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Apr 23, 2012

उदंती.com-अप्रैल 2012

मासिक पत्रिका  वर्ष2, अंक 8, अप्रैल 2012विश्व एक महान पुस्तक है जिसमें वे लोग केवल एक ही पृष्ठ पढ़ पाते हैं जो कभी घर से बाहर नहीं निकलते।            — आइन्सटीन
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अनकही: भ्रष्टाचार बनाम सदाचार - डॉ. रत्ना वर्मा
बातचीत: जिंदगी को संवारते हाथ - सुजाता साहा    
वन्य जीवन: छत्तीसगढ़ में हाथियों को मिलेगी पनाह - संदीप पौराणिक
विश्व पुस्तक दिवस: किताबों को अपनी बेटी की... - सूरज प्रकाश
पिछले दिनों
आइए अपनी विरासत को बचाएं
विश्व विरासत दिवस: अतीत को वर्तमान से ... - राहुल सिंह
विश्व पुस्तक दिवस: क्या पाठकों से दूर हैं किताबें?  - पंकज चतुर्वेर्दी
ब्लॉग बुलेटिन से: सोचती हूँ सिर्फ कविता - रश्मि प्रभा
व्यंग्य: लुच्चो की दुनिया  - आलोक पुराणिक
हाइकु: लो आई भोर - ज्योत्स्ना शर्मा
कालजयी कहानियाँ: छोटा जादूगर  - जयशंकर प्रसाद
आपके पत्र/ मेल बॉक्स / एक पाती 'कहि देबे संदेश' विशेषांक पर
किताबें: फूल की पांखुड़ी पर ...- मयंक अवस्थी
मिसाल: बड़े- बड़े मात खा जाएं
लघुकथाएं: 1. भूख 2. मिट्टी तेल और मेरिट - रवि श्रीवास्तव
कविता: लड़कियां, रेल में बैठी स्त्री - डॉ. मीनाक्षी स्वामी          
रंग बिरंगी दुनिया 
स्वास्थ्य ही पूंजी है


आवरण चित्र तथा भीतर के पृष्ठों पर प्रकाशित धरोहर से संबंधित सभी चित्रों के छायकार है- राजेश वर्मा। बचपन से फोटोग्राफी के शौकीन राजेश ने मार्डन स्कूल- नई दिल्ली और राजकुमार कॉलेज- रायपुर से स्कूली शिक्षा प्राप्त की है। कक्षा पांचवी में ही उन्होंने फोटोग्राफी को अतिरिक्त विषय के रूप में चुनकर फोटोग्राफी के आरंभिक गुर प्राप्त किए। नागपुर से एम.बीए करने के बाद उन्होंने रायपुर में स्वयं का व्यवसाय प्रारंभ किया।  समय निकालकर वे आज भी अपने फोटोग्राफी के उस शौक को पूरा करते हैं।
उनका मोबाइल नंबर है- 3903344556, तथा ईमेल आईडी है rajraipur2003@gmail.com

7 अप्रैल विश्व स्वास्थ्य दिवस

स्वास्थ्य ही पूंजी है

सफल जीवन के लिए स्वास्थ्य के महत्व को समझते हुए 07 अप्रैल, 1948 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की स्थापना की गई थी। जिसका उद्देश्य स्वास्थ्य मानकों को समाज के निचले स्तर तक पहुंचाना और विकासशील देशों सहित पिछड़े देशों में जन जागृति बढ़ाना है।

 हेल्थ इज वेल्थ अर्थात स्वास्थ्य ही पूंजी है। पर हालात आज ऐसे बन गए हैं कि जटिल और तनावग्रस्त जीवनशैली से जूझते हुए लोग ना तो अपने खान-पान पर ध्यान देते और ना ही अपने स्वास्थ्य की अहमियत समझते है। यह तो सभी जानते हैं कि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। जब हम शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे तभी   हम सफलतापूर्वक अपने अन्य कार्य पूरा पाएंगे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि रोगाणुओं में एंटीबायोटिक्स के लिए लगातार प्रतिरोधकता बढऩे से कई दवाओं का असर कम होने का खतरा पैदा हो गया है। दूसरी ओर हम बहुत सी बीमारियों के इलाज के लिए एंटीबायोटिक दवाओं पर निर्भर हैं। इन दवाओं के कारगर न होने पर स्थिति जानलेवा हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का उद्देश्य लोगों में नियमित शारीरिक गतिविधियों जैसे व्यायाम, खेलकूद, मनोरंजन व जीवन के सभी कार्यों के प्रति जागरूकता लाना भी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मनाए जाने वाले इस दिन का प्रमुख उद्देश्य जनस्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की ओर सबका ध्यान खींचना है।
आज अपनी सही कार्यशैली और नियंत्रण की वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन पूरी दुनिया में सम्मानपूर्वक देखा जाता है। मलेरिया, पोलिया, चेचक, हैजा, वायरल आदि कई बीमारियों को रोकने में विश्व स्वास्थ्य संगठन का विशेष योगदान रहा है। इसके अलावा एड्स, हेपेटाईटिस, और इन जैसी अनेक असाध्य रोगों के लिए शोध करवाके औषधियों के निर्माण आदि पर विचार विमर्श कर रही है।

इसे भी अजमाएं

 - रोज एक घंटे व्यायाम करना या पैदल चलना सेहत के लिए काफी अच्छा होता है, यह कई अध्ययनों में साबित हो चुका है। अब एक नए अध्ययन में पता चला है कि पैदल चलने से याददाश्त बढ़ती है। साथ ही पैदल चलने से सीखने की क्षमता में भी विकास होता है।
 - क्या आपको कसरत करने का वक्त निकालना भारी पड़ता है। लेकिन व्यस्त दिनचर्या में से तीन मिनट तो निकाल ही सकते हैं, क्योंकि सिर्फ 3 मिनट की कसरत से आपका शरीर छरहरा बन सकता है। हर रोज घंटों जिम में लगाने से बेहतर है कि हफ्ते में एक दिन प्रभावी तरीके से कसरत की जाए।
 - अंकुरित अनाज सेहत के लिए काफी फायदेमंद होते हैं। अब गेहूं को ही ले लीजिए। गेहूं के आटे से बनी चपाती तो सबसे सहज और पौष्टिक खाद्य है ही अंकुरित गेहूं भी आपको ढेर सारे विटामिन्स तथा पौष्टिक तत्व दे सकते हैं।
 - अगर आपको खांसी, दमा, पीलिया, ब्लडप्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर गंभीर बीमारी है तो इससे छुटकारा पाने का एक सरल-सा उपाय है- शंख बजाइए और इन रोगों से छुटकारा पाइए। शंखनाद से आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। इसके साथ ही चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है और स्मरण शक्ति भी बढ़ती है।
 - और अगर मोटापे को दूर रखना है तो रोजाना थोड़ी मात्रा में मेवा खाइए। रोजाना एक औंस यानी करीब 28 ग्राम कच्चा बिना छिलका उतारे बादाम या अखरोट खाने से चर्बी नहीं बढ़ती। है न आसान उपाय।

भ्रष्टाचार बनाम सदाचार

भ्रष्टाचार बनाम सदाचार

                                                        -डॉ. रत्ना वर्मा
 सदाचारी अन्ना हजारे द्वारा आरंभ किए गए भ्रष्टाचार विरोधी अंदोलन के ऐतिहासिक दिन का एक वर्ष पूरा हो गया। याद रहे कि हमने अन्ना हजारे के अंदोलन का समर्थन करते हुए कहा था कि 'बहुत कठिन है डगर पनघट की' वही हुआ भी। अंदोलन ने पिछले एक वर्ष में कई उतार- चढ़ाव देखे जो कि स्वाभाविक ही है। एक ओर जहां इस अंदोलन की अनेक बेमिसाल और अविस्मरणीय उपलब्धियां हैं वहीं भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं, शासन तंत्र तथा बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने अन्ना हजारे तथा उनकी टीम के सदस्यों की प्रतिष्ठा पर कालिख पोतने में पूरी ताकत झोंक दी है। भ्रष्टाचार का दानव अपने विरोधियों को अपना दम- खम दिखाने में कभी चूक नहीं करता फिर भी पहले भ्रष्टाचार विरोधी अंदोलन की अब तक की उपलब्धियों को देखना उचित होगा।
अन्ना हजारे ने अपने थोड़े से साथियों और कर्मठ सहायकों के साथ भ्रष्टाचार के विरूद्ध अंदोलन चलाकर पूरे देश को आंदोलित कर दिया। भ्रष्टाचार के विरूद्ध सर्वव्यापी व्याधि से लोहा लेने के लिए पूरे राष्ट्र को जागृत कर देना अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। एक अकेले व्यक्ति ने पारदर्शी इमानदारी से सुवासित नैतिक और देश प्रेम के बल पर तेरह दिन के अल्पकाल में भ्रष्टाचार में सराबोर सर्वशक्तिमान केन्द्रीय सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर करने की अभूतपूर्व ऐतिहासिक मिसाल कायम कर दी। इस अंदोलन ने देश में जो जागृति पैदा की उसी का परिणाम है कि उत्तराखंड में एक मजबूत लोकपाल कानून पास हुआ और झारखंड में राज्य सभा के लिए चुनाव निरस्त कर दिया गया। इसी अंदोलन ने भ्रष्टाचार की पोषक केन्द्रीय सरकार को लोकपाल कानून बनाने का नाटक करने पर मजबूर किया। जन लोकपाल अधिनियम के स्थान पर एक बेहद लचर कानून बनाने की जो नौटंकी संसद में खेली जा रही है उससे संसद सदस्यों ने जनता को स्पष्ट संदेश दिया कि उनकी भ्रष्टाचार का विरोध करनेकी कोई इच्छा नहीं है। आखिर चुनाव भी तो भ्रष्टाचार की रकम से जीते जाते हैं।
उपरोक्त उपलब्धियों से ही आहत होकर भ्रष्टाचार में लिप्त शक्तिशाली समूह ने अपने विरोधियों पर लगातार प्रहार करना जारी रखा है। कहीं जोड़- तोड़ से बनाई सीडी प्रगट होती है तो कहीं मीडिया में इन पर तरह- तरह के कपोल- कल्पित अभियोगों के समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। जो बड़बोले नेता पहले अन्ना हजारे का चरण स्पर्श करके सम्मानित महसूस करते थे वे ही अब अन्ना हजारे के बारे में दुष्प्रचार में जुटे रहते हैं। जो नेता अन्ना हजारे के मंच पर आकर उनके अंदोलन के प्रति निष्ठा प्रगट करने का नाटक करते हैं वे ही संसद के अंदर अन्ना हजारे के प्रयास के बारे में विष- वमन करते हैं। संसद और मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के, सुप्रीम कोर्ट से सजा पाए आतंकवादी अ$फ•ाल गुरू और कसब को फाँसी दिलवाने की ओर सांसद कभी ध्यान नहीं देते। परंतु अन्ना हजारे के मंच से एक वक्ता के मुंह से 'चोर की दाढ़ी में तिनका' जैसे मुहावरे से नेताओं को इतनी तिलमिलाहट होती है कि आंदोलनकारियों के खिलाफ संसद में घंटों लंबे- लंबे भाषण देते रहते हैं। जिस लोक सभा में 162 संसद सदस्य अपराधिक पृष्ठभूमि के हों उससे और क्या उम्मीद की जा सकती है।
इसी परिपेक्ष्य में भ्रष्टाचार उजागर करने पर महालेखापरीक्षक पर छींटाकशी का जा रही है। अत्यंत इमानदार, देशप्रेमी और पराक्रमी सेनाध्यक्ष द्वारा सेना के लिए आवश्यक सामान की खरीद में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नकेल लगाने से बौखलाए विदेशी शस्त्र- निर्माताओं और उनके दलालों द्वारा मीडिया में उनके विरूद्ध तरह- तरह की मनगढ़ंत कहानियां छपवाई जा रहीं हैं। एक अंग्रेजी अखबार ने तो हद ही कर दी और भारतीय सेना, जिस पर प्रत्येक भारतीय गर्व करता है, की वफादारी पर ही शंका व्यक्त करने की धूर्ततापूर्ण खबर छाप दी। देश प्रेम और नैतिक बल से ओत- प्रोत सेनाध्यक्ष के भ्रष्टाचार विरोधी प्रयासों से कुछ नेता तो इतने बौखला गए कि सेनाध्यक्ष को बर्खास्त किए जाने की मांग तक करने लगे।
देश के शासन और राजनीति को लम्बे समय से पूर्णतया जकड़े हुए भ्रष्टाचार से भिडऩे का बीड़ा उठाए वीर यह भी जानते हैं कि उपरोक्त किस्म की धूर्ततापूर्ण हरकतों को भी झेलना होगा। वे भ्रष्टाचार के पोषक तत्वों की ऐसी बदमाशियों से विचलित भी नहीं होते। हां इतना अवश्य है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष लम्बे समय तक चलना है। बीते वर्ष अन्ना हजारे की टीम, महालेखापरीक्षक और सेनाध्यक्ष के प्रयत्नों से भ्रष्टाचार की भयानकता के प्रति आम जनता, भ्रष्टाचार के उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्ध होती जायेगी। हमारी कामना है कि अन्ना हजारे स्वस्थ रहें और अपने नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी संगठन के सक्रिय सदस्य देश के प्रत्येक गांव, कस्बे और शहर में बनाएं। हमारा दृढ़ विश्वास है कि इस प्रकार भ्रष्टाचार विरोधी अंदोलन तेजी पकड़ेगा और सफल भी होगा।

