पत्नी को पगार...
- डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले दिनों आमजन के बीच एक ऐसा विषय बहस का मुद्दा बना रहा कि क्या
पत्नियों को पति की कमाई में हिस्सा मिलना चाहिए?
महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा पत्नियों को पति की आय में से 20
प्रतिशत हिस्सा पगार के रूप में देने का प्रस्ताव लाने और उसके बाद उसे कानूनी रूप
देने के लिए संसद में पेश करने की बात कही गई है।
यह मुद्दा कितना उचित या अनुचित है इस पर चर्चा करने से पहले आइये हम
अपनी भारतीय परम्परा और संस्कृति के सामाजिक, पारिवारिक ढाँचें पर एक नजर डाल लें- मानव में एक
ऐसी विशिष्टता होती है जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है। एकमात्र मानव ही ऐसा
प्राणी है जिसमें दीर्घकालीन संबंध स्थापित करने की क्षमता होती है। नर-नारी के
बीच जो प्राकृतिक आकर्षण होता है उसी के बल पर एक स्थायी संबंध पनपता है। मानव की
इसी विशिष्टता के कारण ही विवाह जैसी स्थायी संस्था का जन्म हुआ है। विवाह के बाद
परिवार बना। इसी परिवार में नर-नारी और उससे उत्पन्न संतानें कई पीढ़ियों तक स्थायी
संबंध बनाए रखते हैं।
मानव समाज में परिवार, सुदृढ़ भावनाओं, स्थायी संबंधों और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही
परम्पराओं की एक मजबूत संस्था है। ऐसी दृढ़ संस्था में परिवार की सम्पत्ति सबके
भले के लिए होती है। परिवार के बीच सम्पत्ति से कहीं ज्यादा महत्त्व भावनात्मक
संबंधों का होता है।
यह बात अलग है कि आज आर्थिक तरक्की के दौर में परिवारों के बीच
भावनात्मक सम्पन्नता के स्थान पर आर्थिक सम्पन्नता को महत्व दिया जाने लगा है
जिसके परिणामस्वरूप परिवार टूट रहे हैं, समाज बिखर रहा है। इन सबके बाद भी हमारे सामाजिक
पारिवारिक ढाँचें में आज भी नर-नारी के बीच जो भावनात्मक संबंध कायम हैं, उसे भी
व्यापारिकता का रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। पत्नी को पति की आय में से
पगार देना एक ऐसा सांस्कृतिक हमला और अदूरदर्शी दृष्टिकोण है जिसके चलते भयंकर
घातक परिणाम होंगे।
भले ही पत्नी को पगार देने की बात को महिला सशक्तीकरण के रूप में देखा
जा रहा हो परंतु सबसे पहले यह देखना होगा कि इसके दुष्परिणाम कितने होने वाले हैं।
स्त्री को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना चाहिए इससे किसी को इंकार नहीं है परंतु
परिवार में एक पत्नी जो एक सामाजिक संस्था के तहत नि:स्वार्थ होकर अपने पति, अपने
बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों से भावनात्मक रूप से जुड़ी रहती है, की
भावना को आर्थिक नजरिए से देखने का मतलब होगा परिवार का विघटन।
उपर्युक्त मुद्दे पर चिंता व्यक्त करते हुए भारतीय संस्कृति के
प्रसिद्ध विद्वान और साहित्यकार डॉ. अजहर हाशमी ने कुछ ऐसे प्रश्न उठाए हैं जिन्हें
मैं यहां उद्धृत करना चाहूँगी- 'हलाकि इस संभावित कानून के सकारात्मक पहलू भी हैं
किन्तु वे संख्या में कम हैं। नकारात्मक पहलू ही प्रबल हैं और अधिक हैं। सकारात्मकता
की दृष्टि से पहला लाभ तो यह होगा कि पति की तनख्वाह से 20
प्रतिशत हिस्सा पत्नी को पगार के रूप में मिलने से पॉकिट मनी के रूप में पत्नी का
स्थायी हक हो जाएगा। दूसरा यह कि इससे पत्नी को आर्थिक अभाव का सामना नहीं करना
पड़ेगा। तीसरा यह कि इससे पत्नी बचत के रूप में बड़ी राशि इकट्ठा कर लेगी। चौथा यह
कि इससे पत्नी आर्थिक निर्णय लेने में स्वतंत्र रहेगी और देश के आर्थिक विकास में
