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Jun 1, 2022

उदंती.com, जून- 2022

चित्रः बसंत साहू
वर्ष- 14, अंक- 10, पर्यावरण विशेष

शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है

जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है

                                  - बशीर बद्र

इस अंक में

अनकहीः पर्यावरण की रक्षा अपने घर से करें   - डॉ. रत्ना वर्मा

प्रदूषणः  प्लास्टिक का विकल्प खोजना होगा - अली खान

जलकुंभीः कचरे से कंचन तक की यात्रा - डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

प्रकृतिः हवाएँ हुईं आवारा - प्रमोद भार्गव

मौसमः तपते सूरज के तेवर - डॉ. महेश परिमल

पर्यावरणः भयावह है वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव -  सुदर्शन सोलंकी

आलेखः कब बदलेगा अपमान का यह तरीका? - डॉ. सुरंगमा यादव

जीव- जगतः ऑरेंज ऑकलीफ- तितली सुन्दरी - रविन्द्र गिन्नौरे

हाइकुः झील के आँचल में - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

आधुनिक बोधकथा- 6  चट्टे -बट्टे  - सूरज प्रकाश

रेखाचित्रः क्वीनी - कुसुमलता चांडक

कहानीः बाबा जी का भोग - प्रेमचंद

कविताः पेड़ से बातचीत  - हरभगवान चावला

व्यंग्यः कृपया फूल न तोड़ें - डॉ गोपालबाबू शर्मा

पाँच कविताएँः धूल, अनकही, नदी, छलावा, धूप - लिली मित्रा

धरोहरः  चलता-फिरता आम का पेड़ - डॉ. ओ. पी. जोशी

लघुकथाः इतिहास के पन्नों में - पूनम सिंह

लघुकथाः वो तुम न थी - सुमन युगल

किताबेंः बारह खिड़कियों से झाँकते अनुभव - कामिनी रावत

प्रेरकः सुविधाओं की असली कीमत - निशांत

कविताः मैं वही पेड़ हूँ - डॉ. विभा रंजन (कनक)

जीवन दर्शनः पारस्परिक प्रेम का प्रतिसाद  -विजय जोशी

 

आवरण पृष्ठ के चित्रकार बसंत साहू

चित्रकला के क्षेत्र में बसंत साहू किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उदंती के आवरण पर प्रकाशित उनका यह चित्र दुनिया के लिए एक संदेश है साथ ही एक सवाल भी । वे कहते हैं- “गलत होते हुए मौन रह कर देखना भी गुनाह है। जब हम प्रकृति को बना नहीं सकते तो बिगाड़ने का भी हमें हक नही है । जल, जंगल और जमीन को आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखना है तो आप सबको आवाज उठाना पड़ेगा । पेड़ से हमारा जीवन जुड़ा है।  पेड़ है तो हम जिंदा हैं।  कुछ दिन पहले ऑक्सीजन के लिए तड़पते लोग लाखों पेड़ कटते कैसे देख सकते है...?” छत्तीसगढ़ के ग्राम्य जीवन और लोकजीवन को अपने चित्रों के माध्यम से राष्ट्रीय पहचान देने वाले बसंत साहू का पता है- सरोजिनी चौककुरूद, जिला- धमतरी, छत्तीसगढ़, मो. 9907765831email- basntartist@gmail.com

अनकहीः पर्यावरण की रक्षा अपने घर से करें

- डॉ. रत्ना वर्मा

सुबह की चाय मैं अपने छोटे से गार्डन में बैठकर पीती हूँ। आस- पास आँखों को सुकून देने वाली हरियाली है,   पक्षियों की चहचआहट है। यहाँ गौरैया, मैना, बुलबुल, मुनिया आदि कई प्रकार के पक्षी नज़र आते हैं जिनके लिए दाना और पानी का सकोरा रखा रहता है । भीड़ भरे शहर से कुछ दूर कालोनी होने के कारण गाड़ियों की आवाजाही कम है तो शोर और प्रदूषण भी कुछ कम ही है। कुल मिलाकर एक उम्र के बाद जैसा वातावरण, मानसिक शांति और आराम चाहिए वह सब पिछले कुछ साल से इस कालोनी में आने के बाद से मिल रहा है। लेकिन फिर भी चाय के साथ अखबार और मधुर संगीत सुनते हुए जब किसी पड़ोसी की कार, तेज हार्न बजाते हुए बगल से निकलती है तो सुबह- सुबह मन खट्टा हो जाता है। ऐसा लगता है कि हॉर्न की तीखी आवाज कान के पर्दे फाड़ देगी। काश लोग कॉलोनी के भीतर धीमी गाड़ी चलाने की आदत डाल लें, तो हार्न बजाने की जरूरत ही नहीं पड़े।

एक और बात मेरे घर कीबिल्डर्स ने बहुत अच्छे से प्लान करके कॉलोनी के प्रत्येक घर के सामने खूबसूरत गार्डन बनाया है। उस बगीचे का उपयोग हम सभी किसी के जन्म दिन की पार्टी या गृह प्रवेश जैसे व्यक्तिगत कार्य के लिए करते हैं और बाद में जब हम प्लास्टिक के डिस्पोजेबल खाली बॉटल, गिलास, चम्मच आदि वहीं छोड़ देते हैं और जहाँ- तहाँ अपने घर की गंदगी वहाँ फेंक कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं तो दिल में एक टीस सी उठती हैं कि हम अपने घर के भीतर थोड़ी सी भी गंदगी बर्दाश्त नहीं कर पाते फिर क्यों अपने घर के बाहर गार्डन और सड़क की उपेक्षा क्यों करते हैं। अकसर यह देखा गया है कि हम साफ- सफाई की पूरी जिम्मेदारी नगर निगम पर डाल देते हैं, और गंदगी देखते ही उन्हें ही कोसने लगते है। कितना अच्छा हो कि आप कचरा वहीं फेंकिए जहाँ से निगम की गाड़ी आसानी से उठाकर ले जा सके, तो कई मुसीबतों से आप हम बच सकते हैं।

