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Jul 18, 2009

उदंती.com, जुलाई 2009

उदंती.com, वर्ष 1, अंक 12, जुलाई 2009
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अपनी गलती स्वीकार कर लेने में लज्जा की कोई बात नहीं है। इससे दूसरे शब्दों में यही प्रमाणित होता है कि कल की अपेक्षा आज आप अधिक समझदार हैं ।             
 — अलेक्जेन्डर पोप
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अनकही: बिन पानी सब सून

रंगकर्मी / श्रद्धांजलि:हबीब तनवीर - हृषिकेश सुलभ
लोककला / नाचा: छत्तीसगढ़ जहां जिंदगी नाचती है- रामहृदय तिवारी
समाज / मुस्लिम लड़कियां: पर्दे से निकलकर मुक्केबाजी में ...- अजीता मैनन
कला / चित्रकार: जीवन के रहस्य तलाशती: रश्मि भल्ला- उदंती
पर्यटन / प्रकृति: डलहौजी: कुदरत का सुन्दर नजारा - अशोक सरीन

बिन पानी सब सून

बिन पानी सब सून   
- डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले महीने 15 दिन तक उत्तराखंड की सुंदर वादियों के बीच रहने का मौका मिला। छत्तीसगढ़ की भयानक गर्मी से राहत तो मिली परंतु इस प्रदेश की नदियों पर बन रहे छोटे-बड़े बांधों के कारण यहां की नदियों के अस्तित्व पर संकट के घने बादलों का साया भी नजर आया। यह तो अकाट्य सत्य है कि पूरा देश पिछले कई बरसो से पानी की समस्या से दो- चार हो रहा है। ऐसे में उत्तराखंड की खूबसूरती के बीच मैं वहां की बर्फीली हवाओं से गुजरकर आ रही खतरे की घंटी को साफ-साफ सुन पा रही थी। जल विद्युत परियोजनाओं के कारण हो रहे नुकसान की स्पष्ट तस्वीर मेरे सामने थी क्योंकि गंगोत्री के हरे भरे और घने पेड़ों से अच्छादित पहाड़ों के जिन मार्गों से मैं पांच साल पहले गुजरी थी आज वहां कदम-कदम पर भारी विस्फोटों के कारण मानवकृत भूस्खलन, भू-धंसाव व भूकंप जैसे खतरे जहां-तहां नजर आ रहे थे।

यह भी जग जाहिर है कि उत्तराखंड की नदियां भारत की प्राणरेखा हैं, जो अनगिनत लोगों को जीवन देती हैं, लेकिन अब शायद हम ऐसा नहीं कह पाएंगे क्योंकि यहां की नदियां सूखने की कगार पर पहुंच गयी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि गंगोत्री मार्ग पर जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बाद उत्तरकाशी में गंगा कहीं-कहीं पर ही नजर आयेगी क्योंकि अधिकतर स्थानों पर गंगा विद्युत परियोजनाओं के कारण सुरंगों के अंदर से प्रवाहित होगी। मैं उन सुरंगों के किनारे से गुजरी हूं जिन्हें देखकर सोच रही थी कि ये मानव निर्मित सुरंगे जो प्रकृति से छेड़छेाड़ कर बनाई जा रहीं हैं, हमारा किस तरह भला कर पाएंगी। गंगा में अधिकांश भारतीयों की आस्था है और यह हमारी राष्ट्रीय नदी भी है, परंतु विकास के इस मॉडल से पहाड़ की नदीघाटी सभ्यता समाप्त हो जाएगी।

 इसी तरह यमुना नदी पर भी कई बांध बनाने की योजना है इन बांधों के कारण यमुना के भी दर्शन लोगों को नहीं होंगे, क्योंकि यमुना की जलधारा भी इन बांधों के लिए बनने वाली सुरंगों में कैद हो जाएगी। उत्तराखंड के नगर चाहे नदी तट पर बसे हों, या पर्वतों के ऊंचे ढलानों पर, सभी इन नदियों के जल पर जीवित हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इन नदियों के संरक्षण व संवर्धन के लिए समय रहते ठोस उपाय नहीं किए गए तो नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

यह तो सबको पता है कि पानी की समस्या साल भर रहती है। लेकिन गर्मी के मौसम में यह अधिक उभर कर सामने आती है। प्राकृतिक संसाधनों के भरपूर दोहन के भयंकर परिणाम हम इन दिनों देश के हर बड़े छोटे महानगरों में देख ही रहे हैं। अधिकांश महानगरों में पानी को लेकर आए दिन प्रदर्शन और आंदोलन हो रहे हैं। देश भर की नदियों का पानी पिछले कुछ सालों में इतना अधिक प्रदूषित हो गया है कि वह मनुष्य के लिए जहर जैसा बन
गया है।  गंगा यमुना के प्रदूषित होते जल की बात को हमारी सरकार भी स्वीकार करती है। लेकिन यह भी सत्य है सरकारों के दृष्टिकोण के कारण विकसित हुई उपभोक्तावादी जीवन शैली ने जल का उपयोग व अधिकार भाव तो बढ़ाया है, लेकिन उसके लिए कत्र्तव्य निभाने की कोई जिम्मेदारी उन्हें महसूस नहीं होती। और यह जिम्मेदारी महसूस भी भला कैसे हो पाएगी क्योंकि उनकी आंखों का पानी ही मर गया है।

  पानी को लेकर देश भर में बरसो- बरस कई विवाद चल रहे हैं, जैसे कर्नाटक और तमिलनाडु में कृष्णा नदी को लेकर, भारत और बंगला देश में गंगाजल को लेकर तो भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के पानी को लेकर तथा पंजाब की रावी तथा चेनाब को लेकर भी पाकिस्तान को कई प्रकार समस्याएं हैं। आजादी के बाद सबसे पहले सिंधु नदी के पानी को लेकर विवाद आरंभ हुआ था। तथा नेपाल की नदी कोसी को लेकर बिहार में मचाया जाने वाली प्रयलंकारी तांडव हम सबको पता ही है। दरअसल सन् 2002 की बनी जलनीति में सरकार ने प्रकृति प्रदत्त पानी का मालिकाना हक कम्पनियों को दे दिया है- जो पानी के साझे हक को खत्म करके किसी एक व्यक्ति या कंपनी को मालिक बनाती है। यह नई जलनीति ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी से और अधिक भयानक गुलामी के रास्ते खोलती है।

यहां इन सबकी चर्चा इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि इन सबसे पानी को लेकर होने वाली गंभीर समस्या का आभास होता है। प्रश्न यह उठता है कि जिसके बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती उस प्रश्न को हमारे देश को चलाने वाले, योजनाकार भला किस तरह अनदेखी करके चल सकते हैं। पानी को लेकर चिंतित कुछ संस्थाएं इस दिशा में लोगों को जागरुक करने की महती भूमिका निभा रही हैं पर भयानक रुप अख्तियार करती जा रही इस समस्या को लेकर हमारी सरकारें गंभीरता पूर्वक विचार क्यों नहीं करतीं। जिस देश में पीने का पानी भी यदि 21 दिन बाद मिलेगा उस देश के भविष्य की कल्पना सहज ही की जा सकती हैं। दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, अहमदाबाद जैसे बड़े औद्योगिक शहरों में कई बरसों से पीने का पानी खरीद कर ही पिया जा रहा है... इसके बाद भी हम अपने आप को अत्याधुनिक होने की बात बड़े गर्व से करते हैं। जिस देश की राजधानी में पीने के पानी के लिए त्राहि- त्राहि मची हो वहां हम ये कैसी आधुनिकता का डंका बजा रहे हैं।

सब बातों का एक ही सार है कि बिन पानी सब सून....
पानी हमारे जीवन में सर्वाधिक महत्व की चीज है। जिसकी यदि अभी से चिंता नहीं की गई तो जैसा कि वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अगला युद्ध पानी के लिए होगा, के लिए हम सबको तैयार रहना चाहिए। हम पानी के प्राकृतिक रुप को निर्बंध छोड़ देते है, जबकि इसके संरक्षण के लिए बड़े पैमाने पर योजना चलाने की आवश्यकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि एक घर के ऊपर जितना पानी गिरता है वह उस परिवार की वार्षिक जरूरत से पांच गुना तक अधिक होता है। छत के पानी को बटोर कर आसानी से साल भर के पेयजल की व्यवस्था हो सकती है।

 हमारी सरकार को चाहिए कि वे अत्याधुनिक तकनीक के जरिए जल संग्रहण और उसके उचित उपयोग को अपने योजनाओं में उच्चतम प्राथमिकता दें।
               
 - रत्ना वर्मा

हबीब तनवीर हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया...

