मुझे बड़ा रश्क आया
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- इस्मत चुग़ताई
इस्मत चुग़ताई
का जन्म 15 अगस्त
1915 को बदायूँ उत्तर प्रदेश में हुआ था। तथा मृत्यु 24 अक्टूबर को 1991 मुंबई में। वे सिर्फ उर्दू ही नहीं
भारतीय साहित्य में भी एक चर्चित और सशक्त कहानीकार के रूप में विख्यात हैं।
उन्होंने आज से क़रीब
70 साल पहले महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपनी रचनाओं में बेबाकी से उठाया और
पुरुष प्रधान समाज में उन मुद्दों को चुटीले और संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम
भी उठाया। 1941 में लिखी गई लिहाफ
कहानी के कारण वे ख़ासी मशहूर हुईं। इस्मत चुग़ताई ने कागजी हैं पैरहन नाम से एक आत्मकथा भी लिखी थी। जिसकी अंग्रेजी में
अनुवाद की किताब हाल ही में प्रकाशित हुई है। जैसा कि सब जानते हैं इस्मत आपा की
कहानी लिहाफ और मंटो की कहानी बू पर फहाशी (अश्लीलता) का मुकदमा चला। इसी मुकदमें
के सिलसिले में वे मंटो के साथ लाहौर गईं थी। प्रस्तुत है उनकी आत्मकथा कागजी हैं
पैरहन का वो अंश जिसमें मुकदमें के
सिलसिले में वे मंटो के साथ लाहौर कोर्ट में हाजिर हुईं थीं-
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44 में दिसम्बर के महीने में सम्मन मिला कि हमें
जनवरी में कोर्ट में हाजिर होना है। सब कह रहे थे जेल-वेल नहीं, बस
जुर्माना हो जाएगा। और हम बड़े जोश से लाहौर के लिए गर्म कपड़े तैयार करवाने लगे।
सीमा बहुत छोटी और कमजोर थी और बड़ी ऊँची आवाज से रोती थी। चाइल्ड
स्पेशलिस्ट को दिखाया तो उसने कहा, बिल्कुल तन्दुरुस्त है, यूँ ही
गुल मचाती है। उसे लाहौर की सर्दी में ले जाना ठीक न था। एकदम इतनी सर्दी न झेल
सकेगी। तो हमने बच्ची को अलीगढ़, सुल्ताना जाफरी की अम्मा के पास छोड़ा और लाहौर
रवाना हो गए। देहली से शाहिद अहमद देहलवी और वह कातिब जिन्होंने किताबत की थी, साथ हो
गए थे, क्योंकि बादशाह सलामत ने उन्हें भी मुलजिम करार दिया था। यह मुकद्दमा
अदबे-लतीफ पर नहीं, बल्कि उस किताब पर चला था, जो
शाहिद अहमद देहलवी ने छापी थी। हमें सुल्ताना लेने आ गई। वह उन दिनों लाहौर रेडियो
स्टेशन पर काम करती थी और लुकमान साहब के यहाँ रहती थी। उनकी बड़ी शानदार कोठी थी।
बीवी-बच्चे मैके गए हुए थे, इसलिए बस अपना ही राज था। मंटो भी पहुँच गए थे और
पहुँचते ही हमारी खूब दावतें हुईं। ज्यादातर तो मंटों के दोस्त थे, मगर
मुझे भी अजूबा जानवर समझकर देखने आ जाते थे। हमारी एक दिन पेशी हुई, कुछ भी
न हुआ। बस जज ने नाम पूछा और यह कि मैंने यह कहानी लिखी है या नहीं। मैंने
इकबाले-जुर्म किया कि लिखी है। बस। बड़ी ना-उम्मीदी हुई। सारे वक्त कुछ हमारे वकील