इस व्यक्तिगत अनुभव को साझा करने का तात्पर्य यही है कि हम अपने पर्यावरण को स्वच्छ, साफ- सुथरा, हरा- भरा और शोर से मुक्त तभी रख सकते हैं जब हम इन सबकी शुरूआत अपने घर से, अपने पास- पड़ोस से करें। हम जब अपने लिए घर बनवाते हैं तो वास्तु का ध्यान रखते हैं कि रसोई किधर हो, भगवान का कमरा कहाँ हो, पानी की टंकी किस दिशा में हो आदि आदि... यदि इसके साथ साथ  घर के आस- पास हरियाली कितनी है या पेड़ पौधों के लिए पर्याप्त जगह है या नहीं इसका भी ध्यान रखें तो कॉलोनी का नक्शा बनाने के पहले लोग आस- पास हरियाली की व्यवस्था पहले करेंगे। यदि हम अपने घर की मजबूती पर ध्यान देने के साथ- साथ धरती की मजबूती की ओर भी ध्यान देंगे तो आने वाले भयावह संकट को कम किया जा सकता है। वैसे भी हमने गगनचुम्बी इमारते बनाकर शहरों को कांक्रीट के जंगल तो पहले ही बना दिए हैं। अब तो घर तभी बनेगा जब आप वॉटर हॉरवेस्टिंग की व्यवस्था पूरी करेंगे यन्यथा आपका नक्शा पास ही नहीं होगा। पर क्या वास्तव में ऐसा हो पाता है? यदि देश भर के प्रत्येक घर और  इन आसमान को छूती बिल्डिंग में वॉटर हारवेस्टिंग के पुख्ता इंतजाम होते तो प्रति वर्ष पीने के पानी की कमी इतनी नहीं होती।

गर्मी आते ही पानी के टेंकर प्रत्येक घर के सामने दिखाई देने लगता है । यदि वॉटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था गंभीरता से की होती तो ऐसी नौबत ही नहीं आती। तो जाहिर है शुरूआत तो घर से करनी होगी ना।

तो अब घर से निकल कर अपने शहर और शहर से निकल कर देश फिर दुनिया की बात की जाए, क्योंकि इसका प्रभाव तो पूरी दुनिया पर पढ़ने वाला है। दुनिया भर को डर सता रहा है कि अगर धरती का तापमान 1.5 से 2 डिग्री तक बढ़ा तो जीना असंभव हो जाएगा। मगर विशेषज्ञ कहते हैं कि तापमान तो 2 डिग्री से ज्यादा बढ़ चुका है। और इसका सबूत है कि सूरज से धरती पर प्रति वर्ग मीटर 2 वॉट एनर्जी बरस रही है। 10 साल पहले मार्च- अप्रैल में हिमालय पर जहाँ बर्फ होती थी, वह भी तेजी से पिघल रही हैं। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी कई गुना बढ़ेगा, और बेतहाशा गर्मी बढ़ेगी। ऐसे में अब ये जरूरी हो गया है कि धरती को ठंडा रखें और छाया दें । धरती ठंडी तभी रहेगी जब हम धरती में पानी के स्रोत बढ़ाएँगे। तो सबसे पहले भरपूर पेड़- पौधे लगाकर धरती को छाया देना जरूरी है। जो पेड़ों से ही संभव है। पेड़ लगेंगे तो न सूखा होगा न बाढ़ आयेगी न धरती इतनी गरम होगी।

बरस पे बरस बीत गए पर्यावरणविद् चेतावनी देते रह गए कि चेत जाइए , धरती को बचा लीजिए , हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से विनााशकारी असर होना तय है। हमने तो गलतियाँ कर लीं हैं पर आगे यह गलती युवा पीढ़ी न दोहराए उसके लिए जमीन तो तैयार करनी होगी ना। तो आइए पर्यावरण की रक्षा करना घर से शुरू करें। धरती को गरम होने से बचाएँ।

प्रदूषणः प्लास्टिक का विकल्प खोजना होगा

 - अली खान

मौजूदा वक्त में सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है। आज यह जलवायु परिवर्तन की बहुत बड़ी वजह बन रहा है। इसी के मद्देनज़र सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल पर 1 जुलाई 2022 से देश भर में प्रतिबंध लगने जा रहा है। लेकिन, सबसे बड़ी चुनौती तो प्लास्टिक के विकल्प तलाशने को लेकर है।

इस संदर्भ में सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट रिपोर्ट 2022 ने चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं। प्लास्टिक पर निर्भरता को देखते हुए यह प्रतिबंध लगाना इतना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब इसका कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं खोजा जा सका है। रिपोर्ट में रोज़ाना निकलने वाले प्लास्टिक कचरे के आंकड़े शहरों की प्लास्टिक-निर्भरता को बखूबी बयां करते हैं। महानगरों की स्थिति तो और भी खराब है। भारत में रोज़ाना 25 हज़ार 950 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। वायु प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली इस मामले में भी पहले नंबर पर है जहाँ रोजाना 689.8 टन प्लास्टिक कचरा निकल रहा है। कोलकाता (429.5 टन प्रतिदिन) दूसरे और चेन्नई (429.4 टन प्रतिदिन) तीसरे नंबर पर है।

रिपोर्ट बताती है कि देश में पिछले तीन दशकों के दौरान प्लास्टिक के उपयोग में 20 गुना बढ़ोतरी हुई है। चिंता की बात यह है कि इसका 60 फीसदी हिस्सा सिंगल यूज़ प्लास्टिक का है। सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1990 में प्लास्टिक का उपयोग करीब नौ लाख टन था और वर्ष 2018-19 तक बढ़कर 1.80 करोड़ टन से ज़्यादा हो गया। यही नहीं, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का 60 फीसदी हिस्सा यानी लगभग 1.10 करोड़ टन अलग-अलग पैकेजिंग में इस्तेमाल किया जाता है। लगभग 30 लाख टन प्लास्टिक अन्य कार्यों में उपयोग होता है। 75 लाख टन से अधिक प्लास्टिक अलग-अलग तरह की परेशानी पैदा करता है।

