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Dec 18, 2012

उदंती.com-दिसम्बर 2012


मासिक पत्रिकाः वर्ष-3, अंक-4, उदंती.com-दिसम्बर 2012
हर अवसर और हर अवस्था में जो अपना कर्तव्य दिखाई दे उसी को धर्म समझ कर पूरा करना चाहिए -गीता

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पत्नी को पगार...



त्नी को पगार...

- डॉ. रत्ना वर्मा 
पिछले दिनों आमजन के बीच एक ऐसा विषय बहस का मुद्दा बना रहा कि क्या पत्नियों को पति की कमाई में हिस्सा मिलना चाहिए?  महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा पत्नियों को पति की आय में से 20 प्रतिशत हिस्सा पगार के रूप में देने का प्रस्ताव लाने और उसके बाद उसे कानूनी रूप देने के लिए संसद में पेश करने की बात कही गई है।
यह मुद्दा कितना उचित या अनुचित है इस पर चर्चा करने से पहले आइये हम अपनी भारतीय परम्परा और संस्कृति के सामाजिक, पारिवारिक ढाँचें पर एक नजर डाल लें- मानव में एक ऐसी विशिष्टता होती है जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। एकमात्र मानव ही ऐसा प्राणी है जिसमें दीर्घकालीन संबंध स्थापित करने की क्षमता होती है। नर-नारी के बीच जो प्राकृतिक आकर्षण होता है उसी के बल पर एक स्थायी संबंध पनपता है। मानव की इसी विशिष्टता के कारण ही विवाह जैसी स्थायी संस्था का जन्म हुआ है। विवाह के बाद परिवार बना। इसी परिवार में नर-नारी और उससे उत्पन्न संतानें कई पीढ़ियों तक स्थायी संबंध बनाए रखते हैं।
मानव समाज में परिवार, सुदृढ़ भावनाओं, स्थायी संबंधों और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परम्पराओं की एक मजबूत संस्था है। ऐसी दृढ़ संस्था में परिवार की सम्पत्ति सबके भले के लिए होती है। परिवार के बीच सम्पत्ति से कहीं ज्यादा महत्त्व भावनात्मक संबंधों का होता है।
यह बात अलग है कि आज आर्थिक तरक्की के दौर में परिवारों के बीच भावनात्मक सम्पन्नता के स्थान पर आर्थिक सम्पन्नता को महत्व दिया जाने लगा है जिसके परिणामस्वरूप परिवार टूट रहे हैं, समाज बिखर रहा है। इन सबके बाद भी हमारे सामाजिक पारिवारिक ढाँचें में आज भी नर-नारी के बीच जो भावनात्मक संबंध कायम हैं, उसे भी व्यापारिकता का रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। पत्नी को पति की आय में से पगार देना एक ऐसा सांस्कृतिक हमला और अदूरदर्शी दृष्टिकोण है जिसके चलते भयंकर घातक परिणाम होंगे।
भले ही पत्नी को पगार देने की बात को महिला सशक्तीकरण के रूप में देखा जा रहा हो परंतु सबसे पहले यह देखना होगा कि इसके दुष्परिणाम कितने होने वाले हैं। स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना चाहिए इससे किसी को इंकार नहीं है परंतु परिवार में एक पत्नी जो एक सामाजिक संस्था के तहत नि:स्वार्थ होकर अपने पति, अपने बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों से भावनात्मक रूप से जुड़ी रहती है, की भावना को आर्थिक नजरिए से देखने का मतलब होगा परिवार का विघटन।
उपर्युक्त मुद्दे पर चिंता व्यक्त करते हुए भारतीय संस्कृति के प्रसिद्ध विद्वान और साहित्यकार डॉ. अजहर हाशमी ने कुछ ऐसे प्रश्न उठाए हैं जिन्हें मैं यहां उद्धृत करना चाहूँगी- 'हलाकि इस संभावित कानून के सकारात्मक पहलू भी हैं किन्तु वे संख्या में कम हैं। नकारात्मक पहलू ही प्रबल हैं और अधिक हैं। सकारात्मकता की दृष्टि से पहला लाभ तो यह होगा कि पति की तनख्वाह से 20 प्रतिशत हिस्सा पत्नी को पगार के रूप में मिलने से पॉकिट मनी के रूप में पत्नी का स्थायी हक हो जाएगा। दूसरा यह कि इससे पत्नी को आर्थिक अभाव का सामना नहीं करना पड़ेगा। तीसरा यह कि इससे पत्नी बचत के रूप में बड़ी राशि इकट्ठा कर लेगी। चौथा यह कि इससे पत्नी आर्थिक निर्णय लेने में स्वतंत्र रहेगी और देश के आर्थिक विकास में भी बैंकिग व्यवस्था द्वारा योगदान दे सकेगी।