साहब बोलते रहे। हम चूंकि आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे, कुछ
पल्ले नहीं पड़ा। उसके बाद दूसरी पेशी पड़ गई और हम आजाद होकर गुलछर्रे उड़ाने
लगे। मैं, मंटो, शाहिद ताँगे में बैठकर खूब शॉपिंग करते फिरे।
कश्मीरी दोशाले और जूते खरीदे। जूतों की दुकान पर मंटो के नाजुक सफेद पैर देखकर
मुझे बड़ा रश्क आया। अपने भद्दे पैर को देखकर मोर की तरह मातम को जी चाहा।
'क्यों? इतने खूबसूरत हैं।' मैंने बहस की।
'मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं।'
'मगर जनानियों से तो इतनी दिलचस्पी है आपको! '
'आप तो उल्टी बहस करती हैं। मैं औरत से मर्द की
हैसियत से प्यार करता हूं। इसका मतलब यह तो नहीं कि खुद जनाना बन जाऊँ।'
'हटाइए भी जनाने और मर्दाने की बहस को, इनसानों
की बात कीजिए। पता है नाजुक पैरोंवाले मर्द बड़े हिस्सास और जहीन होते हैं। मेरे
भाई अजीम बेग चुग़ताई के पैर भी बड़े खूबसूरत हुआ करते थे। मगर..। '
.. लाहौर कितना खूबसूरत था! आज भी वैसा ही शादाब
कहकहे लगाता हुआ, बाहें फैलाकर आने वालों को समेट लेने वाला। टूटकर
चाहनेवाले बे-तकल्लुफ जिंदा-दिलों का शहर, पंजाब का दिल। तब मेरे दिल से बेसाख्ता शहंशाह
बर्तानिया के हक में दुआइया कलमे निकलने लगे कि उन्होंने हम पर मुकदमा चलाकर लाहौर
में ऐश करने का सुनहरा मौका दिया। हम दूसरी पेशी का बड़ी बेकरारी से इंतजार करने
लगे। चाहे फाँसी भी हो तो कोई परवा नहीं, अगर लाहौर में हुई तो यकीनन शहादत का रुतबा
पाएंगे और लाहौर वाले बड़ी धूम से हमारे जनाजे उठाएँगे। दूसरी पेशी नवम्बर के
खुशगवार मौसम में पड़ी, यानी 1946 ई.
में। शाहिद अपनी फिल्म में उलझे हुए थे। सीमा की आया बहुत होशियार थी और अब सीमा
बहुत मोटी-ताजी और तंदुरुस्त थी। इसलिए मैंने उसे बंबई में छोड़ा और खुद हवाई जहाज
से देहली और वहाँ से शाहिद अहमद देहलवी और उनके कातिब के साथ रेल में गई। कातिब
साहब से बड़ी शर्मिंदगी होती थी, वह बेचारे मुफ्त में घसीट लिए गए। बड़े खामोश, मिस्कीन
से थे। हमेशा आँखें झुकीं, चेहरे पर उकताहट, उन्हें देखकर एहसासे-जुर्म एकदम उभर जाता था।
मेरी किताब की किताबत में फंस गए। मैंने उनसे पूछा-
'आपकी क्या राय है? क्या हम मुकद्दमा हार जाएँगे? '
'मैं कुछ कह नहीं सकता, मैंने
कहानी नहीं पढ़ी।'
'मगर कातिब साहब, आपने किताबत की है।'
'मैं अलफाज़ जुदा-जुदा देखता हूँ और लिख देता हूँ।
उनके मानी पर गौर नहीं करता।'
'कमाल है! और छपने के बाद भी नहीं पढ़ते? '
'पढ़ता हूँ, कहीं गलती तो नहीं रह गई।'
'अलग-अलग अलफाज़! '
'जी हाँ! ' उन्होंने
नदामत से सर झुका लिया। थोड़ी देर बाद बोले-
'एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानेंगी! '
'नहीं।'
'आप कियाँ (के यहाँ) इमला की बहुत गलतियाँ होती हैं।'