लिहाज़ा, सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से रोकना होगा। और सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने के लिए इसका विकल्प खोजा जाना निहायत ज़रूरी है।

आँकड़े बताते हैं कि भारत में हर व्यक्ति प्रति वर्ष औसत 11 किलोग्राम प्लास्टिक वस्तुओं का इस्तेमाल करता है। विश्व के लिए यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 28 किलोग्राम प्रति वर्ष है। देखा जाए तो आजकल लोग अपनी सहूलियत के तौर पर प्लास्टिक का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्लास्टिक बैग अपने वज़न से कई गुना अधिक वज़न उठाने में सक्षम होता है। इसी वजह से लोग कपड़े और जूट के थैले की बजाय प्लास्टिक थैली को तरजीह देते हैं।

लेकिन, हमें यह समझना होगा कि सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल हमारे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करता है। दरअसल, इससे ज़हरीले पदार्थ निकलते हैं, जो मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। साथ ही, प्लास्टिक का इस्तेमाल जीव-जंतुओं के जीवन को भी खासा प्रभावित करता है। युनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में प्लास्टिक के दुष्प्रभाव के कारण लगभग 10 करोड़ समुद्री जीव-जंतु प्रति वर्ष असमय काल के गाल में समा जाते हैं। यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर प्लास्टिक जीव-जंतुओं के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है? बता दें कि प्लास्टिक की ज़्यादातर वस्तुएँ एक बार उपयोग में लेने के बाद खुले में फेंक दी जाती हैं। ये इधर-उधर जमा होती रहती हैं और जब बारिश होती है तो ये पानी के बहाव के संग नदी-नालों से होकर समुद्र में चली जाती हैं। प्लास्टिक की वस्तुएँ वर्षों तक समुद्र में पड़ी रहती हैं। इनसे धीरे-धीरे ज़हरीले पदार्थ निकलना शुरू हो जाते हैं जो जल को दूषित करते हैं। शोध से सामने आया है कि कई बार समुद्री जीव प्लास्टिक को भोजन समझकर निगल लेते हैं। यह प्लास्टिक उनकी सांस नली या फेफड़ों में फंस जाता है और वे बैमौत मारे जाते हैं।

आज यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक प्रदूषण ने धरती की सेहत को बिगाड़ने का काम किया है। प्लास्टिक को पूरी तरह खत्म करना तो संभव नहीं है। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि इसके उपयोग को कम से कम किया जाए। साथ ही सरकारों को भी प्लास्टिक के विकल्प अतिशीघ्र तलाशने होंगे, ताकि प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम किया जा सके। इसके अलावा, समूचे देश में एक ऐसी मुहिम चलाने की आवश्यकता है जो प्लास्टिक, और खासकर सिंगल यूज़ प्लास्टिक, के खतरों के प्रति आम लोगों में जागरूकता और चेतना पैदा कर सके। लोगों की व्यापक भागीदारी के बगैर प्लास्टिक प्रदूषण पर कारगर नियंत्रण संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

जलकुंभीः कचरे से कंचन तक की यात्रा


 - डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

जलकुंभी गर्म देशों में पाई जाने वाली एक जलीय खरपतवार है। ब्राज़ील मूल का यह पौधा युरोप को छोड़कर सारी दुनिया में पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम आइकॉर्निया क्रेसिपस है। खूबसूरत फूलों और पत्तियों के कारण जलकुंभी को सन 1890 में एक ब्रिटिश महिला ने ब्राज़ील से लाकर कलकत्ता के वनस्पति उद्यान में लगाया था। इसका उल्लेख उद्यान की डायरी में है।  भारत की जलवायु इस पौधे के विकास में सहायक सिद्ध हुई।

जलकुंभी पानी में तैरने वाला एवं तेज़ी से बढ़ने वाला पौधा है। यह पौधा भारत में लगभग 4 लाख हैक्टर जल स्रोतों में फैला हुआ है और जलीय खरपतवारों की सूची में इसका स्थान सबसे ऊपर है। इसके उपयोग से जैविक खाद बनाई जा सकती है। जलकुंभी में नाइट्रोजन 2.5 फीसदी, फास्फोरस 0.5 फीसदी, पोटेशियम 5.5 फीसदी और कैल्शियम ऑक्साइड 3 फीसदी होते हैं। इसमें लगभग 42 फीसदी कार्बन होता है, जिसकी वजह से जलकुंभी का इस्तेमाल करने पर मिट्टी के भौतिक गुणों पर अच्छा असर पड़ता है। नाइट्रोजन और पोटेशियम की अच्छी उपस्थिति के कारण जलकुंभी का महत्व और भी ज़्यादा हो जाता है।

भारत में जलकुंभी के कारण जल स्रोतों को होने वाले संकट के कारण इसे ‘बंगाल का आतंक’ भी कहा जाता है। यह एकबीजपत्री, जलीय पौधा है, जो ठहरे हुए पानी में काफी तेज़ी से फैलता है और पानी से ऑक्सीजन को खींच लेता है। इससे जलीय जीवों के लिए संकट पैदा हो जाता है। जल की सतह पर तैरने वाले इस पौधे की पत्तियों के डंठल फूले हुए एवं स्पंजी होते हैं। इसकी गठानों से झुंड में रेशेदार जड़ें निकलती हैं। इसका तना खोखला और छिद्रमय होता है। यह दुनिया के सबसे तेज़ बढ़ने वाले पौधों में से एक है - यह अपनी संख्या को दो सप्ताह में ही दुगना करने की क्षमता रखता है।

