कविताएँ
लड़कियां
-डॉ. मीनाक्षी स्वामी
लड़कियां, पंजों के बल
उंची खड़ी होकर
अमरूद तोड़ लेती हैं
और कुछ अमरूद, पेड़ पर चढ़कर भी।
अमरूद तोडऩे के लिए
मौका आने पर
दीवार पर भी चढ़ जाती हैं, लड़कियां।
और लोहे के नुकीले, सरियों वाले
फाटक भी उलांघ जाती हैं।
जतन से बटोरे अमरूदों की पूंजी को
दुपट्टे में सहेजकर
सोचती हैं लड़कियां,
बड़ी होकर वे ठीक इसी तरह
पंजों के बल खड़ी होकर,
आकाश की अलगनी से
इंद्रधनुष खींचकर
अपना दुपट्टा बना लेंगीं।
उंची खड़ी होकर
अमरूद तोड़ लेती हैं
और कुछ अमरूद, पेड़ पर चढ़कर भी।
अमरूद तोडऩे के लिए
मौका आने पर
दीवार पर भी चढ़ जाती हैं, लड़कियां।
और लोहे के नुकीले, सरियों वाले
फाटक भी उलांघ जाती हैं।
जतन से बटोरे अमरूदों की पूंजी को
दुपट्टे में सहेजकर
सोचती हैं लड़कियां,
बड़ी होकर वे ठीक इसी तरह
पंजों के बल खड़ी होकर,
आकाश की अलगनी से
इंद्रधनुष खींचकर
अपना दुपट्टा बना लेंगीं।
रेल में बैठी स्त्री
तेज रफ्तार दौड़ती रेल में बैठी स्त्री
खिड़की से देखती है
पेड़, खेत, नदी और पहाड़।
पहाड़ों को चीरती
नदियों को लांधती,
जाने कितनी सदियां, जाने कितने युग
पीछे छोड़ती रेल
दौड़ती चली जाती है।
स्त्री खिड़की से देखती है
मगर, वह तो रेल में ही बैठी रहती है
वहीं की वहीं, वैसी ही
वही डिब्बा, वही सीट
वही बक्सा, वही कपड़े
जिसमें सपने भरकर
वह रेल में बैठी थी कभी।
रेल में बैठी स्त्री
बक्सा खोलती है
और देखती है सपनों को
सपने बिल्कुल वैसे ही हैं
तरोताजा और अनछुए
जैसे सहेजकर उसने रखे थे कभी
स्त्री फिर बक्सा बंद कर देती है
और सहेज लेती है सारे के सारे सपने
रेल दौड़ती रहती है
पेड़, नदी, झरने
सब लांघती दौड़ती है रेल
पीछे छूटती जाती हैं सदियां और युग
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने सहेजकर रखे थे कभी।
खिड़की से देखती है
पेड़, खेत, नदी और पहाड़।
पहाड़ों को चीरती
नदियों को लांधती,
जाने कितनी सदियां, जाने कितने युग
पीछे छोड़ती रेल
दौड़ती चली जाती है।
स्त्री खिड़की से देखती है
मगर, वह तो रेल में ही बैठी रहती है
वहीं की वहीं, वैसी ही
वही डिब्बा, वही सीट
वही बक्सा, वही कपड़े
जिसमें सपने भरकर
वह रेल में बैठी थी कभी।
रेल में बैठी स्त्री
बक्सा खोलती है
और देखती है सपनों को
सपने बिल्कुल वैसे ही हैं
तरोताजा और अनछुए
जैसे सहेजकर उसने रखे थे कभी
स्त्री फिर बक्सा बंद कर देती है
और सहेज लेती है सारे के सारे सपने
रेल दौड़ती रहती है
पेड़, नदी, झरने
सब लांघती दौड़ती है रेल
पीछे छूटती जाती हैं सदियां और युग
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने सहेजकर रखे थे कभी।
मेरे बारे में
हिंदी की प्रतिष्ठित रचनाकार डॉ. मीनाक्षी स्वामी ने समाजशास्त्र में एम.ए. और मुस्लिम महिलाओं की बदलती हुई स्थिति पर पीएचडी किया है। वे महारानी लक्ष्मीबाई स्नातकोत्तर महाविद्यालय इंदौर में प्राध्यापक हैं। उनकी कई पुस्तकों में अच्छा हुआ मुझे शकील से प्यार नहीं हुआ, देहदंश, लालाजी ने पकड़े कान, बीज का सफर, बहूरानियां, सुबह का भूला, साहब नहीं आए, राष्ट्रीय एकता और अखंडता: बंद द्वार पर दस्तक आदि प्रमुख हैं। उन्होंने हर विधा में हर वर्ग के लिए रचनाकर्म का चुनौतीभरा काम सफलतापूर्वक करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त किए हैं। उनकी कई पुस्तकों का विभिन्न भारतीय भाषाओं व अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है।
संपर्क- सी.एच. 78, दीनदयाल नगर, सुखलिया, इंदौर म.प्र.
Email- meenaksheeswami@gmail.com, http://meenakshiswami.blogspot.in
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