ने स्कूल में छुट्टी कराने और टर्म एग्जाम को टालने के लिए इस वारदात को अंजाम दिया था।
 देश इस घटना के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की जाँच- पड़ताल करने का प्रयास कर ही रहा था कि दूसरी सन्न कर देने वाली घटना हरियाणा के यमुनानगर में एक निजी स्कूल परिसर में घट गई,जहाँ 12वीं में पढ़ऩे वाले एक छात्र ने स्कूल से निष्कासित किए जाने से नाराज होकर अपनी प्रिंसिपल की ही गोली मारकर हत्या कर दी। उस दिन स्कूल में पैरेंट्स मीटिंग थी। आरोपी छात्र शिवांश, पैरेंट्स मीटिंग में अपने पिता की रिवॉल्वर लेकर पहुँचा था। उसने प्रिंसिपल ऋतु छाबड़ा पर अपने पिता की रिवॉल्वर से ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी। इसके बाद तीसरा मामला आया- लखनऊ के ब्राइटलैंड स्कूल का, जब एक छात्रा ने स्कूल में महज छुट्टी कराने की मंशा से पहली कक्षा के एक मासूम छात्र को चाकू मारकर घायल कर दिया। 7वीं कक्षा में पढऩे वाली आरोपी छात्रा ने कबूल किया कि वह स्कूल में छुट्टी कराना चाहती थी, इसलिए प्रिंसिपल से मिलने के बहाने वह छात्र को टॉयलेट में ले गई, वहाँ उसके मुँह में कपड़ा ठूँसकर उसे चाकुओं से गोद दिया।
झकझोर देने वाली इन घटनाओं ने सबको सोचने पर बाध्य कर दिया है कि बच्चे आखिर इतने हिंसक क्यों हो रहे हैं? आखिर हमारी परवरिश में कहाँ चूक हो रही है? यह चिंतन का विषय है। उपर्युक्त तीनों मामलों में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने के साथ साथ बदल रहे पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों पर भी नज़र डालने की ज़रूरत है। 
सामाजिक नज़रिए से देखें तो घूम-फिर कर बात एक ही मुद्दे पर आकर टिक जाती है कि सयुंक्त परिवार बिखर गए हैं, एकल परिवार और माता- पिता दोनों का नौकरी करना एक गंभीर मुद्दा है, ऐसे में  माता- पिता के पास बच्चे के लिए समय ही नहीं होता। घर और स्कूल में उन्हें भौतिक सुख- सुविधाएँ तो पूरी मिल जाती है पर अपनापन, स्नेह, दुलार और प्यार नहीं मिल पाता।
 स्कूल में भी गुरु- शिष्य के बीच रिश्तों में व्यावसायीकरण के चलते आ रहे निरंतर बदलाव ने पढ़ाई- लिखाई के माहौल को भी एक नया मोड़ दे दिया है। आज शिक्षा प्राप्त करना यानी बड़ी कम्पनी, बड़ा ओहदा, बड़ा पैसा....  बचपन से ही बच्चों पर मानसिक दबाव होता है कि उन्हें तो सबसे अच्छा सबसे आगे रहना है। इन सबके बाद टीवी, कम्प्यूटर और मोबाइल ने बचपन को बचपन नहीं रहने दिया। दादी नानी के किस्से तो गुज़रे ज़माने की बात हो गई है। अब जब घर में दादीनानी ही नहीं, तो किस्से कहानी कौन सुनाएगा? बच्चे टीवी, मोबाइल में जो देखते हैं, सुनते है, जिस तरह के गेम खेलते हैं उसके बाद उनकी मानसिक स्थिति को समझ पाना मुश्किल होते जा रहा है। बच्चे मैदानी खेल और किताबों से दूर होते चले जा रहे हैं। अकेले होते बच्चे नशे के शिकार हो रहे हैं। एकाकीपन और अवसाद (डिप्रेशन) उन्हें हिंसक बना रहा है।
तकनीकी तरक्की ने विकास के नए रास्ते जरूर खोल दिए हैं पर मानवीय रिश्ते इन सबके बीच कहीं गुम होते जा रहे हैं। तभी तो आजकल निजी स्कूलों में बच्चों की मानसिकता समझने के लिए अलग से मनोवैज्ञानिक शिक्षक रखे जाते हैं। बच्चों में बदल रहे व्यवहार को देखते हुए समय-समय पर माता-पिता उनके पास जा कर सलाह- मशविरा करते हैं। सवाल यही उठता है कि आखिर इस तरह के काउंसलर की जरूरत क्यों पड़ी?
मानव का यह स्वभाव है कि वह खुशियों का स्वागत करता है और दु:खोंको दूर भगाने का प्रयास करता है। पर कहीं ऐसा तो नहीं कि इस प्रयास में हम अपने जीवन-मूल्य ही खोते जा रहे हैं। कारण है-बच्चों को समय न दे पाना जिसका दुष्परिणाम हमारी आने वाली पीढ़ी पर पड़ रहा है। देर रात तक फ़िल्म देखने का समय है। मॉल में जाकर पिज्जा-बर्गर खाने का समय है। वाट्सएप पर अनजाने लोगों से गप्प लड़ाने का समय है। दुनिया के मुद्दों पर झख मारने का समय है। अगर नहीं है, तो भावी पीढ़ी से बात करने का समय नहीं है। वे रूखे-सूखे पाठ्यक्रम के अलावा जीवन मूल्य की बातें कहाँ से सीखें, इसकी चिन्ता नहीं। वे क्या सोचते हैं, क्या चाहते हैं, इसको जानने का समय नहीं है। हम सबके लिए इन मुद्दों पर बिना समय गँवाए गंभीरता से चिंतन करने का समय है, ताकि आने वाली पीढ़ी को हम एक खुशहाल ज़िन्दगी दे सकें।                                    

