हबीब तनवीर - हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया...
- हृषिकेश सुलभ
रंगमंच को एक नयी शक्ल देने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने रंगमच की दुनिया में उल्लेखनीय काम किया। सबसे खास बात यह है कि छत्तीसगढ़ की लोक शैली नाचा को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कुछ समय से बीमार तनवीर जी का पिछले माह 8 जून 2009 को निधन हो गया। 1 सितंबर 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे हबीब को उनके बहुचर्चित नाटकों 'चरनदास चोर' और 'आगरा बाजार' के लिए हमेशा याद किया जाएगा जो उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रभावशाली नाटक माने जाते हैं। उनके अन्य लोकप्रिय नाटकों में शतरंज के मोहरे, लाला सोहरत राय, बहादुर कलारिन, पोंगा पंडित, गांव के नाव ससुराल मोर नाव दमाद आदि का नाम लिया जा सकता है।
हबीब तनवीर ने मैट्रिक की परीक्षा रायपुर के लौरी म्युनिसिपल स्कूल से पास की थी तथा बी.ए. नागपुर के मॉरिस कॉलेज से। एमए प्रथम वर्ष की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हुई। केवल 22 साल की उम्र में कुछ नया करने की चाह लिए वे 1945 में मुंबई चले गए जहां उन्होंने कुछ समय तक आकाशवाणी में भी काम किया।
उनका पूरा नाम हबीब अहमद खान था लेकिन जब उन्होंने कविता लिखनी शुरू की तो अपना तखल्लुस तनवीर रख लिया और उसके बाद से वे हबीब तनवीर के नाम से लोगों के बीच मशहूर हो गए। उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरू की और रंगकर्म तथा साहित्य की अपनी यात्रा के दौरान कुछ फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं तथा उनमें काम भी किया। वर्ष 1982 में रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में उन्होंने छोटी पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
हबीब ने अपने कला-माध्यम को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और इन मायनों में वे जितना कला की दुनिया के लिए ज़रूरी थे उतना ही समाज के लिए अनिवार्य। उनका रंग-कर्म जागृति का एक अलख था, जिसे उनके बाद जगाने की संभावना कम दिखती है। कुछ वक्त पहले सुलभ जी ने सबद पर अपने स्तंभ रंगायन में हबीब साहब पर तफसील से लिखा था, वही यहां श्रद्धांजलि स्वरुप दिया जा रहा है-
हबीब तनवीर को याद करना सिर्फ रंगकर्म से जुड़े एक व्यक्ति को याद करने की तरह नहीं है। दसों दिशाओं से टकराते उस व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जिसके सिर पर टूटने को आसमान आमादा हो, धरती पांव खींचने को तैयार बैठी हो और कुहनियां अन्य दिशाओं से टकराकर छिल रही हों; और वह व्यक्ति सहज भाव से सजगता तथा बेफि़क्री दोनों को एक साथ
साधकर चला जा रहा हो। अब तक कुछ ऐसा ही जीवन रहा है हबीब तनवीर का। भारतेन्दु के बाद भारतीय समाज के सांस्कृतिक संघर्ष को नेतृत्व देने वाले कुछ गिने-चुने व्यक्तित्वों में हबीब तनवीर भी शामिल हैं। भारतेन्दु का एक भी नाटक अब तक मंचित न करने के बावजूद वे भारतेन्दु के सर्वाधिक निकट हैं। उन्होंने लोक की व्यापक अवधारणा को अपने रंगकर्म का आधार बनाते हुए अभिव्यक्ति के नये कौशल से दर्शकों को विस्मित किया है।