बातचीत

डॉ. सुनील कालड़ा से बातचीत पर आधारित

जिंदगी को संवारते हाथ

- सुजाता साहा
डॉ. सुनील कालड़ा
प्लास्टिक सर्जरी के आविष्कार ने आज मनुष्य की उम्र को पछाड़ दिया है यही वजह है कि सितारें फिल्मी और माडलिंग की दुनिया में 50-55 की उम्र तक भी छाएं रहते हैं। उनके चेहरे और शरीर पर झुर्रियों के निशान ऐसे मिट जाते हैं कि उम्र का पता ही नहीं चलता। मेडिकल साइंस के आविष्कार प्लास्टिक सर्जरी ने अनुवांशिक विकृतियों को दूर करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ही है साथ ही बदसूरत चेहरे से निराश लोगों के लिए जीने के लिए आशा की किरण भी जगाई है।
पहले         बाद में
मनुष्य अपना रंग- रूप जन्म से ही लेकर आता है। उसके नाक- नक्श उसका सौंदर्य कुदरती होता है लेकिन कुछ बच्चे अनुवांशिक कारणों से कटे- फटे होंठ, टेठे मेढ़े दांत, चपटी नाक और बेडौल चेहरा लेकर पैदा होते हैं। जिसे अंधविश्वास के कारण हमारे समाज में पूर्वजन्म का अभिशाप, बुरे कर्म का नतीजा तथा भगवान की मर्जी मानते हुए ऐसे बच्चों को हेय दृष्टि से देखते हैं। अगर इन अनुवांशिक विकृतियों को बचपन में ही दूर न किया जाए तो बड़े होकर बच्चे हीनग्रंथि के शिकार हो जाते हैं। तथा समाज में सहज होकर उनके जीने की इच्छा खत्म हो जाती है।
आज मेडिकल साइंस ने इतनी अधिक तरक्की कर ली है कि उपरोक्त अनुवांशिक विकृति को भी आसानी से दूर किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित कालड़ा कॉस्मेटिक सर्जरी इंस्टीट्यूट एडवान्सड बर्न एंड ट्रामा सेंटर एक ऐसा अस्पताल है जहां डॉ. सुनील कालड़ा ऐसे बच्चों की जिंदगी को संवारने में लगे हैं।
डॉ. कालड़ा दिनभर में लगभग 15-20 ऑपरेशन करते हैं। उन्होंने विकृत हो चुके लगभग 1 लाख से ज्यादा लोगों के जीवन को खुशियों से भर दिया है लेकिन दूसरों के चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए डॉ. कालड़ा को बहुत लंबा संघर्ष करना पड़ा है।
6 जनवरी 1960 रायपुर में जन्मे डॉ. सुनील कालड़ा छत्तीसगढ़ के ही नहीं बल्कि देश के प्रसिद्ध प्लास्टिक सर्जनों में से एक जाने जाते हैं। अपने परिवार में डॉ. सुनील सबसे छोटे हैं। पिता आर. एल. कालड़ा, माता कृष्णा, दो बहनें शारदा व नीतू तथा बड़े भाई अनिल हैं। यूं तो डॉ. कालड़ा एक समृद्ध परिवार में पैदा हुए थे रायपुर के शारदा चौक के पास कालड़ा परिवार की साइकल दुकान थी।  साथ ही साथ ठेकेदारी का काम भी करते थे। लेकिन सुनील की पैदाइश के चार साल बाद ही उनके पिता का एक दुर्घटना में देहांत हो गया। मां जो पांचवी तक पढ़ी थीं उन पर परिवार का पूरा भार आ गया। और दो वक्त का भोजन भी मुश्किल से जुटने लगा। आर्थिक विपत्ति के इस संघर्ष ने कालड़ा परिवार को बजाए कमजोर करने के और मजबूत बना दिया। सुनील तब छोटे थे। दोनों बहनें ट्यूशन आदि करके और बड़े भाई किसी तरह 12वीं की शिक्षा के बाद नौकरी करने लगे।
इन सब मुसीबतों के साथ परिवार में जो सबसे बड़ी मुसीबत आई वह थी मां की बीमारी। मां को पथरी हो गया उनका असहनीय दर्द देखकर सुनील बेचैन हो जाया करते थे और इसी बीच उन्होंने निर्णय लिया कि वे डॉक्टर बनकर लोगों का दर्द दूर करेंगे। तब परिवार को भी लगा कि सुनील को डॉक्टर ही बनाएंगे। इस तरह सुनील ने रायपुर में एमबीबीएस और एमएस पास किया और सर्जरी की पढ़ाई के लिए दिल्ली चले गए। लेकिन डॉ. कालड़ा केवल कटे फटे होंठ ठीक करने वाले सर्जन नहीं बनना चाहते थे बल्कि वे सर्जरी के अन्य क्षेत्रों में भी महारत हासिल करना चाहते थे जिसे पूरा करने के लिए मुम्बई में प्रेक्टिस के दौरान वे स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स की टीम के साथ रहकर सर्जरी की बारीकियां सीखने लगे। बगैर पैसा लिए लगातार अन्य डॉक्टरों के साथ काम करते हुए डॉ. कालड़ा ऐसे सर्जन बन चुके हैं जिनके पास हर उस बिगड़े हुए रंग- रूप का इलाज है जो कभी लाइलाज माना जाता था। हर तरह की सर्जरी में परिपक्वता हासिल कर लेने के बाद अंत में उन्होंने रायपुर में अपना अस्पताल खोल लिया।
पिछले दिनों अपने कुछ सवालों के साथ जब मैं उनके अस्पताल पहुंची तो बेहद व्यस्त होने के बाद भी उन्होंने बातचीत करना स्वीकार कर लिया।
डॉ. कालड़ा से मैंने पूछा प्लास्टिक सर्जरी को ही आपने क्यों अपनाया? 
उन्होंने बताया कि मैं सर्जरी के क्षेत्र में कुछ अलग करना चाहता था। मुझे प्लास्टिक सर्जरी के क्षेत्र ने आकर्षित किया क्योंकि इसमें मुझे लोगों की जिंदगी बचाने के साथ- साथ उनकी जिंदगी संवारने का भी मौका मिल रहा था।
आपकी दिनचर्या क्या है और मरीजों से आपके संबंध कैसे हैं?
मरीज हैं तो हम हैं। मैं उन्हें पूरा सर्पोट करता हूं। उन्हें चिकित्सा सुविधा के मामले किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ न हो इसके लिए मैं स्वयं 24 घंटे अपनी सेवा देता हूं। मैं एक डॉक्टर हूं इसलिए हर पीडि़त व्यक्ति का सदैव तत्पर रहकर इलाज करना मेरा प्रथम कत्र्तव्य हैं जिसे मैं पूरा कर रहा हूं। ...और हां किसी भी बीमारी को दूर करने के लिए काउंसिलिंग जरूरी है। काउंसिलिंग के द्वारा ही अपने मरीजों का उत्साहवर्धन करता हूं। यही वजह है कि वे जब ठीक होकर घर वापस जाते हैं तो आत्मविश्वास से लबरेज होते हैं।
अनुवांशिक विकृतियों का इलाज क्या किसी खास उम्र में ही संभव है?
कटे फटे होंठ से पीडि़त बच्चों का ऑपरेशन 3 से 6 माह के बीच हो जाना चाहिए इसी तरह विकृत तालू से पीडि़त बच्चों का ऑपरेशन एक साल तक की आयु में होना चाहिए। पैरेंट्स खुद ही अपने बच्चों की कमी दूर करने के लिए हमसे कंसल्ट करते हैं।
कोई ऐसा केस जो आपके जेहन में आज भी ताजा है?
ऐसे तो बहुत से केस हैं परंतु रायपुर की रिज़वाना का केस मेरे लिए एक चुनौती था। रिजवाना हिपो (Fibrous Dysplacia) से पीडि़त थी। उसका चेहरा इतना विकृत था कि वह अपना चेहरा भी आईने में नहीं देखती थी और अपना चेहरा हमेशा कपड़े से ढकी रहती थी। बहुत जगह से निराश होकर आखिर में रिज़वाना मेरे पास आई। आज वह बिल्कुल स्वस्थ और सुंदर बन चुकी है। उसकी शादी हो गई और वह अपने बच्चों के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रही है। एक लड़की ऐसी भी आई थी जिसके पास एश्वर्या राय के हर एंगल से दिखने वाले 200 फोटो थे वह कहती थी कि मुझे एश्वर्या जैसी ही नाक चाहिए। मैंने उसकी नाक वैसी तो नहीं बनाई क्योंकि उसका चेहरा बड़ा था जिस पर एश्वर्या की नाक फिट नहीं बैठती थी। इसलिए मैंने उसके चेहरे के अनुरूप नाक बनाई। इस तरह ऐसे बहुत से केस आते हैं कि उन्हें वैसी ही नाक, वैसी ही आंख आदि चाहिए। परंतु यह संभव नहीं क्योंकि हर किसी के चेहरे की बनावट अलग होती है उसपर क्या अच्छा लगेगा यह देखकर  ही उसके चेहरे बनावट में बदलाव किया जाता है। एक दूसरा मामला सेक्स चेंज का था। जिसमें माइकल नामक एक लड़का जिसका शरीर तो लड़के का था परंतु उसे लड़कियों की तरह रहना पसंद था। उसने अपना सेक्स बदलवाया। आज वह एलीना बनकर सबके सामने है। उसने खुद अपने बारे में मीडिया को जानकारी दी जबकि सेक्स चेंज जैसे मामलों को लोग छिपाना चाहते हैं। एलीना आज एक समाजसेविका के रूप स्थापित है।
आर्थिक रूप से इलाज में असमर्थ लोगों के लिए अस्पताल में क्या सुविधाएं है?
सबसे पहले मेरी कोशिश होती है कि पैसे के अभाव में कोई गरीब मेरे अस्पताल से निराश होकर न लौटे। मैं हर चेहरे को मुस्कुराता हुआ देखना चाहता हूं। आर्थिक रूप से असमर्थ लोगों के लिए ऑपरेशन मुस्कान, स्माइल ट्रेन, कृष्णा हेल्थ केयर फाउन्डेशन प्रोगेसिव क्लब के तहत उनका नि:शुल्क इलाज होता है।
आपके पास किस प्रकार के मरीज बड़ी संख्या में आते हैं?
मेरे पास ज्यादातर लोग अपने चेहरे की सुंदरता के लिए आते हैं जैसे असामान्य नाक की कास्टमेटिक सर्जरी, बाल प्रत्यारोपण, अनचाहे बाल हटाने, वक्ष को सही आकार देने, टैटू मिटाने, हाथ- पैर के कटे हिस्से को जोडऩे, चमकती त्वचा के लिए, चेहरे की झाईयां, दाग धब्बे, झुर्रिया मिटाने, आग से जले झुलसे शरीर को सही रूप में ढालने, आड़े तिरछे चेहरों को ठीक करवाने, आंखों को एक समान बनाकर सुंदरता प्रदान करवाने, तिल बनाने व हटाने, मोटापा कम करवाने वाले केस के साथ  लड़कियां गालों पर डिंपल व नाभी में न्यू लुक देने आती हैं। ऐसी भी लड़कियां आती हैं जो एश्वर्या राय और कैटरीना कैफ जैसी खूबसूरत फिल्मी हिरोइनों के फोटो दिखा कर कहती हैं कि हमारी नाक या हमारे होंठ इनके जैसे बना दीजिए।
डॉ. कालड़ा ने आगे बताया कि आज के दौर की पीढ़ी अपने जीवनसाथी को परफेक्ट चाहती है अगर कोई कमी है तो उसे  पहले दूर करना चाहते हैं। शहरी क्षेत्रों के अलावा गांवों में भी ऐसी जागरूकता आई हैं जिसमें युवक अपनी जीवन संगिनी को सुंदर बनाने के लिए कास्मेटिक सर्जरी की सहारा ले रहे हैं। 
लोग आधुनिकता के चलते हीरो- हीरोइन की तरह दिखना चाहते है और अपने अच्छे भले प्राकृतिक चेहरे को बदलना चाहते है यह कहां तक उचित है?
हम प्राकृतिक चेहरे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं करते बल्कि खराब चेहरे को सुंदर बनाते है। और रही पूरे चेहरे की सर्जरी तो हम चेहरा बदलने से पूर्व उसकी छानबीन करते है कहीं कोई क्रिमिनल तो नहीं है जो अपना पहचान छुपाना चाह रहा हो, ऐसी दशा में हम सर्जरी नहीं करते लेकिन अगर किसी का चेहरा बुरी तरह बिगड़ गया हो, शादी में प्राब्लम आ रही हो, प्यार में धोखा या कोई और जैनविन प्राब्लम हो तो सर्जरी की जाती है।
प्लास्टिक सर्जरी के क्षेत्र में भारत दूसरे देशों के मामले में पिछड़ा हुआ माना जाता है आप क्या सोचते है?
पहले लोगों की सोच थी कि हीरे जवाहरात पहनने से खूबसूरती बढ़ती है परंतु जब चेहरा ही सुंदर ना हो तो कितने भी भारी गहनें क्यों न पहने जाएं आप सुंदर नहीं लग सकते। जबकि सुंदरता तो सादगी में होती है। अब लोग जागरूक हो रहे हैं वे सोने चांदी के गहने खरीदने के बजाए अपने चेहरे की खूबसूरती पर पैसा लगा रहे हैं। उदाहरण के लिए ब्राजील जैसे देश में लोग अपनी सुंदरता के प्रति काफी जागरूक हैं। वहां कॉस्मेटिक सर्जरी वाउचर मिलता है। जिसे लोग गिफ्ट के तौर पर देते हैं। ये चलन भारत में भी शुरु होना चाहिए।
अंत में मैंने डॉ. कालड़ा से उनके परिवार के बारे में पूछा उन्होंने बताया पत्नी डॉक्टर नीलिमा पैथालॉजिस्ट हैं, बेटी कृति एमबीबीएस की पढ़ाई कर रही हैं और बेटा हार्दिक अभी 10 वीं में है जिसका रूझान भी मेडिकल में है।
इस प्रकार अपने परिवार के साथ डॉ. कालड़ा व्यस्त दिनचर्या के बावजूद अपने अस्पताल में छोटी सी टीम के साथ कार्य करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इलाज के बाद मरीज के चेहरे पर मुस्कान देखकर उन्हें असली संतुष्टि मिलती है।

मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है

डॉ. कालड़ा के अस्पताल में कुदरती कमी की वजह से हीनता से ग्रसित बहुत से लड़कियों और लड़कों का आत्मविश्वास लौट आया है। और वे सब आज सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे ही कुछ लोगों से हमने बातचीत की और जाना कि वे इलाज के बाद अब कैसा महसूस करते हैं। जिन्होंने अपनी आपबीती सुनाई उनके नाम बदल दिए गए हैं-
प्रिया ने 3 साल पहले अपने मोटे नाक की सर्जरी कराई थी। प्रिया का कहना है कि मोटे नाक की वजह से उसका मजाक बनाया जाता था लेकिन सर्जरी के बाद जब नाक को अलग शेप दिया गया तो मेरी खूबसूरती और मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ गया। इसी तरह रीता ने भी अपनी नाक की सर्जरी कराई रीता के माता- पिता ने बताया कि रीता की नाक चेहरे के अनुरूप काफी दबी हुई थी। जिस वजह से उसकी शादी में रुकावट आ रही थी। उसके अंदर हीन भावना आ गई थी। हमने करीब दो-ढाई साल पहले डॉ. कालड़ा से संपर्क किया और रीता की नाक को नया रूप दिया। उनके माता पिता गर्व से कहते हैं कि डॉ. कालड़ा की वजह से ही आज उनकी बेटी अपने ससुराल में सुखी जीवन व्यतीत कर रही है।
संध्या एक ऐसी मां जो डिजाइनर कपड़ों की शौकीन है परंतु उसकी बेटी श्रुती को वह डिजाइनर कपड़े नहीं पहना सकती थी क्योंकि उसके हाथ में चोट का निशान है। श्रुति हमेशा पूरी बांहों वाले कपड़े ही पहनती थी। 10 साल की उम्र में एक एक्सीडेंट में लगी चोट का निशान उसके हाथ में था। लेकिन हाल ही मैंने उस निशान को सर्जरी द्वारा ठीक करवाया। आज श्रुति भी डिजाइनर कपड़े पहन सकती है। अब उसे अपना हाथ छिपाने की जरूरत नहीं।
डॉ. कालड़ा से निम्न पते पर संपर्क किया जा सकता है- कालड़ा कॉस्मेटिक सर्जरी इंस्टीट्यूट एडवान्सड बर्न एंड ट्रामा सेंटर, राजकुमार कालेज के पास, चौबे कालोनी, रायपुर (छत्तीसगढ़)
उनका मोबाइल नंबर है- 9827143060 तथा ईमेल आईडी है- sunilkalda@rediffmail.com