वसन्त पर्व

प्रकृति का उल्लास पर्व- वसन्त
- कृष्ण कुमार यादव
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत,
मैं अग-जग का प्यारा वसंत।
मेरी पगध्वनि सुन जग जागा,
कण-कण ने छवि मधुरस माँगा।।
नव जीवन का संगीत बहा,
पुलकों से भरा दिंगत।
मेरी स्वप्नों की निधि अनंत,
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत। (महादेवी वर्मा)
वसंत का उत्सव प्रकृति और शृंगार का उत्सव है। इसके आगमन के साथ ही फिजा में चारों तरफ मादकता और उल्लास का अहसास छा जाता है।  कभी पढ़ा करते कि 6 ऋतु होती हैं- जाड़ा, गर्मी, बरसात, शिशिर, हेमत, वसंत। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव ने इन्हें इतना समेट दिया कि पता ही नहीं चलता कब कौन सी ऋतु निकल गई। पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में बाँटा गया है, उनमें वसंत सबसे मनभावन मौसम है, न अधिक गर्मी है न अधिक ठंड। यह तो शुक्र है कि अपने देश भारत में कृषि एवम् मौसम के साथ त्योहारों का अटूट सम्बन्ध है। रबी और खरीफ फसलों की कटाई के साथ ही साल के दो सबसे सुखद मौसमों वसंत और शरद् में तो मानो उत्सवों की बहार आ जाती है। वसंत में वसंतोत्सव, सरस्वती पूजा, महाशिवरात्रि, रंग पंचमी, होली और शीतला सप्तमी के अलावा चैत्र नवरात्रि में नव संवत्सर आरंभ, गुड़ी पड़वा, घटस्थापना, रामनवमी, चैती दशहरा, महावीर जयंती इत्यादि त्योहार मनाये जाते हैं। वास्तव में ये पर्व सिर्फ एक अनुष्ठान भर नहीं हैं, वरन् इनके साथ सामाजिक समरसता और नृत्य-संगीत का अद्भुत दृश्य भी जुड़ा हुआ है। वसंत ऋतु में चैती, होरी, धमार जैसे लोक संगीत तो माहौल को और मादक बना देते हैं। तभी तो कविवर सोहनलाल द्विवेदी लिखते हैं-
आया वंसत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।
सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नए फूल
पल में पतझड़ का
हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत।
माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी से ऋतुओं के राजा वसंत का आरंभ हो जाता है। इसमें न तो ग्रीष्म की रूमानी दग्धता है और न पावस की पच-पच पनियल हरी-हरी मादकता। वसंत के सौंदर्य में जो उल्लास मिलता है वह जैविक नहीं है। यह एक सगुण अनुभूति है। इसी समय से प्रकृति के सौंदर्य में निखार दिखने लगता है। वसंत में उर्वरा शक्ति अर्थात उत्पादन क्षमता अन्य ऋतु की अपेक्षा बढ़जाती है। वन में टेसू के फूल आग के अंगारे की तरह लहक उठते हैं, खेतों में सरसों के पीले-पीले फूल वसंत ऋतु की पीली साड़ी-सदृश दिखते हैं। ऐसे में वसंती हवा की इठलाहट को कविवर केदारनाथ अग्रवाल कुछ यूँ अभिव्यक्त करते हैं-
हँसी जोर से मैं,
हँसी सब दिशाएँ
हँसे लहलहाते
हरे खेत सारे
हँसी चमचमाती
भरी धूप प्यारी
बसंती हवा में
हँसी सृष्टि सारी
हवा हूँ हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
किसी कवि ने कहा है कि वसंत तो अब गाँवों में ही दिखता है, शहरों में नहीं। यह सच भी है, क्योंकि वसंत में सरसों पर आने वाले पीले फूलों से समूची धरती पीली नज़र आती है। इसी कारण इस दिन पीले रंग के कपड़े पहनने का चलन है। इन दिनों बोगनवेलिया, टेसू (पलाश), गुलाब, कचनार, कनेर आदि फूलने लगते हैं। आमों में बौर आ जाते हैं, गुलाब और मालती आदि के फूल खिलने लगते हैं। आम-मंजरी और फूलों पर भौंरे मँडराने लगते हैं और कोयल की कुहू-कुहू की आवाज प्राणों को उद्वेलित करने लगती है। तभी तो कविवर नागार्जुन कह उठते हैं-
रंग-बिरंगी
खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की
गंधो-स्वादों वाली ये
मंजरियाँ
तरूण आम की डाल-डाल
टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं।
इस मौसम में वृक्षों के पुराने पत्ते झड़ने के बाद उनमें नए-नए गुलाबी रंग के पल्लव मन को मुग्ध करते हैं। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति वसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है। जौ-गेहूँ में बालियाँ आने लगती हैं और वन वृक्षों की हरीतिमा मन को अपनी ओर आकर्षित करती है। पक्षियों के कलरव, पुष्पों पर भौरों का गुंजन तथा कोयल की कुहू-कुहू मिलकर एक मादकता से युक्त वातावरण निर्मित करते हैं। ऐसे में भला निरालाका कवि-मन क्यों न बौराये-
लता मुकुल हार गंध भार भर,
बही पवन बंद मंद मंदतर
जागी नयनों में वन यौवन की माया,
सखि वसंत आया।
यौवन हमारे जीवन का वसंत है तो वसंत इस सृष्टि का यौवन है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में वसंत का अति सुंदर व मनोहारी चित्रण किया है। भगवान कृष्ण ने गीता मेंऋतूनां कुसुमाकरःकहकर ऋतुराज वसंत को अपनी विभूति माना है। कविवर जयदेव तो वसंत का वर्णन करते थकते ही नहीं।वसंत ऋतु में मन में उल्लास और मस्ती छा जाती है और उमंग भर देने वाले कई तरह के परिवर्तन देखने को मिलते हैं। इससे शरद ऋतु की विदाई के साथ ही पेड़-पौधों और प्राणियों में नवजीवन का संचार होता है। प्रकृति नख से शिख तक सजी नजर आती है और तितलियाँ तथा भँवरे फूलों पर मंडराकर मस्ती का गुंजन गान करते दिखाई देते हैं। हर ओर मादकता का आलम रहता है। सुमित्रानंदन पंत इसे महसूस करते हुए लिखते हैं-
दीप्त दिशाओं के
वातायन,
प्रीति सांस-सा मलय
समीरण,
चंचल नील, नवल भूयौवन,
फिर वसंत की आत्मा आई,
आम मौर में गूँथ स्वर्ण कण,
किंशुक को कर ज्वाल वसन तन।
वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है। साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक जगह लिखा है, ’’वसंत का मादक काल उस रहस्यमय दिन की स्मृति लेकर आता है, जब महाकाल के अदृश्य इंगित पर सूर्य और धरती-एक ही महापिंड के दो रूप-उसी प्रकार वियुक्त हुए थे जिस प्रकार किसी दिन शिव और शक्ति अलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है।’’
हमारे यहाँ त्योहारों को केवल फसल एवं ऋतुओं से ही नहीं वरन् दैवी घटनाओं से जोड़कर धार्मिक व पवित्र भी बनाया गया है। यही कारण है कि भारतीय पर्व और त्योहारों में धार्मिक देवी-देवताओं, सामाजिक घटनाओं व विश्वासों का अद्भुत संयोग प्रदर्शित होता है। वसंत पंचमी को त्योहार के रूप में मनाए जाने के पीछे भी कई ऐसे दृष्टांत हैं। पीत वस्त्र धारण कर, पीत भोजन सेवन कर वसंत का स्वागत आज भी इसी दिन से होता है। ऐसा माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन ही देवी सरस्वती का अवतरण हुआ था; इसीलिए इस दिन विद्या तथा संगीत की देवी की पूजा की जाती है। पुराणों के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि वसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने पहली बार सरस्वती की पूजा की थी और तब से वसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा करने का विधान हो गया। छोटे बच्चों को अक्षरारंभ कराने के लिए भी यह अत्यंत शुभ दिन माना जाता है।
वसंत को ऋतुराज कहा गया है यानी सभी ऋतुओं का राजा। आयुर्वेद में वसंत को स्वास्थ्य के लिए हितकर माना गया है। वसंत में मादकता और कामुकता संबंधी कई तरह के शारीरिक परिवर्तन देखने को मिलते हैं जिसका आयुर्वेद में व्यापक वर्णन है। चरक संहिता में कहा गया है कि इस दिन कामिनी और कानन में अपने आप यौवन फूट पड़ता है। ज्योतिषियों की नजर में वसंत के मौसम में सबसे ज्यादा शुक्र का प्रभाव रहता है। शुक्र काम और सौंदर्य के कारक हैं। इसलिए यह अवधि रति-काम महोत्सव मानी जाती है। इस मौसम में कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ पृथ्वी का भ्रमण करते हैं। वसंत कामदेव मदन के प्रिय मित्र हैं और कामदेव धरती पर काम भावना लोगों में जाग्रत करते हैं। यही कारण है कि वसंत पंचमी का उत्सव मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है और तदनुसार वसंत के सहचर कामदेव तथा रति की भी पूजा होती है। नासिर काज़मी ने इसे कुछ यूँ अभिव्यक्त किया है-
कुंज-कुंज नग्माज़न वसंत आ गई
अब सजेगी अंजुमन वसंत आ गई
उड़ रहे हैं शहर में पतंग रंग-रंग
जगमगा उठा गगन वसंत आ गई
मोहने लुभाने वाले प्यारे-प्यारे लोग
देखना चमन-चमन वसंत आ गई
सब्ज खेतियों पे फिर निखार आ गया
ले के ज़र्द पैरहन वसंत आ गई
पिछले साल के मलाल दिल से मिट गए
ले के फिर नई चुभन वसंत आ गई ।
इस अवसर पर ब्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण और राधा के आनंद-विनोद का उत्सव मुख्य रूप से मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण इस उत्सव के अधिदेवता हैं। वसंत पंचमी के दिन से ही होली आरंभ हो जाती है और उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाई जाती है। इस दिन से होली और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। लोग वासंती वस्त्र धारण कर गायन, वाद्य एवं नृत्य में विभोर हो जाते हैं। ब्रज में तो इसे बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस दिन किसान नए अन्न में घी और गुड़ मिलाकर अग्नि तथा पितृ तर्पण भी करते हैं। रामचरित मानस के अयोध्याकांड में भी ऋतुराज वसंत की महिमा गाई गई है -
रितु वसंत हबह त्रिबिध बयारी।
सब कहं सुलभ पदारथ चारी।।
स्त्रक चंदन बनितादिक भोग।
देखि हरष बिसमय बस लोग।।
अर्थात् वसंत ऋतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन, स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विस्मय के वश हो रहे हैं।
गुलाबी धूप के साथ प्रकृति के पोर-पोर में बासन्ती छटा का अनुपम रंग नये अनुबंधों की अलख जगाता है। प्रकृति में सनी फूलों की मादक गंध, घर आँगन, खेत, सिवान में विस्तार लेती हुई नये सृजन का अहसास कराती है तो यही अनुहार-मनुहार की परम्परा को भी बासन्ती चोले से ढककर सर्जना के नए आयाम से जोड़ती है। वास्तव में वसन्त प्रकृति का उल्लास पर्व है। वसंत में मौसम खुशनुमा और ऊर्जावान् होता है, न ज्यादा ठंडा होता है और न गर्म। यही कारण है कि इस दौरान रचनात्मक व कलात्मक कार्य अधिक होते हैं। इस दौरान प्रकृति लोगों की  कार्यक्षमता में भी वृद्धि करती है, तभी तो लोगों की सृजन क्षमता बढ़जाती है। ऐसे में भला कैसे सम्भव है कि वसंत पर कोई भी सृजनधर्मी कलम न चलाए।तभी तो अज्ञेयऋतुराज के स्वागत में कहते हैं-
मलयज का झोंका
बुला गया
खेलते से स्पर्श से
रोम रोम को कंपा
गया
जागो जागो
जागो सखि वसंत
आ गया जागो।
 -अज्ञेय
ऐसा मानते हैं कि वसंत का उत्सव अमर आशावाद का प्रतीक है। वसंत का सच्चा पुजारी जीवन में कभी निराश नहीं होता। पतझड़में जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते गिर जाते हैं, उसी प्रकार वह अपने जीवन में से निराशा और असफलताओं को झटक देता है। निराशा से घिरे हुए जीवन में वसंत आशा का संदेश लेकर आता है। निराशा के वातावरण में आशा की अनोखी किरण फूट पड़ती है। जय शंकर प्रसाद ने इसे कुछ यूँ अभिव्यक्त किया है-
चिर-वसंत का यह उद्गम है,
पतझर होता एक ओर है,
अमृत हलाहल यहाँ मिले हैं,
सुख-दुख बंधते,
एक डोर हैं।
सम्पर्कः निदेशक डाक सेवाएँ, राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर -342001 मो. 09413666599, ई-मेलः kkyadav.t@gmail.comhttps://www.facebook.com/krishnakumaryadav1977