विस्मय अक्सर हमारी चेतना को जड़ बनाता है, पर हबीब तनवीर के रंग कौशल का जादू हमें इसलिए विस्मित करता है कि उनकी प्रस्तुतियों में सहजता के साथ वे सारे प्रपंच हमारे सामने खुलने लगते हैं, जो सदियों से मनुष्य को गुलाम बनाए रखने के लिए मनुष्य द्वारा ही रचे जा रहे हैं। इन प्रपंचों के तहख़ानों में निर्भय होकर उतरना और सारे गवाक्षों को खोलकर आवाज़ लगाना कि आओ, देखो सत्य क्या है; आज सरल काम नहीं है। रचनाकर्म में इसके दोहरे ख़तरे होते हैं। एक तो कलात्मकता के ह्रास का ख़तरा हमेशा बना रहता है और दूसरी ओर प्रपंच रचने वालों की हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। हबीब तनवीर इन दोनों ख़तरों से जूझते हैं। कलात्मकता के स्तर पर वह निरंतर उन रूढिय़ों को तोड़ते हैं, जिन्होंने आज़ादी के बाद के हिन्दी रंगमंच का नैसर्गिक विकास नहीं होने दिया। तथाकथित बौद्धिकता और आभिजात्यपन की लालसा में इन रूढिय़ों के आधार पर हिन्दी रंगमंच का ऐसा स्वरूप उभरा, जो आज सामान्य जनता की सांस्कृतिक भूख मिटाने में सक्षम नहीं है।
- हृषिकेश सुलभ
रंगमंच को एक नयी शक्ल देने वाले प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे जिन्होंने रंगमच की दुनिया में उल्लेखनीय काम किया। सबसे खास बात यह है कि छत्तीसगढ़ की लोक शैली नाचा को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कुछ समय से बीमार तनवीर जी का पिछले माह 8 जून 2009 को निधन हो गया। 1 सितंबर 1923 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्मे हबीब को उनके बहुचर्चित नाटकों 'चरनदास चोर' और 'आगरा बाजार' के लिए हमेशा याद किया जाएगा जो उनके सबसे ज्यादा लोकप्रिय और प्रभावशाली नाटक माने जाते हैं। उनके अन्य लोकप्रिय नाटकों में शतरंज के मोहरे, लाला सोहरत राय, बहादुर कलारिन, पोंगा पंडित, गांव के नाव ससुराल मोर नाव दमाद आदि का नाम लिया जा सकता है।
हबीब तनवीर ने मैट्रिक की परीक्षा रायपुर के लौरी म्युनिसिपल स्कूल से पास की थी तथा बी.ए. नागपुर के मॉरिस कॉलेज से। एमए प्रथम वर्ष की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हुई। केवल 22 साल की उम्र में कुछ नया करने की चाह लिए वे 1945 में मुंबई चले गए जहां उन्होंने कुछ समय तक आकाशवाणी में भी काम किया।
उनका पूरा नाम हबीब अहमद खान था लेकिन जब उन्होंने कविता लिखनी शुरू की तो अपना तखल्लुस तनवीर रख लिया और उसके बाद से वे हबीब तनवीर के नाम से लोगों के बीच मशहूर हो गए। उन्होंने एक पत्रकार की हैसियत से अपने करियर की शुरू की और रंगकर्म तथा साहित्य की अपनी यात्रा के दौरान कुछ फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं तथा उनमें काम भी किया। वर्ष 1982 में रिचर्ड एटनबरो की मशहूर फिल्म गांधी में उन्होंने छोटी पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
हबीब ने अपने कला-माध्यम को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा और इन मायनों में वे जितना कला की दुनिया के लिए ज़रूरी थे उतना ही समाज के लिए अनिवार्य। उनका रंग-कर्म जागृति का एक अलख था, जिसे उनके बाद जगाने की संभावना कम दिखती है। कुछ वक्त पहले सुलभ जी ने सबद पर अपने स्तंभ रंगायन में हबीब साहब पर तफसील से लिखा था, वही यहां श्रद्धांजलि स्वरुप दिया जा रहा है-