पुरस्कार एवं सम्मान

डॉ. सुनील कालड़ा को उनके बेहतर कार्य के लिए कई पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। जिसमें प्रमुख है। शहीद वीर नारायण सिंह अवार्ड 2010, बी सी राय अवार्ड 2008, इंदिरा गांधी प्रियदर्शनी अवार्ड 2010, जी न्यूज अवार्ड 2011, जी न्यूज ऑनर से सम्मानित 2003,  ट्राइबल वर्क के उत्थान के लिए प्रतिभा पाटिल से मुलाकात व सम्मान। जी24 घंटे विहान सम्मान 2011 और ऑपरेशन मुस्कान पर पुस्तक प्रकाशित।

ऑपरेशन मुस्कान

 ऑपरेशन मुस्कान एक ऐसी संस्था है जो पिछड़ी जनजातियों में व्याप्त जन्मजात विकृतियों का नि:शुल्क इलाज करता है। पूरे भारत में 75 विशेष पिछड़ी जनजाति अधिसूचित है जिसमें से छत्तीसगढ़ राज्य में 5 विशेष पिछड़ी जनजाति कवर्धा एवं बिलासपुर में बैगा, रायपुर एवं धमतरी में कमार, नारायणपुर में अबूझमाडिय़ा, कोरबा, जशपुर सरगुजा में पहाड़ी कोरबा एवं रायगढ़ तथा जशपुर जिले में बिरहोर विशेष पिछड़ी जनजाति के लोग निवासरत हैं। जन्मजात विकृतियों जैसे कटे- फटे होंठ, तालू की विकृति आदि का नि:शुल्क इलाज कराने के लिए सरकार द्वारा विशेष प्रयास है 'ऑपरेशन मुस्कान'।
अमेरिका के न्यूयार्क में चाल्र्स ब्राउन द्वारा 1999 में स्माइल टे्रन नामक समाज सेवी संगठन की स्थापना की गई है जिसका उददेश्य विश्व में कोई भी व्यक्ति कटे- फटे होंठ एवं विकृत तालू से पीडि़त न रहे। इस उद्देश्य को चरितार्थ करते हुए विश्व के 76 देशों में स्माइल ट्रेन कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम का आगमन भारत में 2000 से एवं छत्तीसगढ़ में यह कार्यक्रम 1 जनवरी 2005 में हुआ है। छत्तीसगढ़ में स्माईल ट्रेन तथा अन्य सामाजिक संगठनों के माध्यम से 'ऑपरेशन मुस्कान' नामक अभियान के तहत डॉ. कालड़ा के क्लिनिक में नि:शुल्क ऑपरेशन कर पीडि़त लोगों के चेहरे में मुस्कान लाकर उनके जीवन में खुशियां भरने का एक बहुत बड़ा प्रयास है। 

संपर्क- रायपुर, मो. 9302233293 ईमेल sujatasaha06@gmail.com

Apr 21, 2012

छत्तीसगढ़ में हाथियों को मिलेगी पनाह

छत्तीसगढ़ में हाथियों को मिलेगी पनाह

                                                                            -संदीप पौराणिक
हाथियों के समूह का लीडर हमेशा मादा हाथी होती है और कहा जाता है कि उसकी स्मृति में लगभग 200 वर्षों की मेमोरी होती है चूंकि हाथी लगभग 90 वर्षों तक जिंदगी जीते हैं अत: जब हाथी छोटा होता है तब वह अपनी मां, दादी मां से उन सारी जगहों के रास्तों का पूरा नक्शा अपने मस्तिष्क में संजो लेता है और आपातकाल में उसका उपयोग करता है।
पिछली बार जब राज्य वन्य प्राणी सलाहकार बोर्ड की बैठक हुई थी तब हाथी मानव द्वंद्व का मुद्दा काफी जोर- शोर से उठा था तथा हाथी रिजर्व बनानेे की मांग भी बैठक का प्रमुख मुद्दा बनी थी।  छत्तीसगढ़ में हाथी- मानव द्वंद्व पिछले कुछ समय से बढ़ गया है। वर्तमान में लगभग 150 से 190 हाथी छत्तीसगढ़ राज्य में पिछले दस वर्षों से स्थायी रूप से रह रहे हैं। एक बड़ी समस्या इनके द्वारा की गई तबाही के कारण है जिससे दर्जनों मानव, सैकड़ों एकड़ जमीन और किसानों एवं आदिवासियों के मकान इनके द्वारा उजाड़ दिए गए और जवाबी हमलों में जिनमें करंट लगाकर और जहर व अन्य वजहों से दो दर्जन हाथी भी काल कलवित हो गए। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने हाल ही में तीन अभ्यारण्यों तमोर पिंगला, सेमरसोत और बादलखोल अभ्यारण्य को मिला कर हाथी रिजर्व बनाने की घोषणा की है। छत्तीसगढ़ में अभी निवासरत हाथी उड़ीसा, बिहार और झारखंड राज्य से भागकर अपनी जान बचाने के लिए आए हैं या यूं कहें कि खदेड़े गए हैं। इन राज्यों में बड़े जोर- शोर से खनन कार्य चल रहा है। इन राज्यों में जहां- जहां हाथी थे, वहां जमीन में बेशकीमती खनिज हैं। यहां  खनन माफियाओं ने मिलकर सुनियोजित तरीके से इन्हें यहां खदेड़ा और ये हमारे प्रदेश पहुंच गए।
वर्तमान में हाथी छत्तीसगढ़ राज्य के लिए समस्या मूलक और वरदान दोनों ही है। छत्तीसगढ़ राज्य एकमात्र ऐसा राज्य है जो लगभग 44 प्रतिशत वनाच्छादित है किंतु यहां पर जंगली जानवरों का प्रतिशत जंगल के हिसाब से बहुत कम है। यहां राज्य पशु वन भैंसा की संख्या लगातार कम होती जा रही है। लगभग 2 दर्जन ही जंगली भैंसें यहां बचे हैं। इसके अतिरिक्त बाघ और गौर भी घटते जा रहे हैं। ऐसे समय में जंगली हाथियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति से पर्यटकों के लिए एक अच्छा वातावरण बनाया जा सकता है। वैसे भी हाथियों का छत्तीसगढ़ से बड़ा गहरा रिश्ता रहा है। अंग्रेज लेखक फोरसिथ द्वारा लिखित पुस्तक हाइलैंड्स ऑफ इंडिया में वर्णन है कि वर्ष 1890-1900 के बीच अमरकंटक, बेलगहना, पेन्ड्रा, रतनपुर से लाफागढ़, सरगुजा तक हाथियों के कई समूह देखे गए। 19वीं सदी तक हाथी पूरे भारत में पाया जाता था परंतु हाथी के प्राकृतिक आवास जंगलों के अंधाधुंध कटने के कारण हाथी की संख्या कम हो गई।
हाथी छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, असम, मेघालय और अरूणाचल प्रदेश में ही पाए जाते हैं। मनुष्य और हाथियों का साथ सदियों पुराना है। जहां- जहां प्राचीन शहरों के अवशेष  मिले हैं वहां- वहां हाथी के चित्र या फिर वहां की स्थानीय शिल्पकलाओं में हाथियों की भी कलाकृति पाई गई है। भारत में हड़प्पा की खुदाई करने के     बाद शिल्पकला में हाथी के अद्भुत नमूने और बर्तनों पर हाथी की चित्रकारी मिली है। राजा महाराजा तो शुरू से ही गजराज की सवारी करते आए हैं। ऐसा कहा जाता है कि जहांगीर की सेना में चालीस हजार हाथी थे और मुगल शासक अकबर की सेना में छत्तीसगढ़ से बड़ी संख्या में हाथी भेजे गए थे। 
पृथ्वी पर हाथी के पूर्वज 50- 60 मिलियन वर्ष पूर्व रहते थे। ये रेतीले मैदानों से लेकर आर्द्र वनों, समुद्र तट से लेकर ऊंचे पहाड़ों तक पाए जाते थे। इस जाति की 352 प्रजातियों में से 350 लुप्त हो चुकी हैं। अब केवल दो प्रजातियां ही बची हैं।
अफ्रीकी हाथी अफ्रीका के जंगलों में और एशियाई हाथी  भारत, मलेशिया, श्रीलंका और सुमात्रा में पाया जाता है। अफ्रीकी हाथी और एशियन हाथी में मुख्य अंतर यह है कि अफ्रीकी हाथी एशिया के हाथी से आकार में बड़ा होता है। अफ्रीकी हाथी के कान एशियाई हाथी से बड़े होते हैं। 19वीं सदी तक हाथी पूरे भारत में पाया जाता था। हाथी हमारे पर्यावरण और वन संपदा का परम मित्र है। हाथी बीजों के परागण में सहायता करते हैं। जो घास पत्तियां हाथी खाते हैं, उनके बीज हाथी के गोबर द्वारा अन्य स्थान पर पहुंच कर विकसित हो जाते हैं। कीड़े हाथी के गोबर को अपने साथ भूमि के भीतर ले जाते हैं जिससे मिट्टी छिद्रित हो जाती है। हाथी के पैरों में गहरे निशान बनने से भूमि में वर्षा का पानी एकत्र होता है। हाथियों के जंगलों में चलने से पैरों से ऐसे निशान बनते हैं जो जंगलों में रहने वाले पशुओं के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। इससे उन्हे जंगल में पानी की तलाश करने में कोई कठिनाई नही होती। वे आसानी से पानी तक पहुंच जाते हैं।
हाथी का सबसे निराला अंग है उसकी सूंड जो हाथी के लिए हाथ का काम करती है। यह सूंड नासिका और ऊपर के होंठ से मिलकर बनती है। यह काफी लचकदार होती है। यह लगभग 10 हजार पेशियों से मिलकर बनी होती है और इसमें लगभग 8.5 लीटर पानी समा जाता है। संूड हाथी को खाने, पीने, नहाने, संूघने, स्पर्श करने और बचाव में मदद करती है। हाथी अपनी सूंड से एक सिक्के जैसी छोटी वस्तु को भी उठा सकता है।
 हाथी के दांत और जीवों से भिन्न होते हैं, न केवल दिखाने के किंतु खाने के भी। हाथी के दांत नीचे से ऊपर की ओर नहीं निकलते बल्कि पीछे से आगे की ओर बढ़ते हैं। नवजात हाथी में दो या तीन दांत के जोड़े होते हैं, जैसे- जैसे ये दांत घिसते जाते हैं ये बढ़ते- बढ़ते अपने आप नष्ट हो जाते हैं। इनका स्थान पीछे से आगे आने वाले नए दांत ले लेते हैं। ऐसा हाथी के जीवन में छ: बार होता है। दांत हाथी के लिए इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि अधिकतर हाथियों की मृत्यु दांत गिरने के कारण भूखा रहने से होती है। हाथी दांत वास्तव में हाथी के शरीर के बाहर नजर आने वाले दांत हैं। नवजात हाथी के ये दांत 6 माह से एक वर्ष के अंदर गिर जाते हैं और उनकी जगह नए दांत आ जाते है। हाथी के दांत एक साल में लगभग 7 इंच बढ़ जाते हैं। हाथी का शिकार मुख्यत: हाथी के इन्हीं दंातों के लिए किया जाता है।
हाथियों की संख्या में निरंतर कमी होने का मुख्य कारण यह भी है। हाथी दंात से बनी विभिन्न आकर्षक वस्तुएं भारी कीमत पर बिकती हैं। हाथी अपने दांतों का उपयोग खोदने के लिए, पेड़ों की छाल उतारने के लिए, लड़ाई के लिए या सूंड बचाने के लिए करते हैं। बिना दांत वाले हाथी को मखना कहते हैं। अफ्रीका में पाए जाने वाले नर और मादा हाथियों में दोनों के दांत होते हैं। एशिया में केवल नर हाथी के ही दांत होते हैं। लगभग दस वर्ष पूर्व जब हाथियों का छत्तीसगढ़ प्रदेश में आगमन हुआ तब सरकार, स्थानीय निवासी तथा पर्यावरण एवं वन्य प्राणियों से जुड़े संगठनों और विशेषज्ञों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और शुरूआत में इसे समस्यामूलक ही समझा गया और ऐसा सोचा जाता रहा कि हाथी जिन जगहों में आए हैं, उन्हीं जंगलों में वापस चले जाएंगे, किंतु जब हाथी यहां स्थायी रूप से रहने लगे तब सबको अपना नजरिया बदलना पड़ा।
हाथियों के समूह का लीडर हमेशा मादा हाथी होती है और कहा जाता है कि उसकी स्मृति में लगभग 200 वर्षों की मेमोरी होती है चूंकि हाथी लगभग 90 वर्षों तक जिंदगी जीते हैं अत: जब हाथी छोटा होता है तब वह अपनी मां, दादी मां से उन सारी जगहों के रास्तों का पूरा नक्शा अपने मस्तिष्क मेें संजो लेता है और आपातकाल में उसका उपयोग करता है। छत्तीसगढ़ में भी हाथी जिन जगहों पर डेरा जमाए हैं उन सभी स्थानों पर पूर्व में हाथियों के रहने के प्रमाण मिले है और वे सारी जगहें पूर्व में राजा, महाराजाओं द्वारा शिकार करके इन्हें वन्य प्राणी विहीन बना दिया गया है। अत: जंगल तो समृद्ध हैं किंतु जानवर नहीं के बराबर। अब हाथियों के कारण जंगल भरे- भरे लगते हैं किंतु जिस तेज गति से यहां काम होना था उस गति से हो नहीं रहा है।
अभी हाल ही में मैंने केरल, तमिलनाडु जो कि हाथी समृद्ध राज्य का अध्ययन दौरा किया। वहां पर हाथी कॉरीडोर बहुत खूबसूरत है। उस पूरे कॉरीडोर में हाथियों की पसंद के फल  केला, कटहल, गन्ना आदि जैसी फसलें लगाई गई हैं जिससे हाथी उक्त परिवेश से बाहर नहीं निकलना चाहता। इस तरह आस- पास के प्रभावित किसानों को अदरक, हरी मिर्च, लहसुन जैसी फसलें लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जिन्हें हाथी पसंद नहीं करते। इस प्रकार वहां पर हाथी- मानव द्वंद्व कम हो गया है और लोग सामंजस्यपूर्वक रह रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में अभी भी अच्छे वन्य प्राणी विशेषज्ञ और पशु चिकित्सकों की कमी है। शासन को चाहिए कि वन अधिकारियों एवं स्वयंसेवी संगठनों से जुड़े लोगों और प्रभावित ग्रामीणों को अच्छी ट्यूनिंग दिलवाई जाए और उन राज्यों में इन्हें भेजा जाए जहां लोग वर्षों से बिना समस्या के हाथियों के साथ सामंजस्य से रह रहे हैं। शासन को हाथियों की मुखिया मादा हाथी को रेडियो कॉलर पहनाने पर भी विचार करना चाहिए जिससे उनके दल के रूट का अंदाजा लगाया जा सके। वर्तमान में बहुत ही उत्कृष्ट किस्म के कम वजन वाले लगभग 800 ग्राम के रेडियो कॉलर विश्व बाजार में उपलब्ध हैं, जो कि बहुत ही अधिक असर कारक हैं। इन रेडियो कॉलर द्वारा हम हाथियों को बहुत सी मुसीबतों से बचा सकते हैं। तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक राज्यों ने हाल ही में अपने राज्य में हाथियों पर रेडियो कॉलर प्रायोगिक तौर पर लगाए जिनके परिणाम बेहद उत्साहजनक हैं। हाल ही में मैसूर में दो जंगली हाथियों ने शहर में घुसकर भारी तबाही मचा दी थी।
छत्तीसगढ़ राज्य में ऐसी घटना कभी भी हो सकती है। लगभग चार वर्ष पूर्व हाथियों का एक दल रायगढ़ जिला मुख्यालय में डी.एफ.ओ. के बंगले में घुस गया था जिसे बमुश्किल जंगल में खदेड़ा गया। यदि वह शहर में घुस जाता तो भारी तबाही हो सकती थी। ऐसी ही घटना सरगुजा जिले के मुख्यालय में भी हो चुकी है। यहां लोक निर्माण विभाग के विश्राम भवन में हाथियों के दल ने काफी तबाही मचाई थी। वर्तमान में रायगढ़, कोरबा सहित कई जिला मुख्यालयों से हाथी मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर डेरा जमाए रहते हैं जिन पर निरंतर निगरानी की जरूरत है जिन्हें मात्र रेडियो कॉलर के द्वारा ही काबू में लाया जा सकता है।
संपर्क-   एफ 11, शांतिनगर सिंचाई कालोनी, रायपुर (छग)
         मो. 9329116267