हबीब तनवीर - हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया...
                                                                         - हृषिकेश सुलभ
रंगमंच को एक नयी शक्ल देने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने रंगमच की दुनिया में उल्लेखनीय काम किया। सबसे खास बात यह है कि छत्तीसगढ़ की लोक शैली नाचा को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कुछ समय से बीमार तनवीर जी का पिछले माह 8 जून 2009 को निधन हो गया। 1 सितंबर 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे हबीब को उनके बहुचर्चित नाटकों 'चरनदास चोर' और 'आगरा बाजार' के लिए हमेशा याद किया जाएगा जो उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रभावशाली नाटक माने जाते हैं। उनके अन्य लोकप्रिय नाटकों में  शतरंज के मोहरे, लाला सोहरत राय, बहादुर कलारिन, पोंगा पंडित, गांव के नाव ससुराल मोर नाव दमाद आदि का नाम लिया जा सकता है।
हबीब तनवीर ने  मैट्रिक की परीक्षा रायपुर के लौरी म्युनिसिपल स्कूल से पास की थी तथा बी.ए. नागपुर के मॉरिस कॉलेज से।  एमए प्रथम वर्ष की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हुई। केवल 22 साल की उम्र में कुछ नया करने की चाह लिए वे 1945 में मुंबई चले गए जहां उन्होंने कुछ समय तक आकाशवाणी में भी काम किया।
उनका पूरा नाम हबीब अहमद खान था लेकिन जब उन्होंने कविता लिखनी शुरू की तो अपना तखल्लुस तनवीर रख लिया और उसके बाद से वे हबीब तनवीर के नाम से लोगों के बीच मशहूर हो गए। उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरू की और रंगकर्म तथा साहित्य की अपनी यात्रा के दौरान कुछ फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं तथा उनमें काम भी किया। वर्ष 1982 में रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में उन्होंने छोटी पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
हबीब ने अपने कला-माध्यम को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और इन मायनों में वे जितना कला की दुनिया के लिए ज़रूरी थे उतना ही समाज के लिए अनिवार्य। उनका रंग-कर्म जागृति का एक अलख था, जिसे उनके बाद जगाने की संभावना कम दिखती है। कुछ वक्त पहले सुलभ जी  ने सबद पर अपने स्तंभ रंगायन में हबीब साहब पर तफसील से लिखा था, वही यहां श्रद्धांजलि स्वरुप दिया जा रहा है-
हबीब तनवीर को याद करना सिर्फ रंगकर्म से जुड़े एक व्यक्ति को याद करने की तरह नहीं है। दसों दिशाओं से टकराते उस व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जिसके सिर पर टूटने को आसमान आमादा हो, धरती पांव खींचने को तैयार बैठी हो और कुहनियां अन्य दिशाओं से टकराकर छिल रही हों; और वह व्यक्ति सहज भाव से सजगता तथा बेफि़क्री दोनों को एक साथ
साधकर चला जा रहा हो। अब तक कुछ ऐसा ही जीवन रहा है हबीब तनवीर का। भारतेन्दु के बाद भारतीय समाज के सांस्कृतिक संघर्ष को नेतृत्व देने वाले कुछ गिने-चुने व्यक्तित्वों में हबीब तनवीर भी शामिल हैं। भारतेन्दु का एक भी नाटक अब तक मंचित न करने के बावजूद वे भारतेन्दु के सर्वाधिक निकट हैं। उन्होंने लोक की व्यापक अवधारणा को अपने रंगकर्म का आधार बनाते हुए अभिव्यक्ति के नये कौशल से दर्शकों को विस्मित किया है।
विस्मय अक्सर हमारी चेतना को जड़ बनाता है, पर हबीब तनवीर के रंग कौशल का जादू हमें इसलिए विस्मित करता है कि उनकी प्रस्तुतियों में सहजता के साथ वे सारे प्रपंच हमारे सामने खुलने लगते हैं, जो सदियों से मनुष्य को गुलाम बनाए रखने के लिए मनुष्य द्वारा ही रचे जा रहे हैं। इन प्रपंचों के तहख़ानों में निर्भय होकर उतरना और सारे गवाक्षों को खोलकर आवाज़ लगाना कि आओ, देखो सत्य क्या है; आज सरल काम नहीं है। रचनाकर्म में इसके दोहरे ख़तरे होते हैं। एक तो कलात्मकता के ह्रास का ख़तरा हमेशा बना रहता है और दूसरी ओर प्रपंच रचने वालों की हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। हबीब तनवीर इन दोनों ख़तरों से जूझते हैं। कलात्मकता के स्तर पर वह निरंतर उन रूढिय़ों को तोड़ते हैं, जिन्होंने आज़ादी के बाद के हिन्दी रंगमंच का नैसर्गिक विकास नहीं होने दिया। तथाकथित बौद्धिकता और आभिजात्यपन की लालसा में इन रूढिय़ों के आधार पर हिन्दी रंगमंच का ऐसा स्वरूप उभरा, जो आज सामान्य जनता की सांस्कृतिक भूख मिटाने में सक्षम नहीं है।
हबीब तनवीर ने इन रूढिय़ों को तोड़ते हुए नये प्रयोग किए और प्रयोगों की सफलताओं- असफलताओं के बीच से अपनी प्रस्तुतियों के लिए नयी रंगभाषा और नयी रंगयुक्तियों की खोज की। उन्होंने अपने नाटकों की केन्द्रीय चेतना से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपने हर नाटक को अपने समय और समाज के प्रति उत्तरदायी बनाए रखा। समाज के सारे प्रपंचों और अंर्तद्वंद्वों को उजागर करते हुए वे उस शक्ति से न कभी भयभीत हुए न ही समझौता किया, जो मनुष्यता के विरोध में संगठित होकर हिंसा करती है।
हबीब साझा संस्कृति की वकालत करते रहे हैं। धार्मिक आडम्बरों-बाह्याचारों-कट्टरताओं के ध्वजवाहकों की कुरूपताएं हों या पूंजी के मद में बौरायी शक्तियों की हिंसा- सबका उन्होंने सामना किया। पुनरुत्थानवाद और शुचितावाद को उन्होंने एक सिरे से नकारा। अपने रंगकर्म के आरम्भिक काल से ही हबीब तनवीर इस बात बल देते रहे हैं कि रंगमंच को आलोचनात्मक होना चाहिए। रजनीतिक दलों की नकेल पहने बिना राजनीतिक विचारों से लैस रंगमंच की उनकी कल्पना को आरम्भिक दौर में संदेह की नजऱ से देखा गया, पर जैसे-जैसे उन्होंने अपने नाटकों के लिए नयी युक्तियों की खोज की और नाटकों में विचार के स्तर पर मनुष्य की पक्षधरता का संघर्ष तेज़ किया, फलस्वरूप रंगकर्मियों-दर्शकों का एक बड़ा तबका उनकी तरफ आकर्षित हुआ।
जिस इप्टा आन्दोलन ने अपनी सक्रियता से देखते-देखते समग्र भारत को एक सूत्र में बांध दिया था, राजनीतिक बंटवारे के बाद उसका बिखरना एक सदमे की तरह था। इस सांस्कृतिक सदमे से उबरने के लिए अधिकांश कलाकारों ने सृजन का ही रास्ता अपनाया। इप्टा के साथ जुड़े रहने का रंगमंचीय अनुभव हबीब तनवीर के काम आया और साथ ही राजनीतिक अंर्तद्वंद्वों से उपजे संकटों और निराशा ने नये रास्तों की खोज के लिए विवश किया। मानवतावादी विचारों तथा जीवन की संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र राहों की निर्मिति के संघर्ष ने हबीब तनवीर को इस सदमे से मुक्ति दी। रॉयल एकेडमी ऑफ़ ड्रामेटिक आट्र्स (राडा) में प्रशिक्षण के दौरान अपनी भाषा में रंगकर्म करने की उनकी आस्था ने प्रशिक्षण के उत्तराद्र्ध के प्रति उनके मन में अनास्था जगा दी। उन्होंने राडा छोडऩे का निर्णय लिया, जो असामान्य और जोखिम भरा था। यह जोखिम सब नहीं उठा सकते। अपनी रंग परम्परा और भाषा के भीतर बहुत गहरे उतरकर उसकी शक्ति की पहचान किए बगैर यह जोखिम नहीं उठाया जा सकता।
हबीब तनवीर को अपनी रंग परम्पराओं तथा अपनी भाषा की पहचान थी और इनकी शक्ति पर विश्वास था। उन्होंने यह जोखिम उठाया और राडा छोड़कर ब्रिस्टल ओल्ड विक थियेटर में प्रशिक्षण लेने लगे। यहां उन्हें डंकन रास मिले, जिन्हें वह अपना गुरु मानते हैं। डंकन रास ने उन्हें नाटक के पहले पाठ के दरम्यान प्राप्त नाटक की चेतना और मूल प्रयोजन से जुड़े रहने का हुनर सिखाया। हबीब तनवीर ने ब्रिस्टल ओल्ड विक के बाद ब्रिटिश ड्रामा लीग में प्रशिक्षण प्राप्त किया। फिर यूरोप की यात्रा पर निकले। एक ऐसी यात्रा, जिसे संचालित कर रही थी दुनिया की विविध रंग छवियों को देखने-समझने की बेचैनी। 
 इस यात्रा ने उनकी इस धारणा को ताक़तवर बनाया कि शब्द और संस्कृति की रचनात्मक दुनिया में उस स्थान और पर्यावरण का बहुत महत्व होता है, जहां आप जनमते और पालित- पोषित होते हैं। सृजनात्मकता के लिए तमाम उर्वरा शक्तियां आपकी अपनी ज़मीन में ही छिपी होती हैं। आज़ादी के बाद रंगमंच के संदर्भ में परम्परा के उपयोग को लेकर चलने वाली बहस को हबीब तनवीर ने अपने रंगकर्म से तीव्र किया और धुंधलके को छांटने के लिए सूत्र दिए। परम्परा के बीच से जीवन को गतिशील बनाने वाली आधुनिकता के तत्वों को चुनकर हबीब तनवीर ने एक नये रंग परिदृश्य की रचना की।
हबीब तनवीर कला को जीवन का अंग मानते हैं। एक ओर शैली, तकनीक और प्रस्तुतिकरण के सम्पूर्णता में देशज बने रहने पर बल देते हैं, तो साथ-साथ इस बात पर भी बल देते हैं कि इसे कथ्यात्मक रूप से विश्वजनीन, आधुनिक तथा समसामयिक होना चाहिए। वह महानगरों में मंचित होनेवाले आंचलिक मुहावरों वाले अपने नाटकों के पक्ष में आक्रामकता के साथ यह तर्क रखते हैं कि, 'मैं इस तथाकथित सभ्य समाज के बनावटी और ओढ़े हुए आवरण को उतार देना चाहता हूं।' हबीब तनवीर को न तो परम्परा का दास बनना स्वीकार्य है और न ही परम्परा से मनमानी करना। वह सृजनशीलता और मानवीय मूल्यों के मूल सरोकारों से जुड़ी परम्परा के उन जीवित अंशों के उपयोग की वकालत करते हैं, जो कलात्मकता को भ्रष्ट न करें।
मृच्छकटिक पहला नाटक था, जिसे प्रस्तुत करते हुए हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के पारम्परिक रंगकर्म की युक्तियों, बोली, शैली और कलाकारों का प्रयोगधर्मी उपयोग किया। हबीब तनवीर ने आगा हश्र कश्मीरी, विशाखदत्त के अलावा मौलियर, ब्रेख्त , लोर्का, ऑस्कर वाइल्ड, शेक्सपीयर, गोल्डनी आदि के नाटकों को मंचित किया। उन्होंने ग़ालिब के जीवन पर भी नाटक किया। इस कालावधि में उन्हें वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी 'आगरा बाज़ार' के मंचन से मिली थी। पर उनकी प्रयोगधर्मिता बहस के केन्द्र में रही।
'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' ने उन्हें एक बार फिर सफल निर्देशक के रूप में स्थापित किया। यहीं से उन्होंने अपने रंगकर्म के लिए एक ऐसे रास्ते को पकड़ा या ऐसी दिशा की खोज की, जिसके कारण उन्हें बाद के दिनों में अपार सफलता और महत्व प्राप्त हुआ। 'चरनदास चोर' ने उनको विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किया। अपने नाटकों की प्रस्तुतियों से हबीब तनवीर बार-बार अपनी सृजनात्मकता का अतिक्रमण करते हैं। यह एक दुस्साहस भरा काम है। अक्सर बड़े नाम इससे बचना चाहते हैं क्योंकि अपने ही रचे को फिर से रचकर आगे निकल जाना बहुत कठिन होता है। असफलता का भय ऐसा करने से रोकता है। पर हबीब तनवीर की प्रयोगधर्मिता असफलताओं से जूझती रही है।

छत्तीसगढ ज़हाँ जिंदगी नाचती है...