हबीब तनवीर को याद करना सिर्फ रंगकर्म से जुड़े एक व्यक्ति को याद करने की तरह नहीं है। दसों दिशाओं से टकराते उस व्यक्ति की कल्पना कीजिए, जिसके सिर पर टूटने को आसमान आमादा हो, धरती पांव खींचने को तैयार बैठी हो और कुहनियां अन्य दिशाओं से टकराकर छिल रही हों; और वह व्यक्ति सहज भाव से सजगता तथा बेफि़क्री दोनों को एक साथ
साधकर चला जा रहा हो। अब तक कुछ ऐसा ही जीवन रहा है हबीब तनवीर का। भारतेन्दु के बाद भारतीय समाज के सांस्कृतिक संघर्ष को नेतृत्व देने वाले कुछ गिने-चुने व्यक्तित्वों में हबीब तनवीर भी शामिल हैं। भारतेन्दु का एक भी नाटक अब तक मंचित न करने के बावजूद वे भारतेन्दु के सर्वाधिक निकट हैं। उन्होंने लोक की व्यापक अवधारणा को अपने रंगकर्म का आधार बनाते हुए अभिव्यक्ति के नये कौशल से दर्शकों को विस्मित किया है।
विस्मय अक्सर हमारी चेतना को जड़ बनाता है, पर हबीब तनवीर के रंग कौशल का जादू हमें इसलिए विस्मित करता है कि उनकी प्रस्तुतियों में सहजता के साथ वे सारे प्रपंच हमारे सामने खुलने लगते हैं, जो सदियों से मनुष्य को गुलाम बनाए रखने के लिए मनुष्य द्वारा ही रचे जा रहे हैं। इन प्रपंचों के तहख़ानों में निर्भय होकर उतरना और सारे गवाक्षों को खोलकर आवाज़ लगाना कि आओ, देखो सत्य क्या है; आज सरल काम नहीं है। रचनाकर्म में इसके दोहरे ख़तरे होते हैं। एक तो कलात्मकता के ह्रास का ख़तरा हमेशा बना रहता है और दूसरी ओर प्रपंच रचने वालों की हिंसा का सामना भी करना पड़ता है। हबीब तनवीर इन दोनों ख़तरों से जूझते हैं। कलात्मकता के स्तर पर वह निरंतर उन रूढिय़ों को तोड़ते हैं, जिन्होंने आज़ादी के बाद के हिन्दी रंगमंच का नैसर्गिक विकास नहीं होने दिया। तथाकथित बौद्धिकता और आभिजात्यपन की लालसा में इन रूढिय़ों के आधार पर हिन्दी रंगमंच का ऐसा स्वरूप उभरा, जो आज सामान्य जनता की सांस्कृतिक भूख मिटाने में सक्षम नहीं है।
हबीब तनवीर ने इन रूढिय़ों को तोड़ते हुए नये प्रयोग किए और प्रयोगों की सफलताओं- असफलताओं के बीच से अपनी प्रस्तुतियों के लिए नयी रंगभाषा और नयी रंगयुक्तियों की खोज की। उन्होंने अपने नाटकों की केन्द्रीय चेतना से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपने हर नाटक को अपने समय और समाज के प्रति उत्तरदायी बनाए रखा। समाज के सारे प्रपंचों और अंर्तद्वंद्वों को उजागर करते हुए वे उस शक्ति से न कभी भयभीत हुए न ही समझौता किया, जो मनुष्यता के विरोध में संगठित होकर हिंसा करती है।
हबीब साझा संस्कृति की वकालत करते रहे हैं। धार्मिक आडम्बरों-बाह्याचारों-कट्टरताओं के ध्वजवाहकों की कुरूपताएं हों या पूंजी के मद में बौरायी शक्तियों की हिंसा- सबका उन्होंने सामना किया। पुनरुत्थानवाद और शुचितावाद को उन्होंने एक सिरे से नकारा। अपने रंगकर्म के आरम्भिक काल से ही हबीब तनवीर इस बात बल देते रहे हैं कि रंगमंच को आलोचनात्मक होना चाहिए। रजनीतिक दलों की नकेल पहने बिना राजनीतिक विचारों से लैस रंगमंच की उनकी कल्पना को आरम्भिक दौर में संदेह की नजऱ से देखा गया, पर जैसे-जैसे उन्होंने अपने नाटकों के लिए नयी युक्तियों की खोज की और नाटकों में विचार के स्तर पर मनुष्य की पक्षधरता का संघर्ष तेज़ किया, फलस्वरूप रंगकर्मियों-दर्शकों का एक बड़ा तबका उनकी तरफ आकर्षित हुआ।
