नएपन का
संकल्प
- डॉ.श्याम सुन्दर
दीप्ति
धामिर्क कर्मकाण्डों
के प्रति शुरू से ही सवाल उठाता रहा हूँ। वह चाहे व्रत की बात थी या जन्म, ब्याह,
मौत को लेकर उनसे जुड़ी रस्मों की बात। इसी सिलिसले में यही याद आता है कोई काम
शुरू करने से पहले मुहूर्त निकलवाना।
जब धीरे-धीरे, पड़ाव
दर पड़ाव, शरीर विज्ञान के कार्यों से गुजरते हुए, विवेक से सोचने की आदत पड़ी तो
मनुष्य के स्वभाव व मुहूर्त को जोड़ा, तो एक सार्थकता समझ में आई। देखा जाता है कि
प्रायः किसी काम के बारे में नर्णय ले लें तो फिर कार्य की योजना शुरू हो जाती है।
किसी के पूछने पर जवाब होता है- ‘लगे हुए हैं।‘ फिर सवाल होता है– तो कब आरम्भ करोगे- तो
जवाब रहता है –‘जल्दी ही।‘ पर जब महूर्त निकलवाया है, तो फिर एक
निशाना, एक लक्ष्य तय हो जाता है, कि यह कार्य करना ही करना है। कर ही देना है का
अपना ही महत्व होता है । यह है महूर्त की सार्थकता, जो मैंने जाना। तारीख तय कर
देना, न कि अन्य जुड़े पहलू- जैसे शुभ घड़ी व कर्म कांड। यह बात अलग है कि कोई
अपने पक्के इरादे से, दृढ़ मन से तय कर ले कि फलां दिन, करना ही करना है। यह मौका
कसी विशिष्ट-विशेष व्यक्ति का जन्म दिन हो सकता है, किसी परिवार के सदस्य से जुड़ा
हुआ भी।
नया वर्ष शुरू हो
गया है। यह साल दर साल आता है, कईयों का मत हो सकता
है कि इसमें नया क्या है? कुछ भी तो नहीं बदलता, सिवाए इस तारीख बदलने के। जो लोग
इसका चाव से इन्तजार करते हैं व धूमधाम से मनाते हैं, उनकी जिंदगी में भी कोई
बदलाव नज़र नहीं आता। अधिकतर के लिए यह एक मस्ती का बहाना रहता है। मिलकर जश्न
मनाना, बस। और अब तो होटल- कल्चर ने इसे बाज़ार से जोड़ दिया है।
नये वर्ष के आने सी
प्रतीक्षा 365 दिन करनी पड़ती है। नया महीना, नया सप्ताह, नया दिन भी तो अपने आप
में कुछ कहते समझते हैं। नये शब्द में ताजगी का अहसास भी छुपा हुआ है। नये वस्त्र,
नया बैग। नयेपन से एक चाव भी जुड़ा है। नई कक्षा में दाखिल होना। एक पादान, एक
पाँव और आगे बढ़ जाने की खुशी। नयापन ऐसे भी नज़र आता है या दिखाया जा सकता है।
उस नयेपन को इस
परिपेक्ष्य में जानने-समझने की जरूरत है। हर रात सोने से पहले अगर हम दिन के कामों
का विश्लेषण करें तो अगले दिन के सूरज की किरणों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
पिछले कार्य के विश्लेषण पर किया गया नयेपन का निर्माण ही सार्थक होता है।
अब जब हम 2018 की
तरफ बढ़ते हुए, 2017 की घटनाओं पर नज़र डालते हैं तो यह अन्तर्राष्ट्रीय,
राष्ट्रीय, राजकीय संदर्भ में सोचने को मजबूर करती है। वास्तव में हमें इस तरह ही
सोचने की शिक्षा दी गई है कि इन घटनाओं से आपको क्या लेना-देना। कौन जीता, कौन
हारा, क्या नई नीतियाँ लाई गईँ। आप अपने में मस्त रहिये। पर क्या यह सब हमसे जुड़ी
नहीं होती? क्या यह हमें प्रभावित नहीं करती? क्या हमें सचमुच ही इनके बारे में
नहीं सोचना चाहिए?
वास्तव में सोचना भी
एक आदत है, एक प्रक्रिया है जो निरन्तरता चाहती है। घटनाएँ व समस्याएँ सिर्फ
राष्ट्रीय- राजकीय ही नहीं होती, गाँव, कस्बे मोहल्ले से लेकर घर के अन्दर भी होती
हैं। प्रश्न यह है कि सोचने से अतीत में से कुछ ढूँढना है या ‘जो गया सो गया’ के स्वर पर जिंदगी को गतिशील करके रखता
है। विश्लेषणकारी स्वर ही बढ़िया जिन्दगी के लिए गाए जाने वाले गीतों को गाता-
गुनगुनाता है। जहाँ कहीं भी हम बढ़िया जिन्दगी की झलक देखते हैं, वह अतीत की
जाँच-परख, गलतियों को ढूँढने और फिर उनमें सुधार लाने की बुद्धिमता का ही परिणाम
है।
समझना और सुधारना
बड़े संकल्प लग सकते हैं। हैं भी। पर इन्हें व्यक्तिगत जिन्दगी या अपने आस-पास के
परिपेक्ष्य में गाँव, वार्ड से शुरु कर सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं संगठित
ढंग से किया गया कार्य अधिक फल देता है, पर शुरूआत तो व्यक्तिगत ही रहेगा। उदाहरण
के लिए अगर आपका वातावरण परेशान करता है, पूरे गाँव या मोहल्ले में पेड़ लगाने का
सामूहिक कार्य कठिन लगता है, तो कम से कम एक पेड़ अपने घर के बाहर या भीतर आँगन
में तो लगाया ही जा सकता है। अगर घर या बाहर जगह नहीं है तो एक छोटा सा पौधा गमले
में लगा कर ही शुरुआत की जा सकती है।
नयेपन में बहुत कुछ
है। एक ताजगी भरे हवा के झोंके सी, जो जीने का बहाना प्रकृति ने सृजित किया है,
नये वर्ष के रूप में। छोटे-छोटे नन्हें- नन्हें संकल्प इस दुनिया को खूबसूरत बनाने
में, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लक्ष्य से इसकी शरुआत हो।
सम्पर्कः 97-
गुरूनानक ऐवेन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर, email- drdeeptiss@gmail.com
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