छत्तीसगढ़ ज़हाँ जिंदगी नाचती है...
- रामहृदय तिवारी
छत्तीसगढ़ - भारत का हृदय स्थल - एक प्यारा सा प्रान्त, जिसे इतिहास ने दक्षिण कौशल के नाम से पुकारा है, भूगोल ने धान का कटोरा कहकर स्नेह से दुलारा है, पुरातत्व ने जिसे महाकान्तार की संज्ञा से संवारा है- वहीं संस्कृति ने 'लोक कलाओं का कुबेर' कहकर अंचल का मान बढ़ाया है।
यह एक सच्चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्होंने हमें किया है। करमा, ददरिया और सुआ की स्वर लहरियां, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएं सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं। यहां के निवासियों में सहज उदार, करुणामय और सहनशील मनोवृत्ति, संवेदना के स्तर पर कलारुपों से बहुत गहरे जुड़े रहने का परिणाम है। छत्तीसगढ़ का जनजीवन अपने पारंपरिक कलारुपों के बीच ही सांस ले सकता है। समूचा अंचल एक ऐसा कलागत लयात्मक- संसार है, जहां जन्म से लेकर मरण तक- जीवन की सारी हलचलें लय और ताल के धागे में गूंथी हुई हैं। कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्वर लोकमंचीय कला सृष्टि का जन्म हुआ है - जिसे हम सब 'नाचा' के नाम से जानते हैं।
नाचा छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति की आबोहवा का एक महकता झोंका है। नाचा इस अंचल के सरल सपनों का प्रतिबिम्ब है। अनगढ़ जन- जीवन से जन्म लेने वाला सुगढ़ नाचा, सच पूछिए तो, ग्रामीण कलाकारों द्वारा पथरीली जमीन पर चन्दन बोने की हिमाकत है। समूचे छत्तीसगढ़ी लोक जीवन की नब्ज को टटोलने का सबसे कारगर माध्यम है नाचा।
नाचा का अलग रंग है, मस्ती है, प्रवाह है। एक ओर जहां इसमें परंपरा निर्वाह की चाह है, वहीं अनचाही परंपरा की चट्टानों को तोडऩे की अदम्य शक्ति भी है। नाचा, नगरीय रंगमंच के बौद्धिक विलास से ऊबे मन की विश्रान्ति है। उसमें लोगों के विमुग्ध करने और मन के तारों को झंकृत करने की अद्भुत क्षमता है और है आंसुओं को पीकर मुस्कान बांटने की सहज सरल चेष्टा। छत्तीसगढ़ अंचल की सम्पूर्ण सहजता, सरलता, मोहकता और माधुर्य जहां एक मंच पर सिमट आए हों, उस मंच का नाम नाचा है। अपनी दीनता, हीनता, अशिक्षा, उपेक्षा और अपमान की आग में तपकर ग्रामीण कलाकर जिस कला संसार की सृष्टि करते हैं, उस संसार का नाम है नाचा। नाचा नृत्य गीत और गम्मत का अनूठा संगम है।
इन सबके बावजूद, सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और हेय समझे जाने वाले इस नाचा की ओर विद्वानों की दृष्टि अभी हाल के वर्षों में गई। नाचा ने ऐसे भी दिन देखे हैं, जब शिष्ट और सभ्रान्त समाज नाचा देखना अपनी गरिमा के विरुद्ध  समझता था। आज इस विश्वविख्यात नाचा पर बहुत कुछ लिखा गया है। इस पर आज अनेक शोधार्थी शोधकार्य में संलग्न हैं, कई पीएचडी की डिग्री ले चुके हैं। हालत आज यह है कि गांवों के चौपालों से उठकर महानगरों की अट्टालिक मंचों पर नाचा के भव्य प्रदर्शनहो चुके हैं। अपनी अनोखी शैली, सादगी, संप्रेषणीयता और आडंबरहीनता के कारण आज नाचा लोकमंचीय आकाश में एक चमकता हुआ नक्षत्र बन चुका है। 
साहित्यकारों, विद्वानों और कलामनीषियों ने नाचा को अपने-अपने ढंग से अलग-अलग अवसरों पर परिभाषित किया है। डॉ. शिव कुमार मधुर के अनुसार- नाचा अपने नाम के अनुरुप मूलत: नृत्य प्रधान विधा है। निरंजन महावर लिखते हैं- नाचा एक सर्वजातीय रंग विधा है, जिसका उद्भव और विकास ग्रामीण समाज में हुआ है तथा उसमें अनेक परंपरागत विधाओं ने सम्मिलित होकर उसे समृद्ध किया है नाचा मूलत: एक हास्य प्रधान नाट्य विधा है। मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद  से जुड़े नवल शुक्ल कहते हैं- नाचा नृत्य भाव और मुद्राओं का लयात्मक संसार है, यह आदमी की जिजीविषा और अभिव्यक्ति का संसार है। नारायण लाल परमार जी की राय थी कि- नाचा पूर्ण रुपेण एक जीवन केन्द्रित लोक विधा है। मनोरंजन और शिक्षण का जैसा मणिकांचन संयोग इसमें मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। नाचा अंचल के उत्थान पतन का आरसी है। डॉ. विनय पाठक के अनुसार- लोक नाट्य नाचा की सहजता उसका शृंगार है और उसका अल्हड़ कमनीय सुघड़ रुप उसका आकर्षण।  स्व. रामचन्द्र देशमुख कहते थे- नाचा छत्तीसगढ़ के गांवों में थके हारे ग्राम्य जीवन को नई स्फूर्ति देने वाला माध्यम है। ग्राम जीवन की सहजता, निश्छलता और बेलाग रिश्तों की पृष्ठभूमि है इसके साथ। सापेक्ष के संपादक डॉ. महावीर अग्रवाल लिखते हैं - शिष्ट जीवन की सारी सौजन्यता, रस सिद्धता और कलात्मकता नाचा के चुम्बकीय आकर्षण के सामने फीकी लगती है।  चर्चित कथाकार डॉ.परदेशीराम वर्मा कहते हैं - छत्तीसगढ़ चुप्पे लोगों का अंचल है और वह अपनी चुप्पी जिन माध्यमों से तोड़ता रहा है, उनमें सबसे सशक्त माध्यम नाचा है। अंचल की कल्पनाशीलता का अद्भूत लोकमंचीय विस्तार है नाचा।
यह तो हुई नाचा के द्रष्टा और साक्षी मनीषियों की राय। लेकिन स्वयं नाचा के कलाकारों से पूछें तो वे नहीं बता सकते हैं कि नाचा आखिर क्या है? वे बताने में नहीं दिखाने में माहिर हैं। साहित्य का इतिहास साक्षी है कि राम को भगवान मानकर स्तुतिगान करने वाले महर्षियों से ज्यादा भगवान का वास्तविक हाल उनका वह अभिन्न दास समझता है, जो अपना कलेजा चीरकर बता देता है- भगवान उसके लिए क्या है? ठीक वैसे ही नाचा के विनम्र कलाकार मंच पर अपना हृदय चीरकर बता देते हैं कि देखो नाचा ये है। 
नेमीचन्द्र जैन कहते हैं - रंगमंच कलात्मक अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है, जिसमें मनोरंजन का अंश अन्य कलाओं की तुलना में सबसे अधिक है। रंगकला हमारे आदिम आवेगों और प्रवृत्तियों को जागृत कर उन्हें एक सामूहिक सूत्र में बांधती है। नि:संदेह कश्मीर से केरल और कच्छ से कामरुप अंचल तक फैली हमारी रंगारंग नाट्य परंपरा विशाल, समृद्ध और जीवन्त है। उनमें  विविधता के बावजूद मौजूद, एक अंतर्सूत्र उनको एक अटूट रिश्ते से जोड़ता है। डॉ. मधुर लिखते हैं कि ईसापूर्व तीसरी शताब्दी का भरत नाट्य शास्त्र कोई आकस्मिक उपज नहीं, वरन पूर्व परंपरा को लेकर की गई एक निश्चित योजना है। समुन्नत नाट्यकला की आधारशिला लोक जीवन में व्याप्त गीत और अभिनय की लोक शैलियां ही है। देश के विभिन्न प्रादेशिक लोकनाट्यों के अतिरिक्त कुछ ऐसी रंग शैलियां भी हैं जो अपने सीमित अंचलों में जन रंजन का माध्यम है। जैसे बंगाल में कीर्तनिया, उडिय़ा में गंभीरा, महाराष्ट्र में गोंधल वैसे ही छत्तीसगढ़ में नाचा है।
स्पष्ट है कि नाचा किसी काव्य की तरह केवल शाब्दिक अभिव्यक्ति नहीं है, न वह किसी चित्र या मूर्तिकला की तरह काल की बाहों में कैद कोई स्थिर रूप है। वह तो गतिशील झरने की तरह लोकजीवन की अनुभूतियों, आवेग, आकांक्षाओं और सपनों को सहज सादगी से अभिव्यक्ति देने वाला जीवंत मंच है।
अशिक्षित या अल्पशिक्षित मगर पारखी नजर वाले नाचा के कलाकार आमतौर पर खेतिहर मजदूर होते हैं। अपने जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने के लिए स्वयं अपनी सूझबूझ के अनुसार छोटे-छोटे प्रहसन रचते हैं, सामूहिक रूप से रिहर्सल करते हैं। निर्देशक नाम का कोई निर्दिष्ट व्यक्ति नाचा में नहीं होता। न ही उनकी कोई लिखित स्क्रिप्ट होती है। सब कुछ परस्पर सामंजस्य और साझेदारी में मौखिक रूप से चलता है। कई चुटीले और सटीक संवाद तात्कालिक  रूप में मंच पर ही बनते चले जाते हैं। ठेठ मुहावरों और पैनी लोकोक्तियों के सहारे हास्य व्यंग्य से ओतप्रोत संवादों को सुनकर दर्शक समूह हंस-हंस कर लोट-पोट तो हो ही जाता है, मगर हास्य के बीच कई ऐसी विद्रूपमय स्थितियां सामने आ जाती हैं कि दर्शक तय नहीं कर पाता कि वह हंसे या रोये।
नाचा अपने आप में एक टोटल थियेटर यानि परिपूर्ण नाट्यशैली है। उसमें उन्मुक्तता, चित्रण, रंगरचना तथा दृश्यविधान में यथार्थता के साथ-साथ दर्शकों की कल्पना शीलता को साथ लिए चलने पर बल अधिक समाहित रहता है। अभिनेता और दर्शक वर्ग के बीच घनिष्ट संबंध इसकी दूसरी मौलिक विशेषता है। नाचा में जीवन की मौलिक मान्यताओं और मानवीय मूल्यों को जोड़े रहने की गुंजाइश बराबर बनी रहती है। अपने गम्मतों के माध्यम से कलाकार दैनंदिनी जीवन की विद्रुपताओं और समस्याओं पर कटाक्ष एवं व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियां करते चलते हैं।  सूक्ष्म हास्य बोध की अपनी इसी प्रतिभा के बल पर स्वयं पर भी हंसने में सक्षम ये जीवट ग्रामीण कलाकार तमाम विपरीतताओं के बीच आज अपनी अस्मिता के साथ तनकर खड़े हैं। मंच पर इनका इम्प्रोवाइजेशन-प्रत्युपन्नमति की अद्भूत क्षमता देखकर थियेट्रिकल जगत हैरान है।
नाचा का यह एक और उल्लेखनीय पहलू है कि बिना किसी संस्थागत प्रशिक्षण के लगभग सारे कलाकर गायन, वादन, नृत्य, अभिनय एवं रूपसज्जा से लेकर नाचा से संबंधित हर काम कर लेने में सिद्ध हस्त होते हैं। नाचा जैसा आडम्बरहीन मंच ढूंढना मुश्किल है। ग्रामीण परिवेश में उपलब्ध कोई भी भूखंड इनका मंच होता है। यहां पाल परदे पखवाइयां जैसे तामझाम की कोई दरकार नहीं होती। साजिन्दों के बैठने के लिए साधारण सा तख्त मिल जाए तो बहुत है। सारे कलाकारों की वेशभूषा सामान्य ग्रामीणों जैसी ही होती है। अंगराग के लिए सफेद, पीली छुई, खडिय़ा, हल्दी-कुमकुम, काजल, मिट्टी, कालिख, नीला थोथा, मुरदार शंख जैसी सामान्य सुलभ वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं। सारे कलाकार पात्रानुकुल अपना मेकअप स्वयं करते हैं। मंच के तख्त पर संगतकार बैठते हैं और मंच के तीनों ओर दर्शक वर्ग, जो देर रात से शुरु होने वाला नाचा और सुबह की लाली तक पूरी उत्कंठा और सहज  मुग्धता से देखता है और छक कर आनंद लेता है।
नाचा की समूची प्रस्तुति एक थिरकन और लयबद्धता के आरोह-अवरोह में बंधी होती है। कलाकारों की मुद्राओं में हलचल और भावाभिव्यक्तियों में, अभिनय नृत्य और अदाकारी में एक सहज लयबद्धता केवल देखने और महसूस करने की चीज है। नृत्य गीत कब खत्म होकर गम्मत में परिवर्तित हो जाता है, गम्मत फिर कब नृत्य गीत में स्वयमेव ढल जाता है तथा कभी-कभी नृत्य गीत और अभिनय चक्रवात की तरह कैसे एक रस और परस्पर आलिंगित होकर धूम मचा देते हैं- यह नाचा देखकर ही जाना जा सकता है।
नाचा में महिलाओं का निर्वाह पुरुष ही करते हैं। पुरुष ही परी बनते हैं। नचकहरीन और लोटा लिए नजरिया की भूमिका पुरुष ही निभाते हैं। इनकी अदाएं, हावभाव, चालढाल और भावभंगिमाएं इतनी अधिक स्त्रीसुलभ कोमलता और मोहकता के करीब होती हैं कि शिनाख्त करना मुश्किल होता है। नाचा में परी और जोक्कड़ दो ऐसे अद्भूत चरित्र हैं- जिनकी परिकल्पना का निहितार्थ भौंचक कर देता है। परी और जोक्कड़ के वेश विन्यास और रूप सज्जा में कलाकार अपनी पूरी कल्पना शक्ति उड़ेल देते हैं। परी इनके लिए सर्वश्रेष्ठ रूप सौंदर्य और मानवीय सम्मोहन की जीती जागती मिसाल है। उसमें आसमान में उडऩे वाली परी की तरह अलौकिकता का भी हल्का सा स्पर्श रहता है। दर्शक रस विभोर होकर परी की अनोखी अदाओं पर, उसकी लचक और नजाकत पर शुरु से आखिर तक फिदा होकर मुजरे लुटाता है। 'नाचा का जोक्कड़ निरंजन महावर के शब्दों में सर्कस के जोकर, संस्कृत नाटक के विदूषक या अंग्रेजी नाटक के क्लाउन की तरह नहीं है। नाचा का वह सर्वाधिक मुखर और जीवन्त चरित्र होता है। वह हंसाता है, मनोरंजन करता है, हास्य विनोद की सृष्टि बड़ी सहजता से करता है।' पर वह इतना ही नहीं होता। जोक्कड़ छत्तीसगढ़ी नाचा की सम्पूर्ण अस्मिता और अवधारणा के निचोड़ का जीता जागता प्रतीक है। परी और जोक्कड़ ही ऐसे चुम्बकीय चरित्र हैं जो रात-रात भर दर्शकों को बांधे रखने के रहस्य को साथ लिए रहते हैं। ब.व.कारन्त कहते थे कि 'लोक नाट्य का सीधा सादा अर्थ है वह लोगों के साथ रहा है और सदा रहेगा।' नाचा के अपने मूल स्वभाव में देहाती जनता के दैनिक जीवन, सुखदुख, आशा आकांक्षा हास्य उल्लास और आंसू तथा निराशा का एकांतिक एवं परिवेश के प्रति सहज जागरुकता और उसकी बेलाग अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। बाल विवाह को रोकने, विधवा विवाह को प्रचलित करने, छुआछूत की भावना का उन्मूलन करने, ऊंचनीच पर आधारित शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने में नाचा ने कभी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई। असहयोग आंदोलन के दिनों में अछूतोद्धार पर आधारित प्रहसन जमादारिन और स्वतंत्रता के आसपास के दिनों में विधवा विवाह पर मुंशी-मुंशइन नाम से खेले जाने वाले नाटक नाचा की चर्चित प्रस्तुतियां हैं। आज भी निरक्षरता और कुष्ठ उन्मूलन जैसे अन्य कई ज्वलन्त विषयों को लेकर अनेक नाचा मंडलियों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय बखूबी दिया है और दे रहे हैं। 
नाचा का लोकमंचीय रूप आज जिस मुकाम पर है, वहां से हम पीछे मुड़कर देखते हैं- तो जहां तक हमारी दृष्टि जाती है, इसका स्वरूप ऐसी ही नहीं था जैसा कि वह आज है। अपने युग और परिवेश की बदलती तस्वीर की छाया स्वभावत: उस पर पड़ती रही है। एक युग था जब बिजली की व्यापक सुलभता नहीं थी। मशाल की रोशनी ही मंच का सहारा थी। माइक की व्यवस्था का भी सवाल ही नहीं था। गिने चुने वाद्यों में केवल चिकारा, मंजीरा और तबला जिसे कमर में बांधकर कलाकार खड़े-खड़े ही बजाया करते थे। खड़े साज के नाम से परिचित इस नाचा की शुरुआत ब्रम्हानंद के भजनों से होती थी। मंडई मेलों में, पर्वो, त्यौहारों में इस खड़े साज की अपनी लोकप्रियता थी।
फिर धीरे-धीरे मशाल की जगह गैस बत्ती ने ले ली। कुछ अतिरिक्त वाद्यों को शामिल किया गया। ढोलक और हारमोनियम के शामिल हो जाने से नाचा के आकर्षण में वृद्धि हुई। हारमोनियम मास्टर नाचा पार्टी के मनीजर कहलाने लगे। कई प्रसिद्ध नाचा पार्टियां इसी दौर में सामने आई। गुरुदत्त की नाचा पार्टी, मदराजी दाऊ की रिंगनी रवेली साज जिसमें ठाकुर राम, भुलवा, लालू, मदन जैसे अनमोल रत्न शामिल थे। इसी तरह धरम लाल कश्यप की नाचा पार्टी थी। उन दिनों इन नाचा पार्टियों की खूब धूम थी। इसी दौर में फिल्मी चाल चलन, ढंग, अदाएं और द्विअर्थी  संवादों का चलन भी खूब बढ़ा। यह नाचा में परस्पर प्रतिस्पर्धा, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने का दौर था।
इसी बीच लगभग 70 के दशक में छत्तीसगढ़ी की सांस्कृतिक धरती पर नाचा के समान्तर कुछ अनूठे लोक मंचीय प्रयोग हुए। दाऊ रामचंद्र देशमुख जी एवं दाऊ महासिंह चंद्राकर जी जैसे समर्पित, संपन्न और जुनूनी कला साधकों ने क्रमश: चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान जैसी युगांतरकारी छत्तीसगढ़ी -मंचीय प्रस्तुतियां दीं, जिनकी उपलब्धियां अब अंचल के सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर बन चुकी हैं। इन प्रस्तुतियों की भव्यता और चकाचौंध के समान्तर श्री हबीब तनवीर द्वारा एक अलग ही किस्म का लोक मंचीय प्रयोग चलता रहा।
हिन्दुस्तानी थियेटर फिर नया थियेटर के बैनर पर छत्तीसगढ़ी नाचा के कलाकारों, वाद्यों, गीतों एवं बोली को कच्चे माल की तरह अपने ढंग से अपनी प्रस्तुतियों में उन्होंने इस्तेमाल किया और अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा सुनियोजित व्यूहरचना के तहत राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पायी। कुल मिलाकर आशय यही है कि आज नाचा लोक नाट्य अपने विविध रुपों में पूरी ऊर्जा शक्ति और प्रभाव को लिए युग के साथ कदम मिलाता प्रवहमान है। छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की यह सरिता किस सागर में समायेगी- कौन कह सकता है। हम केवल कामना कर सकते हैं कि नाचा की यह आत्मीय तरंगिनी तब तक प्रवाहित रहे, जब तक इस अंचल के लोक जीवन में स्पन्दन है।