जिस इप्टा आन्दोलन ने अपनी सक्रियता से देखते-देखते समग्र भारत को एक सूत्र में बांध दिया था, राजनीतिक बंटवारे के बाद उसका बिखरना एक सदमे की तरह था। इस सांस्कृतिक सदमे से उबरने के लिए अधिकांश कलाकारों ने सृजन का ही रास्ता अपनाया। इप्टा के साथ जुड़े रहने का रंगमंचीय अनुभव हबीब तनवीर के काम आया और साथ ही राजनीतिक अंर्तद्वंद्वों से उपजे संकटों और निराशा ने नये रास्तों की खोज के लिए विवश किया। मानवतावादी विचारों तथा जीवन की संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र राहों की निर्मिति के संघर्ष ने हबीब तनवीर को इस सदमे से मुक्ति दी। रॉयल एकेडमी ऑफ़ ड्रामेटिक आट्र्स (राडा) में प्रशिक्षण के दौरान अपनी भाषा में रंगकर्म करने की उनकी आस्था ने प्रशिक्षण के उत्तराद्र्ध के प्रति उनके मन में अनास्था जगा दी। उन्होंने राडा छोडऩे का निर्णय लिया, जो असामान्य और जोखिम भरा था। यह जोखिम सब नहीं उठा सकते। अपनी रंग परम्परा और भाषा के भीतर बहुत गहरे उतरकर उसकी शक्ति की पहचान किए बगैर यह जोखिम नहीं उठाया जा सकता।
हबीब तनवीर को अपनी रंग परम्पराओं तथा अपनी भाषा की पहचान थी और इनकी शक्ति पर विश्वास था। उन्होंने यह जोखिम उठाया और राडा छोड़कर ब्रिस्टल ओल्ड विक थियेटर में प्रशिक्षण लेने लगे। यहां उन्हें डंकन रास मिले, जिन्हें वह अपना गुरु मानते हैं। डंकन रास ने उन्हें नाटक के पहले पाठ के दरम्यान प्राप्त नाटक की चेतना और मूल प्रयोजन से जुड़े रहने का हुनर सिखाया। हबीब तनवीर ने ब्रिस्टल ओल्ड विक के बाद ब्रिटिश ड्रामा लीग में प्रशिक्षण प्राप्त किया। फिर यूरोप की यात्रा पर निकले। एक ऐसी यात्रा, जिसे संचालित कर रही थी दुनिया की विविध रंग छवियों को देखने-समझने की बेचैनी।
हबीब साझा संस्कृति की वकालत करते रहे हैं। धार्मिक आडम्बरों-बाह्याचारों-कट्टरताओं के ध्वजवाहकों की कुरूपताएं हों या पूंजी के मद में बौरायी शक्तियों की हिंसा- सबका उन्होंने सामना किया। पुनरुत्थानवाद और शुचितावाद को उन्होंने एक सिरे से नकारा। अपने रंगकर्म के आरम्भिक काल से ही हबीब तनवीर इस बात बल देते रहे हैं कि रंगमंच को आलोचनात्मक होना चाहिए। रजनीतिक दलों की नकेल पहने बिना राजनीतिक विचारों से लैस रंगमंच की उनकी कल्पना को आरम्भिक दौर में संदेह की नजऱ से देखा गया, पर जैसे-जैसे उन्होंने अपने नाटकों के लिए नयी युक्तियों की खोज की और नाटकों में विचार के स्तर पर मनुष्य की पक्षधरता का संघर्ष तेज़ किया, फलस्वरूप रंगकर्मियों-दर्शकों का एक बड़ा तबका उनकी तरफ आकर्षित हुआ।
जिस इप्टा आन्दोलन ने अपनी सक्रियता से देखते-देखते समग्र भारत को एक सूत्र में बांध दिया था, राजनीतिक बंटवारे के बाद उसका बिखरना एक सदमे की तरह था। इस सांस्कृतिक सदमे से उबरने के लिए अधिकांश कलाकारों ने सृजन का ही रास्ता अपनाया। इप्टा के साथ जुड़े रहने का रंगमंचीय अनुभव हबीब तनवीर के काम आया और साथ ही राजनीतिक अंर्तद्वंद्वों से उपजे संकटों और निराशा ने नये रास्तों की खोज के लिए विवश किया। मानवतावादी विचारों तथा जीवन की संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए स्वतंत्र राहों की निर्मिति के संघर्ष ने हबीब तनवीर को इस सदमे से मुक्ति दी। रॉयल एकेडमी ऑफ़ ड्रामेटिक आट्र्स (राडा) में प्रशिक्षण के दौरान अपनी भाषा में रंगकर्म करने की उनकी आस्था ने प्रशिक्षण के उत्तराद्र्ध के प्रति उनके मन में अनास्था जगा दी। उन्होंने राडा छोडऩे का निर्णय लिया, जो असामान्य और जोखिम भरा था। यह जोखिम सब नहीं उठा सकते। अपनी रंग परम्परा और भाषा के भीतर बहुत गहरे उतरकर उसकी शक्ति की पहचान किए बगैर यह जोखिम नहीं उठाया जा सकता।
