यह एक सच्चाई है कि कला और संगीत ने संभवत: किसी समाज को इतना अधिक प्रभावित और अनुप्राणित नहीं किया होगा, जितना इन्होंने हमें किया है। करमा, ददरिया और सुआ की स्वर लहरियां, पंडवानी, भरथरी, ढोलामारू और चंदैनी जैसी गाथाएं सदियों से इस अंचल के जनमानस में बैठी हुई हैं। यहां के निवासियों में सहज उदार, करुणामय और सहनशील मनोवृत्ति, संवेदना के स्तर पर कलारुपों से बहुत गहरे जुड़े रहने का परिणाम है। छत्तीसगढ़ का जनजीवन अपने पारंपरिक कलारुपों के बीच ही सांस ले सकता है। समूचा अंचल एक ऐसा कलागत लयात्मक- संसार है, जहां जन्म से लेकर मरण तक- जीवन की सारी हलचलें लय और ताल के धागे में गूंथी हुई हैं। कला गर्भा इस धरती की कोख से ही एक अनश्वर लोकमंचीय कला सृष्टि का जन्म हुआ है - जिसे हम सब 'नाचा' के नाम से जानते हैं।
नाचा छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति की आबोहवा का एक महकता झोंका है। नाचा इस अंचल के सरल सपनों का प्रतिबिम्ब है। अनगढ़ जन- जीवन से जन्म लेने वाला सुगढ़ नाचा, सच पूछिए तो, ग्रामीण कलाकारों द्वारा पथरीली जमीन पर चन्दन बोने की हिमाकत है। समूचे छत्तीसगढ़ी लोक जीवन की नब्ज को टटोलने का सबसे कारगर माध्यम है नाचा।
नाचा का अलग रंग है, मस्ती है, प्रवाह है। एक ओर जहां इसमें परंपरा निर्वाह की चाह है, वहीं अनचाही परंपरा की चट्टानों को तोडऩे की अदम्य शक्ति भी है। नाचा, नगरीय रंगमंच के बौद्धिक विलास से ऊबे मन की विश्रान्ति है। उसमें लोगों के विमुग्ध करने और मन के तारों को झंकृत करने की अद्भुत क्षमता है और है आंसुओं को पीकर मुस्कान बांटने की सहज सरल चेष्टा। छत्तीसगढ़ अंचल की सम्पूर्ण सहजता, सरलता, मोहकता और माधुर्य जहां एक मंच पर सिमट आए हों, उस मंच का नाम नाचा है। अपनी दीनता, हीनता, अशिक्षा, उपेक्षा और अपमान की आग में तपकर ग्रामीण कलाकर जिस कला संसार की सृष्टि करते हैं, उस संसार का नाम है नाचा। नाचा नृत्य गीत और गम्मत का अनूठा संगम है।
इन सबके बावजूद, सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और हेय समझे जाने वाले इस नाचा की ओर विद्वानों की दृष्टि अभी हाल के वर्षों में गई। नाचा ने ऐसे भी दिन देखे हैं, जब शिष्ट और सभ्रान्त समाज नाचा देखना अपनी गरिमा के विरुद्ध समझता था। आज इस विश्वविख्यात नाचा पर बहुत कुछ लिखा गया है। इस पर आज अनेक शोधार्थी शोधकार्य में संलग्न हैं, कई पीएचडी की डिग्री ले चुके हैं। हालत आज यह है कि गांवों के चौपालों से उठकर महानगरों की अट्टालिक मंचों पर नाचा के भव्य प्रदर्शनहो चुके हैं। अपनी अनोखी शैली, सादगी, संप्रेषणीयता और आडंबरहीनता के कारण आज नाचा लोकमंचीय आकाश में एक चमकता हुआ नक्षत्र बन चुका है।
यह तो हुई नाचा के द्रष्टा और साक्षी मनीषियों की राय। लेकिन स्वयं नाचा के कलाकारों से पूछें तो वे नहीं बता सकते हैं कि नाचा आखिर क्या है? वे बताने में नहीं दिखाने में माहिर हैं। साहित्य का इतिहास साक्षी है कि राम को भगवान मानकर स्तुतिगान करने वाले महर्षियों से ज्यादा भगवान का वास्तविक हाल उनका वह अभिन्न दास समझता है, जो अपना कलेजा चीरकर बता देता है- भगवान उसके लिए क्या है? ठीक वैसे ही नाचा के विनम्र कलाकार मंच पर अपना हृदय चीरकर बता देते हैं कि देखो नाचा ये है।