जलकुंभी बड़े बांधों में बिजली उत्पादन को प्रभावित करती है। जलकुंभी की उपस्थिति के कारण पानी के वाष्पोत्सर्जन की गति 3 से 8 प्रतिशत तक अधिक हो जाती है, जिससे जल स्तर तेज़ी से कम होने लगता है।

जलकुंभी मुख्यत: बाढ़ के पानी, नदियों और नहरों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलती है। मुख्य पौधे से कई तने निकल आते हैं जो छोटे-छोटे पौधों को जन्म देते हैं तथा बड़े होने पर मुख्य पौधे से टूटकर अलग हो जाते हैं। इसमें प्रजनन की इतनी अधिक क्षमता होती है कि एक पौधा 9-10 महीनों में एक एकड़ पानी के क्षेत्र में फैल जाता है। बीजों द्वारा भी इसका फैलाव होता है। एक-एक पौधे में 5000 तक बीज होते हैं और इसके बीजों में अंकुरण की क्षमता 30 वर्षो तक बनी रहती है।

तालाबों और नहरों की जलकुंभी को श्रमिकों द्वारा निकलवाया जाता है परंतु यह विधि बहुत महंगी है। झीलों और बड़ी नदियों की जलकुंभी को मशीनों द्वारा निकलवाना सस्ता पड़ता है पर थोड़े समय बाद यह फिर से जमने लगती है। कुछ रसायनो द्वारा जलकुंभी का नियंत्रण होता है। महंगी होने के कारण भारत जैसे देश में रासायनिक विधियां कारगर नहीं हो पा रही है। जैविक नियंत्रण विधि में कीट, सूतकृमि, फफूंद, मछली, घोंघे, मकड़ी आदि का उपयोग किया जाता है। यह बहुत सस्ती और कारगर विधि है। इस विधि में पर्यावरण एवं अन्य जीवों एवं वनस्पतियों पर कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता।

जैविक विधि में जलकुंभी के नियंत्रण में एक बार कीटों द्वारा जलकुंभी नष्ट कर दिए जाने के बाद कीटों की संख्या भी कम हो जाती है। जलकुंभी का घनत्व फिर से बढ़ने लगता है और साथ ही कीटों की संख्या भी। सामान्य तौर पर जलकुंभी को पहली बार नष्ट करने में कीटों द्वारा 2 से 4 साल तक लग जाते हैं, जो कीटों की संख्या पर निर्भर करता है। ऐसे 7-8 चक्रों के बाद जलकुंभी पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। पिछले वर्षों में जबलपुर, मणिपुर, बैंगलुरु तथा हैदराबाद समेत कुछ शहरों में जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में सफलता मिली है।

जलकुंभी के मूल उत्पत्ति क्षेत्र ब्राज़ील आदि देशों में 70 से भी अधिक प्रजातियों के जीव जलकुंभी का भक्षण करते देखे गए हैं, परंतु मात्र 5-6 प्रजातियों को ही जैविक नियंत्रण के लिए उपयुक्त माना गया है। ऐसी कुछ प्रजातियों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सूडान आदि देशों में जलकुंभी को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे देशों में इन कीटों की सफलता से प्रभावित होकर भारत में भी 3-4 कीटों और एक चिचड़ी की प्रजाति को सन 1982 में फ्लोरिडा और ऑस्ट्रेलिया से बैंगलुरु में आयात किया गया था। भारत सरकार ने नियोकोटीना आइकोर्नीए एवं नियोकोटीना ब्रुकी को वर्ष 1983 एवं ऑर्थोगेलुम्ना टेरेब्रांटिस को वर्ष 1985 में पर्यावरण में छोड़ने की अनुमति दे दी। आज ये कीट भारत में हर प्रदेश में फैल चुके हैं, जहां ये जलकुंभी के जैविक नियंत्रण में मदद कर रहे हैं।

औषधीय गुणों से भरपूर होने और रोग प्रतिरोधी क्षमता पर प्रभाव के चलते कई देशों में जलकुंभी का उपयोग औषधियों में किया जाता है। असाध्य रोगों से बचने के लिए लोग इसका सूप बनाकर सेवन करते हैं। दवाइयों में अपने देश में इसका उपयोग बहुत कम हो रहा है, क्योंकि इस पौधे की विशेषता से अधिकतर लोग अनभिज्ञ हैं। कहा जाता है कि श्वांस, ज्वर, रक्त विकार, मूत्र तथा उदर रोगों में यह बेहद लाभकारी है।

हमारे देश में लोग इसे बेकार समझकर उखाड़ कर फेंक देते हैं। इसमें विटामिन ए, विटामिन बी, प्रोटीन, मैग्नीशियम जैसे कई पोषक तत्व होते हैं और यह रक्तचाप, हृदय रोग और मधुमेह से लेकर कैंसर तक के उपचार में उपयोगी हो सकती है।

इसका फूल काफी सुंदर होता है, जिसे सजावट के लिए उपयोग में लिया जाता है। जलकुंभी से डस्टबिन, बॉक्स, टोकरी, पेन होल्डर और बैग जैसे कई इको फ्रेंडली सामान बनाए जाते हैं और यह स्थानीय स्तर पर लोगों के लिए आमदनी का अच्छा साधन हो सकता है।

पिछले कुछ वर्षों से जलकुंभी से खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई है; जब जलकुंभी से बड़ी मात्रा में जैविक खाद तैयार होने लगेगी तो इसका लाभ नदियों, नहरों और तालाबों के आसपास रहने वाले किसानों को मिलेगा। 0

हाइकुः झील के आँचल में


- डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

1

सूर्य चमके

पूर्वी क्षितिज पर,

झील दमके।

2

झील शीतल

नाव के साथ- साथ

बत्तख दल।

3

ज्यों साँझ ढले

सूरज संग झील-

रंग बदले।

4

शाम विचित्र

झील सहेज रही-

सूर्य के चित्र।

5

सूर्य गुलाबी!