सकारात्मक पहलुओं पर गौर करें तो पति-पत्नी के संबंधों का सहज समीकरण अपनी सरलता खो देगा और परेशानियों की पहेली बन जाएगा। पहला दोष तो यह कि पति-पत्नी के बीच प्रेमिल रिश्तों की रवानी को यह कानून कड़वाहट की कहानी में बदल देगा। दूसरा यह कि पति और पत्नी के बीच साथी और सहयोगी का संबंध न रहकर मालिक और नौकरानी का रिश्ता बन जाएगा। तीसरा यह कि इससे महिलाएँ देश के सार्वजनिक क्षेत्र में राष्ट्रीय श्रम का घटक हिस्सा बनने से वंचित रह जाएँगी। उल्लेखनीय है कि भारत में अभी भी श्रमशक्ति में महिलाओं की सहभागिता 35 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है।  चौथा यह कि इससे परिवार प्रेम का प्रतिष्ठान न रहकर एम्पलॉयमेंट ऑफिस हो जाएगा। पाँचवा यह कि पति-पत्नी के संबंधों से संवेदनाएँ गायब हो जाएँगी, जिससे संतान पर घातक प्रभाव होगा। छठा यह कि पत्नी का पगार में हिस्सा देगा कामकाज के बदले, तो सवाल है कि परिवार में तो माँ और बहन भी घरेलू काम करती हैं, उनका क्या होगा। सातवाँ यह कि ऐसा कानून आएगा तो उपभोक्तावादी संस्कृति का विकार लाएगा। कुल मिलाकर यह कि 'पत्नी को पगार यानी टूटेगा परिवार'
 इन विचारों को पढ़कर बहुत से लोग इसे स्त्री विरोधी वक्तव्य कह सकते हैं, लेकिन आधुनिकता के नाम पर पिछले कुछ दशक से हमारे देश में, परिवार का जो विघटन हो रहा है उसे देखते हुए यह तो मानना ही पड़ेगा कि पत्नी को पगार देने का कानून भारतीय संस्कृति के परम्परागत मूल्य, जिनपर हमें नाज़ हैं पर घातक प्रहार होगा। यह तो कुछ ऐसा ही हो जाएगा जैसे हम परिवार में घर के बहुत सारे कामों जैसे- खाना बनाने, सफाई करने, बर्तन माँजने, कपड़ा धोने आदि के लिए पैसा देकर नौकर रखा जाता है बिल्कुल  उसी तरह स्नेह, ममता और वात्सल्य के बदले पत्नी को पति अपनी पगार का 20 प्रतिशत देगा।
 जिस देश में नारी को दुर्गा लक्ष्मी की तरह पूजा जाता है यह कहते हुए कि यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता, वहां यदि उसके  द्वारा पति, बच्चों और परिवार की जिम्मेदारी निभाने की भूमिका को आर्थिक नजरिए से देखा जाएगा और तनख्वाह दी जाएगी तो रिश्तों की गरिमा को टूटने में देर नहीं लगेगी। एक और बहुत भारी नुकसान यह होगा कि आज पूरे देश में नारी पढ़ेगी विकास गढ़ेगी जैसे नारों के जरिए नारी को देश के विकास में बराबरी की भागीदारी निभाने के मौके दिए जा रहे हैं, ऐसे में यह कानून उसे और पीछे ढकेलने का ही काम करेगी। आज जब गरीब से गरीब परिवार बेटी को पढ़ा- लिखा कर आर्थिक रूप से सक्षम करने की सोच रहा है तो एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी बेटी को बोझ मानकर उसे अपने घर से बिदा करने में ही अपना कर्त्तव्य समझता है।  यह कानून तो बेटियों को न पढ़ने के मौके देगा न आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में सहायक होगा, उल्टे माता- पिता तो यह सोचेंगे कि पति की पगार का 20 प्रतिशत हिस्सा तो बेटी का है।  उन्हें क्या मालूम कि इस 20 प्रतिशत के बदले उनकी बेटी की स्थिति गुलामों से भी बदतर बन जाएगी।
भारतीय समाज में जो गृहस्वामिनी के रूप में जानी जाती है उसे नौकरानी बनाने की चेष्टा क्यों हो रही है? 