'हाँ, वो तो होती हैं। अस्ल में सीन, से और
साद में गड़बड़ा जाती हूँ। जो, जाद, जे, जाल में भी बहुत कनफ्यूजन होता है। यही हाल छोटी
हे, बड़ी हे और दोचश्मी हे का है।'
'आपने तख्तियाँ नहीं लिखीं? '
'बहुत लिखीं। और मुस्तकिल इन्हीं गलतियों पर बहुत
मार खाई मगर..। '
'दरअस्ल जैसे मैं अलफाज़ पर ध्यान देता हूँ , मानी
की तरफ तवज्जह नहीं देता, इसी तरह आप अपनी बात कहने में ऐसी उतावली होती
हैं कि हरूफ पर तवज्जह नहीं देतीं।'
'ऊँह! ' अल्लाह
कातिबों को जीता रखे, वो मेरी आबरू रख लेंगे। मैंने सोचा और टाल दिया।
.. पेशी के दिन हम कोर्ट में हाजिर हुए और वह गवाह
पेश हुए जिन्हें यह साबित करना था कि मंटो की 'बू' और मेरा 'लिहाफ फुहश' हैं। मेरे वकील ने मुझे समझा दिया कि जब तक मुझसे
बराहे-रास्त सवाल न किया जाए, मैं मुँह न खोलूँ। वकील खुद जो मुनासिब समझेगा
करेगा।
पहले 'बू' का नंबर आया।
'ये कहानी फुहश है? ' - मंटो
के वकील ने पूछा।
'जी हाँ, ' गवाह
बोला।
'किस लफ्ज से आपको मालूम हुआ कि फुहश है? '
गवाह: 'लफ्ज 'छाती'।
वकील: 'माइ लॉर्ड, लफ्ज छाती फुहश नहीं है।'
जज: 'दुरुस्त।'
वकील: 'लफ्ज छाती फुहश नहीं है? '
गवाह: 'नहीं, मगर यहाँ मुसन्निफ ने औरत के सीने को छाती कहा
है।'
मंटो एकदम से खड़ा हो गया और बोला-
'औरत के सीने को छाती न कहूँ तो क्या मूंगफली कहूँ? '
कोर्ट में कहकहा पड़ा। मंटो भी हँसने लगा। 'अगर
मुलजिम ने फिर इस किस्म का छिछोरा मजाक किया तो कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के जुर्म में
बाहर निकाल दिया जाएगा या माकूल सजा दी जाएगी।' मंटो को उसके वकील ने चुपके-चुपके समझाया और वह
समझ गया। बहस चलती रही और घूम-फिरके गवाहों को बस एक 'छाती' मिलता
था जो फुहश साबित न हो पाता था। 'लफ्ज छाती फुहश है, घुटना या कुहनी क्यों फुहश नहीं? ' मैंने
मंटो से पूछा।
'बकवास! ' मंटो
भड़क उठा। बहस चलती रही। हम लोग उठकर बरामदे में डगर-डगर करती बेंचों पर जा बैठे।
अहमद नदीम कासमी एक टोकरा माल्टे लाए थे। उन्होंने नफासत से माल्टे खाने की तरकीब
बताई। माल्टे को आम की तरह पिलपिलाकर छोटा सा सुराख कर लो और मजे से चूसते रहो।
टोकरा भर माल्टे हम बैठे-बैठे चूस गए। माल्टों से पेट भरने के बजाय और शिद्दत से
भूख जाग उठी। लंच ब्रेक में किसी होटल पर धावा बोला दिया। सीमा की पैदाइश के
सिलसिले में मैं बहुत बीमार रही थी, सारी चर्बी छट गई थी, गुरग्गन
खानों का परहेज नहीं रहा था। मुर्गी इतनी कवी-हेकल थी कि बिल्कुल गिद्ध या चील के
टुकड़े लग रहे थे। मोटी-मोटी, काली मिर्च छिड़ककर गर्म-गर्म कुल्चों के साथ और
पानी की जगह कंधारी अनार का रस। बे-इख्तियार जी से मुकद्दमा चलाने वालों के लिए
दुआ निकल रही थी।
..
