ताकि
बहुर सकें हिन्दी के दिन
- जगदीप सिंह दाँगी
हिंदी विश्व के सबसे बढ़े लोकतंत्र भारत की
राजभाषा है। यह देश में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। चीनी भाषा के
बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिन्दी
बोलने वाले विश्व की सबसे बड़ी भाषाओं में गिने जाते हैं। यहाँ तक की
प्रवासी भारतीयों की सांस्कृतिक भाषा भी
हिन्दी है। दुनियाभर के देशों
में हिन्दी को बढ़ावा मिल रहा है और कई जगह हिन्दी
को प्रमुख विषय के रूप में पढ़ाया भी जाने लगा है। रूस और चीन जैसे देशों
में भी आज काफी संख्या में हिन्दी बोली और पढ़ाई भी जा रही है। हिन्दी
ने अपना वर्चस्व अमेरिका,
यूरोप, अफ्रीका, एशिया,
ऑस्ट्रेलिया महाद्वीपों के तिरानवे देशों में फैला रखा है। हिन्दी
अपने स्वप्रयास से विश्व के कोने-कोने में पहुँची है।
पीपुललिंग्विस्टिकसर्वे के अनुसार भारत में 780 भाषाएँ बोली जाती हैं तथा भारतीय
संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाओं की संख्या 22 है। वर्तमान में देश की कुल
जनसंख्या में से 65प्रतिशत लोग
हिन्दी भाषा को जानने व समझने वाले
हैं। मात्र 5प्रतिशत लोग अँग्रेज़ी भाषा को जानते व समझते हैं; शेष 30प्रतिशत में गैर
हिन्दी और अँग्रेज़ी भाषी लोग यानी
के तमिल, तेलुगू, बांग्ला आदि भाषाओं
को जानने वाले हैं।
तकनीकी के इस दौर में इंटरनेट, टी.वी., हिन्दी सिनेमा, दूरदर्शन के
विभिन्न चैनलों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपनी अहम भूमिका का
निर्वाह किया है। हिन्दी की लोकप्रियता को देखते हुए कई विदेशी चैनलों
ने अपने कार्यक्रम हिन्दी में प्रसारित करने प्रारम्भ कर दिए हैं जैसे
डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफी आदि। इसके अतिरिक्त कई विदेशी
फिल्में और धारावाहिक भी हिन्दी में आ रहे हैं।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी हिन्दी
अब अपने पंख फैला रही है देश के कुछ विश्वविद्यालयों ने तकनीकी से सम्बन्धित
उच्चस्तरीय पाठ्यक्रमों को हिन्दी माध्यम में
प्रारम्भ कर दिए हैं। आज कंप्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स, इंफ़ार्मेटिक्स एवं लैग्वेज
इंजीनियरिंग जैसे उच्चस्तरीय (स्नात्कोत्तर, एम.फिल.,
पी-एच.डी.) पाठ्यक्रम
हिन्दी माध्यम में उपलब्ध हैं साथ
ही विभिन्न कोर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम भी
हिन्दी में उपलब्ध हैं। इन सबके
बावजूद भी अगर हिन्दी के अच्छे दिन नहीं आए तो फिर इस पर गंभीरता से
चिंतन-मनन कर वह कारण खोजना चाहिए जोकि
हिन्दी की उन्नति में बाधक हैं?