परिवार

अकेले बच्चे
- डॉ. मोनिका शर्मा

घटना 1
नौ महीने की रिया उन मासूम बच्चों में से एक है जिसे नौकरानी के भरोसे छोड़ माता-पिता दोनों काम पर चले जाते थे। कुछ ही समय में रिया के माता-पिता को यह महसूस हुआ कि उनकी बच्ची नौकरानी के पास जाने से न केवल कतराने लगी बल्कि उसे देखकर ही उसके चेहरे पर डर के भाव भी आने लगे। दिन भर घर से बाहर रहने वाले माता-पिता को शक हुआ और उन्होंने घर पर कैमरा लगाकर नौकरानी पर स्टिंग ऑपरेशन किया। उसके बाद जो कुछ सामने आया उसे देखकर वे हैरान रह गये। 45 मिनट के इस वीडियो में उन्होंने देखा कि उनकी गैर मौजूदगी में नौकरानी रिया के साथ किस तरह की बदसलूकी करती थी। इस मासूम की किस तरह पिटाई करते हुए डॉट डपटकर उसे जबरदस्ती सुलाने की कोशिश कर रही थी। किसी भी अभिभावक का दिल दहला देने वाली यह यह घटना दिल्ली के नानकपुरा इलाके में हुई थी ।
घटना 2
देश के एक और महानगर में हुई ऐसी ही एक और घटना के मुताबिक बच्ची की सार -सँभाल के लिए रखी गयी नौकरानी ने मासूम पर ऐसा कहर ढाया कि उसने अपनी सुनने की ताकत भी खो दी। दरअसल नौकरानी को इस बात की चिंता सताती थी कि डाँट फटकार और बच्ची के रोने की आवाज आस-पड़ोस के लोग न सुन पायें इसी के चलते वह तेज आवाज में टीवी चलाकर बच्ची को कमरे में बंद कर देती थी। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह चार महीने की बच्ची हमेशा के लिए बहरी हो गई।
घटना 3
इसी तरह की एक और घटना के मुताबिक माता-पिता की गैर मौजूदगी में बच्चे की देखभाल के लिए रखे गए नौकर ने अपने आराम के लिए बच्चे को नशीला पदार्थ खिलाना शुरु कर दिया ताकि वह ज्यादातर समय सोता ही रहे और उसे परेशानी न उठानी पड़े। समय रहते माता-पिता चेत नहीं जाते तो यह दुधमुँहा बच्चा मानसिक विकृति का शिकार भी हो सकता था।
पारिवारिक विघटन का परिणाम-
आमतौर पर नौकरों के भरोसे घर पर बिल्कुल अकेले रहने वाले बच्चे वे होते हैं जिनके माता-पिता दोनों नौकरी पेशा होते हैं। किसी जमाने में कामकाजी माओं के बच्चों की जिम्मेदारी घर के बड़ों की हुआ करती थी। पर संयुक्त परिवारों में आए बिखराव ने इन मासूम बच्चों को नौकरो के भरोसे पलने के हालात पैदा कर दिए हैं। गौरतलब है कि बीते दो दशकों में ऐसी कामकाजी माँओं की संख्या में तेजी से बढ़ौतरी हुई है। जिनके बच्चे तीन साल से कम उम्र के है। एक और जहाँ कामकाजी महिलाओं की संख्या में इजाफा हुआ है वहीं दूसरी ओर बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी उठाने वाले परिवारों की संख्या में काफी कमी आई है। यानि संयुक्त परिवारों का वह ताना-बाना टूट गया है जिसमें बच्चों का पालन पोषण घर के बड़ों बुजुर्गों की देखरेख में बड़ी आसानी हो जाता था। यही कारण है कि आजकल हमारी भावी पीढ़ी नौकरों के भरोसे पल रही है। जाहिर है कि उनके जीवन में संस्कार एवं प्यार की कमी तो है ही असुरक्षा एवं मानसिक प्रताडऩा भी कुछ कम नहीं है।
भावी जीवन पर नकारात्मक प्रभाव-