साँझ ढले झील की

बढ़ी बेताबी!

6

दिन ढलता

झील की लहरों पे-

मूड सूर्य का!

7

नीलम नील!

प्रात: धूप का स्पर्श-

दमकी झील!

8

शान्त है झील

गर्मियों की शाम में

सुख की फ़ील!

9

झील के कोने

श्वेत कमल छिपा

हरे पत्तों में!

10

सहसा मिले

झील के छोर पर

कमल खिले!

11

झील पे आए

दूर देश के पंछी

बने पाहुने!

12

पंछी चहके

इस झील को रखें

साफ़ करके!

13

पंछी दूर के

झील में आ पहुँचे

वासी तूर के!

14

ख़ुशी की फ़ील

नाचते- गाते लोग

ख़ामोश झील।

15

पुण्या की रात

झील के अँचल में

चाँद की बात!

16

छिप- छिपके

नहाती है चन्द्रिका

शान्त झील में।

17

चाँद- सितारे

आसमान- झील में

उतरे सारे।

18

कैसा अजूबा!

जादूगर चन्द्रमा-

झील में डूबा!

19

चाँद है आया

झील की नींद उड़ी,

जी भरमाया।

20

चन्द्रमा आया

झील के आग़ोश में

सुकून पाया।

 कवि, कथाकार, समीक्षक प्राध्यापक (अँग्रेज़ी) सम्पादक: हाइफ़न, सम्पर्कः #3, सिसिल क्वार्टर्ज़, चौड़ा मैदान, शिमला: 171004 हिमाचल प्रदेश,  ईमेल: kanwardineshsingh@gmail.com

प्रकृतिः हवाएँ हुईं आवारा


- प्रमोद भार्गव

हवाएँ जब आवारा होने लगती हैं तो लू का रूप लेने लग जाती हैं। लेकिन हवाएँ भी भला आवारा होती हैं ? वे तेज, गर्म व् प्रचंड होती हैं। जब प्रचंड से प्रचंडतम होती हैं तो अपने प्रवाह में समुद्री तूफ़ान और आँधी बन जाती हैं। सुनामी जैसे तूफ़ान इन्हीं आवारा हवाओं के दुष्परिणाम हैं। इसके ठीक विपरीत ठंडी और शीतल भी होती हैं। हड्डी कंपकंपा देने वाली हवाओं से भी हम रूबरू होते हैं। लेकिन आजकल आवारा पूंजी की तरह हवाएँ भी आवारा व्यक्ति की तरह समूचे उत्तर भारत में मचल रही हैं. तापमान 40 से 45 डिग्री सेल्सियस के बीच पहुँच गया है, जो लोगों को पस्त कर रहा है। अतएव हरेक जुबान पर प्रचंड धूप और गर्मी जैसे बोल आमफहम हो गए हैं। हालाँकि लू और प्रचंड गर्मी के बीच भी एक अंतर होता है। गर्मी के मौसम में ऐसे क्षेत्र जहाँ तापमान, औसत तापमान से कहीं ज्यादा हो और पांच दिन तक यही स्थिति यथावत बनी रहे तो इसे ‘लू’ कहने लगते हैं। मौसम की इस असहनीय विलक्षण दशा में नमी भी समाहित हो जाती है। यही सर्द-गर्म थपेड़े लू की पीड़ा और रोग का कारण बन जाते हैं। किसी भी क्षेत्र का औसत तापमान, किस मौसम में कितना होगा, इसकी गणना एवं मूल्यांकन पिछले 30 साल के आँकड़ो के आधार पर की जाती है। वायुमंडल में गर्म हवाएँ आमतौर से क्षेत्र विशेष में अधिक दबाव की वजह से उत्पन्न होती हैं। वैसे तेज गर्मी और लू पर्यावरण और बारिश के लिए अच्छी होती हैं। अच्छा मानसून इन्हीं आवारा हवाओं का पर्याय माना जाता है, क्योंकि तपिश और बारिश में गहरा अंतर्सम्बंध है।

धूप और लू के इस जानलेवा संयोग से कोई व्यक्ति पीड़ित हो जाता है, तो उसके लू उतारने के इंतजाम भी किए जाते हैं। दरअसल लू सीधे दिमागी गर्मी को बढ़ा देती है। अतएव इसे समय रहते ठंडा नहीं किया तो यह बिगड़ा अनुपात व्यक्ति को बौरा भी सकता है। वैसे शरीर में प्राकृतिक रूप से तापमान को नियंत्रित करने का काम मस्तिष्क में ‘हाइपोथैलेमस’ अर्थात ‘अधश्चेतक’ क्षेत्र करता है। इसका सबसे मत्त्वपूर्ण कार्य पीयूष ग्रंथि के माध्यम से तंत्रिका तंत्र को अंतःस्रावी प्रक्रिया के माध्यम से तापमान को संतुलित बनाए रखना होता है। इसे चिकित्सा शास्त्र की भाषा में हाइपर-पीरेक्सिया कहते हैं। यानी शरीर के तापमान में असमान वृद्धि या अधिकतम बुखार का बढ़ जाना। इसकी चपेट में बच्चे और बुजुर्ग आसानी से आ जाते हैं।

बाहरी तापमान जब शरीर के भीतरी तापमान को बढ़ा देता है, तो हाइपोथैलेमस तापमान को संतुलित बनाए रखने का काम नहीं कर पाता। नतीजतन शरीर के भीतर बढ़ गई अनावश्यक गर्मी बाहर नहीं निकल पाती है, जो शरीर में लू का कारण बन जाती है। इस स्थिति में शरीर में कई जगह प्रोटीन जमने लगता है और शरीर के कई अंग एक साथ निष्क्रियता की स्थिति में आने लग जाते हैं। ऐसा शरीर में पानी की कमी यानी डी-हाईड्रेशन के कारण भी होता है। दोनों ही स्थितियां जानलेवा होती है। इस स्थिति के निर्माण हो जाने पर बुखार उतारने वाली साधारण गोलियां काम नहीं करती हैं। क्योंकि ये दवाएँ दिमाग में मौजूद हाइपोथैलेमस को ही अपने प्रभाव में लेकर तापमान को नियंत्रित करती हैं। जबकि लू में यह स्वयं शिथिल होने लग जाता है।

