मेरी
टेढ़ी मेढ़ी कहानियाँ, मेरे हँसते रोते ख्वाब
कुछ
सुरीले बेसुरे गीत मेरे
कुछ
अच्छे बुरे किरदार
वो
सब मेरे हैं, उन
सबमें मैं हूँ
बस
भूल न जाना, रखना
याद मुझे...जब तक है जान
ये आखरी शब्द निर्माता-निर्देशक यश चोपड़ा अपनी
मृत्यु के कुछ दिन पहले अपने सम्मान में
रखे एक मीडिया कार्यक्रम में कहे थे। इन पंक्तियों के एक-एक शब्द जैसे उनके जीवन
की कहानी कहते हैं। सिनेमा के पर्दे पर जो उन्होंने करिश्मा किया, जो जादुई छटा बिखेरी, वह सिनेमा के इतिहास का माइल स्टोन बन
गया। उनके पहले उन जैसा न कोई आया था, ना
ही कोई उन जैसा किसी के आने की सम्भावना है।
यश चोपड़ा का भी एक
सपना था कि फिल्म में वे हीरो बनें। अगर वे हीरो बन जाते, तो क्या उन्हें कामयाबी मिलती? लेकिन
उनकी फिल्में देखकर इतना अंदाजा तो लग ही रहा है कि हीरो के रूप में जो उन्होंने
सपना देखा था, उसे
उन्होंने निर्माता-निर्देशक के रूप में उतारने की कोशिश की। यश चोपड़ा इंजीनियरिंग
की पढ़ाई कर रहे थे। परिवार वाले उन्हें आईसीएस बनाना चाहते थे, लेकिन उन्होंने एक तीसरा रास्ता अपनी
मर्जी से चुन लिया। उसमें उनकी माँ का पूरा सपोर्ट मिला। माँ से मिले 200 रुपये
लेकर मुम्बई आ गए। पहले आईएस जौहर, फिर
बड़े भाई बीआर चोपड़ा के सहायक बने। यह भी कह सकते हैं कि यश चोपड़ा को यश चोपड़ा
बनाने में हीरोइनों ने ज्यादा सार्थक भूमिका निभाई। यशजी को शायरी का बहुत शौक था।
इसी वजह से मीना कुमारी से उनकी दोस्ती हुई। वह चाहती थीं कि यश हीरो बनें।
उन्होंने सिफारिश भी की। लेकिन वैजयंती माला ने उन्हें निर्देशक बनने का सुझाव
दिया। बीआर चोपड़ा ने अपने भाई पर भरोसा कर धूल का फूल के निर्देशन
का जिम्मा सौंप दिया और सफल रहे। उसके बाद दाग से इन्होंने अपने
बैनर यशराज फिल्म्स की शुरूआत की, जो
आज इंडस्ट्री का शीर्ष बैनर बन चुका है।
यश चोपड़ा ने
निर्देशक के तौर पर 22 फिल्में बनाई। पाँच
दशक की सिनेमाई यात्रा में उन्होंने वक्त, इत्तेफाक, डर, दिल तो पागल है, काला पत्थर, वीर जारा जैसी कई सफल फिल्में बनाईं। उनकी आखिरी फिल्म जब
तक है जान रिलीज होने के लिए तैयार थी, मगर उसके पहले वे इस दुनिया को अलविदा
कह गए। दुनिया को इस बात का मलाल रह जाएगा कि वे अपनी ही अंतिम फिल्म को नहीं देख
सके। हालाँकि उन्होंने पहले ही इस फिल्म को अपनी अंतिम फिल्म घोषित कर दिया था और
कह दिया था कि वे अब निर्देशन से संन्यास ले रहे हैं। उनकी इस घोषणा ने सबको चौंका
दिया था। फिल्म का एक गाना भी शूट करने से रह गया था, मगर उसके पहले वे चले गए।
यश चोपड़ा की एक
बड़ी खासियत थी कि वे कहानी के लिए सामाजिक प्रसंग चुनते थे। वे छोटी-छोटी घटनाओं
से उत्पे्ररित होते थे और उसे कहानी की शक्ल में तैयार करवाते थे। उन्होंने सिनेमा
में हमेशा नए-नए प्रयोग भी किए। धर्मपुत्र में उन्होंने बँटवारे के ज़ख्म लोगों के सामने रखे तो 1965 में फिल्म
वक्त के जरिए करारा प्रहार किया। कौन भूल सकता है वक्त का वो गाना- ओ मेरी ज़ोहरा ज़बीं... इतने बड़े पैमाने पर मल्टीस्टारर