भी बैंकिग व्यवस्था द्वारा योगदान दे सकेगी।
सकारात्मक पहलुओं पर गौर करें तो पति-पत्नी के संबंधों का सहज समीकरण
अपनी सरलता खो देगा और परेशानियों की पहेली बन जाएगा। पहला दोष तो यह कि पति-पत्नी
के बीच प्रेमिल रिश्तों की रवानी को यह कानून कड़वाहट की कहानी में बदल देगा।
दूसरा यह कि पति और पत्नी के बीच साथी और सहयोगी का संबंध न रहकर मालिक और नौकरानी
का रिश्ता बन जाएगा। तीसरा यह कि इससे महिलाएँ देश के सार्वजनिक क्षेत्र में
राष्ट्रीय श्रम का घटक हिस्सा बनने से वंचित रह जाएँगी। उल्लेखनीय है कि भारत में
अभी भी श्रमशक्ति में महिलाओं की सहभागिता 35 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। चौथा यह कि इससे परिवार प्रेम का प्रतिष्ठान न
रहकर एम्पलॉयमेंट ऑफिस हो जाएगा। पाँचवा यह कि पति-पत्नी के संबंधों से संवेदनाएँ
गायब हो जाएँगी, जिससे संतान पर घातक प्रभाव होगा। छठा यह कि
पत्नी का पगार में हिस्सा देगा कामकाज के बदले, तो सवाल है कि परिवार में तो माँ और बहन भी घरेलू
काम करती हैं, उनका क्या होगा। सातवाँ यह कि ऐसा कानून आएगा तो
उपभोक्तावादी संस्कृति का विकार लाएगा। कुल मिलाकर यह कि 'पत्नी
को पगार यानी टूटेगा परिवार'।
इन विचारों को पढ़कर बहुत से
लोग इसे स्त्री विरोधी वक्तव्य कह सकते हैं, लेकिन आधुनिकता के नाम पर पिछले कुछ दशक से हमारे
देश में, परिवार का जो विघटन हो रहा है उसे देखते हुए यह
तो मानना ही पड़ेगा कि पत्नी को पगार देने का कानून भारतीय संस्कृति के परम्परागत
मूल्य, जिनपर हमें नाज़ हैं पर घातक प्रहार होगा। यह तो कुछ ऐसा ही हो जाएगा
जैसे हम परिवार में घर के बहुत सारे कामों जैसे- खाना बनाने, सफाई
करने, बर्तन माँजने, कपड़ा धोने आदि के लिए पैसा देकर नौकर रखा जाता
है बिल्कुल उसी तरह स्नेह, ममता
और वात्सल्य के बदले पत्नी को पति अपनी पगार का 20 प्रतिशत देगा।
जिस देश में नारी को दुर्गा
लक्ष्मी की तरह पूजा जाता है यह कहते हुए कि यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र
देवता, वहां यदि उसके द्वारा पति, बच्चों
और परिवार की जिम्मेदारी निभाने की भूमिका को आर्थिक नजरिए से देखा जाएगा और
तनख्वाह दी जाएगी तो रिश्तों की गरिमा को टूटने में देर नहीं लगेगी। एक और बहुत
भारी नुकसान यह होगा कि आज पूरे देश में नारी पढ़ेगी विकास गढ़ेगी जैसे नारों के
जरिए नारी को देश के विकास में बराबरी की भागीदारी निभाने के मौके दिए जा रहे हैं, ऐसे
में यह कानून उसे और पीछे ढकेलने का ही काम करेगी। आज जब गरीब से गरीब परिवार बेटी
को पढ़ा- लिखा कर आर्थिक रूप से सक्षम करने की सोच रहा है तो एक बहुत बड़ा वर्ग आज
भी बेटी को बोझ मानकर उसे अपने घर से बिदा करने में ही अपना कर्त्तव्य समझता
है। यह कानून तो बेटियों को न पढ़ने के
मौके देगा न आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में सहायक होगा, उल्टे
माता- पिता तो यह सोचेंगे कि पति की पगार का 20 प्रतिशत हिस्सा तो बेटी का है। उन्हें क्या मालूम कि इस 20
प्रतिशत के बदले उनकी बेटी की स्थिति गुलामों से भी बदतर बन जाएगी।
भारतीय समाज में जो गृहस्वामिनी के रूप में जानी जाती है उसे नौकरानी
बनाने की चेष्टा क्यों हो रही है?
3 comments:
में रत्ना जी की बात से बहुत हद तक सहमत हूँ।
bahut sundar aalekh
मैं रत्ना जी की बातों से पूरी तरह से सहमत हूँ...
२०% देने के बाद खाना, कपड़ा और इलाज का खर्च कौन उठाएगा?
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