पर्दे से निकलकर मुक्केबाजी में चैम्पियन

पर्दे से निकलकर 
मुक्केबाजी में चैम्पियन
- अजीता मैनन
14 वर्षीय, जैनब फातिमा ने दक्षिण कोलकता के व्यस्त किड्डरपुर बाजार क्षेत्र में एक लड़कियों से छेड़छाड़ करने वाले को जबरदस्त घूसे से दांत तोड़कर चकित कर दिया। इस मुस्लिम बहुतायत क्षेत्र में दर्शकों ने लड़की की प्रशंसा की और आगे बढ़ गए। लड़कियों से छेड़छाड़ करने वाले को मालूम न था कि जैनाब व उसकी तीनों बहनें प्रशिक्षित मुक्केबाज हैं, जो कि किड्डरपुर के स्कूल ऑफ फीजिकल कल्चर में घण्टों कठिन अभ्यास करती हैं।
उनके पिता, मोहम्मद कैस (45) जो एक क्रेन चालक हैं, अपनी बेटियों को स्कूल भेजने में हिचकिचा रहे थे। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे अपने बुरके से बाहर निकल कर मुक्केबाजी सीखेंगी। 'उनकी सामुहिक इच्छा शक्ति ऐसी थी कि मुझे उनकी इच्छा के आगे झुकना पड़ा। अब मुझे उनकी उपलब्धि पर गर्व हैं। कितने पिता यह दावा कर सकते हैं कि उनकी बेटियां राष्ट्रीय स्तर की मुक्केबाजी की चैम्पियन हैं?'
छोटी बहिन बुशरा फातिमा, 15 ने बताया कि बहनों में सबसे बड़ी ऐनल फातिमा ने 2004 में यह आरम्भ किया था। वह बादशाह खान शाताब्दि कन्या हाई स्कूल में अपने कक्षा की खिड़की से मुक्केबाजों को स्कूल ऑफ फीजिकल कल्चर के मुक्केबाजी घेरे में अभ्यास करते हुए देखा करती थी, उनमें से कुछ लड़कियां थीं। ऐनल (तब 14 की) मुक्केबाजी सीखना चाहती थी। उसने प्रवेश फॉर्म ले लिया व 'अब्बू' (पिता) के पास गई। वे बहुत गुस्सा हुए लेकिन बहुत समझाने पर, अंत में मान गए।  ऐनल जो अब 18 वर्ष की है और विवाहित है। इससे पहले उसने कई राज्य व राष्ट्रीय स्तर के मुक्केबाजी के मेडल व प्रशस्ति- पत्र प्राप्त किए। छोटी बहनें, जैनब 14, व सौग्रा 12 भी अब बुशरा के साथ मुक्केबाजी घेरे में शामिल हो गई हैं।
पूर्व मुक्केबाज व पश्चिम बंगाल एमेच्योर बॉक्सिंग फैडरेशन के सचिव, मेहराजुद्दीन अहमद, अपना दृष्टिकोण रखते हुए कहते हैं कि- इस इलाके में मुस्लिम लड़कियों के लिए, मुक्केबाजी न केवल मान्यता प्राप्त करने का साधन है वरन यह आय का भी स्रोत है- सामाजिक बंधनों से मुक्ति व अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ण करने का माध्यम होने के साथ-साथ। 'परिवारों को यह समझ आ रहा है कि जहां मुक्केबाजी से औरतें अधिक स्वस्थ होती हैं, अपनी सुरक्षा करने में भी समर्थ होती हैं, वहीं विभिन्न प्रतियोगिताओं से मिलने वाली धनराशि से परिवार की आय भी बढ़ती है। इससे सख्त सामाजिक नियमों में ढिलाई में मदद मिलती है।' अहमद ने महिलाओं के लिए स्कूल में मुक्केबाजी 1998 में आरम्भ की थी। वे 150 से अधिक भावी मुक्केबाजों, जो स्कूल के काम चलाऊ घेरे में प्रशिक्षण लेते हैं, के वरिष्ठ कोच हैं। वर्ष 1998 से लगभग 40 महिलाओं ने मुक्केबाजी का प्रशिक्षण लिया और अनेक खेल प्रतियोगिताओं, जैसे कलिंग कप व अन्य राज्य व राष्ट्रीय मुक्केबाजी चैम्पियनशिप इत्यादि में प्रशंसा अर्जित की। 
जैनब बताती है  कि हमारे मण्डल में अधिकांश लड़कियां जैसे-तैसे स्कूली शिक्षा पूरी कर विवाह कर लेती हैं। लेकिन हमें मान्यता और अपने व अपने माता-पिता के लिए पहचान चाहिए थी। मैंने ऐसी लड़कियां देखी हैं जो मैडल जीतती हैं तो उनको समुदाय इज्जत देता है, मैडल के साथ धन भी आता है।
बुशरा, जिसके तीन छोटे भाई भी हैं, कहती है- 'जैनब व मैं हर
साल अपनी पढ़ाई व अन्य सभी के खर्च के लिए पर्याप्त पैसा जीतती हैं,' वह आगे बताती है, 'पिताजी की आय कभी भी सात बच्चों की शिक्षा के लिए पूर्ण नहीं होती थी। ऐनल ने मुक्केबाजी के माध्यम से रास्ता दिखाया और बाकी हम सभी उसके बताए रास्ते का अनुसरण कर रहीं हैं।' जैनब व बुशरा ने कलिंग कप में रजत मैडल व पुरस्कार राशि जीती है।
परंतु यह सब इतना आसान नहीं था। ऐेसी सामाजिक पृष्ठभूमि जिसमें लड़कियां पर्देे के पीछे रहती और दबे स्वर में रहती हैं, इन बहनों को कई साल लग गए सामाजिक अस्वीकृति पर विजय प्राप्त करने में। उनकी मां रूकसाना बेगम 40, एक गृहणी, जिसने अपनी जिन्दगी परदे में बिता दी, एकदम चकित सी रह गई। वह कहतीं है- मेरी बेटियां टी-शर्ट पहने सबके सामने मुक्केबाजी करती! मुझे सामाजिक बहिष्कार का डर था। लेकिन उन्होंने बताया कि अन्य मुस्लिम लड़कियां भी ऐसा कर रही हैं। बेशक कुछ ही। वास्तव में एक शुरूआत तो हुई। मुझे अपने जीवन में कोई अवसर नहीं मिला लेकिन मैं यह देख पाई कि मेरी बेटियां मुक्केबाजी से अपना भविष्य उज्जवल कर रहीं हैं। इसलिए मैं अपनी सहमति को रोक नहीं पाई। 
 बुशरा याद करती है, 'स्थानीय लोग पहले तो हमारे प्रयासों से कु्रद्ध थे। उन्होंने हमारे माता-पिता को सचेत किया था कि स्कूल में लड़कों के साथ मेल-जोल करके व अभद्र कपड़े पहन कर हम नैतिक तौर पर भ्रष्ट हो जाएंगे। जब हमने प्रतियोगिता जीतना आरम्भ किया तब हमारा नाम समाचार पत्रों में छपने लगा और हम पुरस्कार राशि के रू. 3, 500 से 11, 000  तक नियमित घर लाने लगे, हमने पाया कि लोग हमारे पास आने लगे और हमें बधाई देने लगे।'
परंतु शमीम मलिक 15, कहती है कि उसका अनुभव अलग था- मुझे अपने बड़े भाई व अन्य स्थानीय युवाओं से सहयोग मिला। उन्होंने बड़ों को बताया कि लैला अली, जो एक मुस्लिम लड़की है, एक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की मुक्केबाज है। आज मुस्लिम युवा उन लड़कियों का सहयोग कर रहे हैं जो पढ़ रहीं हैं व व्यवसाय में आना चाहतीं हैं या खेल में अच्छी हैंं। शमीम दूसरे फायदे को भी स्वीकार करती है- मुझे यात्रा करना अच्छा लगता है। प्रतियोगिताों के लिए हमें पूर्ण प्रयोजन पर विभिन्न शहरों व नगरों में जाना होता है। सामान्य स्थिति में इतनें नए स्थानों को नहीं देख पाती, न ही इतने नए लोगों से मिल पाती।
 लेकिन कुछ दिक्कतें भी हैं। अहमद मानते हैं कि इन चैम्पियन मुक्केबाजों की सामाजिक आर्थिक स्थिति अत्यन्त दुखदायी है। उदाहरण के लिए फातिमा बहनें एक कमरे के घर में अपने भाइयों, माता-पिता व तीन बिल्लियों के साथ रहतीं हैं। उनको खुराक कम ही मिलती है- किसी भी स्थिति में एक मुक्केबाज की प्रामाणिक खुराक के बराबर नहीं। वे घर के सारे काम करतीं हैं, स्कूल जातीं हैं और फिर प्रति सायं तीन घण्टे का अभ्यास करना होता है। यह एक कठिन जीवन है, प्रबल इच्छा-शक्ति से ही इनको सफलता मिलती है। अधिक से अधिक वे स्कूल की 20 रुपए प्रतिमाह का अभ्यास शुल्क माफ कर सकते हंै। एम.पी. लोकल एरिया डेवेलपमेंट फण्ड ने स्कूल में एक व्यायामशाला प्रदान की है। जहां महिला मुक्केबाज अब नियमित रूप से अभ्यास व व्यायाम कर सकते हैं लेकिन पोषण व स्वास्थ्य देखरेख की समस्या अभी भी सुलझाई जानी बाकी है।
मुस्तरी बेगम, 46, भावी मुक्केबाज सिमी परवीन की मां कहती है, 'उसके चेहरे पर दो बार चोट आई है मुझे डर है कि कहीं जीवन भर के लिए दाग न रह जाए। हमें उसके विवाह के लिए लड़का ढूंढऩे में कठिनाई होगी। ट्रैकसूट में इधर-उधर घूमना पसंद करने वाली 14 वर्षीय सिमी अपनी मां की चिन्ता पर हंसती है और कहती है कि  'मैं एक-दो चोटों से नहीं घबराती।' इस मुस्कराहट के पीछे वास्तव में प्यारा सा सपना है- सिमी के पिता मोहम्मद सैफुद्दीन बैंक में सुरक्षा कर्मी हैं और वह कहती है कि, 'नौकरी करना चाहती हूं, और अपने पिता, जिन्होंने मुक्केबाजी में मेरा साथ दिया, को खुशी देना चहती हूं। महिला मुक्केबाजों के लिए रेलवे, पुलिस व आर्मी में नौकरियां हैं। यदि मैं एक अच्छी मुक्केबाज हूं, तो मैं जरूर ही नौकरी ढूंढ लूंगी।'
कितने ही पहले के मुक्केबाज, जैसे रजिया बेगम 22, को मुक्केबाजी रैफरी की नौकरी मिल गई है। लेकिन कइयों ने विवाह के लिए नौकरी छोड़ दी है। अहमद कहते हैं- 'यदि लड़कियां कटिबद्घ हों व मुक्केबाजी में बनी रहें, यह उनके लिए धन व प्रसिद्घी दिला सकता है,' वह आगे कहते हैं, 'एक खास उम्र के बाद लड़कियों को मुक्केबाजी घेरे में भेजने के लिए माता-पिता को मनाना बहुत कठिन है।' तथापि, महिला मुक्केबाजों की बढ़ती सफलता से सामाजिक बंधन धीरे-धीरे टूट रहे हैं। अभी 13 लड़कियां 13-15 के उम्र वर्ग में स्कूल में प्रशिक्षण ले रही हैं और वे सभी सम्भावित मैडल विजेता हैं। 
(विमेन्स फीचर सर्विस)

