पेड़-पौधों और फूलों का
संरक्षण स्वस्थ पर्यावरण के लिए भी ज़रूरी है। पर्यावरण-प्रदूषण तो थोड़ा-बहुत
पहले भी था, पर इन दिनों लोग हर ओर उसके सुधार की बात
ज़ोर-शोर से करने लगे हैं, भले ही वह काग़ज़ी या दिखावटी
ज़्यादा हो। बिजली अक्सर गुल होगी, तो दुकानों पर जनरेटर
चलेंगे ही और जब जनरेटर चलेंगे तो प्रदूषण फैलेगा ही। कैसे रुक पाएगा यह? रेलवे रोड जैसे पॉश बाज़ार में भी जनरेटरों का धुआँ और इतना हल्ला कि
साफ-साफ देखना और सुनना दोनों ही मुश्किल।
अभी एक लतीफा सुनने को
मिला। एक व्यक्ति ने अपने मित्र से कहा-आज मैंने दस रुपये बचा लिए।
‘कैसे?’ मित्र ने पूछा।
‘मैं सुबह टहलने जाता
हूँ। पार्क में लिखा- फूल तोड़ने पर दस रुपये जुर्माना भरना पड़ेगा। मैंने फूल
नहीं तोड़ा।’
‘फूलों को तोड़े जाने
से बचाने की यह एक अच्छी हिमायत है, पर व्यवहार
में कितनी कारगर हो पाती है है?’
कुछ लोगों को फूल चोरी-
चोरी तोड़ने में ही मजा आता है। पता नहीं कि एक अत्यन्त तेज-तर्रार और पाक-साफ छवि
वाले भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त की जानकारी में यह बात थी या नहीं कि उनके दैनिक
पूजा-पाठ के लिए उनका नौकर एक पार्क से चोरी- छिपे फूल तोड़ कर लाता था। उसका
पकड़ा जाना देश-व्यापी चर्चा का विषय बन गया।
लोग-बाग तो अब आमतौर पर
घर के आगे पटरी की जगह को भी घेर लेने में बड़ी शान समझते हैं, पर हमने घर में ही खाली ज़मीन छोड़ रखी है और उसमें पेड़-पौधे लगा दिए हैं।
केले का भी एक पेड़ लगाया था। एक पेड़ से अनेक पेड़ हो गए। उन पर केले भी आते थे,
लेकिन हम उन्हें अकेले नहीं खाते ये। इतने सारे खा भी नहीं पाते थे।
अतः आस-पड़ोस और परिचितों में बाँट देते थे और मुफ्त की वाहवाही लूट लेते थे। बड़ा
सुख मिलता था।
पर केलों के कारण
परेशानी में पड़ गए। जिसे देखो वही केले के पत्ते कथा के लिए माँगने चला आता। लोग
कथा करवाते हैं और कई- कई बार कथा करवाने के बाद भी वे लीलावती और कलावती की
सन्दर्भ- कथा को ही सत्यनारायण की कथा समझते हैं। ‘सत्य ही नारायण है’ और यही असली
कथा है,
इस वे नहीं जान पाते। खैर, कथा करवाने वाले
पत्ते लेने आते, लेकिन वक्त का भी ध्यान न रखते। हमें अपना
नहाना, खाना, लिखना-पढ़ना, सब कुछ छोड़कर, पहले उन्हें केले के पत्ते देने
पड़ते। दो पत्तों से भी काम न चलता, पूरे चार ही हों। कई बार
तो पत्ते काटते समय हड़बड़ी में केले के पत्तों का रस टपककर हमारे कपड़ों पर गिर
पड़ता और कभी न छूटने वाले निशान छोड़ जाता। कुछ ऐसे भी परिचित सज्जन आते, जिन्हें चिरे हुए पत्ते बिल्कुल न भाते और वे मन-पसन्द नए-नए छाँटकर ले
जाते।
लोगों की समझ में न तो
अपने आप आया और न हमारे समझाने से आया कि जब पत्ते ही नहीं रहेंगे, तो केले के पेड़ भी कहाँ रह पाएँगे? सूख नहीं जाएँगे?
माँगने वालों से तभी पीछा छूटा, जब केले के
पेड़ जड़ से उखड़ गए।
केले के पत्तों की तरह
ही शामत आई गुलाब के फूलों की। हमारे यहाँ छह-सात पौधे हैं। उन पर फूल आते हैं, पर बच नहीं पाते हैं। आजकल भजन-पूजन और व्रत भी एक फैशन जैसे हो गए हैं।
कुछ दिन पहले महिलाओं में सन्तोषी माँ की पूजा का ज़ोर था। अब शुक्रवार के दिन
‘शुभ लक्ष्मी’ की पूजा का शोर है। पूजा के लिए गुलाब का लाल फूल ही चाहिए। पता
नहीं क्यों?