इन बाधक कारणों को खोज कर इन्हें दूर करने की दिशा में प्रयास किया
जाना चाहिए।
मुझे कुछ कारण दिखते हैं जोकि इस प्रकार से हैं-
किसने किया यह हाल, आप किसको दोषी कहते हो ।
मैं भी दोषी, आप भी दोषी, और किसे दोष देते
हो ।
पहली बात सर्वप्रथम देश में हिन्दी
को उसका वाजिब हक मिलना चाहिए जिसकी वास्तव में वह हकदार है। संवैधानिक तौर
से हिन्दी को देश की राष्ट्र भाषा घोषित होनी चाहिए। इस
बाबत हिन्दी को और अधिक समृद्ध और प्रभावी बनाने के लिए
भारत की अन्य भाषाओं को हिन्दी से जोड़ऩे पर प्रयास की जरूरत है। हिन्दी
को देश की राष्ट्र भाषा बनाने के लिए ऊपर उल्लिखित 30 प्रतिशत गैर हिन्दी
और अँग्रेज़ी भाषी लोगों को
हिन्दी से जोड़ऩा अनिवार्य है इन
30प्रतिशत लोगों को यह भी देखना और समझना चाहिए कि दुनियाभर के देशों में हिन्दी
को बढ़ावा मिल रहा है और कई जगह
हिन्दी को प्रमुख विषय के रूप में
पढ़ाया भी जाने लगा है। रूस और चीन जैसे देशों में भी आज काफी संख्या में हिन्दी
बोली और पढ़ाई भी जा रही है। इस लिहाज़ से भी राष्ट्र-हित में हिन्दी
के समर्थन में इन लोगों को आगे आना चाहिए; क्योंकि अपने ही अपनों को सम्मानित व अपमानित कर-करा
सकते हैं। जब किसी सम्मानीय का उसके अपने घर में सम्मान होगा तभी तो बाहर बाले भी
उसे सम्मान की दृष्टि देखेंगे और उसे ससम्मान अपनाएँगें भी।
दूसरी बात देश की सभी सरकारी नौकरियों में
अँग्रेज़ी भाषा की अनिवार्यता ख़त्म कर
हिन्दी भाषा की अनिवार्यता होनी
चाहिए तथा निम्न एवं उच्च शिक्षा का माध्यम एवं पठन-पाठन की संपूर्ण सामग्री
का हिन्दी करण होना कारूरी है। आजकल हम कई
बार समाचारों में देखते हैं कि अब तो चपरासी और निम्न स्तर की नौकरियों की
भर्तियों के लिए भी कई एम.बी.ए. और इंजीनियरिंग जैसी डिग्री वाले भी आवेदन कर रहे
हैं। इसकी मूल वजह है सभ्य समाज द्वारा अँग्रेज़ी के सापेक्ष हिन्दी
की उपेक्षा। देश में आज भी अधिकांश बच्चे हायर सेकेण्डरी तक हिन्दी
माध्यम में पढ़ते हैं लेकिन उच्च शिक्षा में जाते हैं तो माध्यम अँग्रेजी
हो जाता है और वह बच्चा उस अँग्रेज़ी को समझने में ही अपनी आधी से ज्यादा ऊर्जा
नष्ट कर चुका होता है और बची-खुची ऊर्जा ही कुछ विषयक ज्ञान को प्राप्त करने में
लगा पाता है। इससे वह सिर्फ़ और सिर्फ़
अधकचरा ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है। आज यही वजह है कि देश में लाखों इंजीनियर बेरोज़ग़ार
घूम रहे हैं। जब-तक रोज़गार हिन्दी प्रधान नहीं होगा तब तक हिन्दी
के अच्छे दिन आना संभव नहीं है।
देवनागरी लिपि आधारित लगभग 12 भारतीय भाषाएँ ,जोकि हिन्दी
के आस-पास हैं एवं इससे काफी मिलती-जुलती भी हैं; जिनमें
भोजपुरी, मैथिली आदि प्रमुख हैं। यह सभी अपनी-अपनी अलग-अलग
भाषाओं को हिन्दी से पृथक् कर देख रहे हैं और प्रोजेक्ट चला रहे
हैं इससे भी हिन्दी टूट रही है और कमज़ोर हो रही है। हिन्दी
की उन्नति के लिए इन्हें
हिन्दी से जुडऩा चाहिए, न कि पृथक् होना चाहिए।
आज तकनीकी बहुत आगे बढ़ चुकी है फिर भी
अँग्रेज़ी के मुकाबले हिन्दी में बहुत कम काम हुआ है। गूगल वाइसटाइपिंग रोमन
एवं अँग्रेज़ी के लिए मौजूद है ,लेकिन देवनागरी हिन्दी के लिए तो अभी भी अभाव ही है। मशीनी अनुवाद एक
बहुत ही जटिल कार्य है सीडेक एवं ट्रिपल-आईटी वर्षों से इस प्रणाली के विकास हेतु
प्रयासरत है लेकिन आज भी सफलता से बहुत दूर हैं। जब तक सभी भारतीय भाषाओं का मानक