सरस्वती-वंदना

सरस्वती-वंदना (चौपाई)
-ज्योत्स्ना प्रदीप

अखिल जगत की अधिष्ठात्री हो,
जननी जग की औ धात्री  हो।
तेजोमय हो अमिट जोत हो,
स्नेह  राग   से   ओतप्रोत हो।

मंजुल ,सुंदर ,ललित ,कलित हो,
तर देती  जब  मनुज भ्रमित हो।
धवल वसन में शशि मुख चमका,
शुभ्र ज्योत्स्ना ज्यों सीपिज दमका।

हे  विद्यारूपे श्लोक,मंत्र में
तेरी लय हर वाद्य यंत्र में।
वेद,ऋचा हर मधु प्रसाद सा,
आखर-आखर ताल नाद सा।

हे शुभदे  तुम नभ -भूतल में,
नग ,पर्वत में ,सागर जल में।
अमिट मधुर सी इक सरगम है,
हर  पल   तेरा  आराधन है।
  
जग छल से माँ  आँसू छलके
आँखें ना  ही  दोषी पलकें।
तुम से ही तो जीवन शोभित 
कभी नहीं हो  सुख ये कीलित।

जीवन जब भी सघन निशा है,
तेरे पग-तल  दिव्य -दिशा है।
मिटे तिमिर वो विमल छंद दो,
महातारिणी  महानंद  दो।

सम्पर्कः मकान न.-32, गली न.-9, न्यू गुरु नानक नगर, गुलाब देवी, रोड, जालंधर, पंजाब 144013, jyotsanapardeep@gmail.com