हबीब तनवीर को अपनी रंग परम्पराओं तथा अपनी भाषा की पहचान थी और इनकी शक्ति पर विश्वास था। उन्होंने यह जोखिम उठाया और राडा छोड़कर ब्रिस्टल ओल्ड विक थियेटर में प्रशिक्षण लेने लगे। यहां उन्हें डंकन रास मिले, जिन्हें वह अपना गुरु मानते हैं। डंकन रास ने उन्हें नाटक के पहले पाठ के दरम्यान प्राप्त नाटक की चेतना और मूल प्रयोजन से जुड़े रहने का हुनर सिखाया। हबीब तनवीर ने ब्रिस्टल ओल्ड विक के बाद ब्रिटिश ड्रामा लीग में प्रशिक्षण प्राप्त किया। फिर यूरोप की यात्रा पर निकले। एक ऐसी यात्रा, जिसे संचालित कर रही थी दुनिया की विविध रंग छवियों को देखने-समझने की बेचैनी।
इस यात्रा ने उनकी इस धारणा को ताक़तवर बनाया कि शब्द और संस्कृति की रचनात्मक दुनिया में उस स्थान और पर्यावरण का बहुत महत्व होता है, जहां आप जनमते और पालित- पोषित होते हैं। सृजनात्मकता के लिए तमाम उर्वरा शक्तियां आपकी अपनी ज़मीन में ही छिपी होती हैं। आज़ादी के बाद रंगमंच के संदर्भ में परम्परा के उपयोग को लेकर चलने वाली बहस को हबीब तनवीर ने अपने रंगकर्म से तीव्र किया और धुंधलके को छांटने के लिए सूत्र दिए। परम्परा के बीच से जीवन को गतिशील बनाने वाली आधुनिकता के तत्वों को चुनकर हबीब तनवीर ने एक नये रंग परिदृश्य की रचना की।
हबीब तनवीर कला को जीवन का अंग मानते हैं। एक ओर शैली, तकनीक और प्रस्तुतिकरण के सम्पूर्णता में देशज बने रहने पर बल देते हैं, तो साथ-साथ इस बात पर भी बल देते हैं कि इसे कथ्यात्मक रूप से विश्वजनीन, आधुनिक तथा समसामयिक होना चाहिए। वह महानगरों में मंचित होनेवाले आंचलिक मुहावरों वाले अपने नाटकों के पक्ष में आक्रामकता के साथ यह तर्क रखते हैं कि, 'मैं इस तथाकथित सभ्य समाज के बनावटी और ओढ़े हुए आवरण को उतार देना चाहता हूं।' हबीब तनवीर को न तो परम्परा का दास बनना स्वीकार्य है और न ही परम्परा से मनमानी करना। वह सृजनशीलता और मानवीय मूल्यों के मूल सरोकारों से जुड़ी परम्परा के उन जीवित अंशों के उपयोग की वकालत करते हैं, जो कलात्मकता को भ्रष्ट न करें।
मृच्छकटिक पहला नाटक था, जिसे प्रस्तुत करते हुए हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के पारम्परिक रंगकर्म की युक्तियों, बोली, शैली और कलाकारों का प्रयोगधर्मी उपयोग किया। हबीब तनवीर ने आगा हश्र कश्मीरी, विशाखदत्त के अलावा मौलियर, ब्रेख्त , लोर्का, ऑस्कर वाइल्ड, शेक्सपीयर, गोल्डनी आदि के नाटकों को मंचित किया। उन्होंने ग़ालिब के जीवन पर भी नाटक किया। इस कालावधि में उन्हें वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी 'आगरा बाज़ार' के मंचन से मिली थी। पर उनकी प्रयोगधर्मिता बहस के केन्द्र में रही।