स्पष्ट है कि नाचा किसी काव्य की तरह केवल शाब्दिक अभिव्यक्ति नहीं है, न वह किसी चित्र या मूर्तिकला की तरह काल की बाहों में कैद कोई स्थिर रूप है। वह तो गतिशील झरने की तरह लोकजीवन की अनुभूतियों, आवेग, आकांक्षाओं और सपनों को सहज सादगी से अभिव्यक्ति देने वाला जीवंत मंच है।
अशिक्षित या अल्पशिक्षित मगर पारखी नजर वाले नाचा के कलाकार आमतौर पर खेतिहर मजदूर होते हैं। अपने जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने के लिए स्वयं अपनी सूझबूझ के अनुसार छोटे-छोटे प्रहसन रचते हैं, सामूहिक रूप से रिहर्सल करते हैं। निर्देशक नाम का कोई निर्दिष्ट व्यक्ति नाचा में नहीं होता। न ही उनकी कोई लिखित स्क्रिप्ट होती है। सब कुछ परस्पर सामंजस्य और साझेदारी में मौखिक रूप से चलता है। कई चुटीले और सटीक संवाद तात्कालिक रूप में मंच पर ही बनते चले जाते हैं। ठेठ मुहावरों और पैनी लोकोक्तियों के सहारे हास्य व्यंग्य से ओतप्रोत संवादों को सुनकर दर्शक समूह हंस-हंस कर लोट-पोट तो हो ही जाता है, मगर हास्य के बीच कई ऐसी विद्रूपमय स्थितियां सामने आ जाती हैं कि दर्शक तय नहीं कर पाता कि वह हंसे या रोये।
नाचा अपने आप में एक टोटल थियेटर यानि परिपूर्ण नाट्यशैली है। उसमें उन्मुक्तता, चित्रण, रंगरचना तथा दृश्यविधान में यथार्थता के साथ-साथ दर्शकों की कल्पना शीलता को साथ लिए चलने पर बल अधिक समाहित रहता है। अभिनेता और दर्शक वर्ग के बीच घनिष्ट संबंध इसकी दूसरी मौलिक विशेषता है। नाचा में जीवन की मौलिक मान्यताओं और मानवीय मूल्यों को जोड़े रहने की गुंजाइश बराबर बनी रहती है। अपने गम्मतों के माध्यम से कलाकार दैनंदिनी जीवन की विद्रुपताओं और समस्याओं पर कटाक्ष एवं व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियां करते चलते हैं। सूक्ष्म हास्य बोध की अपनी इसी प्रतिभा के बल पर स्वयं पर भी हंसने में सक्षम ये जीवट ग्रामीण कलाकार तमाम विपरीतताओं के बीच आज अपनी अस्मिता के साथ तनकर खड़े हैं। मंच पर इनका इम्प्रोवाइजेशन-प्रत्युपन्नमति की अद्भूत क्षमता देखकर थियेट्रिकल जगत हैरान है।
नाचा का यह एक और उल्लेखनीय पहलू है कि बिना किसी संस्थागत प्रशिक्षण के लगभग सारे कलाकर गायन, वादन, नृत्य, अभिनय एवं रूपसज्जा से लेकर नाचा से संबंधित हर काम कर लेने में सिद्ध हस्त होते हैं। नाचा जैसा आडम्बरहीन मंच ढूंढना मुश्किल है। ग्रामीण परिवेश में उपलब्ध कोई भी भूखंड इनका मंच होता है। यहां पाल परदे पखवाइयां जैसे तामझाम की कोई दरकार नहीं होती। साजिन्दों के बैठने के लिए साधारण सा तख्त मिल जाए तो बहुत है। सारे कलाकारों की वेशभूषा सामान्य ग्रामीणों जैसी ही होती है। अंगराग के लिए सफेद, पीली छुई, खडिय़ा, हल्दी-कुमकुम, काजल, मिट्टी, कालिख, नीला थोथा, मुरदार शंख जैसी सामान्य सुलभ वस्तुओं का इस्तेमाल करते हैं। सारे कलाकार पात्रानुकुल अपना मेकअप स्वयं करते हैं। मंच के तख्त पर संगतकार बैठते हैं और मंच के तीनों ओर दर्शक वर्ग, जो देर रात से शुरु होने वाला नाचा और सुबह की लाली तक पूरी उत्कंठा और सहज मुग्धता से देखता है और छक कर आनंद लेता है।