जीवन के रहस्य तलाशती: रश्मि भल्ला

जीवन के रहस्य तलाशती: रश्मि भल्ला
रंग संसार के कला जगत में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी रश्मि के लिए कला परमानंद है। उन्होंने अपने कार्य अपने कौशल से सभी को रिझा दिया है। आर्ट एंड क्राफ्ट की कई विधाओं में कार्य कर चुकी रश्मि के लिए कोई भी विधा कठिन नहीं है, लेकिन चित्रकला में वे सुकून पाती हैं। एब्सट्रेक्ट आर्ट की भाषा उन्हें अपनी बोली सी लगती है।
रश्मि के चित्र जीवन के गहरे रहस्य के साथ सुख दुख को भी अपने अंदर समेटे हुए हैं। रश्मि कहती हैं जीवन के रंग खट्टे-मीठे फल की तरह प्रकृति के भीतर बिखरे पड़े है । यही वजह है कि विभिन्न चटख रंगों से सजे रश्मि के चित्र प्रकृति के सौंदर्य को अपने भीतर समेटे हुए जान पड़ते हैं। गत वर्ष उन्होंने एक कला श्रृंखला में प्रकृति पर केंद्रित लगभग 100 चित्र बनाएं हैं।
रश्मि के अनुसार मानव के हर प्रश्न का जवाब प्रकृति के पास है। समय के फेर में पड़कर व्यक्ति  जीवन के इस रंग को झुठलाने की कोशिश करता है तथा यथाशीघ्र बहुत कुछ पाने की इच्छा जीवन को और अधिक जटिल बना देती है, जीवन की इसी जटिलता को रश्मि अपने चित्रों के माध्यम से बेहद सरलता से समझा देती हैं। वे कहती हैं सरलता जीवन के हर पहलू में है और इसी सरलता में सफलता छिपी है। 
इसी प्रकार जीवन में ढेरों सवाल है और उनके ढेरों अनोखे जवाब। रश्मि के बनाए अमूर्त चित्रों में इन सवाल-जवाब को महसूस किया जा सकता है। रश्मि अपने अमूर्त चित्रकला से बदलती दुनिया को परिचित कराने की कोशिश कर रही हैं।  उनका कहना है कि चत्रकारी में तब तक कोई आनंद नहीं होता जब तक कला एवं कलाकार  के बीच भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता। मूर्त और अमूर्त चित्रकला के बारे में उनका कहना है कि मूर्त एक निर्धारित प्रसन्नता पैदा
करने की क्षमता रखता है और अमूर्त अनन्त प्रसन्नता पैदा कर देता है।
अभिव्यक्ति के लिए चित्रकला ही क्यों? वे कहती हैं- मन की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का चित्रकारी एक बेहद आसान माध्यम है। लोग कहते हैं कि हमें चित्रकारी नहीं आती और वे पीछे हट जाते हैं। ऐसे लोगों को गुफाओं में जाकर चित्रकारी का क, ख, ग सीख लेना चाहिए, दरअसल कुछ भी पाने के लिए लगन और जिगर की जरूरत होती है। चित्रकारी सम्पूर्ण ब्रहण्ड की भाषा है जिसे आंखों से पढ़ा जाता है। रश्मि के चित्रों को भी हम कहानी की तरह आसानी से पढ़ सकते हैं।
बचपन में खेलों में रूचि रखने वाली रश्मि अपनी मां को सिलाई-बुनाई, कढ़ाई करते हुए देखा करती थी तभी से कला के प्रति उनका रूझान जागा। 'मेरी रूचि देखकर मां ने मुझे चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया। रंगों के लिए मुझे सोचना नहीं पड़ता लेकिन फिर भी मुझे नीला रंग सबसे ज्यादा आकर्षित करता है। पिछले दिनों मैं भिलाई स्टील प्लांट घूमने गई थी अत: आजकल प्लांट को ही अपना विषय बनाकर काम कर रही हूं।' बच्चों के साथ काम करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। इसी उम्र में हम बच्चों को सही आकार में ढाल सकते हैं। अपने अमूर्त चित्रों के बारे में उनका कहना है कि हर इंसान के जीवन में तनाव होता है और इस तनाव को एक महिला सबसे ज्यादा अनुभव कर सकती है। मैंने अपने चित्रों में इसी अनुभव को ढालने का प्रयास किया है। 
रश्मि आर्डर पर भी काम करती है। उन्होंने भगवान के चित्र भी आर्डर पर बनाएं है। जैसे लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती। शिव पर भी उन्होंने काम किया है। चित्रों का अपने जीवन में महत्व के बारे में रश्मि का कहना है कि जब हम नेचर में जाते हैं तो एक शांति का अनुभव होता है चित्र भी उसी तरह का शांति प्रदान करते हैं। भिलाई के कृष्णा पब्लिक स्कूल में चित्रकला की अध्यापिका रश्मि जिंदगी को रंगों की तरह खुशनुमा बनाना चाहती हैं। (उदंती)
परिचय 
 16 फरवरी 1974 को जन्मी रश्मि भल्ला ने बीएससी (बायो), एमए (अर्थशास्त्र), मल्टीमीडिया कोर्स, इंटरमीडिएट जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट मुम्बई से किया है। भिलाई के नेहरू आर्ट गैलरी में गु्रप प्रदर्शनी के साथ तीन एकल प्रदर्शनी। नेहरू आर्ट गैलरी में पेटिंग और स्कलप्चर का संग्रह। साउथ सेंट्रल जोन कल्चरल सेंटर नागपुर एवं ललित कला अकादमी दिल्ली में भागीदारी। विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित  रश्मि का  ज्यादातर समय अपने हॉबी आर्ट स्कूल में बितता है जिसे वे स्वयं संचालित करती है। पता - हॉबी आर्ट स्कूल, 106, लक्ष्मी कॉम्प्लेक्स, रिसाली, भिलाई। मोबाइल : 9229477679 Email- rashmi16.2009@rediffmail.com

डलहौजी- कुदरत का सुन्दर नजारा

डलहौजी 
कुदरत का  सुन्दर नजारा
- अशोक सरीन
जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश के शिमला नगर को बसाने का श्रेय लेफ्टिनेंट रास (1819) व ले. कैंडी 1821 को जाता है। उसी तरह डलहौजी जैसे जंगली क्षेत्र को लार्ड डलहौजी (1854) ने बसाकर अंग्रेजों की ठण्डे पहाड़ और एकांत स्थल में रहने की इच्छा को पूरा किया।
सन् 1850 में चंबा नरेश और ब्रिटिश शासकों के बीच डलहौजी के लिए एक पट्टे पर हस्ताक्षर हुए थे। लार्ड डलहौजी यहां रहने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम डलहौजी रखा गया।
समुद्रतल से 2039 मीटर ऊंचाई पर स्थित डलहौजी 13 किमी में फैला एक ऐसा हरयावल टापू है जहां कुछ दिन गुजारना स्वयं में अनोखा अनुभव है। पांच पहाडिय़ों बेलम, काठगोल, पोटरेन, टिहरी और बकरोता से घिरा डलहौजी सुन्दर और स्वच्छ शहर है। यहां हिन्दी, पंजाबी, तिब्बती और अंग्रेजी भाषी लोग रहते हैं।
डलहौजी देवदार के घने जंगलों में घिरा हिमाचल का प्रमुख पर्यटक स्थल है। यहां की ऊंची-नीची पहाडिय़ों पर घूमते हुए पर्यटक रोमांचित हो उठता है। पहाडिय़ों के बीच कल-कल बहती चिनाब, ब्यास और राबी नदियां, दूर-दूर तक फैली बर्फीली चोटियां डलहौजी की रमणीयता को चार चांद लगा देती है। पंडित जवाहर लाल नेहरू को डलहौजी बहुत पसंद था। वे इसे हिमाचल की गुलमर्ग कहते थे।
सत्तधारा - डलहौजी से डेढ़ किलोमीटर दूर सतधारा नाम का चश्मा है। पहले यहां सात धाराएं बहती थीं पर अब एक मोटी दार ही रह गई है। यह जल कई रोगों को निवारण करता है। यहां पर्यटक विभाग का कैफेटेरिया है जहां पर्यटक चाय नाश्ता कर तरोताजा होते है।
पंचपुला - यहां के बड़े डाकघर से दो किमी की दूरी पर स्थित पंचपुला एक सुंंदर सैरगाह है। पंचपुला का अर्थ है पांच पुल। इन छोटे-छोटे पांच पुलों के नीचे से कल-कल बहती जलधारा देखने योग्य है। यहां एक प्राकृतिक जलकुंड भी है, जिसके निर्मल जल में चमकते पत्थर बहुत आकर्षक लगते हैं।
अजीत सिंह की समाधि - डलहौजी का विशेष आकर्षण बीसवी शताब्दी के पितामह अजीत सिंह की समाधि है। सन् 1905 में जब सारे पंजाब की पुलिस उनके पीछे लगी थी तब अजीत सिंह, जो शहीद भगत सिंह के चाचा थे, मुसलमान के वेष में यहां पहुंचे थे। यहीं के काबुल के रास्ते ईरान, इटली, ब्राजील में देश की सेवा करते रहे। चालीस वर्षों तक देश के बाहर रहने के बाद 1946 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें स्वदेश बुला लिया। 14 अगस्त 1947 को अजीत सिंह डलहौजी में थे। उन्होंने रात 12 बजे भारत के स्वतंत्र होने की घोषणा सुनी और सुबह पांच बजे शरीर त्याग दिया। अजीत सिंह की समाधि आज भी देश प्रेमियों को उस बहादुर सपूत की याद दिलाती है।
कालाटोप - पर्यटकों के लिए डलहौजी से आठ किमी दूर और समुद्रतल से 2440 मीटर ऊंचाई पर स्थित कालाटोप सर्वोत्तम पिकनिक स्थल है। कालाटोप के प्राकृतिक दुश्य बड़े मनोरम लगते हैं। यहां भौंकने वाला हिरण और काले भालू देखने को मिलते हैं। कालाटोप तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग और रहने के लिए वन विभाग का विश्राम गृह है।
बकरोता की पहाडिय़ां - डलहौजी से पांच किमी दूर 2085 मी ऊंचाई पर बकरोता पहाडिय़ों से हिमाच्छादित चांदी से चमकते पहाड़ देखने में बड़े सुन्दर लगते हैं। प्रकृति प्रेमी इन्हें देख रोमांचित हो उठते है।
डायन कुंड - डलहौजी से दस किलोमीटर दूर 2750 मीटर ऊंचाई पर डायन कुंड स्थित है। यहां चिनाब, ब्यास और रावी नदियां पास-पास बहती है। तीनों नदियों का सांप की तरह बलखाकर बहना सैलानियों को आश्चर्य चकित कर देता है। कुदरत का ऐसा सुन्दर नजारा शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले।
सुभाष बावली - आजाद हिन्द फौज के कर्मठ नेता सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ कलकत्ता की प्रेसीडेंसी जेल में विष देकर उन्हेें मार देने का अंग्रेजों द्वारा सुनियोजित षडय़ंत्र चलाया जा रहा था। जब ब्रिटिश सरकार को उनकी बीमारी की सूचना मिली। तब उन्हें कुछ समय के लिए पैरोल पर रिहा किया गया। डलहौजी में नेता सुभाष बावली है। इसके पास ही नेता जी की याद में सुभाष चौक बनाया गया है। डलहौजी से यह स्थान एक किलोमीटर दूर है।
खजियार - पर्यटक डलहौजी घूमने आए और खजियार न जाए तो यात्रा अधूरी रहेगी। समुद्रतल से 1890 मीटर ऊंचाई पर स्थित खजियार पर्यटकों के लिए प्रकृति का अनुपम उपहार है। देवदार के घने ऊंचे वृक्षों के बीच डेढ़ किलोमीटर लंबा और एक किलोमीटर चौड़ा तश्तरीनुमा हरा-भरा मखमली घास का मैदान और बीच में छोटी सी झील के सौंदर्य को पर्यटक निर्मिमेष सा देखता रह जाता है।
इन्हीं विशेषताओं के कारण 7 जुलाई 1992 के दिन स्विटजरलैंड के राज प्रतिनिधि टी बलेजर ने खजियार को मिनी स्विटजरलैंड के रूप में नामांकित किया था। खजियार को विश्व का 160 वां मिनी स्विटजरलैंड होने का गौरव प्राप्त है। डलहौजी से खजियार 27 किमी दूर है। यहां रात ठहरने और खाने पीने के लिए भव्य होटल और पर्ण कुटीरें हैं।
डलहौजी में जहां कई दर्शनीय स्थल है वहीं यहां देस के जाने-माने लोगों की यादें रची बसी है। सन् 1883 में देश के महान कवि एवं शिक्षक गुरुवर रविन्द्रनाथ टैगोर यहां रहे थे और उन्होंने डलहौजी के नैसर्गिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर एक कविता लिखी थी।
सन् 1925 में स्व. जवाहर लाल नेहरू अपने परिवार के साथ यहां रायजादा हंस राज की कोठी में ठहरे थे। पंजाबी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक नानक सिंह ने अपनी जीवन का काफी साहित्य इस शांत पहाड़ी शहर
में लिखा।
पता-सिटी लाईट प्रिंट3र्ज, पालमपुर-176061, कांगड़ा (हि.प्र.)
कैसे पहुंचे
निकटतम हवाई अड्डा- कागंरा से 140 किमी, अमृतसर से 192 व जम्मू से 190 किमी। रेल्वे स्टेशन- पठानकोट से 80 किमी। सड़क मार्ग- दिल्ली चंडीगढ़, पठानकोट, शिमला आदि स्थानों से नियमित बसें उपलब्ध। डलहौजी में कहां ठहरें-डलहौजी में समस्त सुविधाओं से युक्त डीलक्स पांच सितारे होटलों से लेकर मध्यम श्रेणी वाले होटलों तथा गेस्ट हाउसों की श्रृंखला उपलब्ध है। 
डलहौजी कब जायें- उपयुक्त समय - अप्रैल से नवंबर तक।
प्रदेश के पर्यटन विभाग से क्षेत्र का नक्शा व ब्रोशर
प्राप्त कर सकते हैं।

