जीवन रक्षा और शक्ति की कहानियाँ
कश्मीरी महिलाएँ
- बिशमा मलिक
श्रीनगर 1990 के
दशक के हिंसक और मुश्किल समय को पार करने में अपने परिवारों की मदद से लेकर अपने
लिए एक उपयुक्त कैरियर हासिल करने तक, कश्मीरी महिलाओं के सिलाई और कपड़ों के क्षेत्र
में प्रवेश ने उन्हें बेआवाज़ 'गृहणियों' से बदल कर विश्वास से भरी 'पैसे
कमाने वाली' बना दिया है।
यह सब 1980 और 90 के दशक के अंतिम वर्षों के दौरान शुरू किया हुआ।
वो नागरिक अशांति और नियमित रूप से 'बंद' (कर्फ़्यू ) और 'हड़ताल' के काले दिन थे, जिसने विशेष रूप से श्रीनगर और उसके चारों ओर
रहने वाले पुरुषों के लिए अपने घरों के बाहर कदम रखना और नियमित काम की तलाश को
मुश्किल बना दिया। हिंसा और बेरोजगारी की इस छाया के नीचे, तहमीदा
बानो, जो अब अपनी उम्र के चालीसवें पड़ाव के बीच में हैं, उनके
जैसी महिलाओं ने मानदंडों, सामाजिक-रिवाजों को तोडऩे का फैसला किया, पुरुषों
को घर के बाहर किसी भी तरह का लाभकारी काम लेने से मना किया ताकि उनके परिवार का
अस्तित्व सुनिश्चित रह सके।
बानो, एक गृहिणी, जिसने 1990 के
दशक में अपना खुद का सिलाई का काम शुरू किया, याद करती हैं, 'उन
दिनों में, सप्ताह में काम के दिनों से ज्यादा 'हड़ताल' के दिन
होते थे। हमारे पुरुषों के जीवन को एक बहुत बड़े खतरे के मद्देनजर, मेरे
जैसी महिलाओं को अपने परिवारों को पैसों की कमी से बचाने के लिए कुछ करने का
निर्णय लेना पड़ा। सिलाई एक स्वाभाविक आजीविका का विकल्प था क्योंकि यह काम घर से
किया जा सकता था।'
तो, चाहे नीचे गलियों में बँदूकें गूँज रही थीं, यह तीन बेटियों और एक बेटे की माँ, चुपचाप
एक-दो दर्जियों- जिन्हें ढूँढने में वो कामयाब रही थीं के साथ अच्छी गुणवत्ता के
सलवार-कमीज और आदेश अनुसार अन्य कपड़े बनाने के काम में लगी रहती।
सालों के साथ बढ़ती हिंसा ने सिलाई के व्यापार में बहुत जरूरी पेशेवर
बदलाव को तेजी दी। एक जमाने में केवल पुरुषों का कहलाने वाला पेशा धीरे-धीरे स्थानीय
महिलाओं के बेहद सक्षम हाथों में चला गया। इस प्रक्रिया में, कुछ
दिलचस्प हुआ-जहाँ पुरुषों के लिए काम कम पैमाने पर था, वह एक
लाभदायक व्यवसाय का समर्थन करने वाले क्षेत्र में बदल गया था। संयोग से, यह
अकेला क्षेत्र था जो उस कठिन समय में फला-फूला और अभी भी फल-फूल रहा है।
वास्तव में, घाटी में शाँति लौटने के साथ, जिन
परिवारों ने उस समय अपना छोटा उपक्रम शुरू कर दिया था, उनका
काम बहुत अच्छी तरह से चल रहा है। यहाँ तक कि बानो की पहल, जो एक
छोटी सी सामुदायिक दुकान के तौर पर शुरू हुई थी, एक पूर्ण उद्यम बन गई है। वे ऐसा कर पाई हैं
क्योंकि उनके कई दोस्त जिन्हें सिलाई का कम या बिल्कुल ज्ञान नहीं था वो उनके साथ
सहयोग करके श्रीनगर के अंदर विभिन्न इलाकों में अपना छोटा बुटीक खोलना चाहते थे।
आज, बानो ऐसी तीन प्रशाखा केन्द्रों के साथ साझे लाभ
के आधार पर काम करती है। जहाँ तक उनकी अपनी दुकान की बात है, उनके
पास अब पाँच महिलाओं और एक पुरुष 'मास्टरजी' (पेशेवर दर्जी) का समूह है जो कढ़ाई और डिजाईन का