किताबों को अपनी बेटी की तरह विदा करने का सुख

किताबों को अपनी बेटी  की तरह 

विदा करने का सुख

                                                                                  -  सूरज प्रकाश
विश्वास कर रहा हूं जिनके घर में भी ये किताबें पहुंचीं हैं, वे मेरी इस बात का मान रखेंगे और किताबों को नये पाठकों तक पहुंचाने के मिशन में सार्थक भूमिका निभायेंगे।
पिछले दिनों मैंने अपनी सारी किताबें विदा कर दीं। फेसबुक के जरिये। अनजान मित्रों को, दूरदराज के गांवों के पुस्तकालयों को। जिसने भी मांगीं, दे दीं। कुछ किताबें जरूरतमंद स्थानीय स्कूलों के स्टाफ सदस्य खुद ले गये। फेसबुक पर संदेश पढ़ कर कुछ मित्र आये और अपनी पसंद की किताबें चुन कर ले गये। अजब समां था। 24 और 25 दिसम्बर को अपने घर में किताबें सजाये मैं बैठा राह देख रहा था पुस्तक प्रेमियों की, कि वे आयें और विदा करके ले जायें मेरी बेटियों जैसी किताबों को।
दूरदराज के शहरों और गांवों की लम्बी यात्रा पर जाने वाली किताबों को तरतीब से लगाने, पैकेट बनवाने और रवाना करने में एक- दो दिन और लग गये। ये सोच कर बहुत सुख मिला कि हमारी सभी बेटियों को अच्छे, पढे़ लिखे घर- बार मिले। कुछ किताबें साहित्यकारों के घर गयी हैं तो कुछ नवोदित लेखकों और ब्लागरों के घर। अलग- अलग स्कूलों में बच्चों के संग- साथ रहने के लिए और गांवों में युवकों को अपना संदेश देने सबसे ज्यादा किताबें गयी हैं। कुछ एनजीओ दूर दराज के इलाकों में गरीब, जरूरतमंद और पढ़ाकू बच्चों के लिए पुस्तकालय और वाचनालय चलाते हैं। वे इन किताबों का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। पाकर फूले नहीं समाये।
इतना जरूर किया है मैंने कि हर किताब पर एक मोहर लगायी है कि उसे पढऩे के बाद किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दिया जाये। विश्वास कर रहा हूं जिनके घर में भी ये किताबें पहुंचीं हैं, वे मेरी इस बात का मान रखेंगे और किताबों को नये पाठकों तक पहुंचाने के मिशन में सार्थक भूमिका निभायेंगे।
लेकिन इस बीच मेरे सामने एक बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है। छतरपुर और मऊनाथ भंजन के जिन गांवों में मेरी भेजी किताबें पहुंची हैं, उन्होंने अतिरिक्त उत्साह में इस आशय की खबर स्थानीय अखबारों और इंटरनेट अखबारों में छपवा दी है। बाकी कसर उन पुस्तक प्रेमियों ने पूरी कर दी है जो मेरे घर आकर किताबें ले गये थे। सबने मिल कर मेरे इस मामूली- से काम को इतना अधिक प्रचारित कर दिया है कि लोग- बाग कहीं से भी मेरा नाम और फोन नम्बर खोज कर गुहार लगा रहे हैं कि अपने खजाने में से कुछ किताबें उन्हें भी दे दूं। कम से कम 15 पुस्तकालयों और इतने ही पुस्तक प्रेमियों के संदेश आ चुके हैं। मेरी समस्या ये है कि अब मेरे पास मुश्किल से हिंदी और अंग्रेजी की तीन- चार सौ किताबें ही बची हैं। अब किसे दूं और किसे इनकार करूं।
सच कहूं तो आसान नहीं होता इस तरह से अपनी पूरी जिंदगी में मेहनत से जुटायी गयी किताबों के खजाने को मुफ्त में लुटा देना। मैंने ये 4000 किताबें पिछले चालीस बरस के दौरान लाखों रुपये खर्च करके कहां- कहां से जुटायी होंगी, मैं ही जानता हूं। कितनी तो दुर्लभ किताबें थीं इनमें। 1969 में चार रुपये पचास पैसे में खरीदी गयी मेरी पहली किताब 'गीतांजलि' से लेकर पिछले ही महीने खरीदी गयी गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की आत्मकथा 'लिविंग टू टैल द टेल' तक हर किताब जुटाने के पीछे अलग ही कहानी रही होगी।
लेकिन सच कहूं तो मुझे ये काम करने के लिए दो बातों ने प्रेरित किया। पहली बात तो मैं ये मान कर चल रहा था कि इन किताबों ने मेरे पास होने का अपना मकसद पूरा कर लिया था। ये मकसद था, उन्हें पढ़ लिया जाना। दोबारा कितनी किताबें पढ़ी जायेंगी, मैं जानता हूं। इनमें से भी तो कई बिन पढ़े ही चली गयी हैं, ये भी मैं जानता हूं। अब अगर इन किताबों को नये पाठक मिलें, ये उनके बीच ज्ञान का प्रसार करें तो मेरे लिए इससे बड़ा सुख और क्या हो सकता था। अब मैं भी कुछ नयी किताबें खरीद पाऊंगा।
दूसरी बात सुख से ज्यादा दुख देने वाली है। हम सब जानते हैं कि किताबें कितनी भी कीमती क्यों न हों, उनकी आखिरी मंजिल रद्दी की दुकान होती है। वहां तक पहुंचने में पुरानी किताबों को देर नहीं लगती। मैंने खुद नामचीन लेखकों को भेंट में मिली किताबें सेंत-मेंत में फुटपाथ पर लगी दुकानों से खरीदी हैं। इससे पहले कि मेरी किताबों का भी यही हश्र होता, मैंने उन्हें सम्मानपूर्वक विदा कर दिया है। बेशक इस पूरी प्रक्रिया में मुझे बहुत खट्टे- मीठे अनुभव भी हुए हैं।
ये पहले ही तय हो गया था कि जो भी पाठक या पुस्तकालय पुस्तकें मंगवायेगा, कम से कम कूरियर खर्च वही अदा करेगा। मैंने कूरियर, पैकिंग और हैंडलिंग पर अच्छी खासी राशि खर्च की थी। फेसबुक के कई चेहरे ऐसे हैं जिन्होंने कूरियर का खर्च तीन महीने बीत जाने के बाद भी अब तक नहीं भेजा है। और तो और मुझे ही दोषी मान कर बात करना ही बंद कर दिया है कि मैंने आखिर कूरियर के पैसे मांगने की जुर्रत ही क्यों की। बेशक हर किताब पर मैंने ये मुहर भी लगायी थी कि इन्हें पढ़ कर किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दें ताकि किताबों को नये पाठक मिलने का सिलसिला एक मिशन की तरह चलता रहे और दूसरे पुस्तक संग्रहकर्ता भी इससे प्रेरित हों। कुछेक मित्रों ने तो साफ मना ही कर दिया है कि अब हम ये पुस्तकें किसी और को नहीं देंगे।
खैर ये मामूली बातें थीं और होती ही रहती हैं। इससे मेरे इस विश्वास पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि हर किताब को एक से ज्यादा पाठक मिलने ही चाहिये। जब भी संभव होगा, मेरी किताबें दूसरे पाठकों की तलाश में घर से बाहर निकलती ही रहेंगी।
आखिर किसी ने सच ही तो कहा है कि किताबें पढऩे के लिए बेशक हमें कीमत चुकानी पड़ती है लेकिन किताबें न पढऩे की कहीं ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। हम देखें कि कितने हैं हमारे आसपास जो किताबें नहीं जुटा पाते और ऐसे भी कितने हैं जिनके पास किताबें हैं लेकिन पढ़ नहीं पाते।
किताबों के बारे में मेरे और अनुभव मेरी वेबसाइट www.surajprakash.com पर लगे मेरे एक लेख- अच्छी किताबें पाठकों की मोहताज नहीं होती में पढ़े जा सकते हैं।
संपर्क:   एच 1/101 रिद्धि गार्डन, फिल्म सिटी रोड,  मालाड पूर्व मुंबई मो. 9930991424 
         mail@surajprakash.com

पिछले दिनों

80 साल की महिला ने उतारा जहाज

हैरतअंगेज बात है कि एक 80 साल की महिला जिसे जहाज उड़ाने का ज्यादा अनुभव नहीं था जहाज को इमरजैंसी लैंडिंग करने में सफलता प्राप्त कर ली।
किस्सा कुछ यूं है कि अमरीका के विसकोंसिन में हेलेन कौलिंस और उनके पति जॉन कौलिंस ने फ्लोरिडा से उड़ान भरी थी। अपनी छोटी सी सेसना जहाज को उसके पति उड़ा रहे थे। लेकिन बीच यात्रा में ही जॉन को दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। हेलेन ने तुरंत पुलिस को फोन किया और अपने बेटे से रेडियो पर संपर्क किया। हेलेन कौलिंस के बेटे जेम्स कौलिंस जो खुद एक प्रशिक्षित पायलट हैं उन्होंने रेडियों पर अपनी मां को जहाज उतारने के निर्देश दिए। इस तरह मां ने बेटे के बताए निर्देशों का पालन करते हुए जहाज को सुरक्षित उतार लिया। वह ऐसा इसलिए भी कर पाई क्योंकि हेलेन ने 30 साल पहले हवाई जहाज की उड़ान शुरु करने और उसे लैंड करने की मामूली सी ट्रेनिंग ली थी।
हेलेन के बेटे जेम्स ने अपनी मां के इस अद्भुत कारनामें  के बारे में जानकारी दी कि जमीन पर उतरने के बाद जहाज लगभग 1000 फीट की दूरी तक फिसला और फिर थम गया। पर मेरी मां तब भी शांत थी। हैरानी की बात ये है कि उन्होंने सिर्फ एक इंजन से जहाज को उतारा जो मुझे नहीं पता कितने प्रशिक्षित पायलट ऐसा कर पाएंगे। एक तरफ जहां जेम्स कौलिंस मां के सकुशल वापस आने से खुश थे वहीं वे कहते हैं मुझे पता था कि मैनें अपने पिता को खो दिया है लेकिन मैं अपनी मां को नहीं खोना चाहता था।

 पहला महिला पाइप बैंड

केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल ने दुनिया का पहला अर्धसैनिक  पाइप बैंड गठित किया है, जिसके सभी सदस्य महिलाएं हैं। सीआरपीएफ ने अपनी पहली महिला बटालियन 25 साल पहले बनाई थी, लेकिन पहला महिला पाइप बैंड दल अब साकार हो पाया है। गुजरात के गांधीनगर में तैनात 135 महिला बटालियन की तीन सदस्य हरिकृष्णा टी.एस., सुनीता बाई एवं सुमित्रा देवी भी इस दल में शामिल हैं।

 कन्यादान के लिए माता- पिता ने की शादी

बेटी के हाथ पीले करने की खातिर किसी पिता को अगर पहले अपने हाथ पीले करने पड़े तो यह सुनने में ही अजीब लगेगा लेकिन यूपी के हरदोई में कुछ ऐसा ही मामला सामने आया है। इस गांव के रहने वाले दलित बिरादरी के रामअवतार ने करीब बीस साल पहले अपने बड़े भाई की साली को गरीबी के कारण बिना विवाह के अपने साथ रख लिया था। दोनों की दस संतानें भी हुईं जिनमें से सात जीवित हैं। लेकिन अब उन्हें सामाजिक रूप से दिक्कत आ रही है। वे अपनी बेटी का कन्यादान नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनकी शादी नहीं हुई।
दरअसल रामअवतार जब अपनी बेटी का विवाह करने के लिए रिश्ता देखने गए तो लोगों ने उनसे उनके विवाह को लेकर सवाल उठाया कि उन्होंने विवाह नहीं किया है इसलिए वह अपनी बेटी का कन्यादान नहीं कर सकेगा। इस समस्या को जब उसने अपने परिवार में बताया तो उसके सगे संबंधियों ने मिलकर उसे विवाह करने की सलाह दे डाली। बारात में रामअवतार का लड़का बाहर होने के कारण शामिल नहीं हुआ जबकि उसकी बेटियां पिता की बारात में शामिल हुईं। उसके बाद सगे संबंधियों की मौजूदगी में शादी की सारी रस्में अदा की गईं और माता- पिता दुल्हा- दुल्हन बनें।