एवं पूर्ण कॉर्पस नहीं बनेगा तब तक मशीनी अनुवाद आधा अधूरा ही रहेगा। यदि सिलसिले
बार एवं एक जुनून के साथ यह कार्य किया जाए तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता
है।
आज सूक्ष्मतम जानकारी से लेकर विशाल जानकारी
इंटरनेट के माध्यम से कंप्यूटर पर उपलब्ध है। जिसका उपयोग कर व्यक्ति इसका लाभ
उठाने लालायित है, पर आज भी इसकी सबसे बड़ी बाधा है भाषा की समझ। आज इंटरनेट की लगभग
80प्रतिशत सामग्री अँग्रेज़ी में ही उपलब्ध है। हमारे देश में हज़ारों लाखों
नागरिक हैं, जो कि सफल व्यापारी, दुकानदार,
किसान, कारीगर (मिस्त्री), शिक्षक आदि हैं; यह सभी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में
कुशल एवं विद्वान हैं, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि यह सब
अँग्रेज़ी भाषा के जानकार भी हों। ग्रामीण परिवेश में रहने वाले कृषक, कारीगर जो कि इस देश की उन्नति का मूल आधार हैं, यदि
इन्हें और अच्छी तकनीकी की जानकारी अपनी ही निज भाषा हिन्दी
में मिले तो सोने में सुगन्ध होगी! अत: हमें हिन्दी
के और अधिक प्रचार प्रसार एवं विस्तार के लिए ज़्यादा से ज़्यादा हिन्दी
ई-सामग्री को इंटरनेट पर स्थापित करने हेतु कार्य करने की जरूरत है। ताकि
इंटरनेट पर हिन्दी सामग्री का प्रतिशत और बड़ सके तथा तकनीकी के
क्षेत्र में हिन्दी एक समृद्ध विशाल वट वृक्ष के रूप में परिवर्तित
होते हुए विश्व-पटल पर पूर्णरूप से स्थापित हो सके।
आजकल कुछ विद्वान हिंग्लिश को बढ़ावा दे रहे हैं
जोकि किसी भी कोण से हिन्दी के हित में उचित प्रतीत नहीं होती है। एफ.एम.
रेडियो पर आप सुन सकते हैं कि एंकर किस प्रकार से फूहड़पन फैला रहे हैंहिन्दी
के नाम पर हिंग्लिश परोसते हैं और वह भी अभद्र एवं अश्लील सांकेतिक भाषा का
सहारा लेकर। हिन्दी सभ्य समाज को और देश के मुखियों को इन पर लगाम
लगाना चाहिए।
हिन्दी क्षेत्र के नागरिकों से मेरी अपील है
कि हिन्दी को उसका वाजिब हक दिलाने के लिए प्रयास कीजिए।
मैंने अभी तक दो बार विश्व हिन्दी सम्मेलनों में शिरकत की और महसूस किया कि सरकार
जितना धन हिन्दी के नाम पर इन विश्व हिन्दी
सम्मेलनों पर मेज़बानी में खर्च करती है , अगर वह उसका एक चौथाई मात्र खर्च हिन्दी
पर काम करने वालों पर खर्च करे; तो हिन्दी
की स्थिति बहुत कुछ सुधर जाए और सच में
हिन्दी के अच्छे दिन आ जाएँ।
धन्यवाद!
लेखक परिचय-
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में एसोसिएट प्रोफ़ेसर
के पद पर कार्यरत। सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय हिन्दी सॉफ्टवेयर
विकास कार्य। निरंतर 15 वर्षों से हिन्दी भाषा में कंप्यूटर सॉफ्टवेयर का विकास
कार्य। अनेक राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित
व पुरस्कृत, उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स- 2007 एवं लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स-
2015 में ससम्मान दर्ज। हिन्दी भाषा को सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूर्ण
रूप से स्थापित कर अन्य सभी भाषाओं के साथ संयोजन करने का उनका प्रयास। सम्प्रति: एसोसिएटप्रोफ़ेसर, प्रभारी निदेशक, प्रौद्योगिकी
अध्ययन केंद्र, प्रभारी विभागाध्यक्ष, कंप्यूटेशनललिंग्विस्टिक्स
विभाग, भाषा विद्यापीठ, महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा।
मो. 09921118136, 09826343498,
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