ऐसी महिलाओं की संख्या महज आठ प्रतिशत है जिन्होंने बच्चे को जन्म देने के बाद उसकी देखभाल के लिए सालभर तक अपने काम से छुट्टी ली हो। यह बात अमेरिका में हुए एक रिसर्च में सामने आई है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों में हमारे देश में भी कॉरपोरेट वर्ल्ड में महिलाओं की संख्या बढ़ी है। और हालात कुछ ऐसे ही बन गए हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बच्चों की परवरिश पर कमाई की सोच भारी पड़ रही है। ऐसे में सोचने की बात ये भी है कि अपने बच्चों के लिए पैसों से हर खुशी खरीदने की चाह में भागदौड़ करने वाले अभिभावक यह भूल जाते हैं कि उनकी पीठ पीछे बच्चों के साथ होने वाला यह व्यवहार इन मासूमों के भावी जीवन पर गहरा असर डाल सकता है। एसोचैम के सामाजिक विकास न्यास द्वारा किए गए नवीनतम अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उसके मुताबिक कामकाजी माता-पिता मात्र आधा घंटा ही अपने बच्चों के साथ बिता पाते हैं। सर्वे में कामकाजी माँओं ने पूरी ईमानदारी के साथ स्वीकार किया, कि वे बच्चों को बहुत कम समय दे पाती हैं । और उन्होंने अपने आप को बच्चों की देखभाल के मामले में दस में से दो नंबर दिये। इस सर्वे में शहरों के 3000 कामकाजी अभिभावकों से बात की गई। मनोचिकित्सकों का मानना है कि नौकरों के साथ बच्चे शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह से सुरक्षित महसूस नहीं करते ऐसे में बच्चा बड़ा होकर जिद्दी, चिड़चिड़ा, मितभाषी या अकेलेपन का शिकार बन सकता है। मनोचिकित्सकों का मनना यह भी है कि छोटा सा बच्चा भी अपने साथ होने वाले व्यवहार को अच्छी तरह समझता है। और आगे चलकर इसका असर उसके पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है।
स्वास्थ्य समस्याएँ भी कम नहीं-
नौकरों के भरोसे पलने वाले नौनिहालों में स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ भी काफी होती हैं। ब्रेस्ट फीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया से जुड़ी राधा भुगरा के मुताबिक 'एक माँ को छह महीने तक के बच्चे को केवल अपना दूध ही पिलाना चाहिए और यह तभी हो सकता है जब माँ खुद घर पर बच्चे के साथ रह कर उसकी देखभाल करे।' चिकित्सकों का भी मानना है कि स्तनपान से न केवल बच्चा स्वस्थ रहता है, वह स्वयं को सुरक्षित भी महसूस करता है जिसके चलते माँ और बच्चे में भावनात्मक लगाव बढ़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का भी अनुमान है कि हर पांच में से दो बच्चों का विकास माँ का दूध नहीं मिल पाने के कारण ठीक से नहीं हो पाता। ऐसे में बच्चे की सेहत के लिए यह जरुरी है कि माँ कि गैरमौजूदगी में उसके खाने पीने का ठीक से ख़याल रखा जाए। इसमें कोई शक नहीं है कि यह काम घर परिवार के करीबी सदस्य या माँ से बेहतर और कोई नहीं कर सकता। नतीजतन नौकरों के सहारे पलने वाले बच्चों में शारीरिक विकास से जुड़ी समस्याएँ भी काफी देखने में आती हैं। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि आज के शहरी जीवन में व्यस्तता के चलते बच्चों को नौकर के सहारे छोड़ा जाता है या उन्हें क्रेच में डाल दिया जाता है। जिसके चलते वे घर जैसे माहौल में बड़े नहीं होते। जिसका परिणाम यह होता है कि माता- पिता की अनुपस्थिति में उनके साथ होने वाली उपेक्षा, बदसलूकी और शारीरिक प्रताडऩा का व्यवहार उनमें कुंठा पैदा करने लगता है।