उत्साही का नाम पुराण

उत्साही का नाम पुराण
- राजेश उत्साही
जब मेरा जन्म हुआ तो मेरा नाम राजेश रखा गया। यह वह जमाना था जब ज्यादातर लोग अपने बच्चों के नाम फिल्म एक्टरों के नाम पर रखते थे।  स्कूल में नाम लिखवाया गया राजेश कुमार पटेल। साठ के दशक में अगर लड़कों का नाम कुछ आधुनिक किस्म का होता था तो उसके साथ कुमार जरूर जोड़ा जाता था।
मैं नई जगह, नए लोगों के बीच आया हूं। हर कोई जानना चाहता है कि मेरा यह नाम कैसे बना, किसने रखा। पहले भी लोग मुझसे पूछते रहे हैं। मैं बताता भी रहा हूं। मैंने सोचा एक नाम पुराण भी हो जाए।
बात पिता से शुरू करता हूं। उनका नाम है प्यारेलाल पटेल। अपनी रेल्वे की नौकरी के दौरान वे नाम से कम सरनेम 'पटेल' से ज्यादा जाने जाते रहे हैं। वहीं अपने परिचितों और रिश्तेदारों के बीच वे घरेलू नाम 'दुर्जन' से मशहूर थे। दुर्जन यानी बुरा आदमी। इस अर्थ को जानने वाले लोग उनके बारे में कुछ ऐसी ही राय बना लेते थे। पिता इससे बहुत परेशान थे। अक्सर अपनी मां से कहते कि ये कैसा नाम रख दिया। कुछ और नहीं मिला। मेरी दादी जिनका अपना नाम-जानकी- बहुत सुंदर था बेचारी नाम के इस अर्थ से अपरिचित थीं। असल में पिता का जन्म दीवाली की दूज को हुआ था, सो उन्हें दूजन कहा जाने लगा। यह दूजन ही बिगड़ते-बिगड़ते दुर्जन हो गया। अब चूंकि नाम की बात चल रही है इसलिए आगे बढऩे से पहले एक बहुत ही दिलचस्प संयोग की चर्चा भी करता चलूं। दादी का नाम जानकी था, तो नानी का देवकी। मां का नाम गणेशी और मौसियों का नाम दुर्गा और शारदा। बात यहीं न रूकी। विवाह हुआ तो सासूजी का नाम पार्वती निकला। यानी आसपास देवियां ही देवियां।
तो पिता अपने इस घरेलू नाम से बहुत दुखी रहे। शायद इसलिए उन्होंने तय किया होगा कि वे बच्चों के नाम सोच समझकर रखेंगे। जब मेरा जन्म हुआ तो मेरा नाम राजेश रखा गया। यह वह जमाना था जब ज्यादातर लोग अपने बच्चों के नाम फिल्म एक्टरों के नाम पर रखते थे। लेकिन तब तक राजेश खन्ना का उदय नहीं हुआ था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मेरा नाम किसी फिल्म एक्टर से प्रभावित था।
स्कूल में नाम लिखवाया गया राजेश कुमार पटेल। साठ के दशक में अगर लड़कों का नाम कुछ आधुनिक किस्म का होता था तो उसके साथ कुमार जरूर जोड़ा जाता था। इसी तरह लड़कियों के नाम के साथ कुमारी। राजेश कुमार पटेल आठवीं तक यानी 1972 तक चलता रहा। दोस्तों और स्कूल में पटेल के नाम से पुकारा जाता रहा। बचपन मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में बीता। माधोसिंह और माखनसिंह के नाम उस समय वहां दस्यु के रूप में कुख्यात थे। मन में ख्याल आया कि अपन भी या तो प्रख्यात होंगे या फिर कुख्यात। उसी समय साहित्य में कुछ रूचि जागी तो लगा नाम भी कुछ अलग होना चाहिए। बस राजेश कुमार पटेल के पीछे 'उत्साही' जोड़ दिया। इनवरटेड कॉमा लगाकर।
याद नहीं कि उत्साही कैसे सूझा। हां इसकी प्रेरणा पिता से मिली। जब- तब मैं चुपके से उनके कागजात और डायरी उलटता-पलटता रहता था। उनमें मुझे कहीं-कहीं उनके नाम के साथ 'रजवाड़ा' लिखा हुआ मिला। उसी से यह भी समझ आया कि पिता कविताएं ही नहीं कहानियां भी लिखते थे। हालांकि वे कहीं प्रकाशित नहीं हुईं। उनमें कुछ कविताएं ऐसी भी थीं जो शायद उस समय तो कहीं प्रकाशित हो भी नहीं सकती थीं। और ईमानदारी से कहूं तो उन्हें पढऩे की मेरी उम्र भी नहीं थी। पर मैंने पढ़ डालीं। उनका कहना है कि एक कहानी उन्होंने पचास-साठ के दशक की मशहूर पत्रिका मनोहर कहानियां में प्रकाशन के लिए भेजी थी। तब मनोहर कहानियां अपराध कथाओं की पत्रिका नहीं थी, बल्कि अपने नाम के अनुरूप उच्च कोटि के साहित्य की पत्रिका थी। पत्रिका की ओर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने देखा कि उनकी कहानी पर आधारित एक फिल्म सिनेमाघरों में धूम मचा रही है। यह फिल्म थी मदनमोहन के संगीत से सजी अदालत। जिसके गाने आज भी उतने ही कर्णप्रिय हैं। दो गाने तो मुझे भी बहुत अच्छे लगते हैं,' यूं हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए और जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए। दोनों ही लता जी ने गाए हैं और राजेन्द्र कृष्ण ने लिखे हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है यह पिता ही जानते हैं। पर हां मैंने उनके पास रेल्वे के पुराने कागजों पर पेंसिल से लिखी यह कहानी देखी है।     
तो राजेश कुमार पटेल 'उत्साही' चल पड़ा। जहां मौका मिलता अपन यह नाम लिखने से नहीं चूकते। लिखते-लिखते लगा कि यह कुछ ज्यादा ही लंबा है। क्यों न इसे छोटा किया जाए। मैंने सोचा 'कुमार' तो बहुत ही आम है। और यह हर किसी के नाम में है। इसके नाम में होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तो कुमार साहब को चलता किया। रह गया राजेश पटेल 'उत्साही'।
सबलगढ़ से इटारसी, खंडवा होते हुए मैं होशंगाबाद जा पहुंचा था। 1980 के आसपास तक मेरी पहचान होशंगाबाद कस्बे में एक छोटे-मोटे लेखक के रूप में स्थापित हो गई थी। जब भी किसी को परिचय देना होता तो राजेश पटेल 'उत्साही' कहना बड़ा उबाऊ-सा लगता। जो मेरी साहित्यिक अभिरूचि से परिचित नहीं होते वे पूछते ये पटेल तो ठीक है पर ये 'उत्साही' क्या है। क्या यह गोत्र है? धीरे-धीरे मुझे भी अपने नाम में पटेल कुछ अखरने लगा। कभी-कभी लगता कि पटेल बोलना कुछ ऐसा हो जाता है जैसे हम सामने वाले के सिर पर हथौड़ा मार रहे हों। शायद यह ट वर्ण की वजह से महसूस होता था। मैंने विचार किया कि पटेल की वाकई जरूरत है क्या। मुझे इसका केवल एक ही उपयोग समझ आया कि यह जाति का कुछ-कुछ अंदाजा देता है। इसको हटाने का केवल एक नुकसान है कि जात-बिरादरी में जो लोग अपनी कन्या के लिए योग्य वर तलाशते रहते हैं, आप उनकी नजरों से दूर हो जाएंगे। लेकिन मेरे लिए यह कोई अफसोस की बात नहीं थी। क्योंकि न तो जात-बिरादरी में मेरा विश्वास था (और न अब है) और न तब मैं इतना योग्य था कि किसी कन्या के अभिभावकों की नजरों में चढ़ पाता। तो मैंने बिना देर किए अपने नाम से 'पटेल' साहब को भी विदा कर दिया। अब रह गया राजेश 'उत्साही'। कुछ मुश्किल अब भी बाकी थी। लोग पूछते कि राजेश के बाद क्या छूटा हुआ है। मुझे समझ आया कि यह सारी गड़बड़ उत्साही को इनवरटेड कोमा में रखने से हो रही है। तो एक दिन उत्साही को इनवरटेड कॉमा से भी आजाद कर दिया। लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती। यह तो इंटरवल है।
शादी हुई तो उसके निमंत्रण पत्र में भी मैंने केवल राजेश उत्साही ही लिखा था। लिखा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि निमंत्रण पत्र मैंने अपने हाथ से बनाया था। असल में निमंत्रण पत्र सायक्लोस्टाइल करके बनाया गया था। स्टेंसिल मैंने ही काटा था। एकलव्य में काम शुरू किया तो वहां के सब कागजों में भी यही नाम है। मेरे नाम से पटेल साहब तो ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। हालांकि अपन भी किसी गधे से कम तो नहीं हैं। एकलव्य में कभी कोई पुराना दोस्त या परिचित फोन पर कह देता कि पटेल से बात कराओ तो फोन सुनने वाला आश्चर्य से पूछता कौन पटेल। यहां तो कोई पटेल नहीं है। कभी तो वे मुझ से ही पूछ लेते कि अपने यहां पटेल कौन है। सामने वाला कहता कि राजेश पटेल। तो भी मुश्किल होती। क्योंकि एकलव्य में एक दो नहीं सात राजेश थे। अंतत: सामने वाला या तो कहता कि चकमक वाला राजेश या होशंगाबाद वाला राजेश, या उसे भी याद आ जाता कि अरे यह बंदा अपने नाम में उत्साही भी लगाता है, तब जाकर मामला निपटता। अब तो एकलव्य में मेरे नाम से राजेश भी गायब हो गया है, केवल उत्साही ही लोगों की जबान पर होता है।
राज की बात यह भी है कि मेरे दो और नाम थे, जो कुछ ही दिन रहे। बात 1979-80 की है। अपन कालेज में थे- होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय में। बीएससी करने की कोशिश कर रहे थे। कालेज में लायब्रेरी थी। लायब्रेरी को लेकर कुछ शिकायतें थीं। चूंकि सीधे-सीधे कालेज वालों से नहीं भिड़ा जा सकता था। सोचा क्या करूं। उन दिनों अखबार में सम्पादक के नाम पत्र लिखने का जुनून सवार था। हर दूसरे-तीसरे दिन एकाध पत्र दैनिक भास्कर, भोपाल में छपता ही था। पर वास्तविक नाम से एक भी पत्र नहीं लिखा जा सकता था। मैंने एक और नाम बनाया-यूआर भारतीय। यानी कि उत्साही राजेश भारतीय। और इस नाम से लायब्रेरी में फैली अराजकता का लंबा चि_ा लिख भेजा। पत्र छपते ही लायब्रेरी में हड़कम्प मच गया। व्यवस्थाएं ठीक होने लगीं। मुझे लगा कि यह तो कारगर तरीका है। जिसके बारे में खुलकर नहीं लिख सकते उसके बारे में इस नाम से लिखो।
उसके बाद हाल यह था कि अखबार में एक ही दिन राजेश उत्साही और यूआर भारतीय के नाम से पत्र छपते थे। दोस्तों को भी नहीं मालूम था कि वह भी मैं ही हूं। यूआर भारतीय की इतनी चर्चा थी कि जहां-तहां लोग पूछने लगे कि यह कौन बंदा है। क्योंकि कस्बे में अखबार में पत्र लिखने वाले सब एक-दूसरे को जानते थे। और सबमें यह होड़ लगी रहती थी कि किसके ज्यादा पत्र छपेंगे। इस नाम से मैंने कुछ लेख भी लिखे, जो अखबारों में छपे। लोकप्रियता का आलम यह था कि होशंगाबाद के एक लल्ला भारतीय नामक सज्जन ने अपने आपको यूआर भारतीय कहना शुरू कर दिया। बाद में मैंने भारतीय जी को भी विदा कर दिया।
अभी भी मैं किसी के लिए मैं 'राज' हूं, तो किसी के लिए 'राजू' भी। अपने रंग के कारण 'कालिया' नाम से भी मुझे पुकारा जाता रहा। मेरी ससुराल में मुझे 'माथापच्ची' कहा जाता है। माथापच्ची चकमक बाल विज्ञान पत्रिका का नियमित और लोकप्रिय कालम रहा है, जिसका मैंने वर्षों संपादन किया।
   यह मुझे बहुत पहले मालूम हो चुका था कि हिन्दुस्तान में मेरे अलावा केवल एक और उत्साही हैं। वे हैं नामी गिरामी शायर बेकल उत्साही। कहा जाता है कि उनका मूल तख़ल्लुस बेकल था, उत्साही नाम उन्हें नेहरू जी ने दिया। फिर मुझे दो और उत्साही मिले। एक नटवर पटेल 'उत्साही', जो भोपाल में रहते थे। वे भी साहित्य में रूचि रखते थे। उनसे नाम के कारण ही मित्रता हुई। फिर वे भीड़ में कहीं खो गए। अब कहीं नजर नहीं आते। दूसरे हैं राजस्थान के महेन्द्रसिंह 'उत्साही'। वे भी कुछ लिखने-पढऩे से सरोकार रखते हैं। इंटरनेट पर जब गूगल पर एकाउंट खोला तो पहली ही बार में केवल उत्साही नाम से ही मिल गया। तो मैं कह सकता हूं कि कम-से-कम नाम के मामले में तो अपन कुछ 'निराले' हैं ही, भले ही 'निराला' न हों।

जीत की खुशी और हार का दंश

जीत की खुशी  और हार का दंश
अक्सर हम जीतने पर खुशी से झूम उठते है और हाथों को हवा में लहराते है और इसके विपरीत हारने पर गर्दन व कंधे को झुका 
लेते हैं।
जब हम किसी प्रतियोगिता में जीतते हैं, तो हाथों को हवा में उठाकर लहराना, मुट्ठी बांधना वगैरह जैसे हाव-भाव का प्रदर्शन करते हैं। दूसरी ओर हार जाने पर आम तौर पर गर्दन व कंधे झुक जाना, कंधे उचकाना आम बात है। और ऐसे हाव-भाव लगभग सार्वभौमिक हैं यानी लगभग सभी संस्कृतियों में विजेता और पराजित एक-सी हरकतें करते हैं। तो क्या ये हाव-भाव नैसर्गिक हैं, जन्मजात हैं? इस सवाल का जवाब पाने के लिए कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय की जेसिका ट्रेसी और सैन फ्रांसिस्को राज्य विश्वविद्यालय के डेविड मात्सूमोतो ने नेत्रहीन एथलीट्स का अवलोकन किया। शोधकर्ताओं ने इस अवलोकन के लिए अवसर चुना था 2004 में आयोजित पैरालिंपिक (विकलांग खेलकूद स्पर्धा)। इस स्पर्धा में कई नेत्रहीन एथलीट्स ने भी हिस्सा लिया था। मात्सूमोतो और ट्रेसी ने विजयी व पराजित नेत्रहीन एथलीट्स के फोटोग्राफ्स खींच लिए। बाद में इनकी तुलना उन्होंने सामान्य (दृष्टियुक्त) एथलीट्स के इसी तरह के फोटोग्राफ्स से की। तुलना ने दर्शाया कि जन्मांध एथलीट्स जीतने-हारने पर उसी तरह के हाव-भाव प्रदर्शित करते हैं, जैसे सामान्य एथलीट्स करते हैं। जाहिर है जन्मांध एथलीट्स ने ये हाव-भाव देखकर तो नहीं सीखे होंगे। शोधकर्ताओं के अनुसार यह एक प्रमाण है कि विजयी व पराजित हाव-भाव नैसर्गिक हैं। अब अगला सवाल आता है। आखिर इन हाव-भावों का जैव विकास की दृष्टि से क्या महत्व रहा होगा कि ये विकसित हुए। मात्सूमोतो को लगता है कि जीतने के बाद स्पष्ट दिखने वाली चेष्टाएं करना शायद इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इससे शेष समाज पर दबदबा बनाने में मदद मिलती है। दूसरी ओर, हारकर शर्मिंदा होना इस बात की स्वीकारोक्ति- सी है कि हां भैया, हार गए, अब बस करो। इससे और टकराव को टालने में मदद मिलती है। कुल मिलाकर इस तरह के व्यवहार के प्रदर्शन से सामाजिक हैसियत स्थापित करने में मदद मिलती है। इसलिए विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि ये व्यवहार सबमें एक समान हों। शोधकर्ताओं का मत है कि शेष प्राइमेट जंतुओं में भी लगभग इसी प्रकार के हाव-भाव देखे गए हैं। बहरहाल, बात इतनी स्प्ष्ट भी नहीं है। मानव जज्बात और हाव-भाव का अध्ययन करने वाले अन्य वैज्ञानिक मानते हैं कि यह कहना कठिन है कि हाथों को हवा में उठाकर या कंधे झुकाकर व्यक्ति क्या अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। जरूरी नहीं कि यह गर्व या शर्म की ही अभिव्यक्ति हो। यह मात्र रोमांच और खुशी का इजहार भी हो सकता है। वैसे स्वयं शोधकर्ताओं के परिणामों में भी काफी विविधता थी। जैसे यू.एस. व कुछ अन्य देशों के दृष्टियुक्त एथलीट्स हारने पर अपने-आप में सिमटने की प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हैं। इसका संबंध इस बात से हो सकता है कि यू.एस. कहीं अधिक व्यक्तिवादी है। मगर इन्हीं देशों के दृष्टिहीन एथलीट्स के हाव- भाव अन्य देशों के एथलीट्स के समान ही रहे। मात्सूमोतो और ट्रेसी का मत है कि इसका कारण यह हो सकता है कि व्यक्तिवादी संस्कृतियों में हारने पर अपनी भावनाएं दबाने का बहुत अधिक दबाव होता है जबकि नेत्रहीन लोग इस दबाव से मुक्त होते हैं। तो जीत या हार पर शारीरिक हाव- भाव का विश्लेषण किसी निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं कहा जा सकता। यह कहना तो असंभव है कि ये हाव-भाव किस भावना के द्योतक हैं।  (स्रोत )