18 अप्रैल विश्व विरासत दिवस

आइए अपनी विरासत को बचाएँ

हमारे पूर्वजों और पुराने समय की यादों को संजोकर रखने वाले इन अनमोल वस्तुओं की कीमत को ध्यान में रखकर ही संयुक्त राष्ट्र की संस्था युनेस्को ने वर्ष 1983 से हर साल 18 अप्रैल को विश्व विरासत दिवस मनाने की शुरुआत की थी।
अतीत के पन्नों को हमारी विरासत के तौर पर कहीं पुस्तकों तो कहीं इमारतों के रुप में संजो कर रखा गया है।  हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए निशानी के तौर पर तमाम तरह के मकबरे, मस्जिद, मंदिर और अन्य चीजों का सहारा लिया जिनसे हम उन्हें आने वाले समय में याद रख सकें, लेकिन वक्त की मार के आगे कई बार उनकी यादों को बहुत नुकसान हुआ। किताबों, इमारतों और अन्य किसी रुप में सहेज कर रखी गई यादों को पहले हमने भी नजरअंदाज कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारी अनमोल विरासत हमसे दूर होती गई।
लेकिन वक्त रहते हमने अपनी भूल को पहचान लिया और अपनी विरासत को संभालने की दिशा में कार्य करना शुरु कर दिया। पुरानी हो चुकी जर्जर इमारतों की मरम्मत की जाने लगी, उजाड़ भवनों और महलों को पर्यटन स्थल बना उनकी चमक को बिखेरा गया, किताबों और स्मृति चिह्नों को संग्रहालय में जगह दी गई। पर विरासत को संभालकर रखना इतना आसान नहीं है। हम एक तरफ तो इन पुरानी इमारतों को बचाने की बात करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हम उन्हीं इमारतों के ऊपर अपने नाम लिखकर अपने पूर्वजों की दी हुई अनमोल वस्तु को खराब कर देते हैं।

कैसे मनाएं विश्व विरासत दिवस

 -अपने घर के आसपास के किसी पुरातत्व स्थल या भवन पर जाएं यदि एंट्री फीस हो तब भी वहां अवश्य घूमें। ताकि सरकार को इन पुरातत्व स्थलों की देखभाल के लिए शुल्क प्राप्त होता रहे।
-अपने बच्चों को पुरातत्व स्थल, किले, मकबरे आदि पर ले जाकर वहां के इतिहास के बारे में रोचक तथ्य बताएं जिससे आने वाली पीढ़ी भी हमारी संस्कृति और इतिहास से परिचित हो सके।
-पुरातत्व स्थलों पर देखा गया है कि लोग पिकनिक मनाने के बहाने खाने- पीने की चीजों को स्थल पर ही फैला देते हैं और वहां की दीवारों पर अपना नाम लिख देते हैं। ऐसा करके वे अपनी धरोहर को नुकसान पहुंचाते हैं।
जागरूकता नहीं है
भारत सरकार के नियमों के तहत धारा 49 के अनुसार राज्य सरकारों को प्रत्येक स्मारक, स्थान तथा ऐतिहासिक वस्तु की रक्षा करनी चाहिए। अनेक स्मारकों एवं वस्तुओं को भारत सरकार ने राष्ट्रीय सांस्कृतिक महत्ता दी है। धारा 51 (अ) में लिखा गया है कि हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है कि वह भारत की सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करे।
लेकिन फिर भी सरकार द्वारा सांस्कृतिक धरोहरों को सुरक्षित रखने के लिए बनाए गए नियम पर्याप्त नहीं हैं। देखा गया है कि आम आदमी में इन ऐतिहासिक स्मारकों के प्रति कोई जागरूकता नहीं है। आज तक जितने भी नियम बनाए गए हैं तथा जितने भी सम्मेलन आदि आयोजित किए गए हैं, सब विफल रहे हैं। क्योंकि इन नियमों से भारतीय जनता अनभिज्ञ है। चाहे वह व्यक्ति शिक्षित हो या अशिक्षित, सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर लोगों में ऐतिहासिक स्थलों के प्रति जागरूकता पैदा करनी चाहिए।

अतीत को वर्तमान से जोड़ते धरोहर

अतीत को वर्तमान से जोड़ते धरोहर

                                                                            -  राहुल सिंह

प्राचीन स्मारकों के प्रति दृष्टिकोण 'खंडहर' वाला हो तो निराशा होती है, लेकिन उस बचे, सुरक्षित रह गए प्राचीन कलावशेष, उपलब्ध प्रमाण की तरह देखें तो वही आकर्षक और रोचक लगता है। मौके पर अत्यधिक श्रद्धापूर्वक जाना, 'दर्शन' करने जैसा हो जाता है, इसमें देखना छूट जाता है और अपने देख चुके स्थानों की सूची में वह जुड़ बस जाता है, मानों 'अपने तो हो गए चारों धाम'।
'शहरीकरण और जनसंख्या के विस्तार के दबावों से देश भर में हमारे ऐतिहासिक स्मारकों के लिए खतरा पैदा हो गया है।' ... 'पुरातत्व विज्ञान हमारे भूतकाल को वर्तमान से जोड़ता है और भविष्य के लिए हमारी यात्रा को परिभाषित करता है। इसके लिए दूर दृष्टि, उद्देश्य के प्रति निष्ठा और विभिन्न सम्बद्ध पक्षों के सम्मिलित प्रयासों की आवश्यकता होगी। मुझे उम्मीद है कि आप इस महत्वपूर्ण प्रयास के दायित्व को संभालेंगे।' यह बात प्रधानमंत्री ने 20 दिसंबर को नई दिल्ली में आयोजित भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण की 150वीं वर्षगांठ समारोह में यह कहा। इस दौर में मैंने 'पुरातत्व', 'सर्वेक्षण' शब्दों पर विचार किया जिसे आप सबके साथ बांट रहा हूं-
आमतौर पर पिकनिक, घूमने- फिरने, पर्यटन के लिए पुरातात्विक स्मारक- मंदिर देखने का कार्यक्रम बनता है और कोई गाइड नहीं मिलता, न ही स्थल पर जानकारी देने वाला। ऐसी स्थिति का सामना किए आशंकाग्रस्त लोग, पुरातत्व से संबंधित होने के कारण साथ चलने का प्रस्ताव रखते हुए कहते हैं कि जानकार के बिना ऐसी जगहों पर जाना निरर्थक है, लेकिन ऐसा भी होता है कि किसी जानकार के साथ होने पर आप अनजाने- अनचाहे, उसी के नजरिए से चीजों को देखने लगते हैं। अवसर बने और कोई जानकार, विशेषज्ञ या गाइड का साथ न हो तो कुछ टिप्स आजमाएं-
मानें कि प्राचीन मंदिर देखने जा रहे हैं। गंतव्य पर पहुंचते हुए समझने का प्रयास करें कि स्थल चयन के क्या कारण रहे होंगे, पानी उपलब्धता, नदी- नाला, पत्थर उपलब्धता, प्राचीन पहुंच मार्ग, आसपास बस्ती- आबादी और इसके साथ स्थल से जुड़ी दंतकथाएं, मान्यताएं, जो कई बार विशेषज्ञ से नजरअंदाज हो जाती हैं। स्थल अब वीरान हो तो उसके संभावित कारण जानने- अनुमान करने का प्रयास करें। यह जानना भी रोचक होता है कि किसी स्थान का पहले- पहल पता कैसे चला, उसकी महत्ता कैसे बनी।
काल, शैली और राजवंश की जानकारी तब अधिक उपयोगी होती है जब इसका इस्तेमाल तुलना और विवेचना के लिए हो, अन्यथा यह रटी- रटाई सुनने और दूसरे को बताने तक ही सीमित रह जाती है। प्राचीन स्मारकों के प्रति दृष्टिकोण 'खंडहर' वाला हो तो निराशा होती है, लेकिन उस बचे, सुरक्षित रह गए प्राचीन कलावशेष, उपलब्ध प्रमाण की तरह देखें तो वही आकर्षक और रोचक लगता है। मौके पर अत्यधिक श्रद्धापूर्वक जाना, 'दर्शन' करने जैसा हो जाता है, इसमें देखना छूट जाता है और अपने देख चुके स्थानों की सूची में वह जुड़ बस जाता है, मानों 'अपने तो हो गए चारों धाम'।
मंदिर, आस्था केन्द्र तो हैं ही, उसमें अध्यात्म- दर्शन की कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ वास्तु- तकनीक का अनूठा समन्वय होता है। मंदिर स्थापत्य को मुख्यत: किसी अन्य भवन की तरह, योजना (plan) और उत्सेध (elevation), में देखा जाता है। मंदिर की योजना में सामान्य रूप से मुख्यत: भक्तों के लिए मंडप और भगवान के लिए गर्भगृह होता है। उत्सेध में जगती या चबूतरा, उसके ऊपर पीठ और अधिष्ठान/ वेदिबंध, जिस पर गर्भगृह की मूल प्रतिमा स्थापित होती है, फिर दीवारें- जंघा और उस पर छत- शिखर होता है। सामान्यत: संरचना की बाहरी दीवार पर और गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर प्रतिमाएं होती हैं, कहीं शिलालेख और पूजित मंदिरों में ताम्रपत्र, हस्तलिखित पोथियां भी होती हैं।
 सामान्यत: मंदिर पूर्वाभिमुख और प्रणाल (जल निकास की नाली) लगभग अनिवार्यत: उत्तर में होता है। मंदिर की जंघा पर दक्षिण व उत्तर में मध्य स्थान मुख्य देवता की विग्रह मूर्तियां होती हैं और पश्चिम में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़, उपानह (घुटने तक जूता), कवच, पद्मधारी सूर्य की प्रतिमा होती है। दिशाओं/ कोणों पर पूर्व- गजवाहन इन्द्र, आग्नेय- मेषवाहन अग्नि, दक्षिण- महिषवाहन यम, नैऋत्य- शववाहन निऋति, पश्चिम- मीन/ मकरवाहन वरुण, वायव्य- हरिणवाहन वायु, उत्तर-नरवाहन कुबेर, ईशान- नंदीवाहन ईश, दिक्पाल प्रतिमाएं होती हैं। मूर्तियों की पहचान के लिए उनके वाहन- आयुध पर ध्यान दें तो आमतौर पर मुश्किल नहीं होती। यह भी कि प्राचीन प्रतिमाओं में नारी- पुरुष का भेद स्तन से ही संभव होता है, क्योंकि दोनों के वस्त्राभूषण में कोई फर्क नहीं होता।
विष्णु की प्रतिमा शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी और गरुड़ वाहन होती है। उनके अवतारों में अधिक लोकप्रिय प्रतिमाएं वराह, नृसिंह, वामन आदि अपने रूप से आसानी से पहचानी जाती हैं।  शिव सामान्यत: जटा मुकुट, नंदी और त्रिशूल, डमरू, नाग, खप्पर, सहित होते हैं। ब्रह्मा, श्मश्रुल (दाढ़ी- मूंछ युक्त), चतुर्मुखी, पोथी, श्रुवा, अक्षमाल, कमंडलु धारण किए, हंस वाहन होते हैं। कार्तिकेय को मयूर वाहन, त्रिशिखी और षटमुखी, शूलधारी, गले में बघनखा धारण किए दिखाया जाता है। दुर्गा- पार्वती, महिषमर्दिनी सिंहवाहिनी होती हैं तो गौरी के साथ पंचाग्नि, शिवलिंग और वाहन गोधा प्रदर्शित होता है। सरस्वती, वीणापाणि, पुस्तक लिए, हंसवाहिनी हैं। लक्ष्मी को पद्मासना, गजाभिषिक्त प्रदर्शित किया जाता है।
जैन प्रतिमाएं, कायोत्सर्ग यानि समपाद स्थानक मुद्रा में (एकदम सीधे खड़ी) अथवा पद्मासनस्थ/ पर्यंकासन में सिंहासन, चंवर, प्रभामंडल, छत्र, अशोक वृक्ष आदि सहित, किन्तु मुख्य प्रतिमा अलंकरणरहित होती हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं में ऋषभदेव/ आदिनाथ- वृषभ लांछनयुक्त व स्कंध पर केशराशि, अजितनाथ- गज लांछन, संभवनाथ- अश्व, चन्द्रप्रभु- चन्द्रमा, शांतिनाथ- मृग, पाश्र्र्वनाथ- नाग लांछन और शीर्ष पर सप्तफण छत्र तथा महावीर- सिंह लांछन, प्रमुख हैं। तीर्थंकरों के अलावा ऋषभनाथ के पुत्र, बाहुबलि की प्रतिमा प्रसिद्ध है। जैन प्रतिमाओं को दिगम्बर (वस्त्राभूषण रहित) तथा उनके वक्ष मध्य में श्रीवत्स चिह्न से पहचानने में आसानी होती है।
आसनस्थ बुद्ध, भूमिस्पर्श मुद्रा या अन्य स्थानक प्रतिमाओं जैसे अभय, धर्मचक्रप्रवर्तन, वितर्क आदि मुद्रा में प्रदर्शित होते हैं। अन्य पुरुष प्रतिमाओं में पंचध्यानी बुद्ध के स्वरूप बोधिसत्व, अधिकतर पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि और खड्ग- पोथी धारण किए मंजुश्री हैं और नारी प्रतिमा, उग्र किन्तु मुक्तिदात्री वरदमुद्रा, पद्मधारिणी तारा होती हैं। कुंचित केश के अलावा बौद्ध प्रतिमाओं की जैन प्रतिमाओं से अलग पहचान में उनका श्रीवत्सरहित और मस्तक पर शिरोभूषा में लघु प्रतिमा होना सहायक
होता है।
मंदिर गर्भगृह प्रवेश द्वार के दोनों पाश्र्व उध्र्वाधर स्तंभों पर रूपशाखा की मिथुन मूर्तियों सहित द्वारपाल प्रतिमाएं व मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना होती हैं। द्वार के क्षैतिज सिरदल के मध्य ललाट बिंब पर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा का ही विग्रह होता है। लेकिन पांचवीं- छठीं सदी के आरंभिक मंदिरों में लक्ष्मी और चौदहवीं- पन्द्रहवीं सदी से इस स्थान पर गणेश की प्रतिमा बनने लगी तथा इस स्थापत्य अंग का नाम ही गणेश पट्टी हो गया। यहीं अधिकतर ब्रह्मा- विष्णु- महेश, त्रिदेव और नवग्रह, सप्तमातृकाएं स्थापित होती हैं। आशय होता है कि गर्भगृह में प्रवेश करते, ध्यान मुख्य देवता पर केन्द्रित होते ही सभी ग्रह- देव अनुकूल हो जाते हैं, गंगा- यमुना शुद्ध कर देती हैं। यहीं कल्प- वृक्ष अंकन होता है यानि अन्य सभी लौकिक आकांक्षाओं से आगे बढऩे पर गर्भगृह में प्रवेश होता है और देव- दर्शन उपरांत बाहर आना, नये जन्म की तरह है।
यह जिक्र भी कि पुरातत्व का तात्पर्य मात्र उत्खनन नहीं और न ही पुराविद है जिसका काम सिर्फ रहस्यमयी गुफा या सुरंग के खोज अभियान में जुटा रहना है। यह भी कि उत्खनन कोरी संभावना के चलते नहीं किया जाता, बल्कि ठोस तार्किक आधार और धरातल पर मिलने वाली सामग्री, दिखने वाले लक्षण के आधार पर, आवश्यक होने पर ही किया जाता है। बात काल और शैली की, तो सबसे प्रचलित शब्द हैं- बुद्धकालीन और खजुराहो शैली, इस झंझट में अनावश्यक न पड़ें, क्योंकि वैसे भी बुद्धकाल (छठीं सदी इस्वी पूर्व) की कोई प्रतिमा नहीं मिलती और खजुराहो नामक कोई शैली नहीं है, और इसका आशय मिथुन मूर्तियों से है, तो ऐसी कलाकृतियां कमोबेश लगभग प्रत्येक प्राचीन मंदिर में होती हैं।
आम जबान पर एक अन्य शब्द कार्बन- 14 डेटिंग होता है, वस्तुत: यह काल निर्धारण की निरपेक्ष विधि है, लेकिन इससे सिर्फ जैविक अवशेषों का तिथि निर्धारण, सटीक नहीं, कुछ अंतर सहित ही संभव होता है तथा यह विधि ऐतिहासिक अवशेषों के लिए सामान्यत: उपयोगी नहीं होती या कहें कि किसी मंदिर, मूर्ति या 'ज्यादातर पुरावशेषों के काल- निर्धारण में यह विधि प्रयुक्त नहीं होती, बल्कि सापेक्ष विधि ही कारगर होती है, अपनाई जाती है।
किसी स्मारक/स्थल के खंडहर हो जाने के पीछे कारण आग, बाढ़, भूकंप या आतताई आक्रमण- विधर्मियों की करतूत ही जरूरी नहीं, बल्कि ऐसा अक्सर स्वाभाविक और शनै: शनै: होता है और कभी समय के साथ उपेक्षा, उदासीनता, व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के कारण भी होता है। स्थापत्य खंड, मूर्तियों या शिलालेख का उपयोग आम पत्थर की तरह कर लिये जाने के ढेरों उदाहरण मिलते हैं और एक ही मूल के लेकिन अलग- अलग पंथों के मतभेद के चलते भी कम तोड़- फोड़ नहीं हुई है।
इस सबके साथ स्वयं सहित कुछ परिचितों के पैतृक निवास की वर्तमान दशा पर ध्यान दें, वीरान हो गए गांव भी ऐसे तार्किक अनुमान के लिए उदाहरण बनते हैं। ऐसे उदाहरण भी याद करें, जिनमें आबाद भवन धराशायी हो गए हैं, मंदिर के खंडहर बन जाने के पीछे भी अक्सर ऐसी ही कोई बात होती है।
संपर्क-  संस्कृति विभाग, रायपुर (छ.ग.) मो. 9425227484
    rahulsinghcg@gmail.com
    http://akaltara.blogspot.in