चिंतन

रंगीन होती 31 दिसम्बर की रात
- डॉ. महेश परिमल
क्या कोई मान सकता है कि न कोई मूर्ति, न कोई आरती, न कोई गीत, न कोई तस्वीर, न कोई सरकारी छुट्टी, इसके बाद भी 31 दिसम्बर की रात लोग झूम पड़ते हैं। डांस करते हैं, अपने उत्साह को दोगुना करते हैं। आखिर इस 31 दिसम्बर की रात में ऐसा क्या है, जिसने युवाओं को इतना अधिक दीवाना बना रखा है। इस तरह से देखा जाए, आगामी वर्षों में 31 दिसम्बर की रात और भी ज्यादा रंगीन होती जाएगी। समाज सुधारकों के लिए यह एक खतरे की घंटी हो सकती है। इतना छलकता उत्साह तो हमारे धार्मिक त्योहारों में भी नहीं देखा जाता। इस रात को होने वाले आयोजनों में भी अब लगातार वृद्धि होती जा रही है। युवाओं को डांस करने का बहाना चाहिए, तो 31 दिसम्बर की रात को यह बहाना मिल जाता है। इस दौरान ऐसा बहुत कुछ हो जाता है, जिसे रेखांकित किया जाए, तो समाज की एक दूसरी ही तस्वीर सामने आएगी।
भारतीय त्योहारों में यदि दीवाली को शामिल किया जाए, तो इस त्योहार में भी आधी रात के बाद जोश कम हो जाता है। सुबह तक दीवाली की यादें ही बाकी रह जाती हैं। पर नए साल की अगवानी में किए जाने वाले आयोजनों में सबसे अधिक हावी होता है विदेशी कल्चर। विदेशी संस्कृति की देखा-देखी में लोगों ने विदेशी बाजार के साथ मिलकर एक ऐसा  भारतीय समाज बनाया जा रहा है, जो न तो पूरी तरह से भारतीय है और न ही विदेशी। प्रसार माध्यमों ने इसे और भी बढ़ावा दिया है। टीवी जैसे माध्यम ने 31 दिसम्बर की रात को और अधिक रंगीन बना दिया है। गिरते मानव मूल्यों के बीच यह एक सोची-समझी साजिश के तहत पूरे भारतीय समाज को एक नई दुनिया में ले जाने की एक कोशिश ही है। कुछ लोग इसे अतिआधुनिकता मान सकते हैं, पर यह पाश्चात्य देश के अनुकरण की दिशा में उठाया गया एक दिशाहीन कदम ही है।
हमारे देश में आधी रात के बाद जन्माष्टमी मनाई जाती है। भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के अवसर पर लोग आधी रात तक जागरण कर उनका जन्मदिन मनाते हैं। देश की जेलों में भी यह पर्व धूमधाम के साथ मनाया जाता है। क्योंकि कृष्ण का जन्म जेल में ही हुआ था। इसलिए कैदियों के लिए कृष्ण बहुत ही पूजनीय हैं। देश भर के मंदिरों में कृष्ण जन्माष्टमी की धूमधाम से तैयारी की जाती है, कृष्ण मंदिरों की तो बात ही न पूछो, यहां तो एक मेला जैसा दृश्य दिखाई देता है। यह त्योहार भी सुबह चार बजे तक अपनी समाप्ति की ओर होता है। लेकिन 31 दिसम्बर की रात को युवाओं का छलकते जोश देखने लायक होता है। इस रात पुलिस का चुस्त इंतजाम दिखाई देता है। पर जन्माष्टमी में इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। इसका आशय स्पष्ट है कि 31 जनवरी की रता को युवा वह करते हैं, जो जन्माष्टमी पर नहीं करते। क्या करते हैं और क्या नहीं करते हैं, यही समाज सुधारकों को सोचना है।
इस देश का हर नागरिक देश के कानून से जुड़ा है। कानून यानी संविधान। संविधान का दिन यानी 26 जनवरी। इस दिन भी कहीं भी किसी भी तरह का कोई उत्साह देखने को नहीं मिलता। शालाओं में बच्चों को केवल उपस्थिति दर्शाने के लिए बुलाया जाता है। झंडावंदन तक लोग इसमें दिलचस्पी दिखाते हैं, उसके बाद घर जाकर छुट्टी मनाते हैं। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, स्वतंत्रता दिवस को भी लोग एक छुट्टी के दिन से अधिक महत्व नहीं देते। पर 31 दिसम्बर की रात को युवाओं में जो जोश दिखाई देता है, वह अन्य किसी त्योहार में नहीं दिखता। यह उत्साह केवल देश के बड़े शहरों में ही दिखाई देता है। छोटे शहरों एवं कस्बों-गांवों में लोग रात भर टीवी के प्रोग्राम देखकर नए साल की अगवानी करते हैं। 31 दिसम्बर की रात को टीवी पर कई ऐसे कार्यक्रम आते हैं, जिसका लोग अनुशरण करते हैं। पहले से ही तैयार इस शो में विभिन्न कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। अपने मनपसंद कलाकारों को देखकर लोगों का प्रभावित होना लाजिमी है।
31 दिसम्बर की रात को थिरकते युवाओं को देखकर ऐसा लगता है कि आखिर ये किसकी खुशी मना रहे हैं। कैलेंडर का एक पेज ही तो बदला है। बीते हुए साल से क्या सीखा और आने वाले साल से क्या सीखना है, उसकी क्या योजना है, इस पर कोई नहीं सोचता। दिन-रात तो एक ही तरह से होते हैं, इसमें कैसा आयोजन और कैसी मस्ती? यही एक ऐसी रात होती है, जिसमें हर कोई नाचता ही दिखाई देता है। स्थान सड़क हो या फिर कोई क्लब, होटल, पार्टी। कड़कड़ाती ठंड भी इन युवाओं को रोक नहीं पाती। यह एक ऐसा स्वयंभू उत्सव है, जिसमें किसी भी तरह से किसी को आमंत्रित नहीं किया जाता। लोग खुद होकर इसमें शामिल होते हैं। नाचते-गाते हैं। ऐसा क्या है इस रात में कि युवा खो जाते हैं, नए साल के स्वागत में। वास्तव में इसके पीछे वह गुप्त मार्केटिंग है, जो विदेशी कल्चर की तरफ आकर्षित करता है। हमें विदेश की बनी हर चीज से आकर्षित होते आए हैं, बस इसी का फायदा उठाया रहा है। युवाओं के अंतर्मन में यही बात है, जो उसे उत्सव प्रिय तो बनाती है, पर केवल विदेशी उत्सव के प्रति ही उसका लगाव दिखता है।
किसी भी सरकार में यह दम नहीं है कि इस प्रकार के उत्सवों पर रोक लगाए। पर क्या सरकार सरकारी आयोजनों के लिए किसी तरह की मार्केटिंग नहीं कर सकती, जिसमें अधिक से अधिक युवा शामिल हो, उस उत्सव में शामिल होकर युवा स्वयं को गौरवान्वितकरें। शहीद दिवस पर शहीदों को अंजलि देकर हमें गौरवान्वित होना चाहिए, पर हम हो नहीं पाते। उस समय हम केवल सरकार की नाकामी का नगाड़ा ही पीटते रहते हैं। कोसते रहते हैं सरकारी नीतियों को। इससे शायद हमें आत्मिक सुख मिलता है। पर हम यह भूल जाते हैं कि सीमा पर किसी जवान ने अपनी जान देकर हमारी जान बचाई है। आज हम चैन की नींद ले रहे हैं, तो उसके पीछे हमारों जवानों की कुर्बानियाँ हैं। हमारा परिवार सुरक्षित है, तो वह हमारे जवानों की निष्ठा के कारण ही है। मेरा तो मानना है कि जितना जोश-जुनून हम 31 दिसम्बर की रात को दिखाते हैं, उतना ही जुनून हममें 26 जनवरी, 15 अगस्त आदि सरकारी त्योहारों में भी दिखाई देना चाहिए। इन त्योहारों को मनाकर हम गर्व का अनुभव करें। शायद तभी हम एक सच्चे भारतीय बन पाएँगे।
सम्पर्क: 403, भवानी परिसर, इंद्रपुरी भेल, भोपाल. 462022, Email- parimalmahesh@gmail.com