बूढ़ादेव का कोप

बूढ़ादेव का कोप
- डॉ. बलदेव
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में पनपता असंतोष, विद्रोह, अन्याय के खिलाफत करने का एक उदाहरण, सही घटना पर आधारित कहानी।
 सरपंच ने दूर से ही देख लिया था, साईकिल से वह उतरा। उसे सामने खड़े देखकर मैंने भी गाड़ी रोक दी। हालचाल पूछने पर उसने बताया साहब सरकार ने जनहित में मुकदमा वापस ले लिया हम सब लोग बरी हो गये। बधाई देते हुए मैंने कहा अब सुख शांति से रहो भाई।
सुख शांति अब कहां साहब लड़ाई तो अब शुरु होगी। पिछली बार तो अंजोर की चूक के कारण साला जिंदा बच निकला था... अब ...
मैंने टोकते हुए कहा- देख भाई पाले का गलना तो तय है, लेकिन उससे खड़ी फसल बरबाद हो
जाती है।
 रुआंसे स्वर में उसने कहा-खेती बारी तो इन तीन महीनों में चौपट हो ही गयी साहब।
अब भाई धीरज धरो, गांव के तुम्हीं मुखिया हो, अगर तुम ही बहक गए तो बेचारों मजदूर किसानों  का क्या होगा? उसकी आंखे छलछला गयी बोला - साहब चुनाव है न इसीलिए केस वापिस ले लिया गया, उदार नेता जी ने सेठ के नुकसान का एक का दो भर दिया। जनता का पइसा है न? इस चुनाव में देखते हैं, ये गांव में कैसे घुसते हैं। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। बूढ़ादेव के कोप से इन कुत्तों को कौन बचाएगा साहब?
मैंने हामी भरते हुए कहा- भाई जब भगवान का नाम लेते हो तो उसके न्याय पर भी विश्वास करो।
घनघोर जंगल के बीच की सूनी सड़क। अंधेरा बढ़ता ही जा रहा था। इसलिए जल्दी ही हम अपनी दिशाओं में बढ़ गए।

रास्ते भर सरपंच का वह तमतमाया चेहरा याद आता रहा। गंगी सेठ की करतूतें याद आने लगी। उसी ने अपने स्वार्थ से भोले-भाले इन वनवासियों को लठैत बनाया था। याद आया पल्टूसिंग के इस नवाबजादे का घिनौना चेहरा काली करतूतें... इन्हीं भोले भाले लोगों को ठगकर, फुसलाकर, डरा धमकाकर वह करोड़पति बना हुआ है। याद आया बाजार का वह दिन ...।
महुए, सरईबीज, लाख, चिरौंजी की टोकरी उठाए बनवासी महिलाएं ही-ही बक-बक करती बाजार की ओर जा रही हैं। बातचीत शुरु है -
'सभी सावचेत हो जाओ गंगी सेठ को कुछ भी नहीं बेचना है।'
'क्यों तू तो पहले उस पर मरती थी क्या हुआ।'
'चुप्प भउजी, कौन उस बुड्ढे पर मरेगा हां बताए देती हूं उसकी दुकान के पास तक नहीं जाना है।'
'क्यों कुछ बतलाएगी भी?'
'अरे नहीं जानती। उसके लड़के ने गांव के दो अनाथ बच्चों को ट्रक से कुचला है। गांव में एका हो गयी है, जो कोई भी उसके यहां लेनदेन करेगा उसे जुर्माना हो जाएगा।' उसके टेक्टर में भी नहीं चढऩा है। 'टेक्टर रहेगी तब ना। पहले तो जब्त हो गयी है।'
'अरे तुम किस दुनिया में रहती हो, वह तो कब का छुड़ाकर ले आया है, और उसके लड़के का क्या हुआ, उसे तो जेल में बंद कर दिये थे न?'
'अरे पगली सेठ की पहुंच मंत्री तक है, दो ही दिन में उसे जमानत मिल गयी अब वह गुलछर्रे उड़ा रहा है।' अब तो सरदार के टेक्टर में चढऩा है, वह हफ्ता पांच रुपए अधिक देगा, सड़क काम फिर शुरु होने वाला है।
मैं कल अस्पताल गई थी दीदी। बेचारे लड़के के दोनों पैर कट गए हैं, लड़की के हाथ पैर में प्लास्टर चढ़े हैं, चेहरा कुरुप हो गया है, इससे तो अच्छा था बूढ़ादेव उसे अपने पास बुला लेता। 'भले ही थाना-कचहरी सेठ का कुछ भी न बिगाड़ सके। बेचारा सिदार लोकलाज के भय से रिपोट तक नहीं लिखा सका। डागडर बाबू को गला दबाकर किसने मारा? उसकी नर्स बाई को कौन रखा है? हमारे बूढ़ादेव ने क्या किया?
'अरे पगली वह सब देख रहा है, देख लेना एक दिन बूढ़ादेव का क्रोध उसे भस्म कर देगा।' बातचीत करते-करते वे महिलाएं बाजार पहुंच गई और इधर-उधर बिखर गयीं। इस दिन बाजार गर्म था। तरह-तरह की बातें हो रही थी। बाजार का दिन और छेरछेरा का पर्व। जवान लटलट ले पिये हुए थे। कोई भजिया खा रहा था तो कोई मूंगफली छील रहा था। कोई गाली गलौज कर रहा था। लेनदेन करने वाले अपने कामों में लगे थे। शोर के ऊपर शोर। बाजार में घूमने हुए चेलिकों ने दरोगा को फटफटी में गांव के भीतर जाते हुए देख लिया। अब एक जगह जुडिय़ाने लगे।
उधर गुड़ी चौक में पूछताछ शुरु हुई भारी भरकम शरीर वाले दरोगा ने रौब ने पूछा 'क्या नाम है?'
'पुसु महाराज'
'ये पुसु क्या है रे?'
'फोसवा महाराज, फोसवा माने पुसु।'
'साले ठीक-ठीक बता पुसु उसू क्या बोलता है।'
दूर खड़ा अंजोर सिंह पास आया। गांव का सयाना था बोल पड़ा।
 'पुसु नाम हय साहब इसका फोसवा भी इसे ही कहते हैं।' 'चुप्प बे साले बुड्ढ़ा हमको समझाता है, भाग साले यहां से नहीं तो तेरी गौटिआई घुसेड़ दूंगा।'
अंजोर सिंह डर गया और गुड़ी से बाजार की ओर बढ़ गया। आगे दरोगा ने पूछा - 'हां तो नाम क्या बताया रे।' पुसु महाराज पुसु।
'अच्छा ठीक है, अब ये बता, सेठ की टे्रक्टर कौन चलाता है।'
'मैं'
'साले तेरे पास लाइसेंस है? '
'हां साहेब'
'दिखा'
'सेठ रखा है साहेब?'
'अच्छा उस दिन टे्रक्टर तू ही चला रहा था।'
'न ही महाराज '
'तो कौन चला रहा था?'
'बंटी'
'बंटी कौन'
'सेठ का लड़का है साहेब, उस दिन मुझे ढकेल कर उसी ने स्टेरिंग घुमाई और बच्चों को कुचल दिया।Ó
'साला झूठ बोलता है?'
'नहीं बंटी ही चला रहा था साहेब।'
सहसा ही दरोगा की नशा चढ़ी आंखे लाल हुई और तीन झापड़ पुसु की कनपटी में दे मारा। पिस्तौल तानते हुए दरोगा ने धमकाया बोल साले गाड़ी तू ही चला रहा था ना?
'ना हो।'
'मुन्शी जी कागज में इसका अंगूठा लो।'
'साहब मैं पढ़ा लिखा हूं।'
'अच्छा है, अंगूठा नहीं देता तो दस्तखत कर...'
'साहब ये तो कोरा है।'
 'तो क्या हुआ, कानून मत बघार सीधे दस्तखत कर, नहीं तो, पिस्तौल देख रहा है न उड़ा दूंगा-'
कांपते हुथ से पुसु ने दस्तखत कर दिया फिर मुन्शी ने पास खड़े कई लोगों से अंगूठे का निशान ले लिया... और बस्ता बांधने लगा। दरोगा उठने ही वाला था कि इतने में चेलिकों के झुंड ने उसे घेर लिया।
उत्तेजित युवकों को देखकर दरोगा सहम सा गया। चन्दन सिंह, अंजोर सिंह, सिदार का बेटा गबरू जवान आवाज को दबाकर बोला-क्यों साहब, कागज में क्या लिखा है, हम बयान पढऩा चाहते हैं। दरोगा धूर्त और चालाक तो था ही अनुभवी भी कम नहीं था। उसने नरम स्वर में कहा- 'सरकारी कागजात है भाई, इसे आप लोग देखकर क्या करोगे?' साहब रिपोर्ट हमने की थी, तो कागज तो हम देखेंगे ही, कहता हुआ वह मुंशी के हाथों से कागज झपट लिया। कोरे कागज में दस्तखत और अंगूठों के निशान देखकर चंदन आग बबूला हो गया, उसे फाड़ता हुआ एक झन्नाटेदार झापड़ मुन्शी के गाल में जड़ दिया।
दरोगा जी बताइए क्या चाहते हैं आप?
अरे भई कागज में क्या रखा है मैं तो सेठ को समझाने ही आया था।
'तो भेंट हुई?'
'हां'
'आपने क्या बोला।'
'मैंने कहा देख सेठ मामला संगीन है। अनाथ बच्चे हैं उनकी जिंदगी तो बरबाद हो गयी है, अच्छा है एक-एक लाख रुपए देकर मना ले।'
'सेठ ने क्या कहा?'
सेठ ने कहा 'इन भेड़ गंवारों को एक फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा।
आगे दरोगा ने क्या बताया चेलिकों ने नहीं सुना। वे बाजार की ओर दौड़े। भगदड़ मच गयी-तेल और मिट्टी तेल झपट लिए गए... मिनटों में आग की लपटें आकाश को छूने लगी।'

Jul 17, 2009

लौट जाऊंगा

लौट जाऊंगा
- कमलेश्वर साहू

दिलों में दुश्मनों के घर बनाकर लौट जाऊंगा
हजारों ख्वाब आंखों में सजाकर लौट जाऊंगा

फरिश्तों से नहीं बनती मैं इंसां हूं मेरे मौला
तेरे जन्नत के दरवाजे पर आकर लौट जाऊंगा

यहां आया हूं तो कर्•ाा है दुनिया का मेरे सर पर
उधारी कुछ रखूंगा कुछ चुकाकर लौट जाऊंगा

मैं दुख को पालकर रखता हूं बच्चे की तरह दिल में
खुशी का क्या करूंगा सब लुटाकर लौट जाऊंगा

बिना मकसद के बरसों जी लिया तो फायदा क्या है
जियूंगा कम मगर कुछ तो बनाकर लौट जाऊंगा

गुलामी जिन्दगी भर की मिली जिनको विरासत में
हुनर आजाद होने का सिखाकर लौट जाऊंगा

पढ़ा सबका लिखा, लेखक नहीं इतना बड़ा लेकिन
किताबों में कहीं कुछ लिख-लिखाकर लौट जाऊंगा।

