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Jul 18, 2009

उत्साही का नाम पुराण

उत्साही का नाम पुराण
- राजेश उत्साही
जब मेरा जन्म हुआ तो मेरा नाम राजेश रखा गया। यह वह जमाना था जब ज्यादातर लोग अपने बच्चों के नाम फिल्म एक्टरों के नाम पर रखते थे।  स्कूल में नाम लिखवाया गया राजेश कुमार पटेल। साठ के दशक में अगर लड़कों का नाम कुछ आधुनिक किस्म का होता था तो उसके साथ कुमार जरूर जोड़ा जाता था।
मैं नई जगह, नए लोगों के बीच आया हूं। हर कोई जानना चाहता है कि मेरा यह नाम कैसे बना, किसने रखा। पहले भी लोग मुझसे पूछते रहे हैं। मैं बताता भी रहा हूं। मैंने सोचा एक नाम पुराण भी हो जाए।
बात पिता से शुरू करता हूं। उनका नाम है प्यारेलाल पटेल। अपनी रेल्वे की नौकरी के दौरान वे नाम से कम सरनेम 'पटेल' से ज्यादा जाने जाते रहे हैं। वहीं अपने परिचितों और रिश्तेदारों के बीच वे घरेलू नाम 'दुर्जन' से मशहूर थे। दुर्जन यानी बुरा आदमी। इस अर्थ को जानने वाले लोग उनके बारे में कुछ ऐसी ही राय बना लेते थे। पिता इससे बहुत परेशान थे। अक्सर अपनी मां से कहते कि ये कैसा नाम रख दिया। कुछ और नहीं मिला। मेरी दादी जिनका अपना नाम-जानकी- बहुत सुंदर था बेचारी नाम के इस अर्थ से अपरिचित थीं। असल में पिता का जन्म दीवाली की दूज को हुआ था, सो उन्हें दूजन कहा जाने लगा। यह दूजन ही बिगड़ते-बिगड़ते दुर्जन हो गया। अब चूंकि नाम की बात चल रही है इसलिए आगे बढऩे से पहले एक बहुत ही दिलचस्प संयोग की चर्चा भी करता चलूं। दादी का नाम जानकी था, तो नानी का देवकी। मां का नाम गणेशी और मौसियों का नाम दुर्गा और शारदा। बात यहीं न रूकी। विवाह हुआ तो सासूजी का नाम पार्वती निकला। यानी आसपास देवियां ही देवियां।
तो पिता अपने इस घरेलू नाम से बहुत दुखी रहे। शायद इसलिए उन्होंने तय किया होगा कि वे बच्चों के नाम सोच समझकर रखेंगे। जब मेरा जन्म हुआ तो मेरा नाम राजेश रखा गया। यह वह जमाना था जब ज्यादातर लोग अपने बच्चों के नाम फिल्म एक्टरों के नाम पर रखते थे। लेकिन तब तक राजेश खन्ना का उदय नहीं हुआ था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मेरा नाम किसी फिल्म एक्टर से प्रभावित था।
स्कूल में नाम लिखवाया गया राजेश कुमार पटेल। साठ के दशक में अगर लड़कों का नाम कुछ आधुनिक किस्म का होता था तो उसके साथ कुमार जरूर जोड़ा जाता था। इसी तरह लड़कियों के नाम के साथ कुमारी। राजेश कुमार पटेल आठवीं तक यानी 1972 तक चलता रहा। दोस्तों और स्कूल में पटेल के नाम से पुकारा जाता रहा। बचपन मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में बीता। माधोसिंह और माखनसिंह के नाम उस समय वहां दस्यु के रूप में कुख्यात थे। मन में ख्याल आया कि अपन भी या तो प्रख्यात होंगे या फिर कुख्यात। उसी समय साहित्य में कुछ रूचि जागी तो लगा नाम भी कुछ अलग होना चाहिए। बस राजेश कुमार पटेल के पीछे 'उत्साही' जोड़ दिया। इनवरटेड कॉमा लगाकर।
याद नहीं कि उत्साही कैसे सूझा। हां इसकी प्रेरणा पिता से मिली। जब- तब मैं चुपके से उनके कागजात और डायरी उलटता-पलटता रहता था। उनमें मुझे कहीं-कहीं उनके नाम के साथ 'रजवाड़ा' लिखा हुआ मिला। उसी से यह भी समझ आया कि पिता कविताएं ही नहीं कहानियां भी लिखते थे। हालांकि वे कहीं प्रकाशित नहीं हुईं। उनमें कुछ कविताएं ऐसी भी थीं जो शायद उस समय तो कहीं प्रकाशित हो भी नहीं सकती थीं। और ईमानदारी से कहूं तो उन्हें पढऩे की मेरी उम्र भी नहीं थी। पर मैंने पढ़ डालीं। उनका कहना है कि एक कहानी उन्होंने पचास-साठ के दशक की मशहूर पत्रिका मनोहर कहानियां में प्रकाशन के लिए भेजी थी। तब मनोहर कहानियां अपराध कथाओं की पत्रिका नहीं थी, बल्कि अपने नाम के अनुरूप उच्च कोटि के साहित्य की पत्रिका थी। पत्रिका की ओर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने देखा कि उनकी कहानी पर आधारित एक फिल्म सिनेमाघरों में धूम मचा रही है। यह फिल्म थी मदनमोहन के संगीत से सजी अदालत। जिसके गाने आज भी उतने ही कर्णप्रिय हैं। दो गाने तो मुझे भी बहुत अच्छे लगते हैं,' यूं हसरतों के दाग मोहब्बत में धो लिए और जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए। दोनों ही लता जी ने गाए हैं और राजेन्द्र कृष्ण ने लिखे हैं। इस बात में कितनी सच्चाई है यह पिता ही जानते हैं। पर हां मैंने उनके पास रेल्वे के पुराने कागजों पर पेंसिल से लिखी यह कहानी देखी है।     
तो राजेश कुमार पटेल 'उत्साही' चल पड़ा। जहां मौका मिलता अपन यह नाम लिखने से नहीं चूकते। लिखते-लिखते लगा कि यह कुछ ज्यादा ही लंबा है। क्यों न इसे छोटा किया जाए। मैंने सोचा 'कुमार' तो बहुत ही आम है। और यह हर किसी के नाम में है। इसके नाम में होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तो कुमार साहब को चलता किया। रह गया राजेश पटेल 'उत्साही'।
सबलगढ़ से इटारसी, खंडवा होते हुए मैं होशंगाबाद जा पहुंचा था। 1980 के आसपास तक मेरी पहचान होशंगाबाद कस्बे में एक छोटे-मोटे लेखक के रूप में स्थापित हो गई थी। जब भी किसी को परिचय देना होता तो राजेश पटेल 'उत्साही' कहना बड़ा उबाऊ-सा लगता। जो मेरी साहित्यिक अभिरूचि से परिचित नहीं होते वे पूछते ये पटेल तो ठीक है पर ये 'उत्साही' क्या है। क्या यह गोत्र है? धीरे-धीरे मुझे भी अपने नाम में पटेल कुछ अखरने लगा। कभी-कभी लगता कि पटेल बोलना कुछ ऐसा हो जाता है जैसे हम सामने वाले के सिर पर हथौड़ा मार रहे हों। शायद यह ट वर्ण की वजह से महसूस होता था। मैंने विचार किया कि पटेल की वाकई जरूरत है क्या। मुझे इसका केवल एक ही उपयोग समझ आया कि यह जाति का कुछ-कुछ अंदाजा देता है। इसको हटाने का केवल एक नुकसान है कि जात-बिरादरी में जो लोग अपनी कन्या के लिए योग्य वर तलाशते रहते हैं, आप उनकी नजरों से दूर हो जाएंगे। लेकिन मेरे लिए यह कोई अफसोस की बात नहीं थी। क्योंकि न तो जात-बिरादरी में मेरा विश्वास था (और न अब है) और न तब मैं इतना योग्य था कि किसी कन्या के अभिभावकों की नजरों में चढ़ पाता। तो मैंने बिना देर किए अपने नाम से 'पटेल' साहब को भी विदा कर दिया। अब रह गया राजेश 'उत्साही'। कुछ मुश्किल अब भी बाकी थी। लोग पूछते कि राजेश के बाद क्या छूटा हुआ है। मुझे समझ आया कि यह सारी गड़बड़ उत्साही को इनवरटेड कोमा में रखने से हो रही है। तो एक दिन उत्साही को इनवरटेड कॉमा से भी आजाद कर दिया। लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं होती। यह तो इंटरवल है।
शादी हुई तो उसके निमंत्रण पत्र में भी मैंने केवल राजेश उत्साही ही लिखा था। लिखा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि निमंत्रण पत्र मैंने अपने हाथ से बनाया था। असल में निमंत्रण पत्र सायक्लोस्टाइल करके बनाया गया था। स्टेंसिल मैंने ही काटा था। एकलव्य में काम शुरू किया तो वहां के सब कागजों में भी यही नाम है। मेरे नाम से पटेल साहब तो ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। हालांकि अपन भी किसी गधे से कम तो