वैश्विक परिदृश्य 2017 में पर्यावरणः

अब मनुष्य के विलुप्त होने की सम्भावना 
- डॉ. ओ.पी.जोशी
वर्ष 2017 में पर्यावरण से सम्बंधित कई घटनाएँ घटीं (विशेषकर विनाशकारी) एवं बिगड़ते पर्यावरण पर चेतावनी स्वरूप कई रिपोर्ट्स भी जारी की गई। प्रस्तुत है कुछ प्रमुख घटनाएँ एवं रिपोर्ट्स।
- अमेरिका का लगभग 1000 वर्ष पुराना टनेल-ट्री (सिकोइया प्रजाति) 15 जनवरी को आए तूफान में धराशायी हो गया। लगभग 250 फीट ऊंचाई के इस पेड़ के तने को काटकर 137 वर्ष पूर्व इसमें एक सुरंग बनाई गई थी जिसमें से कार निकल जाती थी। सुरंग को लोग पायोनियर केबिन भी कहते थे। इस सुरंग के कारण लोगों का दो किलोमीटर का चक्कर बच जाता था। कैलिफोर्निया के कुछ लकड़ी तस्करों ने कुछ पुराने रेड वुड के वृक्ष भी काटे।
- अंटार्कटिका में हिम चट्टान (आइस शेल्फ) लार्सेन सी का एक बड़ा हिस्सा 10 से 12 जुलाई के मध्य टूटकर अलग हो गया जिससे लार्सेन सी का आकार 12 प्रतिशत कम हो गया। टूटकर अलग हुआ भाग लंदन के क्षेत्रफल से चार गुना बड़ा था (लगभग 5800 वर्ग किलोमीटर)। लार्र्सेन सी में पिछले कई वर्षों से 200 कि.मी. लम्बी दरार देखी जा रही थी। पर्यावरणविदों ने इसका कारण बढ़ता तापमान मानते हुए इसे भविष्य के लिए खतरनाक बताया है।
- विश्व में सम्भवत: पहली बार न्यूज़ीलैंड की सरकार ने मार्च में वहाँ की 150 कि.मी. लम्बी वांगजुई नदी को सजीव इंसान मानकर मानव अधिकार प्रदान किए। नदी को दिए अधिकारों के तहत् प्रदूषण, अतिक्रमण व अत्यधिक दोहन पर न्यायालय में मुकदमा करके दंड का प्रावधान किया गया है। न्यायालयीन प्रकरणों में नदी का पक्ष कोई शासकीय वकील तथा माओरी समाज के प्रतिनिधि करेंगे। यहां की माओरी जनजाति पिछले 150 वर्षों से इस नदी को बचाने की लड़ाई लड़ रही थी।
- वर्ष 2016 में हुए पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के समझौते से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मार्च में अलग होने की घोषणा की। ट्रंप प्रशासन इसे अमेरिकी लोगों पर आर्थिक बोझ मानता है। वर्तमान यूएस सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की स्वच्छ ऊर्जा योजना को रद्द करके यू.एन. ग्रीन क्लाईमेट फंड को दी जाने वाली वित्तीय सहायता पर भी रोक लगा दी। पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (इ.पी.ए.) के बजट में एक तिहाई की कटौती की गई।
- पोलैण्ड की सरकार ने एक पर्यावरण कानून पारित कर निजी ज़मीन पर मनचाही संख्या में पेड़ों को बगैर अनुमति काटने का प्रावधान किया। पर्यावरण प्रेमियों तथा मानव अधिकार समूहों ने इसका विरोध किया है। वैको शहर में महिलाओं ने पोलिश मदर्स ऑन ट्री स्टंप्सनाम से एक समूह गठित करके इस कानून का विरोध शु डिग्री किया है। विरोध प्रदर्शन में महिलाएँ कटे वृक्षों के ठूंठों पर बैठकर बच्चों को स्तनपान कराती है। वे दर्शाना चाहती हैं कि पेड़ भी पर्यावरण का पोषण एक माता के सामान करते हैं।
- ऑस्ट्रेलिया के बुद्धिजीवियों तथा खिलाड़ियों ने क्वीसलैंड में अडाणी समूह के चेयरमैन को कोयला खनन परियोजना वापस लेने के लिए एक खुला पत्र लिखा। इस परियोजना से विश्व प्रसिद्ध ग्रेट बैरीयर रीफ को खतरा बताया गया है। ग्लोबल वार्मिंग तथा भूजल स्तर के लिए भी इसे उचित नहीं बताया गया। 60 वर्षों तक चलने वाली यह परियोजना लगभग एक लाख करोड़ रुपए की है। 90 जाने-माने लोगों द्वारा लिखे गए पत्र में कहा गया है कि यदि परियोजना आगे बढ़ी तो दोनों देशों (भारत व ऑस्ट्रेलिया) के बीच सम्बंधों पर बुरा प्रभाव होगा एवं क्रिकेट तथा अन्य खेल भी प्रभावित होंगे। पत्र लिखने वालों में विश्व प्रसिद्ध क्रिकेटर इयान तथा ग्रेग चेपल भी शामिल हैं।
- पेरिस जलवायु सम्मेलन के समझौते पर नियम कानून बनाने हेतु जर्मनी के बॉन शहर में नवम्बर में एक सम्मेलन हुआ जिसमें 197 देश के लगभग 25 हज़ार प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन के आयोजन की सारी व्यवस्थाएँ (ई-बस व सायकल का उपयोग, चाय-पानी के लिए मिट्टी के कप, कागज़ का उपयोग नहीं, कोई प्रेस नोट का वितरण न हो तथा राश्न नदी के किनारे तम्बुओं में कार्य) तो पर्यावरण हितैषी रहे परंतु अन्य सम्मेलनों के समान यहां भी कोई ठोस निर्णय नहीं हो पाया। विकासशील देशों से कई गुना अधिक कार्बन का उत्सर्जन करने वाले विकसित देश इसी ज़िद पर अड़े रहे कि उत्सर्जन कम करने में सभी को साझा प्रयास करने चाहिए। अमेरिका के कम प्रतिनिधित्व के बावजूद जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए भागीदार देशों की एकता व प्रयास सराहनीय रहे।