इस अंक के रचनाकार

रामहृदय तिवारी
छत्तीसगढ़ के लोक सांस्कृतिक मंचों से जुड़े रामहृदय तिवारी का जन्म 16 सितंबर 1943 को ग्राम उरइहा में हुआ। एमए हिन्दी की शिक्षा के बाद वे रंगमंच एवं दृश्य श्रव्य माध्यमों में निर्देशन के साथ लोकरंग अर्जुन्दा के माध्यम से लोककला के  संरक्षण संवर्धन की दिशा में निरंतर सक्रिय हैं। उन्होंने सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के नगरों, शहरों, गांवों के अतिरिक्त दिल्ली में हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी लोकमंच की प्रस्तुति दी इसके साथ उन्होंने विडियो फिल्म, टेली प्ले, टेलीफिल्म, डाक्यूमेंट्री फिल्म एवं एलबम का निर्देशन भी किया। वर्तमान में वे अध्ययन व लेखन के साथ त्रैमासिक पत्रिका सर्जना का संपादन कर रहे हैं। पता- न्यू आदर्शनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़) मोबाइल- 94252 57363, फोन- 0788-2326962.
हृषीकेश सुलभ
कथाकार, नाटककार, रंग-समीक्षक हृषीकेश सुलभ का जन्म 15 फरवरी सन् 1955 को बिहार के छपरा (अब सीवान) जनपद के लहेजी नामक गांव में हुआ। आरम्भिक शिक्षा गांव में हुई और  गांव के रंगमंच से ही
 रंगसंस्कार ग्रहण किया। विगत तीन दशकों से कथा-लेखन, नाट्य-लेखन, रंगकर्म के साथ सांस्कृतिक आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित जिनका अंग्रेजी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद। रंगमंच से गहरे जुड़ाव के कारण कथा लेखन के साथ-साथ नाट्य लेखन की ओर उन्मुख हुए और भिखारी ठाकुर की प्रसिद्ध नाट्यशैली बिदेसिया की रंगयुक्तियों का आधुनिक हिन्दी रंगमंच के लिए पहली बार अपने नाट्यालेखों में सृजनात्मक प्रयोग किया। विगत कुछ वर्षों से कथादेश मासिक में रंगमंच पर नियमित लेखन। बंधा है काल, वधस्थल से छलांग और पत्थरकट- तीनों कथा संकलन एक जि़ल्द में 'तूती की आवाज' शीर्षक से तथा अमली (बिदेसिया शैली पर आधारित नाटक), माटीगाड़ी (शूद्रक रचित मृच्छकटिकम् की पुनर्रचना) और मैला आंचल (फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास का नाट्यांतर) एक जि़ल्द में 'तीन रंग नाटक' शीर्षक से प्रकाशित। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल द्वारा मंचित नाटक बटोही नई प्रकाशित नाट्यरचना है। कथा संकलन वसंत के हत्यारे, रंगसमीक्षा की पुस्तक रंगमंच का जनतंत्र और नाटक धरती आबा शीघ्र प्रकाश्य।
पता- पीरमुहानी, मुस्लिम क़ब्रिस्तान के पास, कदमकुआं, पटना- 800003 मोबाइल- 09431072603. 
Email- hrishhikesh.sulabh@gmail.com
डॉ. बलदेव  
कवि, कथाकार और कला समीक्षक डॉ. बलदेव का जन्म 27 मई 1942 को छत्तीसगढ़ के जिला चांपा- जांजगीर के ग्राम नरियारा में हुआ है। शिक्षा- एमए, पीएचडी हिन्दी, डिप्लोमा इन असिमया। देश के लगभग सभी प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित एवं चर्चित। प्रकाशित पुस्तकें- मुकुटधर पांडेय पर चार किताबें शामिल हैं - 1.लेखों का शोध संपादन, 2.प्रतिनिधि कविताओं का संपादन 3. समीक्षा ग्रंथ 4. गोधूली (कविता संग्रह)।  इसके अतिरिक्त विश्व प्रसिद्ध संगीत किताब, रायगढ़ में कत्थक के मूल लेखक, खिलना भूलकर (काव्य संग्रह), ढाई आखर (औपन्यासिक कृति) भगत की सीख (लंबी कहानी), धरती सबके महतारी (छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह), साहित्य वाचस्पति पं. लोचन प्रसाद पांडेय (समीक्षा ग्रंथ), रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव, डॉ. जे.आर. सोनी (व्यक्तित्व एवं कृतित्व)। उन्हें चक्रधर सम्मान, मुकुटधर पांडे सम्मान के साथ अनेक प्रमुख संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। वे कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं।   पता- श्री शारदा साहित्य सदन, स्टेडियम के पीछे, रायगढ़।
मोबाइल- 98263 78186.
संजय द्विवेदी
 उत्तरप्रदेश के अंबेडकरनगर जिले के एक गांव बतासपुर में जन्मे संजय द्विवेदी ने बीए की शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय से बीजे, एमजे, एमसी की डिग्री माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से की। उन्होंने दैनिक भास्कर, स्वदेश, नवभारत, हरिभूमि आदि समाचार पत्रों में प्रमुख पदों पर कार्य किया। छत्तीसगढ़ के प्रथम सैटेलाइट चैनल जी-24 घंटे में एडिटर इन्पुट रहे। प्रमुख कृतियां- शावक (बाल कविता संग्रह - 1989),  यादें सुरेन्द्र प्रताप सिंह (संपादन - 1977), इस सूचना समर में (लेख संग्रह - 2003), मत पूछ हुआ क्या-क्या (लेख संग्रह - 2003), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता (आलोचना - 2004), सुर्खियां (लेख संग्रह - 2007) कई पुरस्कार एवं सम्मान। संप्रति- अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय पता- प्रेस कॉम्पलेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, मप्र- 462001 मोबाइल - 09893598888.
Email- 123dwivedi@gmail.com
 राजेश उत्साही 
 30 अगस्त, 1958, मिसरोद, भोपाल, म.प्र. में पैदा हुए राजेश उत्साही ने राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र एवं हिंदी साहित्य में स्नातक, तथा समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर किया है। 26 साल तक मध्यप्रदेश की एकलव्य संस्था होशंगाबाद भोपाल से जुड़े रहे। बाल विज्ञान पत्रिका चकमक का सत्रह साल तक संपादन। स्रोत, संदर्भ, गुल्लक, पलाश, प्रारम्भ के संपादन से भी जुड़ा रहे। पता - अजीम प्रेमजी फाउंडेशन,134 दोद्दकनेल्ली, विप्रो कॉरपोरेट ऑफिस के पास, सरजापुर रोड, बंगलूर 560035
मोबाइल- 09611027788. Email- utsahi@gmail.com
कमलेश्वर साहू 
  26 नवम्बर 1965 को जन्मे कमलेश्वर साहू सशस्त्र पुलिस जैसे पेशे से जुड़े होने के बावजूद कविताएं लिखते हैं। देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं जैसे पहल, पल प्रतिपल, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, आकंठ, परस्पर, पाखी समकालीन जनमत, हंस, साक्षात्कार, अक्षरा, गंगा, उद्भावना, उत्तराद्र्ध, वसुधा, साहिती सारिका, अक्षर पर्व आदि में कविताओं का प्रकाशन।  कुछ कविताओं का अंग्रेजी, पंजाबी व बांग्ला में अनुवाद भी हुआ है। उनके तीन कविता संग्रह- बिरजू रिक्शावाला, यदि लिखने को कहा जाए, पानी का पता पूछ रही थी मछली प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में वे नक्सलवाद पीडि़त प्रदेश छत्तीसगढ़ के सशस्त्र पुलिस में सहायक प्लाटून कमांडर के पद पर कार्यरत हैं। 
पता- 702, साकेत कालोनी, वार्ड-57, कातुलबोड पो.आ. एसएएफ लाइन, जिला दुर्ग (छ.ग.) मोबाइल- 09424109943, 09752390645.

मार्गदर्शन के लिए तरसते बच्चे

मार्गदर्शन के लिए तरसते बच्चे
-संजय दि्ववेदी
बाल साहित्य की किताबें इतनी महंगी हैं कि बच्चा उन्हें खरीदना तो दूर छू भी नहीं सकता है, सो महंगी किताबें कौन खरीदेगा ? अभिभावकों की चिंता में स्कूल परीक्षा में मिलने वाले 'माक्र्स' हैं, जो आगे की पढ़ाई या बड़ी कक्षा में प्रवेश में उसके सहायक बनेंगे।
जिस देश में प्राथमिक शिक्षा का ढांचा लगभग ध्वस्त हो चुका हो, बाल मजदूरों की तादाद रोजाना बढ़ रही हो, वहां 'बाल साहित्य' पर चिंताएं कुछ आगे की बात लगती हैं। लेकिन चिंता इसलिए भी जरूरी है कि नई पीढ़ी के सामने जो भले साधन सम्पन्न हो- संस्कार का, नैतिक शिक्षा का संकट सामने है। स्कूल शिक्षा एवं सामाजिक स्थितियां बेहतर मनुष्य के निर्माण में खुद को नाकाम पा रही हैं। जाहिर हैं सद्साहित्य इस टूटन में सीमेंट का काम कर सकता है। देश की और उसके नेतृत्व की चिंताओं में दरअसल बच्चे हैं ही नहीं। शायद इसका कारण यह भी हो कि वे मतदाता नहीं है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री के बाद राजनीति के शीर्ष कर किसी ऐसे व्यक्ति का आगमन प्रतीक्षित है। जिसकी चिंताओं में बच्चे और उनके व्यक्तित्व निर्माण के सवाल भी हों।
बड़ी संख्या में बाल साहित्य का सृजन एवं प्रकाशन हो रहा है। तमाम साहित्यकार हैं, जो निष्ठा एवं प्रमाणिकता से बच्चों के लिए लिख रहे हैं, लेकिन मुख्यधारा के साहित्य की तरह उनकी कृतियां भी कमीशन और दलाली की संस्कृति के चक्र में फंसकर आम बच्चों तक नहीं पहुंच पाती। सरकारी खरीद एवं पुस्तकालय खरीद तंत्र ने समूचे प्रकाशन जगत को भ्रष्ट एवं काहिल बना दिया है। फलत: बाल साहित्य की किताबें इतनी महंगी हैं कि बच्चा उन्हें खरीदना तो दूर छू भी नहीं सकता है, सो महंगी किताबें कौन खरीदेगा ? अभिभावकों की चिंता में सिर्फ अपने बालक के स्कूली परीक्षा में मिलने वाले 'माक्र्सÓ हैं, जो आगे की पढ़ाई या बड़ी कक्षा के प्रवेश के समय उसके सहायक बनेंगे। बाकी बचा समय 'टेलीविजन' के चैनलों की लंबी श्रृंखला निगल जाती है। व्यस्तता की इस दिनचर्या में शब्दों का महत्व गिरा है । जिंदगी में उनके लिए 'स्पेस' घटा है। 
बच्चों के लिए आज कई पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, लेकिन वे शहरी मध्यवर्ग के कुछ परिवारों तक ही पहुंच पाती हैं। बाल साहित्य को लेकर एक चलताऊ और खानापूरी करने का भाव प्राय: पत्रकारिता क्षेत्र में भी व्याप्त है। इसलिए प्राय: हर समाचार पत्र बच्चों के लिए पूर्ण पृष्ठ या विशेष पत्रिकाएं छापता है, किंतु उसमें बच्चों के मन की, उनकी रुचि की कितनी सामग्री होती है, इसका आकलन होना भी शेष है। साहित्य क्षेत्र में भी बाल साहित्य को गंभीरता से नहीं लिया जाता। बच्चों के लिए लिखने वाले बाल साहित्यकारों को उपेक्षा के भाव से देखा जाता है। साहित्य की चर्चा, आलोचना एवं समीक्षा में भी बाल साहित्य को अहमियत नहीं दी जाती। बड़े साहित्यकारों प्राय: बच्चों के लिए साहित्य लेखन से बचते हैं। स्वयं साहित्य के गलियारों में बच्चों में लिए लेखन पर यह उपेक्षा भाव चकित करता है। बाल साहित्य के लिए शासकीय स्तर पर कोई बड़ा पुरस्कार नहीं है, न ही शासकीय अकादमियां बाल साहित्य के संदर्भों पर कोई आयोजन करती नजर आती है।   
इस सबके बावजूद हिंदी बाल साहित्यकारों की एक लंबी परंपरा ने अपने सतत लेखन से इस क्षेत्र को समृद्ध किया है, जिनमें डॉ. हरिकृष्ण देवसरे,  डॉ. श्री प्रसाद, मस्तराम कपूर, हरीश निगम, अनंत कुशवाहा, मनोहर वर्मा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, डॉ. राष्ट्रबंधु, शिवचरण चौहान, राजा चौरसिया, डॉ. नारायण लाल परमार, शुकदेव प्रसाद, सूर्यकुमार पाण्डेय, रमेश तेलंग, सूर्यभान गुप्त, डॉ. शोभनाथ शशि, जगदीश चंद्र शर्मा, राजनारायण चौधरी, जहीर कुरैशी, सुरेंद्र विक्रम, शिवनारायण सिंह, तारादत्त निर्विरोध, शंभूलाल शर्मा वसंत, जयप्रकाश मानस, गिरीश पंकज, इंदरमन साहू, बाबूलाल शर्मा 'प्रेमÓ, सुखबीर, रामनारायण उपाध्याय, अहद प्रकाश, क्षमा शर्मा आदि बाल साहित्यकारों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। संपादक के रूप में अपने संपादन में प्रकाशित बाल पत्रिकाओं के माध्यम से रचनाकारों को सामने लाने वालों में स्व. सर्ववेश्वर दयाल सक्सेना, लक्ष्मीचंद जैन, जयप्रकाश भारती, अनंत  कुशवाहा, विश्वानाथ, हरिकृष्ण देवसरे, कन्हैयालाल नंदन, मनोहर वर्मा डॉ. राष्ट्रबंधु के नाम लिए जा सकते हैं।
    बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में डॉ. जयप्रकाश भारती, सुरेंद्र विक्रम, ऊषादेवी सिंह, डॉ. श्री प्रसाद एवं डॉ राष्ट्रबंधु ने उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। कुल मिलाकर बाल साहित्य की स्थिति प्रचार-प्रसार के स्तर पर भले ही दयनीय हो, लेखन के स्तर पर संतोषजनक है। जाहिर है जब तक बच्चे हमारी चिंताओं के केंद्र में न होंगे, उनके व्यक्ति संवर्धन से जुड़ा हर पक्ष चाहे वह शिक्षा, मनोरंजन, फिल्म या साहित्य कुछ भी हो, उपेक्षा का शिकार होगा। अभिभावकों एवं समाज के प्रबुद्ध वर्गों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी चिंताओं के केंद्र में बच्चों को शामिल करें। सिर्फ उनके स्कूली पाठ्यक्रम या कैरियर का नहीं वरन एक मनुष्य के नाते उनके नैतिक, सांस्कृतिक एवं कलात्मक पक्षों का भी विकास जरूरी है। श्रेष्ठ बाल साहित्य की उपलब्धता एवं शिक्षा भावी पीढ़ी को ज्यादा बेहतर, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय बनाएगी।