 संपर्क: 75/56  शिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर (राजस्थान) 302020, 

कश्मीरी महिलाएँ



जीवन रक्षा और शक्ति की कहानियाँ
कश्मीरी महिलाएँ
- बिशमा मलिक
श्रीनगर 1990 के दशक के हिंसक और मुश्किल समय को पार करने में अपने परिवारों की मदद से लेकर अपने लिए एक उपयुक्त कैरियर हासिल करने तक, कश्मीरी महिलाओं के सिलाई और कपड़ों के क्षेत्र में प्रवेश ने उन्हें बेआवाज़ 'गृहणियों' से बदल कर विश्वास से भरी 'पैसे कमाने वाली' बना दिया है।
यह सब 1980 और 90 के दशक के अंतिम वर्षों के दौरान शुरू किया हुआ। वो नागरिक अशांति और नियमित रूप से 'बंद' (कर्फ़्यू ) और 'हड़ताल' के काले दिन थे, जिसने विशेष रूप से श्रीनगर और उसके चारों ओर रहने वाले पुरुषों के लिए अपने घरों के बाहर कदम रखना और नियमित काम की तलाश को मुश्किल बना दिया। हिंसा और बेरोजगारी की इस छाया के नीचे, तहमीदा बानो, जो अब अपनी उम्र के चालीसवें पड़ाव के बीच में हैं, उनके जैसी महिलाओं ने मानदंडों, सामाजिक-रिवाजों को तोडऩे का फैसला किया, पुरुषों को घर के बाहर किसी भी तरह का लाभकारी काम लेने से मना किया ताकि उनके परिवार का अस्तित्व सुनिश्चित रह सके।
बानो, एक गृहिणी, जिसने 1990 के दशक में अपना खुद का सिलाई का काम शुरू किया, याद करती हैं, 'उन दिनों में, सप्ताह में काम के दिनों से ज्यादा 'हड़ताल' के दिन होते थे। हमारे पुरुषों के जीवन को एक बहुत बड़े खतरे के मद्देनजर, मेरे जैसी महिलाओं को अपने परिवारों को पैसों की कमी से बचाने के लिए कुछ करने का निर्णय लेना पड़ा। सिलाई एक स्वाभाविक आजीविका का विकल्प था क्योंकि यह काम घर से किया जा सकता था।'
तो, चाहे नीचे गलियों में बँदूकें  गूँज रही थीं, यह तीन बेटियों और एक बेटे की माँ, चुपचाप एक-दो दर्जियों- जिन्हें ढूँढने में वो कामयाब रही थीं के साथ अच्छी गुणवत्ता के सलवार-कमीज और आदेश अनुसार अन्य कपड़े बनाने के काम में लगी रहती।
सालों के साथ बढ़ती हिंसा ने सिलाई के व्यापार में बहुत जरूरी पेशेवर बदलाव को तेजी दी। एक जमाने में केवल पुरुषों का कहलाने वाला पेशा धीरे-धीरे स्थानीय महिलाओं के बेहद सक्षम हाथों में चला गया। इस प्रक्रिया में, कुछ दिलचस्प हुआ-जहाँ पुरुषों के लिए काम कम पैमाने पर था, वह एक लाभदायक व्यवसाय का समर्थन करने वाले क्षेत्र में बदल गया था। संयोग से, यह अकेला क्षेत्र था जो उस कठिन समय में फला-फूला और अभी भी फल-फूल रहा है।
वास्तव में, घाटी में शाँति लौटने के साथ, जिन परिवारों ने उस समय अपना छोटा उपक्रम शुरू कर दिया था, उनका काम बहुत अच्छी तरह से चल रहा है। यहाँ तक कि बानो की पहल, जो एक छोटी सी सामुदायिक दुकान के तौर पर शुरू हुई थी, एक पूर्ण उद्यम बन गई है। वे ऐसा कर पाई हैं क्योंकि उनके कई दोस्त जिन्हें सिलाई का कम या बिल्कुल ज्ञान नहीं था वो उनके साथ सहयोग करके श्रीनगर के अंदर विभिन्न इलाकों में अपना छोटा बुटीक खोलना चाहते थे।