- ब्राज़ील के एक न्यायालय ने राष्ट्रपति के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसके तहत विश्व प्रसिद्ध अमेज़न के वर्षा वनों के एक बड़े संरक्षित अभयारण्य में खनन कार्य की अनुमति प्रदान की गई थी। राष्ट्रपति का यह मानना था कि खनन कार्य से देश की अर्थव्यवस्था सुधरेगी परंतु न्यायालय ने पर्यावरण संरक्षण को ज़्यादा महत्व दिया।
- संयुक्त राष्ट्र संघ के सहयोग से किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया कि पिछले चार दशकों से दुनिया की एक तिहाई भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो गई है। कई कारणों से मैग्नीशियम, सोडियम तथा पौटेशियम की मात्रा के बढ़ने से यह परिणाम हुआ है। मिट्टी की सेहत बिगड़ने की दर उर्वरा शक्ति के निर्माण से लगभग सौ गुना अधिक है। यह आशंका व्यक्त की गई है कि वर्ष 2050 तक दक्षिण एशिया, उत्तर-पूर्वी व मध्य अफ्रीका इससे ज़्यादा प्रभावित होंगे। अफ्रीका महाद्वीप के कई देशों में तो पिछले कई वर्षों से भूमि सुधार के कोई कार्य हो नहीं पाए हैं।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा युनीसेफ द्वारा तैयार एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की 60 प्रतिशत आबादी शौच व्यवस्था के अभाव में जीवनयापन कर रही है तथा 30 प्रतिशत लोगों को साफ पेयजल उपलब्ध नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ने रिपोर्ट में कहा है कि शौच व्यवस्था, साफ पेयजल तथा स्वास्थ्य सेवाएँ मूलभूत आवश्यकताएँ है जो सभी की पहुँच में होना ज़रूरी है तभी पर्यावरण साफ-सुथरा रहेगा।
- अमेरिकी वैज्ञानिकों ने पीएनएएस जर्नल में प्रकाशित एक लेख में चेतावनी दी है कि भारत के 90 प्रतिशत समुद्री पक्षियों के पेट में किसी न किसी तरह प्लास्टिक पहुंच गया है। वर्ष 2050 तक यह प्रतिशत 99 की सीमा पार कर जाएगा। 1960 के दशक में केवल 5 प्रतिशत समुद्री पक्षी प्लास्टिक से प्रभावित थे। जॉर्जिया विश्वविद्यालय का अध्ययन दर्शाता है कि यदि वर्तमान गति से समुद्रों में प्लास्टिक फेंका जाता रहा तो 2050 में मछलियों से ज़्यादा प्लास्टिक होगा।
- नेचर में प्रकाशित विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट अनुसार विश्व में घर से बाहर के वायु प्रदूषण के कारण प्रति वर्ष 35 लाख लोगों की मौत होती है एवं 2050 तक यह 66 लाख होने की सम्भावना है। विश्व के सर्वाधिक 20 प्रदूषित शहरों में आधे से ज़्यादा भारतीय शहर बताए गए हैं।
- ग्लोबल विटनेस तथा गार्जियन ने एक संयुक्त रिपोर्ट में बताया है कि वर्ष 2017 में पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े 170 लोगों को मार दिया गया। इनमें अधिकांश घटनाएँ खनन, वन्यजीव संरक्षण तथा उद्योग के क्षेत्र से सम्बंधित थीं और ग्रामीण क्षेत्रों में ज़्यादा हुई। रिपोर्ट में भारत का नाम भी शामिल है।
- यूएस की नेशनल एकेडमी ऑफ सांइसेज़ की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हमारी पृथ्वी जीवों के महाविनाश के छठे दौर में प्रवेश कर चुकी है। पृथ्वी के लगभग 4.5 अरब वर्ष के इतिहास में अब तक पाँच बार ऐसा हुआ है जब सबसे ज़्यादा फैली प्रजाति विलुप्त हो गई। पाँचवे दौर में विशालकाय डायनासौर समाप्त हुए थे। कुछ वैज्ञानिक इस छठे महाविनाश को वैश्विक महामारी भी कह रहे हैं।
वैश्विक पर्यावरण से जुड़ी ये प्रमुख घटनाएँ तथा रिपोर्ट्स यही दर्शाती हैं कि पर्यावरण बेहद खराब स्थिति में पहुँच चुका है। यदि ऐसी ही परिस्थितियाँ जारी रहीं तो प्रजातियों के आसन्न छठे महाविनाश में होमो सेपिएन्स प्रजाति (मनुष्य) की विलुप्ति की सम्भावना से एकदम इन्कार नहीं किया जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नएपन का संकल्प