कोर्ट में बड़ी भीड़ थी। कई असहाब हमें राय दे चुके थे कि हम मुआफी माँग
लें। वो जुर्माना हमारी तरफ से अदा करने को तैयार थे। मुकद्दमा कुछ ठंडा पड़ता जा
रहा था। 'लिहाफ' को फुहश साबित करने वाले हमारे गवाह हमारे वकील की जिरह से कुछ
बौखला से रहे थे। कहानी में कोई लफ्ज काबिले-गिरफ्त नहीं मिल रहा था। बड़े
सोच-विचार के बाद एक साहब ने फरमाया कि ये जुमला '..आशिक
जमा कर रही थीं, ' फुहश है।
'कौन सा लफ्ज फुहश है? जमा या
आशिक? वकील ने पूछा।'
'लफ्ज आशिक! ' गवाह
ने जरा तकल्लुफ से कहा।
'माई लॉर्ड लफ्ज आशिक बड़े-बड़े शुअरा ने बड़ी
फरावानी से इस्तेमाल किया है और नातों में इस्तेमाल किया गया है। इस लफ्ज को
अल्लाह वालों ने बड़ा मुकद्दस मुकाम दिया है।'
'मगर लड़कियों का आशिक जमा करना बड़ी मायूब बात है, ' गवाह
ने फरमाया।
'क्यों? '
'इसलिए, क्योंकि..ये शरीफ लड़कियों के लिए मायूब बात है।'
'जो लड़कियाँ शरीफ नहीं उनके लिए मायूब नहीं? '
'अ..नहीं।'
'मेरी मुवक्किल ने उन लड़कियों का जिक्र किया है
जो शरीफ नहीं होंगी। क्यों साहब, बकौल आपके, गैर-शरीफ लड़कियाँ आशिक जमा करती हैं? '
'जी हाँ।'
'उनका जिक्र करना फुहाशी नहीं। मगर एक शरीफ खानदान
की तालीमयाफ़्ता औरत का उनके बारे में लिखना काबिले-मलामत है, ' गवाह
साहब जोर से गरजे।
'तो शौक से मलामत फरमाइए, मगर
कानून की गिरफ्त के काबिल नहीं।'
मुआमला बिल्कुल फुसफुसा हो गया।
'अगर आप लोग मुआफी माँग लें तो हम आपका सारा खर्चा
भी देंगे और.. ' एक साहब न जाने कौन थे, चुपके
से मेरे पास आकर बोले।
'क्यों मंटो साहब, मुआफी माँग लें! जो रुपये मिलेंगे, मजे से
चीजें खरीदेंगे।' मैंने मंटो से पूछा।
'बकवास, ' मंटो
ने अपनी मोरपंखी आँखें फैलाकर कहा।
'मुझे अफसोस है, यह सरफिरा मंटो राजी नहीं।'
'मगर आप! अगर आप ही..। '
'नहीं, आप नहीं जानते। यह शख्स बड़ा फित्तीन है। बंबई
में मेरा रहना दूभर कर देगा। इसके गुस्से से वह सजा बदजर्हा बेहतर होगी जो मुझे
मिलने वाली है।' वह साहब उदास हो गए क्योंकि हमें सजा नहीं मिली।
जज साहब ने मुझे कोर्ट के पीछे एक कमरे में तलब किया और बड़े तपाक से बोले, 'मैंने
आपकी कहानियाँ पढ़ी हैं और वो फुहश नहीं। और न 'लिहाफ' फुहश है। मगर मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत भरी
होती है।'
'दुनिया में भी गलाजत भरी है, ' मैं मखनी आवाज में बोली।
'तो क्या जरूरी है कि उसे उछाला जाए! '
'उछालने से वह नजर आती है और सफाई की तरफ ध्यान जा
सकता है।'
जज साहब हँस दिए।
न
मुकदमा चलने से परेशानी हुई थी, न जीतने की खुशी हुई। बल्कि गम ही हुआ कि अब फिर
लाहौर की सैर खुदा जाने कब नसीब होगी
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