आज, बानो ऐसी तीन प्रशाखा केन्द्रों के साथ साझे लाभ के आधार पर काम करती है। जहाँ तक उनकी अपनी दुकान की बात है, उनके पास अब पाँच महिलाओं और एक पुरुष 'मास्टरजी' (पेशेवर दर्जी) का समूह है जो कढ़ाई और डिजाईन का काम देखते हैं और महीने में कम से कम 50 से 60 ग्राहकों का काम पूरा करते हैं। हाँ शादी के मौसम के दौरान, काम काफी बढ़ जाता है। इसके अलावा, युवा महिलाओं का एक समूह भी है जो अपने सिलाई कौशल को बेहतर बनाने के लिए उनकी दुकान पर आता है।
श्रीनगर निवासी आरिफ ज़बीन एक और सफलता की कहानी हैं। ये व्यवसायी महिला और व्यस्त माँ, लिबास बुटीक कश्मीरी राजधानी में लोकप्रिय कपड़ों की दुकानों  में से एक की मालिक हैं। वे 100 से अधिक महिलाओं को रोजगार देती हैं, जो उनके व्यापार के सिलाई, डिजाइन और उत्पादन के पहलुओं को देखती हैं। और, प्रतिवर्ष, 50 लाख रुपये से अधिक के कारोबार के साथ ज़बीन परिवार के अंदर सफलता की कहानी के तौर पर उभरी हैं। अब उनके पति उनके व्यापार में शामिल हो गए और उसमें एक सहायक की भूमिका निभा रहे हैं, इस तथ्य को इससे बेहतर कोई नहीं बता सकता। ज़बीन बताती हैं, 'मेरे पति ने सरकारी विभाग से समय से पहले सेवानिवृत्ति ले ली है जहाँ वे एक इंजीनियर के रूप में काम कर रहे थे। उनका वेतन हमारे व्यापार में आज के लाभ के बराबर था तो उन्होंने उसके बजाय मेरे साथ शामिल होने का फैसला किया। सौभाग्य से, उन्हें कोई अहंकार की परेशानी नहीं है और जहाँ भी हो सकता है वे मेरी मदद करते हैं।'
बानो की तरह, ज़बीन भी जीवन में कुछ बड़ा नहीं कर पाती अगर उन्होंने 1994 में छोटा, लेकिन समझदारी से निर्णय नहीं लिया होता था, जिस समय वह नवविवाहिता थी और उनके पति बेरोजगार थे। वे याद करती हैं- हमारी आर्थिक स्थिति काफी बुरी थी। तो मैंने अपने सास-ससुर और पति को मुझे अपनी एक दो महिला मित्रों के साथ एक छोटा सा व्यवसाय शुरू करने के लिए समझाया। वे राजी हो गए और हमने श्रीनगर के उपनगरों में अपनी एक छोटी सी दुकान खोल ली। उस समय मुझे डिजाईन या फिर सिलाई का कोई ज्ञान नहीं था और यह कला मैंने एक 'मास्टरजी' से सीखी जो बिहार से थे। मैंने कुछ प्रतिभाशाली युवा लड़कियों को भी अपने व्यापार में शामिल किया।
बानो और ज़बीन दोनों के लिए प्रारंभिक चुनौतियाँ कई थीं। आज के विपरीत, जब जम्मू और कश्मीर महिला विकास निगम से 2.5 लाख रुपए तक का ऋण प्राप्त करना मुश्किल नहीं है आज की तारीख तक, निगम ने अपनी दो योजनाओं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम (एन.एम.डी.एफ.सी.) और कुशल युवा महिला सशक्तीकरण (ई.एस.डब्ल्यू.) के तहत लगभग 132 महिला-नेतृत्व कारोबारों को वित्तीय सहायता प्रदान की इन महिलाओं को ऐसा कोई संस्थागत समर्थन नहीं था। उन्हें अपनी छोटी-मोटी निजी बचत से या एक उच्च ब्याज दर पर उधार ले कर काम चलाना पड़ता था। उनके शुरुआती ग्राहक दोस्त और रिश्तेदार थे और बाद में एक दूसरे के माध्यम से प्रचार हुआ उनके काम ने जोर पकड़ा।