‘फूल चौराहे’ से एक-आध
रुपये में उसे मोल मँगाने में उन्हें क्या आपत्ति है? अच्छे-भले घर की महिलाएँ भी मुफ्त माँगकर या किसी बच्चे से मँगवाकर काम
चलाती हैं। मुहल्ले के नुक्कड़ पर रहने वाली एक लालाइन जी हैं। उनके यहाँ परचून की
दुकान है। वे बिना नागा हर शुक्रवार को हमारे यहाँ फूल लेने चली आती हैं और इस तरह
अड़ जाती हैं, जैसे हम उनके यहाँ से कोई सामान उधार ले आए
हों और वे उसके पैसे वसूल करने आई हों।
महिलाओं के बिहाफ़ पर
कुछ पुरुष लोग फूल माँगने इतने अधिकारपूर्वक आते हैं, मानो हमारी यह ज़मीन और ये गुलाब के पौधे उन्हीं के बाप के हों और हम तो
बस उनकी ओर से माली की मुफ्त नौकरी बजा रहे हों।
शुक्रवार को सुबह से ही
हमारा मन उदास हो जाता है। जानते हैं कि दिन भर गुलाब के फूल तोड़-तोड़ कर लोगों
को देने पड़ेंगे और कई दिन तक सूने-सूने, लुटे-पिटे से
पौधे अपनी करुण कथा कहते रहेंगे।
हमारे पड़ोसी एक डाक्टर
साहब की सरकारी नियुक्ति कहीं ‘हिल एरिया’ में है, लेकिन
वे जनाब रहते अक्सर मैदान में ही हैं। पता नहीं, वहाँ उनकी
हाज़िरी कौन लगाता है? जब भी उनकी या उनके किसी घर वाले की
नाक में कोई फूंसी निकल आती है, तो दवा छोड़ उन्हें फूल
सूँघने की ज़रूरत पड़ जाती है। वे बेझिझक आते हैं और घण्टी बजाने के बजाय ज़ोर- ज़ोर
से दरवाजा खटखटाते हैं या आवाज़ लगाते हैं। हमें गुलाब का ताजा फूल सादर उनके
हवाले करना पड़ता है।
वही दिक्कत पैदा हो गई
है,
जो केले के पेड़ों की वजह से आती थी। लेने वालों को गुलाब का लाल
फूल ही चाहिए। मन के मुताबिक चाहिए। नया-नया चाहिए। छोटा नहीं, बड़ा वाला चाहिए। किसी- किसी को एक-दो नहीं, तीन-
तीन चाहिए। जिस समय माँगने आएँ, उसी समय मिलने चाहिए।
एक दिन पर-उपदेश में
कुशल एक सज्जन ने हमें समझाया-‘अमाँ यार, क्यों बेकार
में दुखी होते हो? फूल तो झर ही जाते हैं। कोई ले जाए तो
क्या हर्ज है? इंसान के काम आना इंसान का फर्ज है।’ हमारा
कहने का मन हुआ- ‘जनाब, यह जीवन भी तो नश्वर है। इसे भी
फूलों की तरह एक दिन झर जाना है, लेकिन क्या इसका मतलब यह
हुआ कि इसे आज ही समाप्त कर दें?’ पर कहना निरर्थक ही रहता।
स्वार्थ के आगे भला तर्क को कौन सुनता है, कौन गुनता है?
हम बड़े असमंजस में
हैं। क्या करें, क्या न करें? इस तरह
खिले-अधखिले कोमल, सुन्दर फूलों को तोड़-तोड़कर परोपकार करते
रहें या फिर हारकर किसी दिन कह दें कि ‘ले जाओ, पूरा पौधा ही
उखाड़ कर ले जाओ’ रोज़-ःरोज की झंझट से तो मुक्ति पाएँगे। न बासी बचेगा, न क॒त्ते खाएँगे।
सम्पर्कः 46, गोपाल विहार कॉलोनी, देवरी रोड, आगरा- 282001 (उ.प्र.)
5 comments:
बहुत बढ़िया व्यंग्य। सुदर्शन रत्नाकर
👍👍👍
Dr Shraddha Dubey
बेहतरीन व्यंग्य।बधाई गोपालबाबू शर्मा जी।
उत्कृष्ट व्यंग्य👌, सत्यनारायण और शुक्रवार व्रत कथा की पुस्तकों में यह पंक्ति जोड़ देनी चाहिये कि खरीदकर लाये गये फूल-पत्तों के इस्तेमाल से ही पूजा या व्रत फलीभूत होंगे 😃
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