'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' ने उन्हें एक बार फिर सफल निर्देशक के रूप में स्थापित किया। यहीं से उन्होंने अपने रंगकर्म के लिए एक ऐसे रास्ते को पकड़ा या ऐसी दिशा की खोज की, जिसके कारण उन्हें बाद के दिनों में अपार सफलता और महत्व प्राप्त हुआ। 'चरनदास चोर' ने उनको विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किया। अपने नाटकों की प्रस्तुतियों से हबीब तनवीर बार-बार अपनी सृजनात्मकता का अतिक्रमण करते हैं। यह एक दुस्साहस भरा काम है। अक्सर बड़े नाम इससे बचना चाहते हैं क्योंकि अपने ही रचे को फिर से रचकर आगे निकल जाना बहुत कठिन होता है। असफलता का भय ऐसा करने से रोकता है। पर हबीब तनवीर की प्रयोगधर्मिता असफलताओं से जूझती रही है।
हबीब तनवीर कला को जीवन का अंग मानते हैं। एक ओर शैली, तकनीक और प्रस्तुतिकरण के सम्पूर्णता में देशज बने रहने पर बल देते हैं, तो साथ-साथ इस बात पर भी बल देते हैं कि इसे कथ्यात्मक रूप से विश्वजनीन, आधुनिक तथा समसामयिक होना चाहिए। वह महानगरों में मंचित होनेवाले आंचलिक मुहावरों वाले अपने नाटकों के पक्ष में आक्रामकता के साथ यह तर्क रखते हैं कि, 'मैं इस तथाकथित सभ्य समाज के बनावटी और ओढ़े हुए आवरण को उतार देना चाहता हूं।' हबीब तनवीर को न तो परम्परा का दास बनना स्वीकार्य है और न ही परम्परा से मनमानी करना। वह सृजनशीलता और मानवीय मूल्यों के मूल सरोकारों से जुड़ी परम्परा के उन जीवित अंशों के उपयोग की वकालत करते हैं, जो कलात्मकता को भ्रष्ट न करें।
मृच्छकटिक पहला नाटक था, जिसे प्रस्तुत करते हुए हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के पारम्परिक रंगकर्म की युक्तियों, बोली, शैली और कलाकारों का प्रयोगधर्मी उपयोग किया। हबीब तनवीर ने आगा हश्र कश्मीरी, विशाखदत्त के अलावा मौलियर, ब्रेख्त , लोर्का, ऑस्कर वाइल्ड, शेक्सपीयर, गोल्डनी आदि के नाटकों को मंचित किया। उन्होंने ग़ालिब के जीवन पर भी नाटक किया। इस कालावधि में उन्हें वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी 'आगरा बाज़ार' के मंचन से मिली थी। पर उनकी प्रयोगधर्मिता बहस के केन्द्र में रही।
'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' ने उन्हें एक बार फिर सफल निर्देशक के रूप में स्थापित किया। यहीं से उन्होंने अपने रंगकर्म के लिए एक ऐसे रास्ते को पकड़ा या ऐसी दिशा की खोज की, जिसके कारण उन्हें बाद के दिनों में अपार सफलता और महत्व प्राप्त हुआ। 'चरनदास चोर' ने उनको विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किया। अपने नाटकों की प्रस्तुतियों से हबीब तनवीर बार-बार अपनी सृजनात्मकता का अतिक्रमण करते हैं। यह एक दुस्साहस भरा काम है। अक्सर बड़े नाम इससे बचना चाहते हैं क्योंकि अपने ही रचे को फिर से रचकर आगे निकल जाना बहुत कठिन होता है। असफलता का भय ऐसा करने से रोकता है। पर हबीब तनवीर की प्रयोगधर्मिता असफलताओं से जूझती रही है।
1 comment:
Udanti is rendering a good job on tje field of i magzine or print media.I read the materia on Habib Tanbir. Enough exercise have been done to exibit the work of Habib Tanbir. All of my friends are there including Ratna ji, Sanjay Dvedi ji,Adarneey Vinod Shanker ji.
Pranam everybody.
Dr.R.Ramkumar
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