नएपन का संकल्प
- डॉ.श्याम सुन्दर दीप्ति
धामिर्क कर्मकाण्डों के प्रति शुरू से ही सवाल उठाता रहा हूँ। वह चाहे व्रत की बात थी या जन्म, ब्याह, मौत को लेकर उनसे जुड़ी रस्मों की बात। इसी सिलिसले में यही याद आता है कोई काम शुरू करने से पहले मुहूर्त निकलवाना।
जब धीरे-धीरे, पड़ाव दर पड़ाव, शरीर विज्ञान के कार्यों से गुजरते हुए, विवेक से सोचने की आदत पड़ी तो मनुष्य के स्वभाव व मुहूर्त को जोड़ा, तो एक सार्थकता समझ में आई। देखा जाता है कि प्रायः किसी काम के बारे में नर्णय ले लें तो फिर कार्य की योजना शुरू हो जाती है। किसी के पूछने पर जवाब होता है- लगे हुए हैं। फिर सवाल होता है– तो कब आरम्भ करोगे- तो जवाब रहता है –जल्दी ही। पर जब महूर्त निकलवाया है, तो फिर एक निशाना, एक लक्ष्य तय हो जाता है, कि यह कार्य करना ही करना है। कर ही देना है का अपना ही महत्व होता है । यह है महूर्त की सार्थकता, जो मैंने जाना। तारीख तय कर देना, न कि अन्य जुड़े पहलू- जैसे शुभ घड़ी व कर्म कांड। यह बात अलग है कि कोई अपने पक्के इरादे से, दृढ़ मन से तय कर ले कि फलां दिन, करना ही करना है। यह मौका कसी विशिष्ट-विशेष व्यक्ति का जन्म दिन हो सकता है, किसी परिवार के सदस्य से जुड़ा हुआ भी।
नया वर्ष शुरू हो गया है। यह साल दर साल आता है, कईयों का मत हो सकता है कि इसमें नया क्या है? कुछ भी तो नहीं बदलता, सिवाए इस तारीख बदलने के। जो लोग इसका चाव से इन्तजार करते हैं व धूमधाम से मनाते हैं, उनकी जिंदगी में भी कोई बदलाव नज़र नहीं आता। अधिकतर के लिए यह एक मस्ती का बहाना रहता है। मिलकर जश्न मनाना, बस। और अब तो होटल- कल्चर ने इसे बाज़ार से जोड़ दिया है।
नये वर्ष के आने सी प्रतीक्षा 365 दिन करनी पड़ती है। नया महीना, नया सप्ताह, नया दिन भी तो अपने आप में कुछ कहते समझते हैं। नये शब्द में ताजगी का अहसास भी छुपा हुआ है। नये वस्त्र, नया बैग। नयेपन से एक चाव भी जुड़ा है। नई कक्षा में दाखिल होना। एक पादान, एक पाँव और आगे बढ़ जाने की खुशी। नयापन ऐसे भी नज़र आता है या दिखाया जा सकता है।
उस नयेपन को इस परिपेक्ष्य में जानने-समझने की जरूरत है। हर रात सोने से पहले अगर हम दिन के कामों का विश्लेषण करें तो अगले दिन के सूरज की किरणों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। पिछले कार्य के विश्लेषण पर किया गया नयेपन का निर्माण ही सार्थक होता है।
अब जब हम 2018 की तरफ बढ़ते हुए, 2017 की घटनाओं पर नज़र डालते हैं तो यह अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राजकीय संदर्भ में सोचने को मजबूर करती है। वास्तव में हमें इस तरह ही सोचने की शिक्षा दी गई है कि इन घटनाओं से आपको क्या लेना-देना। कौन जीता, कौन हारा, क्या नई नीतियाँ लाई गईँ। आप अपने में मस्त रहिये। पर क्या यह सब हमसे जुड़ी नहीं होती? क्या यह हमें प्रभावित नहीं करती? क्या हमें सचमुच ही इनके बारे में नहीं सोचना चाहिए?
वास्तव में सोचना भी एक आदत है, एक प्रक्रिया है जो निरन्तरता चाहती है। घटनाएँ व समस्याएँ सिर्फ राष्ट्रीय- राजकीय ही नहीं होती, गाँव, कस्बे मोहल्ले से लेकर घर के अन्दर भी होती हैं। प्रश्न यह है कि सोचने से अतीत में से कुछ ढूँढना है या जो गया सो गयाके स्वर पर जिंदगी को गतिशील करके रखता है। विश्लेषणकारी स्वर ही बढ़िया जिन्दगी के लिए गाए जाने वाले गीतों को गाता- गुनगुनाता है। जहाँ कहीं भी हम बढ़िया जिन्दगी की झलक देखते हैं, वह अतीत की जाँच-परख, गलतियों को ढूँढने और फिर उनमें सुधार लाने की बुद्धिमता का ही परिणाम है।
समझना और सुधारना बड़े संकल्प लग सकते हैं। हैं भी। पर इन्हें व्यक्तिगत जिन्दगी या अपने आस-पास के परिपेक्ष्य में गाँव, वार्ड से शुरु कर सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं संगठित ढंग से किया गया कार्य अधिक फल देता है, पर शुरूआत तो व्यक्तिगत ही रहेगा। उदाहरण के लिए अगर आपका वातावरण परेशान करता है, पूरे गाँव या मोहल्ले में पेड़ लगाने का सामूहिक कार्य कठिन लगता है, तो कम से कम एक पेड़ अपने घर के बाहर या भीतर आँगन में तो लगाया ही जा सकता है। अगर घर या बाहर जगह नहीं है तो एक छोटा सा पौधा गमले में लगा कर ही शुरुआत की जा सकती है।
नयेपन में बहुत कुछ है। एक ताजगी भरे हवा के झोंके सी, जो जीने का बहाना प्रकृति ने सृजित किया है, नये वर्ष के रूप में। छोटे-छोटे नन्हें- नन्हें संकल्प इस दुनिया को खूबसूरत बनाने में, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लक्ष्य से इसकी शरुआत हो।
सम्पर्कः 97- गुरूनानक ऐवेन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर, email- drdeeptiss@gmail.com