ऐसे में यदि पानी कम पीते हैं तो हालात और बिगड़ सकती है, इसलिए पानी और अन्य तरल पदार्थ ज्यादा पीने की जरूरत बढ़ जाती है। रोग-प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन लू को नियंत्रित करता है। लू लगे ही नहीं इसके लिए जरूरी है कि गर्मी के संपर्क से बचें और हल्के रंग के सूती कपड़े या खादी के वस्त्र पहने। सिर पर स्वाफी (तौलिया) बांध लें और छाते का उपयोग करें। आम का पना, मट्ठा, लस्सी, शरबत जैसे तरल पेय और सत्तू का सेवन लू से बचाव करने वाले हैं। ग्लूकोज और नींबू पानी भी ले सकते हैं।

हवाएँ गर्म या आवारा हो जाने का प्रमुख कारण ऋतुचक्र का उलटफेर और भूतापीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का औसत से ज्यादा बढ़ना है। इसीलिए वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि इस बार प्रलय धरती से नहीं आकाशीय गर्मी से आएगी। आकाश को हम निरीह और खोखला मानते हैं, किंतु वास्तव में यह खोखला है नहीं। भारतीय दर्शन में इसे पाँचवाँ तत्व यूँ ही नहीं माना गया है। सच्चाई है कि यदि परमात्मा ने आकाश तत्व की उत्पत्ति नहीं की होती, तो संभवतः आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्व आकाश से ऊर्जा लेकर ही क्रियाशील रहते हैं। ये सभी तत्व परस्पर परावलंबी हैं। यानी किसी एक तत्व का वजूद क्षीण होगा तो अन्य को भी छीजने की इसी अवस्था से गुजरना होगा। प्रत्येक प्राणी के शरीर में आंतरिक स्फूर्ति एवं प्रसन्नता की अनुभूति आकाश तत्व से ही संभव होती है, इसलिए इसे बह्मतत्व भी कहा गया है। अतएव प्रकृति के सरंक्षण के लिए सुख के भौतिकवादी उपकरणों से मुक्ति की जरूरत है। क्योंकि हम देख रहे हैं कि कुछ एकाधिकारवादी देश एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भूमंडलीकरण का मुखौटा लगाकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया की छत यानी ओजोन परत में छेद को चौड़ा करने में लगे हैं। यह छेद जितना विस्तृत होगा वैश्विक तापमान उसी अनुपात में अनियंत्रित व असंतुलित होगा। नतीजतन हवाएँ ही आवारा नहीं होंगी, प्रकृति के अन्य तत्व मचलने लग जाएँगे।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 9981061100

आधुनिक बोध कथा- 6 चट्टे बट्टे

- सूरज प्रकाश

एक देहात के बाज़ार में चार सब्जी वाले बैठते थे। दो महिलाएं और दो पुरुष। बाजार की सड़क उत्तर से दक्षिण की तरफ जाती थी। अब होता यह था कि उत्तर से आने वाले ग्राहक को सबसे पहले महिला का ठेला मिलता। मान लिया वह आलू 20 रुपये किलो दे रही है तो उसके बाद वाला पुरुष वही आलू 21 रुपये किलो बताता और अगली महिला के ठेले पर आलू 22 रुपये किलो बिक रहे होते। और एकदम दक्षिणी सिरे पर बैठा ठेले वाला वही आलू 23 रुपये किलो बताता।

अब कोई व्यक्ति दक्षिण की तरफ से आ रहा होता तो उसके सामने पड़ने वाला वही सब्जी वाला आलू 20 रुपये किलो बताता और इस तरह उलटी दिशा में दाम बढ़ते जाते।

दोनों तरफ से आने वाले ग्राहक हमेशा परेशान रहते कि वापिस जाकर 20 रुपये किलो खरीदें या यहीं पर 21 या 22 या 23 रुपये किलो खरीदें। मज़े की बात, चारों में से कोई भी एक पैसा कम न करता। ग्राहक को किसी न किसी से तो सौदा करना ही पड़ता। कभी सही दाम पर और कहीं ज्यादा दाम पर।

एक बार एक भले आदमी ने बुजुर्ग से दिखने वाले सब्जी वाले से फुर्सत के समय में पूछ ही लिया - क्या चक्कर है। उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए दाम बढ़ते हैं और दक्षिण की तरफ से आने वाले ग्राहक को उत्तर की ओर आते हुए ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं।

दुकानदार ने समझाया – बाबूजी, यह बाज़ार है और बाज़ार में हमेशा कंपीटीशन होता है। सच तो यह है कि हम सब एक ही परिवार के सदस्य हैं। मियां, बीवी, बेटा और बहू। आप किसी से भी खरीदें, पैसे हमारे ही घर में आने हैं।

मामला ये है कि अगर हम चारों आपको आलू 20 रुपये किलो बतायें तो आप उसके लिए 18 या 19 रुपये देने को तैयार होंगे लेकिन जब हम 20 से 23 के बीच में आलू बेच रहे हैं तो आपको लगता है कि जहां सस्ते मिल रहे हैं, वहीं से ले लो।

डिस्क्लेमर : डिस्क्लेमर : यही हमारी राजनीति में हो रहा है। सामान वही है। लूटने के तरीके भी वही हैं और लूटने वाले भी वही हैं। सब एक ही कुनबे के।

हमें ही पता नहीं चलता कि हम किस से नाता जोड़ कर कब लुट रहे हैं और किससे नाता बनाकर ज़्यादा लुट रहे हैं। यही राजनीति का बाजार है।

9930991424, kathaakar@gmail.com

आलेखः कब बदलेगा अपमान का यह तरीका?