आजकल, ज़बीन का लिबास बुटीक सभी तरह के लोगों- महिलाओं और पुरुषों, जवान, मध्यम आयु वर्ग और यहाँ तक कि बुजुर्गों- के लिए काम कर रहा है। बाजार की माँग को ध्यान में रखते हुए, वे वर्दी से लेकर पार्टी के लिए कपड़े और आम कपड़ों तक सब कुछ बनाती हैं। जहाँ, कच्चा माल बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई और यहाँ तक कि दुबई और पाकिस्तान से मँगाया जाता है लेकिन पोशाकें अभी भी बहुत पारंपरिक ही बनती हैं कश्मीरी अपनी स्थानीय शैलियाँ पहनना पसँद करते हैं और इसलिए महिलाओं के लिए सलवार-कमीज और पुरुषों के लिए खान सूट बनते हैं।
अपनी दुकान की विशेषता के बारे में बात करते हुए ज़बीन कहती हैं, 'हमारी मूल कढ़ाई जैसे कि तिल्ला आरी, जरदोजी और मोती का काम, जो कशीदाकारी के नाम से जानी जाती है सलवार सूट पर होती है और शॉल पर तो होती ही है। हर कश्मीरी महिला इन जैसे कुछ को अपनी कपड़ों की अलमारी में रखना चाहती है। ये पर्यटकों में भी बहुत लोकप्रिय हैं। हाँ, कीमतें बेशक काम और शैली के आधार पर और काम और दस्तकारी या मशीन से बना तो उसके हिसाब से अलग अलग होती हैं।
दिलचस्प बात है कि, ज़बीन कश्मीरी महिला कारीगरों की एक मजबूत समर्थक हैं और मानती हैं कि ये महिलाएँ ही हैं जिन्होंने कश्मीर के कपड़ों की समृद्ध धरोहर को दुनिया के नक्शे पर जगह दिलाई है। वे कहती हैं- आमतौर पर, कश्मीर में महिलाएँ अच्छी कढ़ाई के काम में विशेषज्ञ हैं।  इसलिए, कश्मीरी कपड़े और कढ़ाई ने जो महान प्रतिष्ठा आज अर्जित की है उसका श्रेय इस क्षेत्र की महिलाओं को जाता है।
बेशक, बानो और ज़बीन, दूसरों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। बानो ने अपनी बेटियों को वित्तीय स्वतंत्रता का महत्व समझने के लिए प्रेरित किया और वे उनके साथ शामिल होने और अपनी माँ का उद्यम नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए उत्सुक हैं। जो दो अभी भी कालेज में हैं वे उच्च दर्जे की कढ़ाई-सिलाई कोर्स करने का इरादा रखती हैं। बानो की एक बेटी, मबरुका कहती हैं- मेरे ज्यादातर दोस्त इंजीनियरिंग, चिकित्सा और ऐसे अन्य व्यावसायिक कोर्स करना चाहते हैं, मेरी रुचि परिधान के कारोबार में है। मेरे लिए, मेरी माँ मेरे जीवन में सबसे बड़ा प्रभाव हैं और अपने रवैये और जोश के साथ वो मुझे लगातार आश्चर्यचकित करती रहती हैं।
ज़बीन के प्रशंसकों की एक लंबी सूची है, जिनमें से कई उनके कर्मचारी हैं। उन्होंने हर एक को खुद चुना है। चूँकि उनमें से कई साक्षर या बहुत कुशल नहीं हैं, वे 5,000 रुपए से 8,000 रुपये के बीच प्रति माह नियमित वेतन लेकर खुश हैं। वे संक्षेप में सार ऐसे देते हैं- कश्मीर में सिलाई एक केवल महिलाओं का व्यापार बन गया है क्योंकि यहाँ महिलाएँ ही हैं जो इस पेशे को बनाए रखे हुए हैं। बाधाओं के बावजूद, उनकी कुशल कढ़ाई कारीगरी और फैशन की जन्मजात समझ की बदौलत, महिलाएँ न केवल अपनी आजीविका कमाने में सफल रही हैं बल्कि अपने परिवारों और समुदायों को सहारा दे पाई हैं। (विमेन्स फीचर सर्विस)