फिल्म शायद लोगों ने नहीं देखी थी। परिवार के बिछडऩे और मिलने का जो फॉर्मूला वक्त में उन्होंने अपनाया वो हिन्दी
सिनेमा में बरसों बरस चलता रहा और चल रहा है।
पर यश चोपड़ा पर एक तरह की या केवल रुमानी
फिल्में बनाने का आरोप लगता रहा है। लेकिन यश जी को केवल रोमांस के चश्मे से देखने
वालों को शायद उनकी फिल्म इत्तेफ़ाक देखनी होगी। 24 घंटों में सिमटी ऐसी स्पसेंस
फिल्म हिंदी सिनेमा में कम ही देखने को मिलती है। हिंदी सिनेमा को कभी गानों से
अलग करके देखने की कल्पना भी नहीं की जा सकती, मगर
उन्होंने इत्तेफ़ाक जैसी क्राइम थ्रिलर बगैर एक भी गाने के बनाकर सबको हैरान कर
दिया। 60 और 70 के दशक में उनकी सृजनशीलता बिलकुल दूसरे शिखर पर थी।
70 के दशक में
उन्होंने एक से एक बेमिसाल फिल्में बनाईं। अमिताभ बच्चन-सलीम जावेद-यश चोपड़ा के
घातक तालमेल ने दीवार और त्रिशूल जैसी फिल्में दीं। अमिताभ बच्चन को बुलंदियों
पर पहुँचाने में यश चोपड़ा का भी हाथ रहा। दाग में दो पत्नियों के बीच संघर्ष करते
व्यक्ति की दास्तां कहने की हिम्मत तब उन्होंने की। जीवन की वास्तविकता और कठोर सच्चाइयों
से रूबरू करवातीं फिल्मों के बीच उन्होंने सिलसिला और कभी कभी भी दी।
वे जानते थे कि
युवाओं की पसंद-नापसंद क्या है? वे
समय को समझने की लगातार कोशिश करते और उसे ही पर्दे पर उतारने की धुन में लग जाते।
डर और दिल तो पागल है में वह साफ-साफ
दिखाई पड़ा। उन्होंने हमेशा एक्टर्स को भी नए-नए अंदाज में पेश किया और वैसी ही
पहचान उन एक्टर्स की भी बनी। इत्तेफ़ाक
और दाग में राजेश खन्ना का जो रूप था, वह
उनकी बाकी फिल्मों पर भारी पड़ा रहा। काला पत्थर
में अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा को अपने सामने खड़ा कर जोरदार अभिनय
करवा दिया। उनकी वह टक्कर हमेशा-हमेशा के लिए पर्दे के बाहर भी देखी गई। दीवार में यशजी ने अमिताभ बच्चन को एंग्रीमैन की इमेज
दी, जो एक मुहावरा बन
गया। उसी फिल्म में शशि कपूर से मेरे पास माँ है का संवाद ऐसे कहलवाया कि यादगार
बन गया। कभी कभी और सिलसिला में सिनेमाई
रोमांस का शिखर दिखाई पड़ा।
80 का दशक यश
चोपड़ा के लिए भटकाव वाला दौर रहा। यश चोपड़ा ने तब कहा भी था कि 80 के दौर में
उन्हें अपनी ही एक फिल्म का पोस्टर देखकर लगा था कि उनकी फिल्मों में केवल पोस्टर
पर से सितारों के चेहरे बदल रहे हैं, कहानी
वही रहती है। तब उन्होंने चाँदनी बनाई।
यशजी का जाना सबको
परेशान कर रहा है। उनका अभी होना जरूरी था, इसलिए
कि रीमेक के इस जमाने में वे बिना नकल नई फिल्में बनाते थे। सिनेमा को समाज के साथ
जोडऩे वाले, मधुर
संगीत से दिल धड़काने वाले और पर्दे पर रोमांस के नए-नए रूप दिखाने वाले वे अपनी
तरह के अलबेले फिल्मकार थे। बहरहाल आज वो हमारे बीच नहीं हैं, मगर अपनी फिल्मों के जरिए वो दर्शकों
के दिलों में हमेशा धड़कते रहेंगे। (उदंती फीचर्स)
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