- डॉ. सुरंगमा यादव

हमारे समाज में महिलाओं के लिए पुरुषों के मुकाबले ज्यादा असुविधाएँ एवं असहज स्थितियाँ हैं। अधिकतर संस्थाओं में पुरुष व महिलाएँ साथ काम करते हैं। पुरुष अपनी बातचीत में अकसर अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे ये भूल जाते हैं या ये ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं समझते कि वहाँ कोई महिला भी उपस्थित है। वैसे भी पुरुषों द्वारा महिलाओं को अपमानित करने के कई तरीके हमारे समाज में प्रचलित हैं, जिनमें कुछ प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष। दो पुरुष जब आपस में झगड़ा करते हैं तो एक दूसरे का अपमान करने के लिए माँ-बहन आदि का प्रयोग करते हुए गाली- गलौच करते हैं। महिलाओं का अपमान करने के लिए भी पुरुषों द्वारा इसी तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जाता है। बहुत ही शर्मनाक स्थिति तब पैदा हो जाती है, जब पिता अपने युवा पुत्र को डाँटने के लिए ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता है और तर्क देता है कि ऐसा करके वो लड़के के मन में लज्जा पैदा करना चाहता है। वह स्त्री जो उन दोनों पुरुष में से एक की माँ और एक की पत्नी है, कितना असहज और अपमानित महसूस करती है इसका अंदाजा स्त्री को नगण्य समझने वाला पुरुष समाज कदापि नहीं कर सकता।

प्राचीन काल से लेकर अब तक हमारे समाज में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं। महिलाओं से सम्बन्धित अनेक कुप्रथाओं तथा परम्पराओं पर रोक लग चुकी है। परन्तु महिलाओं पर केन्द्रित गालियाँ देने की परम्परा यथावत् जारी है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब और ज्यादा होता है, जब उच्च शिक्षित और अपने को सभ्य समझने का दम्भ भरने वाले पुरुषों के मुख से भी ऐसी ही अभद्र भाषा सुनाई देती है। तब उनमें और अनपढ़ व्यक्ति में क्या फर्क़ रह जाता है। आखिर महिलाओं को अपमानित करने का यह तरीका कब बदलेगा। जिस प्रकार विशेष जातिसूचक शब्दों द्वारा सम्बोधन प्रतिबंधित है, वैसे ही इस पर भी रोक लगनी चाहिए; क्योंकि यह सम्पूर्ण महिला जाति का अपमान है। महिलाओं को कमतर, दुर्बल और अबला साबित करने के लिए पुरुष एक और वाक्य का अकसर प्रयोग करते हैं, “ हमने चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं। या क्या चूड़ियाँ पहन रखी हैं? ऐसा कहने वाले पुरुष ये भूल जाते हैं कि चूड़ियाँ कभी महिलाओं की कमजोरी नहीं रहीं। इतिहास इस बात का गवाह है कि चूड़ियाँ पहनने वाले हाथों ने किस तरह कुश्ती, मलखंभ, घुड़सवारी, तीरंदाजी, तैराकी जैसे पुरुषोचित माने जाने वाले कार्यों में निपुणता प्राप्त की और अपने राज्य की महिलाओं को भी इन कार्यों में दक्ष बनाया। वो कोई और नहीं आज भी वीरता का प्रतीक मानी जाने वाली रानी लक्ष्मीबाई थीं, जिन्होंने युद्धभूमि में देशप्रेम और वात्सल्य का एक साथ कुशलता पूर्वक निर्वाह किया। उनके शौर्य और पराक्रम को देखकर अंग्रेज भी चकित रह गए। क्या किसी पुरुष का ऐसा उदाहरण मिल सकता है? महिलाओं की वीरता और विद्वत्ता के उदाहरणों की इतिहास में कमी नहीं है। आधुनिक महिलाएँ उन क्षेत्रों में भी अपना खास स्थान बना रही हैं जिन पर अब तक केवल पुरुषों का ही आधिपत्य था। फिर आखिर क्या कारण है कि पुरुष हमेशा महिलाओं को कमजोर सिद्ध करके अपने पुरुषत्व का प्रमाण देने में लगे रहते हैं। इसका उत्तर जयशंकर प्रसाद के शब्दों में दिया जा सकता है, “तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की”। पुरुषों को अपनी अहंवादी संकीर्ण मानसिकता से मुक्त होने की महती आवश्यकता है।

 आज समाज की जो कुत्सित मानसिकता विकसित हो रही है, वह केवल महिलाओं के लिए ही नहीं; बल्कि पुरूषों के लिए भी चुनौतीपूर्ण है। अभी कुछ समय पूर्व तक यदि कोई महिला परिवार के किसी पुरुष सदस्य के साथ कहीं जाती थी, तो वह अपने आप को पूर्णतया सुरक्षित समझती थी; परन्तु अब स्थिति बदल गई है। एक क्या एक से अधिक पुरूष सदस्य भी साथ हों, तो भी सुरक्षा की गारंटी नहीं है। आज पुरुष के रक्षक रूप पर ही प्रश्न चिह्न लग गया है।     

जीव- जगत ऑरेंज ऑकलीफ- तितली सुन्दरी

 -रविन्द्र गिन्नौरे

  सबसे सुंदर रंग-बिरंगी तितली कौन-सी है! सुन्दर तितली का चयन विश्व सुंदरी की तर्ज पर हुआ। तितली सुन्दरी प्रतियोगिता में 'ऑरेंज ऑकलीफ' ने बाजी मारी और उसका नाम भारत की राष्ट्रीय तितली में दर्ज हो गया। छत्तीसगढ़ की तितली ऑरेंज ऑकलीफ को सुन्दरता का खिताब दिया गया वहीं इन तितलियों का निवास कवर्धा भी चर्चित हो गया।