दूर हैं किताबें? क्या पाठकों से

दूर हैं किताबें? क्या पाठकों से

 -  पंकज चतुर्वेदी
नई टेक्नॉलॉजी ने भले ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, लेकिन पुस्तकें आज भी विचारों के आदान- प्रदान का सबसे सशक्त माध्यम है। साथ ही आम आदमी के विकास हेतु जरूरी शिक्षा और साक्षरता का एकमात्र साधन किताबें ही हैं। यह सच है कि सूचनाओं के प्रसार में इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया मुद्रण माध्यमों पर भारी पड़ रहा है। पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी कोने में कंप्यूटर या टीवी स्क्रीन पर सूचनाओं को पहुँचाया जा सकता है, लेकिन इस बात को भी स्वीकारना होगा कि किताबें सर्वाधिक आज्ञाकारी संयमित माध्यम है। पुस्तके पाठक को उनकी क्षमता के अनुरूप ज्ञान का आकलन करने और जानकारियों का गहराई तक विश्लेषण और समालोचना का मौका प्रदान करती है।
ऐसे ही कई सत्यों- तथ्यों को समाज स्वीकारता है। इसके बावजूद आज भी किताबें घर या बच्चों के लिए 'आवश्यक' की सूची में नहीं आ पाई हैं। विशेष रूप से हिन्दी पुस्तकों का बाजार 'स्वान्त: सुखाय' वाला हो गया है। कई वरिष्ठ और नवोदित लेखक अपना पैसा लगा कर 1000 किताबें छपवाते हैं। फिर यार- दोस्तों की चिरौरी कर अखबार- पत्रिकाओं में उनकी समीक्षा प्रकाशित करवाते हैं। जुगतबाजी कर कुछ सरकारी सप्लाई या फिर सरकार- पोषित पुरस्कार, केवल यहीं तक सिमट कर रह गई है पुस्तकों की दुनिया।
इसके विपरीत देश के बड़े हिस्से में बच्चों के लिए किताब का अर्थ पाठ्यक्रम की पुस्तकों से अधिक नहीं है। यदा- कदा जब वहाँ तक कुछ पठनीय पहुँचता है तो खरीदा भी जाता है और पढ़ा भी। जिस पर हिंदी के पुरोधा चिंता जताते हैं कि 'वर्दी वाला गुंडा' या 'मनोहर कलियाँ' लाखों में बिक रही हैं।
इससे यह भी तुरत- फुरत आकलन कर लिया जाता है कि समाज की पठन-  अभिरुचि सस्ते साहित्य में हो गई है। परंतु जब टीवी पर निर्मला, तमस, या फंतासी 'चंद्रकांता' सीरियल के रूप में आते हैं तो लोग तन्मयता से देखते हैं। जाहिर है कि किताबों तक पाठकों की पहुँच में कहीं बाधा जरूर है।
लेकिन यह भी तस्वीर का एक अर्ध- सत्य है। बानगी के तौर पर राजधानी दिल्ली के एक डिग्री कॉलेज में पढ़ाने वाली महिला के साथ अपने अनुभवों को साझा करना चाहूँगा। वे अपनी बेटी के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट की चित्र पुस्तकों का सेट चाहती थीं, जिसकी कीमत बमुश्किल 75 रुपए होगी। उन्होंने छह महीने पहले मुझसे ये किताबें लाने को कहा था। फिर यदा- कदा जब मिलतीं तो उसके लिए याद दिलातीं। उक्त प्राध्यापिका अपनी इकलौती बेटी को आइसक्रीम खिलाने के लिए 16 किमी दूर कनॉट प्लेस तक कई बार ले गईं। छह महीने में तीन बार अप्पू घर और फन एंड फूड विलेज भी ले गईं, लेकिन किताबें खरीदने के लिए किसी दुकान पर जाने के लिए उन्हें समय नहीं मिला। जाहिर है कि उनके लिए किताबें प्राथमिक जरूरतों में से नहीं है।
यह घटना देश के आम मध्यम वर्ग की मानसिकता का साझा चित्र पेश करती है। बच्चों के मानसिक विकास की समस्याओं को आज भी गंभीरता से नहीं आँका जा रहा है। मध्य वर्ग अपने बच्चों की शिक्षा और मानसिक विकास के लिए अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ाई और अच्छा खाने- पिलाने से आगे नहीं सोच रहा है। यही कारण है कि 'अपने प्रिय को उपहार में पुस्तकें दें' का नारा व्यावहारिक नहीं बन पाया है।
इन दिनों दुनिया का व्यापारिक जगत, भारत में अपना बाजार तलाशने में लगा हुआ है। दैनिक उपभोग की एक चीज बिकते देख दर्जनों कंपनियाँ वही उत्पाद बनाने, बेचने लग जाती हैं। होड़ इतनी कि ग्राहकों को रिझाने के लिए छूट, ईनाम, फ्री सर्विस की झड़ी-  सी लगी हुई है। आप मुँह तो खोलें, वांछित चीज आपके दरवाजे पर होगी। आम आदमी की खरीद - क्षमता बढ़ रही है। पैसे के बहाव के इस दौर में भी किताबें दीन- हीन सी हैं। इतनी निरीह कि हिंदी प्रकाशक को तो अपनी पहचान का संकट सता रहा है। अभी एक साहित्यिक पत्रिका में हिंदी के नामी- गिरामी प्रकाशक का विज्ञापन छपा था। उक्त प्रकाशक ने प्रेमचंद से लेकर राजेन्द्र माथुर तक सब को छापा है। इसके बावजूद उसे अपने पते में लिखना पड़ता है कि 'सबलोक क्लिनिक के पास'। यानी साहित्य जगत के इतने बड़े नामों की तुलना में सबलोक क्लिनिक अधिक चर्चित और सुविख्यात है।
लुब्बेलुबाब यह है कि किताबों की लोकप्रियता में कई बातें आड़े आ रही हैं- प्रकाशकों में आम लोगों तक पुस्तके पहुँचाने की इच्छा शक्ति का अभाव, पढ़े- लिखे समाज का किताबों की अनिवार्यता को न समझना और बाजार की अनुपस्थिति। यह त्रासदी है कि निजी प्रकाशक की तरह ही नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग और अन्य सरकारी प्रकाशक भी सरकारी खरीद पर निर्भर होते जा रहे हैं। कुछ साल पहले नेशनल बुक ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष डा. सुमतीन्द्र नाडिग ने कहीं सार्वजनिक समारोह में कह दिया था कि सरकारी सप्लाई पठन अभिरुचि के विकास में बाधक है, सो इस पर रोक लगनी चाहिए। इस पर भारी हंगामा हुआ और सभी प्रकाशक खफा हो गए। वे किताबों के लिए डीलर, विक्रेता तलाशने के बनिस्बत एक जगह कमीशन देकर 'सरस्वती' का सौदा करना अधिक सहूलियतमंद समझते हैं। आखिर यह क्यों नहीं सोचा जाता कि 'वर्दी वाला...' या  'मधुर कलियाँ' की लाखों में बिक्री का एकमात्र कारण यह है कि वे हर गांव- कस्बे के छोटे- बड़े सभी मैगजीन स्टैंड पर बिकती है। तथाकथित दोयम दर्जे का साहित्य प्रकाशित करने वाला प्रकाशक जब इतनी दूर तक अपना नेटवर्क फैला लेता है तो सात्विक साहित्य क्यों नहीं ?
हमारे देश की तीन- चौथाई आबादी गाँवों में रहती है और दैनिक उपभोग का सामान बनाने वाली कंपनियाँ अपने उत्पादों का नया मार्केट वहाँ खंगाल रही है। दुर्भाग्य है कि किताबों को वहाँ तक पहुँचाने की किसी ठोस कार्य- योजना का अभी भी दूर- दूर तक अता- पता नहीं है। गाँव की जनता भले ही निरक्षर है, मगर वह सुसंस्कृत है। वह सदियों से दु:ख- सुख को झेलती आ रही है। इसके बावजूद वह तीस- चालीस रुपए की रामायण या सुखसागर वीपीपी से मँगवा कर सुख महसूस करता है। आजादी के 65 साल बाद भी गाँव वालों की रुचि परिष्कृत कर सकने वाली किताबें प्रकाशित नहीं हो सकीं हैं।
सन् 1996 में यूनेस्को की आम बैठक में यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक वर्ष 23 अप्रैल को 'विश्व पुस्तक दिवस' के रूप में मनाया जाएगा। इसके तहत दिल्ली व कुछ नगरों में कुछ सरकारी कार्यक्रम होते भी हैं। लेकिन अधिकतर में आम पाठक की भागीदारी नहीं होती है- कुछ मठाधीश किस्म के लेखक भाषण देते हैं, चिंता जताते हैं और आयोजन की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है।
दावा किया गया कि दुनिया में सबसे ज्यादा किताबें हम छापते हैं। यानी बिकती भी हैं। फिर पाठक की निष्क्रियता क्यों थी?  'वेलेंटाइन डे' या 'न्यू ईयर' के प्रति जिस तरह का उत्साह समाज, सरकार और बाजार दिखाता रहा है, ठीक वैसा विश्व पुस्तक दिवस के प्रति भी उभरता तो कुछ उम्मीद की जा सकती थी। वरन हालत वही 'ढाक के तीन पात' रहेगी। किताबें छपेंगी, सरकारी खरीद की बदौलत आलमारियों में कैद होकर किताबें बिसुरेंगी, हर साल पुस्तक दिवस पर भाषणबाजी होगी, चिंता जताई जाएगी ताकि इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया पर अपना चेहरा दिखाया जा सके उसके बाद बस।
संपर्क- नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, 5 नेहरू भवन वसंत कुंज
       इंस्टीट्यूशनल एरिया, फेज-2, नई दिल्ली-110070
         मो. 09891928376,
      pankaj_chaturvedi@hotmail.com

ब्लॉग बुलेटिन से

सोचती हूँ 

सिर्फ कविता

 जैसा कि आप सब से हमारा वादा है ... हम आप के लिए कुछ न कुछ नया लाते रहेंगे ... उसी वादे को निभाते हुए उदंती में हमने जो नयी श्रृंखला की शुरूआत की है उसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं।  इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से लेकर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए... माधवी शर्मा गुलेरी के ब्लॉग http://guleri.blogspot.com से।           - संपादक