नाचा की समूची प्रस्तुति एक थिरकन और लयबद्धता के आरोह-अवरोह में बंधी होती है। कलाकारों की मुद्राओं में हलचल और भावाभिव्यक्तियों में, अभिनय नृत्य और अदाकारी में एक सहज लयबद्धता केवल देखने और महसूस करने की चीज है। नृत्य गीत कब खत्म होकर गम्मत में परिवर्तित हो जाता है, गम्मत फिर कब नृत्य गीत में स्वयमेव ढल जाता है तथा कभी-कभी नृत्य गीत और अभिनय चक्रवात की तरह कैसे एक रस और परस्पर आलिंगित होकर धूम मचा देते हैं- यह नाचा देखकर ही जाना जा सकता है।
नाचा में महिलाओं का निर्वाह पुरुष ही करते हैं। पुरुष ही परी बनते हैं। नचकहरीन और लोटा लिए नजरिया की भूमिका पुरुष ही निभाते हैं। इनकी अदाएं, हावभाव, चालढाल और भावभंगिमाएं इतनी अधिक स्त्रीसुलभ कोमलता और मोहकता के करीब होती हैं कि शिनाख्त करना मुश्किल होता है। नाचा में परी और जोक्कड़ दो ऐसे अद्भूत चरित्र हैं- जिनकी परिकल्पना का निहितार्थ भौंचक कर देता है। परी और जोक्कड़ के वेश विन्यास और रूप सज्जा में कलाकार अपनी पूरी कल्पना शक्ति उड़ेल देते हैं। परी इनके लिए सर्वश्रेष्ठ रूप सौंदर्य और मानवीय सम्मोहन की जीती जागती मिसाल है। उसमें आसमान में उडऩे वाली परी की तरह अलौकिकता का भी हल्का सा स्पर्श रहता है। दर्शक रस विभोर होकर परी की अनोखी अदाओं पर, उसकी लचक और नजाकत पर शुरु से आखिर तक फिदा होकर मुजरे लुटाता है। 'नाचा का जोक्कड़ निरंजन महावर के शब्दों में सर्कस के जोकर, संस्कृत नाटक के विदूषक या अंग्रेजी नाटक के क्लाउन की तरह नहीं है। नाचा का वह सर्वाधिक मुखर और जीवन्त चरित्र होता है। वह हंसाता है, मनोरंजन करता है, हास्य विनोद की सृष्टि बड़ी सहजता से करता है।' पर वह इतना ही नहीं होता। जोक्कड़ छत्तीसगढ़ी नाचा की सम्पूर्ण अस्मिता और अवधारणा के निचोड़ का जीता जागता प्रतीक है। परी और जोक्कड़ ही ऐसे चुम्बकीय चरित्र हैं जो रात-रात भर दर्शकों को बांधे रखने के रहस्य को साथ लिए रहते हैं। ब.व.कारन्त कहते थे कि 'लोक नाट्य का सीधा सादा अर्थ है वह लोगों के साथ रहा है और सदा रहेगा।' नाचा के अपने मूल स्वभाव में देहाती जनता के दैनिक जीवन, सुखदुख, आशा आकांक्षा हास्य उल्लास और आंसू तथा निराशा का एकांतिक एवं परिवेश के प्रति सहज जागरुकता और उसकी बेलाग अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। बाल विवाह को रोकने, विधवा विवाह को प्रचलित करने, छुआछूत की भावना का उन्मूलन करने, ऊंचनीच पर आधारित शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने में नाचा ने कभी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई। असहयोग आंदोलन के दिनों में अछूतोद्धार पर आधारित प्रहसन जमादारिन और स्वतंत्रता के आसपास के दिनों में विधवा विवाह पर मुंशी-मुंशइन नाम से खेले जाने वाले नाटक नाचा की चर्चित प्रस्तुतियां हैं। आज भी निरक्षरता और कुष्ठ उन्मूलन जैसे अन्य कई ज्वलन्त विषयों को लेकर अनेक नाचा मंडलियों ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय बखूबी दिया है और दे रहे हैं।