तितली सुंदरी ऑरेंज ऑकलीफ-

ऑरेंज ऑकलीफ को राष्ट्रीय तितली यूं ही नहीं बनाया गया है। एक लंबा इसने सफर तय किया उसके बाद ही उसका नाम घोषित किया गया। 2020 के दौरान सितंबर अक्टूबर में भारत की 1500 प्रकार की तितलियों में से सात प्रजातियों को राष्ट्रीय तितली की रेस में शामिल किया गया। निर्णायकों को अब फैसला करना था कि इन सात तितलियों में सबसे सुंदर कौन है? इसके लिए के लोगों ने ऑनलाइन वोटिंग की। सबसे ज्यादा वोट 'ऑरेंज ऑकलीफ' को मिले। सात अक्टूबर वन्यजीव सप्ताह समापन पर तितली सुंदरी की घोषणा की गई। इस तरह यह भारत की राष्ट्रीय तितली बन गई।

तितली सुंदरी ऑरेंज ऑकलीफ का सौंदर्य तब दिखता है जब यह अपने पूरे पंख पसार बैठती है। पंख खुलते ही तीन रंग बरबस चमक उठते हैं। पंख के आगे भाग पर काला फिर नारंगी पट्टा और उसके बाद गहरा नीला रंग दिख पड़ता है। काले रंग के आधार पर दो सफ़ेद बिंदु इसके सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं। पंख के सिमटते ही यह एक सूखे पत्ते जैसी नज़र आती है। शिकारियों से बचने के लिए प्रकृति ने इसे ऐसा रूप प्रदान किया है।

छत्तीसगढ़ कवर्धा के जंगलों में बसेरा है, इस सुन्दर तितली का। भोरमदेव अभ्यारण के लगभग सात एकड़ इलाके में यह बहुतायत पाई जाती है। इसी के साथ भारत के वेस्टर्न घाट और उत्तर-पूर्व के जंगलों में यह पाई जाती है जहाँ इसे डेडलीफ के नाम से जाना जाता है।

प्रतियोगिता में शामिल तितलियाँ-

कृष्णा पीकॉक बड़े पंखों वाली तितली के पंख 130 एम एम तक होते हैं। पंख के अग्रभाग में काला रंग जिस पर पीले रंग की लंबी धारी और नीचे की ओर नीले, लाल बैंड होते हैं। यह उत्तर पूर्वी जंगलों सहित हिमालय में पाई जाती है।

 कामन जेजबेल के पंख 66.83 एम एम आकार के होते हैं। पंख की ऊपरी सतह सफेद और निचली सतह पीली होती है जिस पर मोटी काली धारियां और किनारे किनारों पर नारंगी छोटे-छोटे धब्बे इसे आकर्षक बनाते हैं।

फाइफ बार स्वार्ड टेल 70 से 90 एम एम पंखों वाली तितली जिसके पीछे के पंखों पर एक लंबी सी तलवार जैसी पूंछ इसकी विशेषता है। पंखों के काले सफेद पट्टे पर हरे पीले रंग का सम्मिश्रण इसे सुंदर बनाता है।

कामन नवाब तितली के ऊपरी पंख काले और नीचे के चॉकलेटी रंग के पंखों के बीच एक हल्की हरी पीली सी टोपी जैसी रचना नजर आती है इसलिए इसे नवाब कहा गया है। यह पेड़ों के ऊपरी हिस्सों पर पाई जाती है इसलिए यह बहुत कम दिखाई पड़ती है लेकिन बहुत तेज उड़ती है।

यलो गोरगन तितली के अनूठे पंख कोण सा बनाते हैं, पंखों की ऊपरी सतह पर गहरा पीला रंग होता है। यह मध्यम आकार वाली सुंदर तितली है जो पूर्वी हिमालय और उत्तर-पूर्व के जंगलों में पाई जाती है।

नार्दन जंगल क्वीन तितली का रंग चॉकलेट ब्राउन होता है और उस पर नीली धारियां इसे और सुंदरता प्रदान करती है। पंखों पर चॉकलेटी गोल घेरे इसकी विशेष पहचान बताते हैं यह फ्लोरोसेंट कलर में भी दिखाई देती है। अरुणाचल प्रदेश में यह बहुतायत पाई जाती है।

पर्यावरण संकेतक है तितली-

राष्ट्रीय तितली के अभियान में बहुत सारी संस्थाएँ सामने आईं। 'राष्ट्रीय तितली अभियान संघ' ने यह अभियान प्रारंभ किया। तितलियाँ प्रकृति संरक्षण और महत्त्वपूर्ण जैविक संकेतकों की दूत हैं जो हमारे स्वास्थ्य पर्यावरण को दर्शाती है। एक राष्ट्रीय तितली होना इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह लोगों में प्रकृति के बारे में जागरूकता फैलाने में मदद करेगा। तितलियों की प्रजातियाँ पर्यावरण में बदलाव जैसे प्रदूषण के बारे में चेतावनी कैसे देती है यह हमें समझना चाहिए। मुंबई में जूलॉजी के प्रोफेसर अमोल पटवर्धन कहते हैं, एक बार चुन लेने के बाद यह विशेषताएँ  देश के लिए सांस्कृतिक पारिस्थितिक और संरक्षण महत्त्व को परिभाषित करने में मदद करेगी और यहाँ तक कि बाद के वर्षों में पर्यटन को भी आकर्षित करेगी। इसी के साथ छत्तीसगढ़ के भोरमदेव अभ्यारण को नए सिरे से संरक्षित किया जा रहा है जहाँ राष्ट्रीय तितली ऑरेंज ऑकलीफ बहुतायत पाई जाती है।

email- ravindraginnore58@gmail.com