'तेरी कुड़माई हो गई है? हाँ, हो गई। ...देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ साल।' जेहन में ये पंक्तियाँ और पूरी कहानी आज भी है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की 'उसने कहा था' प्राय: हर साहित्यिक प्रेमियों की पसंद में अमर है। अब आप सोच रहे होंगे किसी के ब्लॉग की चर्चा में यह प्रसंग क्यूँ , स्वाभाविक है सोचना और जरूरी है मेरा बताना। तो आज मैं जिस शख्स के ब्लॉग के साथ आई हूँ , उनके ब्लॉग का नाम ही आगे बढ़ते कदमों को अपनी दहलीज पर रोकता है - 'उसने कहा था' ब्लॉग के आगे मैं भी रुकी और नाम पढ़ा और मन ने फिर माना- गुम्बद बताता है कि नींव कितनी मजबूत है! जी हाँ , 'उसने कहा था' के कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी की परपोती माधवी शर्मा गुलेरी का ब्लॉग है- 'उसने कहा था' http://guleri.blogspot.com
माधवी ने 2010 के मई महीने से लिखना शुरू किया ... खबर ब्लॉग की पहली रचना है, पर तुम्हारे पंख में एक चिडिय़ा सी चाह और चंचलता है, जिसे जीने के लिए उसने कहा था की नायिका की तरह माधवी का मन एक डील करता है रेस्टलेस कबूतरों से -
क्यों न तुम घोंसला बनाने को
ले लो मेरे मकान का इक कोना
और बदले में दे दो
मुझे अपने पंख।
....जिन्दगी की उड़ान जो भरनी है !
माधवी की मनमोहक मासूम सी मुस्कान में कहानियों वाला एक घर दिखता है... जिस घर से उन्हें एक कलम मिली, मिले अनगिनत ख्याल... हमें लगता है कविता जन्म ले रही है, पर नहीं कविता तो मुंदी पलकों में भी होती है, दाल की छौंक में भी होती है, होती है खामोशी में- ...कभी भी, कहीं भी, .....बस वह आकार लेती है कुछ इस तरह -
रोटी और कविता
मुझे नहीं पता
क्या है आटे- दाल का भाव
इन दिनों
नहीं जानती
खत्म हो चुका है घर में
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा जरूरी सामान
रसोईघर में कदम रख
राशन नहीं,
सोचती हूं सिर्फ
कविता
आटा गूंधते- गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा- सा
चूल्हे पर रखते ही तवा
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क
बेलती हूं रोटियां
नाप- तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार
होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे
देखती हूं यंत्रवत
रोटियों की उलट- पलट
उनका उफान
आखरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार ...
 गर्म आँच पर तपता तवा और गोल गोल बेलती रोटियों के मध्य मन लिख रहा है अनकहा, कहाँ कोई जान पाता है। पर शब्दों के परथन लगते जाते हैं, टेढ़ी मेढ़ी होती रोटी गोल हो जाती है और चिमटे से छूकर पक जाती है- तभी तो कौर- कौर शब्द गले से नीचे उतरते हैं- मानना पड़ता है - खाना एक पर स्वाद अलग अलग होता है- कोई कविता पढ़ लेता है, कोई पूरी कहानी जान लेता है, कोई बस पेट भरकर चल देता है...
यदि माधवी के ब्लॉग से मैं उनकी माँ कीर्ति निधि शर्मा गुलेरी जी के एहसास अपनी कलम में न लूँ तो कलम की गति कम हो जाएगी http://guleri.blogspot. com/2011/09/blog-post_12.html इस रचना में पाठकों को एक और नया आयाम मिलेगा द्रौपदी को लेकर।
माधवी की कलम में गजब की ऊर्जा है ....समर्थ, सार्थक पड़ाव हैं इनकी लेखनी के- उनकी रचनाएं अनेक स्थानों पर प्रकाशित हुई है जिनमें अहा जिंदगी में पंकज कपूर से बातचीत, तेज रफ्तार सड़कें और यादों की टमटम, ख़ूबसूरती तथा यात्रा एवं प्रेम विशेषांक में लेख।  दैनिक जागरण में सापूतारा, तारकरली, बायलाकूपे, मॉरिशस व केरल पर संस्मरण। वागर्थ में कविताएं, कविता कोश में आपका साथ, साथ फूलों का,  हिमाचल मित्र में हाइकु, लमही में कविताएं, जनपक्ष में मेरा पक्ष, अनुनाद में अनूदित कविताएं,  inext में उसने कहा था की चर्चा, रूपायन (अमर उजाला) में तुम्हारे पंख आदि शामिल है।
सब कुछ बखूबी समेटने का अदभुत प्रयास ... नि:संदेह सफल प्रयास... अब है  2012, और उनकी रचना- जहाँ से मैं साथ चल पड़ी हूँ। साथ के लिए लगभग सारे पन्ने पलट डाले, उम्र से परे दोस्त बन गई- अपनी यात्रा के लिए लॉक हटवाया, बस सिर्फ एक बार कारण जानना चाहा और बिना देर किये सारे दरवाजे खोल दिए। इसे कहते हैं विरासत  जिसमें से हम जितना देते हैं, घटता नहीं। तो चलने से पहले हम इस वर्ष की रचना से रूबरू हों- http://guleri.blogspot.com/ 2012/01/blog-post.html

धौलाधार की पहाडिय़ों पर
बर्फ झरी है बरसों बाद
और कई सौ मील दूर
स्मृतियों में
पहाड़ जीवंत हो उठे हैं
...जिसे पढ़ते हुए मैंने कहा है- अरसे बाद मिली हूँ उन निशानों से, और मिलते ही जीवंत हो उठी हूँ और ले आई हूँ एक और संजीवनी आपके लिए ...
प्रस्तुति- रश्मि प्रभा, संपर्क: निको एन एक्स, फ्लैट नम्बर- 42, दत्त मंदिर, विमान नगर, पुणे- 14, मो. 09371022446 http://lifeteacheseverything.blogspot.in

छोटा जादूगर

छोटा जादूगर

                                                                                            -जयशंकर प्रसाद 
 उसने कहा-तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती। मैं आश्चर्य से उस तेरह- चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लड़का चुपचाप शराब पीने वालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?
मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।- उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।
मैंने पूछा-और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।
नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।
मैंने कहा-तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ। मैंने मन-ही-मन कहा-भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।
उसने कहा-वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।
मैंने सहमत होकर कहा-तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय। उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।
मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-तुम्हारे और कौन हैं?
माँ और बाबूजी।
उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?
बाबूजी जेल में है।
क्यों?
देश के लिए। वह गर्व से बोला।
और तुम्हारी माँ?
वह बीमार है।
और तुम तमाशा देख रहे हो?
उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।
मैं आश्चर्य से उस तेरह- चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहीं गया।
कहाँ?
जेल में! जब कुछ लोग खेल- तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।
मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा-अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।
हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिये।
वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया। देखने वाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया, लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गये।
लड़के ने कहा-बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ। वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-इतनी जल्दी आँख बदल गयी।
मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर- नीचे आना देखने लगा। अकस्मात किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा-बाबूजी!
मैंने पूछा-कौन?
मैं हूँ छोटा जादूगर।
कलकत्ते के सुरम्य बोटानिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी-झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रुमाल सूत की रस्सी से बँधी हुई थी। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा-
बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए, तो खेल दिखाऊँ।
नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।
फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?
नहीं जी-तुमको...., क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमती ने कहा-दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आये। भला, कुछ मन तो बहले। मैं चुप हो गया, क्योंकि श्रीमती की वाणी में वह माँ की- सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका जा नहीं सकता। उसने खेल आरम्भ किया।
उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा।
गुडिय़ा का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते- हँसते लोट- पोट हो गये।
मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।
ताश के सब पत्ते लाल हो गये। फिर सब काले हो गये। गले की सूत की डोरी टुकड़े- टुकड़े होकर जुट गयी। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा-अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जायँगे।
श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा।
मैंने कहा-लड़के!
छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।
मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमती ने कहा-अच्छा, तुम इस रुपये से क्या करोगे?
पहले भर पेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।
मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रूद्ध होकर सोचने लगा-ओह! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपये पाने पर मैं ईष्र्या करने लगा था न!
वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।
उस छोटे-से बनावटी जंगल में सन्ध्या साँय- साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शान्त वातावरण था। हम लोग धीरे- धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।
रह- रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कन्धे पर डाले खड़ा था। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा-तुम यहाँ कहाँ?
मेरी माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है। मैं उतर गया। उस झोपड़ी में देखा, तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।
छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा-माँ।
मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।
बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने आफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते- चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई। साथ- ही- साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी..... मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्द लौट आना था।
दस बज चुका था। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्याह की तैयारी थी, यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं कँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा- आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?
माँ ने कहा है कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।-अविचल भाव से उसने कहा।
तब भी तुम खेल दिखलाने चले आये! मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख- दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।
उसके मुँह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी।
उसने कहा-न क्यों आता!
और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।
क्षण- भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा-जल्दी चलो। मोटरवाला मेरे बताये हुए पथ पर चल पड़ा।
कुछ ही मिनटों में मैं झोपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोपड़े में माँ- माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था, किन्तु स्त्री के मुँह से, बे... निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था, मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
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 जयशंकर प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत् 1946 वि. में काशी के सरायगोवर्धन में हुआ। किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान इनके संस्कृत के अध्यापक थे। इनके गुरुओं में रसमय सिद्ध की भी चर्चा की जाती है।
प्रसाद जी ने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग- बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध, साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में उन्होंने ऐतिहासिक महत्व की रचनाएँ कीं तथा खड़ी बोली की श्रीसंपदा को महान और मौलिक दान से समृद्ध किया। वे छायावाद के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव- अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पड़ा है, उतना दूसरों को नहीं। प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। क्षय रोग से प्रबोधिनी एकादशी सं. 1993 (15 नवंबर, 1936 ई.) को उनका देहांत काशी में हुआ। उदंती के इस अंक में प्रस्तुत है उनकी एक बेहद मर्मस्पर्शी कहानी छोटा जादूगर।

लुच्चों की दुनिया

लुच्चों की दुनिया

                           - आलोक पुराणिक
यह निबंध उस छात्र की कापी से लिया गया है, जिसे निबंध प्रतियोगिता में पहला स्थान मिला है। निबंध प्रतियोगिता का विषय था- बोर्ड के एक्जाम्स।
बोर्ड के एक्जाम फिर रिजल्ट, फिर परसेंटेज। परसेंटेज पे मार है। साधो जग बौराना। यानी कबीरदास जी कहते हैं कि जग बौराया हुआ है, देखता नहीं है, सच क्या है। सच हम बताता हूं। हमारे मुहल्ले के एक परिवार में तीन बेटे हैं। टुच्चा, लुच्चा और सच्चा। सच्चा बहुत पढ़ाकू था, बोर्ड के एक्जाम्स बहुत सीरियसली लिये। हंड्रेड परसेंट माक्र्स हर बोर्ड एक्जाम में। सच्चाजी को परसेंटेज के बेसिस पे होटल मैनेजमेंट के कोर्स में एडमीशन मिल गया। बहुत मन लगा कर पढ़ाई की आपने। इतने होशियार माने गये कि आपके बारे में सबकी राय रही है कि बहुतै बेवकूफ टाइप आदमी हैं। पर हैं बहुत पढ़े लिखे। आप होटल मैनेजर हुए। साल दर साल इस चिंता में उलझे रहे कि इस साल टीए डीए में कित्ते बढ़ेंगे। मुन्नी का स्कूल एडमीशन, मुन्ने के स्कूल की फीस। तरह- तरह की चिताएं इतनी गहरी रहीं कि सामाजिक कुछ कम हो पाये। सो कनेक्शन सही सैट ना बने। जीवन या दफ्तर में कटा या तमाम तरह की लाइनों में, इसके बाद जो कुछ भी बचा वह शिकायतों में कटा कि हाय ये देश क्या हो गया है, अब भले आदमियों का गुजारा नहीं है। यद्यपि सच्चे जी की पूरी लाइफ गुजारे के जुगाड़ में ही गुजरी। यूं इनकी लाइफ के बारे में यूं ही कह सकते हैं कि बस कट सी गयी।
बचपन में ही इनके दिमाग में घुस गया था कि दारु पीना बुरी बात है। सो ये सारे महानों की सोहबत से वंचित हो गये। शहर के जितने महान थे, वो सारे परस्पर एक दूसरे से दारु पर मिलते थे। फिर एक मसला यह भी था कि चूंकि सच्चे जी बहुत शरीफ थे, इसलिए वह व्यापक समाज में घुल मिल नहीं पाते थे। बड़े लोग आपस में सुनाते थे कि कैसे थाईलैंड में मजे आये। और हमने लास वेगास में ये ये किया। सच्चा जी के पास बताने को सिर्फ ये होता था कि हाय हाय देखो आलू कितने महंगे हो गये हैं। मैं तो थोक मंडी तक गया, पर वहां भी इतने महंगे। जीना कितना मुश्किल हो गया है। ऐसी बोरिंग बातें सुनकर सच्चाजी को बड़े लोग भगा दिया करते थे। कुल मिलाकर सदाचार के मारे सच्चाजी का जीवन गहन कष्टों में, छोटे लोगों में ही गुजरा।
पुत्र नंबर टू, लुच्चा जी, बचपन से ही लुच्चे थे। लुच्चों की सोहबत में रहे, सारे बड़े आदमियों के लड़कों से मैत्री रही। और साहब बड़े आदमी भी ऐसे ऐसे कि क्या कहो। किसी का बाप एसपी, किसी का बाप नेता। किसी का बाप वाइस चांसलर। किसी के बाप की पान मसाले की फैक्ट्री। किसी का बाप इनकम टैक्स कमिश्नर, जिसने अपने बेटे को बारह लाख की मोटरसाइकिल दिलवायी। यानी लुच्चाजी बचपन से ही जिन लोगों के बीच बड़े हुए वो काफी महत्वाकांक्षी थे। इनमें से किसी की इच्छा नौकरी का ना थी। या यूं कहे कि नौकरी की इच्छा अगर होती तो काबिलियत ना थी। पर इन सब बच्चों के पिताओं को पता था कि बच्चों को ठिकाने कैसे लगाना है यानी कैसे सही जगह पर सैट करना है।
सो रिजल्ट ये हुआ कि पैसे वालों के, असरदार लोगों के बच्चे, इन सबने मिलकर एक फाइव स्टार होटल खोला। बोर्ड के एक्जाम्स की इन्होंने बहुत कम चिंता की, हमेशा पचास परसेंट के आसपास आये। बड़े आदमियों के बच्चों के इनसे ज्यादा नंबर आ जायें, तो शिक्षा व्यवस्था पर शक करना चाहिए कि वह भ्रष्ट हो चुकी है पूरे तौर पर। तो कुल मिलाकर लुच्चाजी की सोहबत वाले ज्यादा पढ़े लिखे तो ना हुए पर फाइव स्टार होटल के मालिक हुए।
पुत्र नंबर तीन टुच्चा जी, बचपन से ही एक्स्ट्रा क्यूरिकूलर गतिविधियों में दिलचस्पी लेते थे। शहर के रोचक स्थलों पर आप पाये जाते थे। काल गर्ल के अड्डों के बारे में आपको इनसाइक्लोपीडिया माना जाता था। शहर के तमाम धनी मानी लोग आपके टच में बराबर रहते थे। धीमे- धीमे आप को इस विषय का महारथी भी माना जाने लगा कि शहर में अफीम, हीरोईन वगैरह कहां मिलती हैं। इस कारोबार में आपके संपर्क पुलिस वालों से हुए, नेताओं से हुए। आपने बहुत कमाया। तरह- तरह से कमाया। कैरियर के शुरुआती दौर में भले ही आपको दलाल टाइप आदमी कहा जाता रहा हो, पर अब तो आपको सब माननीय विधायक ही कहते हैं। मतलब माननीय मंत्री तक आप हो गये। अपनी एक्स्ट्रा क्यूरिकुलर एक्टिविटीज के चलते ही आप विधायक हुए और पर्यटन मंत्री हुए, होटल वगैरह के लाइसेंस देने में आपकी बहुत चलती है।
यानी बोर्ड के एक्जाम्स को बहुत सीरियसली लेने वाले सच्चा, होटल मैनेजर हुए।
बोर्ड के एक्जाम्स को बहुत कम सीरियसली लेने वाले लुच्चा, होटल मालिक हुए।
बोर्ड एक्जाम्स की बिलकुल चिंता ना करने वाले टुच्चा पर्यटन मंत्री हुए और होटल वालों के सलाम स्वीकार करने लगे।
पर जैसा कि कबीरदास ने कहा कि साधो, जग बौराना। जग बौराया हुआ है। बोर्ड के एक्जाम्स की, पढ़ाई लिखाई की बहुत चिंता करता है। वैसे साधो जग बौराना का एक और मतलब है- साधो, ये नार्मल वर्ड बोरिंग है। किराये, फीस, सेलरी, इन्क्रीमेंट्स की चिकचिक। हमें साधुगिरी के कैरियर पर विचार करना चाहिए, सुंदर चेलियां, सुंदर भवन, बड़ी कारों वाला साधुगिरी का कैरियर अत्यंत ही धन व यश प्रदायक है। साधुगिरी के कैरियर के लिए भी बोर्ड एक्जाम्स की जरुरत नहीं होती।
साधुगिरी का कैरियर भी परम नोट प्रदायक है। बड़े- बड़े आगे पीछे घूमते हैं। फिर टीवी चैनल जब से ढेर सारे हो गये हैं, तब से तो बाबागिरी का कैरियर और भी धांसू हो गया है। पर बचपन से देखा जाता है कि बाबा बनने के प्रति आमतौर पर बालकों और बालिकाओं में कोई रुचि नहीं होती। वो तो पारंपरिक कैरियरों में फंसकर चौपट होना चाहते हैं। इसलिए आवश्यक है कि बाबागिरी के कैरियर को लेकर समाज में नयी चेतना का प्रसार किया जाये। लोगों को बताया जाये कि कैसे बाबागिरी में अरबों खड़े किये जा सकते हैं।
पर ऐसा हो नहीं पा रहा है। ये देश की शिक्षा का दुर्भाग्य है। देश की शिक्षा तो सिर्फ क्लर्क बना रही है। होटल मालिक, होटल मंत्री या बाबा जैसा धांसू कैरियर उसकी चिंता का विषय नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है। यह बात विद्वान लोग कहते हैं और अब मैंने भी सिद्ध कर दिया कि वो सही कहते हैं।
संक्षेप में इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि सच्चे नहीं लुच्चे ही टाप पर जाते हैं।
संपर्क- फ्लैट नंबर एफ-1 प्लाट नंबर बी-39,  रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011, मो. 9810018799
     Email-puranika@gmail.com