नहीं हैं। एकलव्य में कभी कोई पुराना दोस्त या परिचित फोन पर कह देता कि पटेल से बात कराओ तो फोन सुनने वाला आश्चर्य से पूछता कौन पटेल। यहां तो कोई पटेल नहीं है। कभी तो वे मुझ से ही पूछ लेते कि अपने यहां पटेल कौन है। सामने वाला कहता कि राजेश पटेल। तो भी मुश्किल होती। क्योंकि एकलव्य में एक दो नहीं सात राजेश थे। अंतत: सामने वाला या तो कहता कि चकमक वाला राजेश या होशंगाबाद वाला राजेश, या उसे भी याद आ जाता कि अरे यह बंदा अपने नाम में उत्साही भी लगाता है, तब जाकर मामला निपटता। अब तो एकलव्य में मेरे नाम से राजेश भी गायब हो गया है, केवल उत्साही ही लोगों की जबान पर होता है।
राज की बात यह भी है कि मेरे दो और नाम थे, जो कुछ ही दिन रहे। बात 1979-80 की है। अपन कालेज में थे- होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय में। बीएससी करने की कोशिश कर रहे थे। कालेज में लायब्रेरी थी। लायब्रेरी को लेकर कुछ शिकायतें थीं। चूंकि सीधे-सीधे कालेज वालों से नहीं भिड़ा जा सकता था। सोचा क्या करूं। उन दिनों अखबार में सम्पादक के नाम पत्र लिखने का जुनून सवार था। हर दूसरे-तीसरे दिन एकाध पत्र दैनिक भास्कर, भोपाल में छपता ही था। पर वास्तविक नाम से एक भी पत्र नहीं लिखा जा सकता था। मैंने एक और नाम बनाया-यूआर भारतीय। यानी कि उत्साही राजेश भारतीय। और इस नाम से लायब्रेरी में फैली अराजकता का लंबा चि_ा लिख भेजा। पत्र छपते ही लायब्रेरी में हड़कम्प मच गया। व्यवस्थाएं ठीक होने लगीं। मुझे लगा कि यह तो कारगर तरीका है। जिसके बारे में खुलकर नहीं लिख सकते उसके बारे में इस नाम से लिखो।
उसके बाद हाल यह था कि अखबार में एक ही दिन राजेश उत्साही और यूआर भारतीय के नाम से पत्र छपते थे। दोस्तों को भी नहीं मालूम था कि वह भी मैं ही हूं। यूआर भारतीय की इतनी चर्चा थी कि जहां-तहां लोग पूछने लगे कि यह कौन बंदा है। क्योंकि कस्बे में अखबार में पत्र लिखने वाले सब एक-दूसरे को जानते थे। और सबमें यह होड़ लगी रहती थी कि किसके ज्यादा पत्र छपेंगे। इस नाम से मैंने कुछ लेख भी लिखे, जो अखबारों में छपे। लोकप्रियता का आलम यह था कि होशंगाबाद के एक लल्ला भारतीय नामक सज्जन ने अपने आपको यूआर भारतीय कहना शुरू कर दिया। बाद में मैंने भारतीय जी को भी विदा कर दिया।
अभी भी मैं किसी के लिए मैं 'राज' हूं, तो किसी के लिए 'राजू' भी। अपने रंग के कारण 'कालिया' नाम से भी मुझे पुकारा जाता रहा। मेरी ससुराल में मुझे 'माथापच्ची' कहा जाता है। माथापच्ची चकमक बाल विज्ञान पत्रिका का नियमित और लोकप्रिय कालम रहा है, जिसका मैंने वर्षों संपादन किया।
   यह मुझे बहुत पहले मालूम हो चुका था कि हिन्दुस्तान में मेरे अलावा केवल एक और उत्साही हैं। वे हैं नामी गिरामी शायर बेकल उत्साही। कहा जाता है कि उनका मूल तख़ल्लुस बेकल था, उत्साही नाम उन्हें नेहरू जी ने दिया। फिर मुझे दो और उत्साही मिले। एक नटवर पटेल 'उत्साही', जो भोपाल में रहते थे। वे भी साहित्य में रूचि रखते थे। उनसे नाम के कारण ही मित्रता हुई। फिर वे भीड़ में कहीं खो गए। अब कहीं नजर नहीं आते। दूसरे हैं राजस्थान के महेन्द्रसिंह 'उत्साही'। वे भी कुछ लिखने-पढऩे से सरोकार रखते हैं। इंटरनेट पर जब गूगल पर एकाउंट खोला तो पहली ही बार में केवल उत्साही नाम से ही मिल गया। तो मैं कह सकता हूं कि कम-से-कम नाम के मामले में तो अपन कुछ 'निराले' हैं ही, भले ही 'निराला' न हों।

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