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Jul 18, 2009

जीत की खुशी और हार का दंश

जीत की खुशी  और हार का दंश
अक्सर हम जीतने पर खुशी से झूम उठते है और हाथों को हवा में लहराते है और इसके विपरीत हारने पर गर्दन व कंधे को झुका 
लेते हैं।
जब हम किसी प्रतियोगिता में जीतते हैं, तो हाथों को हवा में उठाकर लहराना, मुट्ठी बांधना वगैरह जैसे हाव-भाव का प्रदर्शन करते हैं। दूसरी ओर हार जाने पर आम तौर पर गर्दन व कंधे झुक जाना, कंधे उचकाना आम बात है। और ऐसे हाव-भाव लगभग सार्वभौमिक हैं यानी लगभग सभी संस्कृतियों में विजेता और पराजित एक-सी हरकतें करते हैं। तो क्या ये हाव-भाव नैसर्गिक हैं, जन्मजात हैं? इस सवाल का जवाब पाने के लिए कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय की जेसिका ट्रेसी और सैन फ्रांसिस्को राज्य विश्वविद्यालय के डेविड मात्सूमोतो ने नेत्रहीन एथलीट्स का अवलोकन किया। शोधकर्ताओं ने इस अवलोकन के लिए अवसर चुना था 2004 में आयोजित पैरालिंपिक (विकलांग खेलकूद स्पर्धा)। इस स्पर्धा में कई नेत्रहीन एथलीट्स ने भी हिस्सा लिया था। मात्सूमोतो और ट्रेसी ने विजयी व पराजित नेत्रहीन एथलीट्स के फोटोग्राफ्स खींच लिए। बाद में इनकी तुलना उन्होंने सामान्य (दृष्टियुक्त) एथलीट्स के इसी तरह के फोटोग्राफ्स से की। तुलना ने दर्शाया कि जन्मांध एथलीट्स जीतने-हारने पर उसी तरह के हाव-भाव प्रदर्शित करते हैं, जैसे सामान्य एथलीट्स करते हैं। जाहिर है जन्मांध एथलीट्स ने ये हाव-भाव देखकर तो नहीं सीखे होंगे। शोधकर्ताओं के अनुसार यह एक प्रमाण है कि विजयी व पराजित हाव-भाव नैसर्गिक हैं। अब अगला सवाल आता है। आखिर इन हाव-भावों का जैव विकास की दृष्टि से क्या महत्व रहा होगा कि ये विकसित हुए। मात्सूमोतो को लगता है कि जीतने के बाद स्पष्ट दिखने वाली चेष्टाएं करना शायद इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इससे शेष समाज पर दबदबा बनाने में मदद मिलती है। दूसरी ओर, हारकर शर्मिंदा होना इस बात की स्वीकारोक्ति- सी है कि हां भैया, हार गए, अब बस करो। इससे और टकराव को टालने में मदद मिलती है। कुल मिलाकर इस तरह के व्यवहार के प्रदर्शन से सामाजिक हैसियत स्थापित करने में मदद मिलती है। इसलिए विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि ये व्यवहार सबमें एक समान हों। शोधकर्ताओं का मत है कि शेष प्राइमेट जंतुओं में भी लगभग इसी प्रकार के हाव-भाव देखे गए हैं। बहरहाल, बात इतनी स्प्ष्ट भी नहीं है। मानव जज्बात और हाव-भाव का अध्ययन करने वाले अन्य वैज्ञानिक मानते हैं कि यह कहना कठिन है कि हाथों को हवा में उठाकर या कंधे झुकाकर व्यक्ति क्या अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है। जरूरी नहीं कि यह गर्व या शर्म की ही अभिव्यक्ति हो। यह मात्र रोमांच और खुशी का इजहार भी हो सकता है। वैसे स्वयं शोधकर्ताओं के परिणामों में भी काफी विविधता थी। जैसे यू.एस. व कुछ अन्य देशों के दृष्टियुक्त एथलीट्स हारने पर अपने-आप में सिमटने की प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते हैं। इसका संबंध इस बात से हो सकता है कि यू.एस. कहीं अधिक व्यक्तिवादी है। मगर इन्हीं देशों के दृष्टिहीन एथलीट्स के हाव- भाव अन्य देशों के एथलीट्स के समान ही रहे। मात्सूमोतो और ट्रेसी का मत है कि इसका कारण यह हो सकता है कि व्यक्तिवादी संस्कृतियों में हारने पर अपनी भावनाएं दबाने का बहुत अधिक दबाव होता है जबकि नेत्रहीन लोग इस दबाव से मुक्त होते हैं। तो जीत या हार पर शारीरिक हाव- भाव का विश्लेषण किसी निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं कहा जा सकता। यह कहना तो असंभव है कि ये हाव-भाव किस भावना के द्योतक हैं।  (स्रोत )

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