फिर धीरे-धीरे मशाल की जगह गैस बत्ती ने ले ली। कुछ अतिरिक्त वाद्यों को शामिल किया गया। ढोलक और हारमोनियम के शामिल हो जाने से नाचा के आकर्षण में वृद्धि हुई। हारमोनियम मास्टर नाचा पार्टी के मनीजर कहलाने लगे। कई प्रसिद्ध नाचा पार्टियां इसी दौर में सामने आई। गुरुदत्त की नाचा पार्टी, मदराजी दाऊ की रिंगनी रवेली साज जिसमें ठाकुर राम, भुलवा, लालू, मदन जैसे अनमोल रत्न शामिल थे। इसी तरह धरम लाल कश्यप की नाचा पार्टी थी। उन दिनों इन नाचा पार्टियों की खूब धूम थी। इसी दौर में फिल्मी चाल चलन, ढंग, अदाएं और द्विअर्थी संवादों का चलन भी खूब बढ़ा। यह नाचा में परस्पर प्रतिस्पर्धा, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने का दौर था।
इसी बीच लगभग 70 के दशक में छत्तीसगढ़ी की सांस्कृतिक धरती पर नाचा के समान्तर कुछ अनूठे लोक मंचीय प्रयोग हुए। दाऊ रामचंद्र देशमुख जी एवं दाऊ महासिंह चंद्राकर जी जैसे समर्पित, संपन्न और जुनूनी कला साधकों ने क्रमश: चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान जैसी युगांतरकारी छत्तीसगढ़ी -मंचीय प्रस्तुतियां दीं, जिनकी उपलब्धियां अब अंचल के सांस्कृतिक इतिहास की धरोहर बन चुकी हैं। इन प्रस्तुतियों की भव्यता और चकाचौंध के समान्तर श्री हबीब तनवीर द्वारा एक अलग ही किस्म का लोक मंचीय प्रयोग चलता रहा।
हिन्दुस्तानी थियेटर फिर नया थियेटर के बैनर पर छत्तीसगढ़ी नाचा के कलाकारों, वाद्यों, गीतों एवं बोली को कच्चे माल की तरह अपने ढंग से अपनी प्रस्तुतियों में उन्होंने इस्तेमाल किया और अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा सुनियोजित व्यूहरचना के तहत राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पायी। कुल मिलाकर आशय यही है कि आज नाचा लोक नाट्य अपने विविध रुपों में पूरी ऊर्जा शक्ति और प्रभाव को लिए युग के साथ कदम मिलाता प्रवहमान है। छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति की यह सरिता किस सागर में समायेगी- कौन कह सकता है। हम केवल कामना कर सकते हैं कि नाचा की यह आत्मीय तरंगिनी तब तक प्रवाहित रहे, जब तक इस अंचल के लोक जीवन में स्पन्दन है।
3 comments:
छत्तीसगढ़ के नाचा पर सुन्दर आलेख है। मैंने महसूस किया है कि संस्कृति की दुनिया के लोग अच्छे लेख पढ़ तो लेते हैं पर प्रतिक्रिया देने से बचते हैं। इस तरह लेख के प्रति अज्ञात वाचन की परम्परा कैसे प्रतिष्ठित हो गई ? जहां इस तरह के लेखों पर क्रिया-प्रतिक्रिया और उत्साह वर्धन होना चाहिए। अच्छे लेख देखकर लोग हत्प्रभ होकर चुप बैठना उनका संस्कृति के प्रति दोहरो मुखौटे को दिखाता है। मुझे यह लेख अच्छा लगा इतनी मेहनत से तैयार ‘ाोघपूर्ण लेख के लिए श्री रामहृदय तिवारी जी को धन्यवाद...
शानदार
आभार इस लेख को सब के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए 🙏
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