लो आई भोर

 लो आई भोर
- ज्योत्स्ना शर्मा
1
भोर का तारा
निशा संग जाए ना
देखे आकाश।
2
उजाला हुआ
चहकती चिडिय़ाँ
बजे संगीत।
3
बादल धुआँ
घुटती -सी साँसें हैं
व्याकुल धरा।
4
न घोलो विष
जल, जीव व्याकुल
तृषित धरा।
5
व्यथा कथाएँ
धरा जब सुनाए
सिन्धु उन्मन!
6
लो आई भोर
झाँक रहा सूरज
पूर्व की ओर।
7
जादुई पल
किरनों ने छू दिया
खिले कँवल।
8
पत्ता जो गिरा
मुस्कुराकर बोला-
फिर आऊँगा!
9
धानी चूनर
सतरंगी कर दी
भागा सूरज।
10
सिन्धु छुपाए
रंग लाल गहरा
घुल ही गया।
11
खिली धूप- सी
खुशियाँ और उमंग
बौराया मन।
12
मधुरा गिरा
भरे रस -कलश
रहे अक्षया!

   संपर्क- मकान नं 604, प्रमुख हिल्स, छरवडा रोड,
    वापी, जिला वलसाड ( गुजरात) -पिन-396191
    Email- jyotsna.asharma@yahoo.co.in


एक पातीः 'कहि देबे संदेश' विशेषांक पर

एक अतीत कथा 

का पुनर्जीवन

- विनोद साव
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'उदंती' को अगर प्रोडक्शन के हिसाब से हम देखें तो लगता है कि यह देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है जिसके हर अंक का कलेवर, चित्रांकन, मुद्रण और संपादन इतना मनोहारी बन पड़ता है कि अपनी पहली झलक में यह पत्रिका एक खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड होने का भान कराती है। ऐसा लगता है कि उदंती हर बार अपने पाठकों के पास अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ पहुंच रही है। छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए रोज- रोज हल्ला करने वाले बुद्धिजीवी इस बात की ओर भी ध्यान दें कि उनके इस नये राज्य में साहित्य और विचार की पत्रिका का कितना अभाव है... और इन स्थितियों में उदंती जैसी कोई एक पत्रिका अपने नितांत निजी संघर्षों के बल पर इस तरह छटा बिखेर रही है तो यह उसके संपादक का कितना उत्तर-दायित्वपूर्ण उपक्रम है। इसे तो छत्तीसगढ़ के लेखकों-पाठकों और सरकार का पुरजोर समर्थन मिलना चाहिए।
बहरहाल, हम इस बात की चर्चा करें कि अपनी कई कोशिशों के बीच विगत फरवरी माह के अंक में उंदती ने इस बात की कोशिश की है कि छत्तीसगढी़ की पहली फिल्म 'कहि देबे सन्देस' की व्यथा कथा को प्रस्तुत किया जाए। यह संग्रहणीय अंक है जिसने एक अतीत बन चुकी कथा को पुनर्जीवित किया है। इसमें संपादक डॉ. रत्ना वर्मा के साथ मोहम्मद जाकिर हुसैन  ने छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म के निर्माण, इतिहास और उसकी जद्दोजहद को आलेखबद्ध किया है। इसमें फिल्म निर्माता मनु नायक, गीतकार डॉ. हनुमंत नायडू, संगीतकार मलय चक्रवर्ती, गायक मोहम्मद रफी, महेन्द्र कपूर, मन्नाडे, सुमन कल्याणपुर आदि पर अलग- अलग आलेखों में अनेक ज्ञानवद्र्धक सामग्रियां दी गई हंै। उस समय निर्देशक मनु नायक को फिल्म की शूटिंग के दौरान होने वाली दुविधाओं से उबारकर किस तरह तत्कालीन सांसद बृजलाल वर्मा ने अपने गांव पलारी में उन्हें सुविधाएं मुहैया करवाई इन सबकी जानकारी दी गई है। बृजलाल वर्मा, खूबचंद बघेल, रामचंद्र देशमुख, मंदराजी साव अपने समय के न केवल समृद्ध मालगुजार थे बल्कि ये बड़े कलाप्रेमी और विचारवान लोग थे जिन्होंने अपने समय की कला का कई तरह से उन्नयन किया, अनेक कलाकारों को परखा समझा और उन्हें मंच दिया।
उदंती के इस अंक ने मुझे भी अतीत के उस दौर में पहुंचा दिया जब इस फिल्म का 1964 में पहला प्रदर्शन हुआ था। तब हर नयेपन के प्रति सचेत रहने वाली अपनी अम्मां उर्मिला साव और शिक्षाविद् बाबूजी अर्जुनसिंह साव के साथ इस फिल्म को दुर्ग में देखा था। तब मैं प्रायमरी स्कूल का छात्र था पर इस फिल्म के 'पोएटिक पिक्चराइजेशन' ने मेरे बाल मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी। बड़े होने के बाद जब साहित्य जगत में थोड़ी पहचान बनी तब मनु नायक से रामचंद्र देशमुख के घर बघेरा में भेंट हुई थी। दूसरी बार वे प्रेम साइमन के साथ मिले थे। इस फिल्म के गीतकार डॉ. हनुमन्त नायडू बाबूजी के मित्र थे। वे दुर्ग निवासी थे पर उनसे नागपुर में पहली भेंट उनके घर में हुई थी जब वे वहां प्राध्यापक थे। मैंने उनका साक्षात्कार लिया था जिसे प्रसिद्ध पत्रकार राजनारायण मिश्र ने छापा था।
यह फिल्म निदेशक मनु नायक की पहली प्रस्तुति थी जो एक समाजोत्तेजक फिल्म बन गई थी। इसने समाज की संकीर्ण जातीयता को अपनी कथा के केंद्र में रखा था। अपनी सीमित सुविधाओं, आरंभिक प्रयासों और कुछ अनावश्यक दबावों के कारण फिल्म में कई खामियां उभरकर आई थीं लेकिन मलय चक्रवर्ती के मनमोहक संगीत और मोहम्मद रफी जैसे सुरीले गायकों के कारण यह फिल्म हिट हो गई थी और लम्बे समय तक सिनेमा हालों में बार- बार प्रदर्शित होती रही थीं। मध्य प्रदेश शासन के पंचायत एवं समाजसेवा विभाग द्वारा भी इस फिल्म का प्रदर्शन गांव- गांव में किया जाता था। बरसों पहले दिल्ली दूरदर्शन ने इसे रविवार की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल कर इसे दिखाया था।
इस फिल्म के लोकेशन्स और उनका फिल्मांकन भी इसके सशक्त पक्ष रहे हैं। बलौदाबाजार से पन्द्रह किलोमीटर पहले पडऩे वाले गांव पलारी में इसकी शूटिंग की गईं। पलारी गांव का बालसमुंद तालाब फिल्मांकन के केंद्र में है। यह समुद्र की तरह दिखने वाला संभवत: छत्तीसगढ़ का सबसे विराट तालाब है। फिल्म में तालाब के हर हिस्से को बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया है। तब तालाब के घाट पर एक विशाल तुलसी चौरा हुआ करता था जिस पर 'बिहनिया के उगत सुरुज देवता' जैसे मधुर गीत को फिल्माया गया था, जिसे सुमन कल्याणपुर ने स्वर दिया था। यह अपने मधुर गीतों और बालसमुन्द तालाब तट के मोहक दृश्यों के कारण एक दर्शनीय फिल्म बन गई थी।
छत्तीसगढ़ शासन को चाहिए कि वह फिल्म डिवीजन या एसोसिएशन जैसे किसी संगठन के माध्यम से इस पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म का रि-प्रिन्ट बनवा का उसे सुरक्षित रखे। साथ ही पलारी के उस विराट तालाब 'बालसमुन्द' और उसके किनारे स्थित 9 वीं सदी के पुरातन सिद्धेश्वर मंदिर की भव्यता को रख उसमें पर्यटन की संभावनाओं को तलाशे।
संपर्क-  मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो. 09407984014
       vinod.sao1955@gmail.com

आपके पत्र/ मेल बॉक्स

ब्लॉग बुलेटिन का स्वागत

उदंती के फरवरी अंक से आरंभ ब्लॉग बुलेटिन  स्तंभ स्वागतेय है। 'लहरें... एक नशा है अहसासों काÓ निसंदेह पूजा जी बेहतरीन लिखती हैं। मैंने हाल ही में उनको पढऩा शुरू किया है। उनके शब्द बातें करते जान पड़ते हैं। ब्लॉग बुलेटिन स्तंभ की शुरुआत पूजा जी के ब्लॉग से हुई है यह बड़े संयोग की बात है। एक शानदार पत्रिका (उदंती) के नए कॉलम में उन्हें जगह मिली इसके लिए पूजा जी को बधाई।
- लोकेन्द्र सिंह राजपूत, ग्वालियर (मप्र)
lokendra777@gmail.com

दिल को छुने वाली ग़ज़लें

प्राण जी की ग़ज़लें, जिंदगी की सच्ची दास्तावेज होती हैं.. उनकी गज़लों में कल, आज और कल का मिश्रण होता है, जो की भावपूर्ण शब्दों के द्वारा दिल में उतर जाता है। 
- विजय कुमार, vksappatti@gmail.com
प्राण जी अपने आस- पास की बातों को सादे लहजे गज़ल में उतारना उन्हीं के बस की बात है...
- समीर लाल, sameer.lal@gmail.com

मर्मस्पर्शी लेख

आपाधापी एवं स्वार्थ- पीडि़त समाज में ऐसे लेखों की बहुत बड़ी भूमिका है, तपते मरुस्थल में शीतल जल की तरह। पूरा लेख मर्मस्पर्शी और प्रवाह पूर्ण है । इस तरह के लेखन को बनाए रखिए। (फरवरी अंक में रफी साहब की दरियादिली देख...  शीर्षक से प्रकाशित लेख के बारे में।)
- रामेश्वर काम्बोज, rdkamboj@gmail.com

संग्रहणीय अंक

कहि देबे संदेस फिल्म का नाम बचपन से सुनता रहा हूं, हालांकि देखने का मौका अब तक नहीं मिला है। इसमें अहम किरदार निभाने वाले स्व. रमाकांत बख्शी का पैतृक निवास खैरागढ़ के हमारे मोहल्ले में ही है, इसलिए इस फिल्म से बिना देखे ही एक अलग तरह का लगाव महसूस होता है। गाने जरूर सुने हैं और उनकी मिठास का कायल भी हूं। विशेषांक के माध्यम से फिल्म की पूरी जानकारी मिली। यह एक बढिय़ा अंक था और संग्रहणीय भी।
- विवेक गुप्ता, vivekbalkrishna@gmail.com
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