काम देखते हैं और महीने में कम से कम 50 से 60 ग्राहकों का काम पूरा करते हैं। हाँ शादी के
मौसम के दौरान, काम काफी बढ़ जाता है। इसके अलावा, युवा
महिलाओं का एक समूह भी है जो अपने सिलाई कौशल को बेहतर बनाने के लिए उनकी दुकान पर
आता है।
श्रीनगर निवासी आरिफ ज़बीन एक और सफलता की कहानी हैं। ये व्यवसायी
महिला और व्यस्त माँ, लिबास बुटीक कश्मीरी राजधानी में लोकप्रिय कपड़ों
की दुकानों में से एक की मालिक हैं। वे 100 से
अधिक महिलाओं को रोजगार देती हैं, जो उनके व्यापार के सिलाई, डिजाइन
और उत्पादन के पहलुओं को देखती हैं। और, प्रतिवर्ष, 50 लाख
रुपये से अधिक के कारोबार के साथ ज़बीन परिवार के अंदर सफलता की कहानी के तौर पर
उभरी हैं। अब उनके पति उनके व्यापार में शामिल हो गए और उसमें एक सहायक की भूमिका
निभा रहे हैं, इस तथ्य को इससे बेहतर कोई नहीं बता सकता। ज़बीन
बताती हैं, 'मेरे पति ने सरकारी विभाग से समय से पहले
सेवानिवृत्ति ले ली है जहाँ वे एक इंजीनियर के रूप में काम कर रहे थे। उनका वेतन
हमारे व्यापार में आज के लाभ के बराबर था तो उन्होंने उसके बजाय मेरे साथ शामिल
होने का फैसला किया। सौभाग्य से, उन्हें कोई अहंकार की परेशानी नहीं है और जहाँ भी
हो सकता है वे मेरी मदद करते हैं।'
बानो की तरह, ज़बीन भी जीवन में कुछ बड़ा नहीं कर पाती अगर
उन्होंने 1994 में छोटा, लेकिन समझदारी से निर्णय नहीं लिया होता था, जिस
समय वह नवविवाहिता थी और उनके पति बेरोजगार थे। वे याद करती हैं- हमारी आर्थिक
स्थिति काफी बुरी थी। तो मैंने अपने सास-ससुर और पति को मुझे अपनी एक दो महिला
मित्रों के साथ एक छोटा सा व्यवसाय शुरू करने के लिए समझाया। वे राजी हो गए और
हमने श्रीनगर के उपनगरों में अपनी एक छोटी सी दुकान खोल ली। उस समय मुझे डिजाईन या
फिर सिलाई का कोई ज्ञान नहीं था और यह कला मैंने एक 'मास्टरजी' से
सीखी जो बिहार से थे। मैंने कुछ प्रतिभाशाली युवा लड़कियों को भी अपने व्यापार में
शामिल किया।
बानो और ज़बीन दोनों के लिए प्रारंभिक चुनौतियाँ कई थीं। आज के विपरीत, जब
जम्मू और कश्मीर महिला विकास निगम से 2.5 लाख
रुपए तक का ऋण प्राप्त करना मुश्किल नहीं है आज की तारीख तक, निगम
ने अपनी दो योजनाओं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम (एन.एम.डी.एफ.सी.)
और कुशल युवा महिला सशक्तीकरण (ई.एस.डब्ल्यू.) के तहत लगभग 132
महिला-नेतृत्व कारोबारों को वित्तीय सहायता प्रदान की इन महिलाओं को ऐसा कोई
संस्थागत समर्थन नहीं था। उन्हें अपनी छोटी-मोटी निजी बचत से या एक उच्च ब्याज दर
पर उधार ले कर काम चलाना पड़ता था। उनके शुरुआती ग्राहक दोस्त और रिश्तेदार थे और
बाद में एक दूसरे के माध्यम से प्रचार हुआ उनके काम ने जोर पकड़ा।
आजकल, ज़बीन का लिबास बुटीक सभी तरह के लोगों- महिलाओं
और पुरुषों, जवान, मध्यम आयु वर्ग और यहाँ तक कि बुजुर्गों- के लिए
काम कर रहा है। बाजार की माँग को ध्यान में रखते हुए, वे
वर्दी से लेकर पार्टी के लिए कपड़े और आम कपड़ों तक सब कुछ बनाती हैं। जहाँ, कच्चा
माल बड़े शहरों जैसे दिल्ली, मुंबई और यहाँ तक कि दुबई और पाकिस्तान से मँगाया
जाता है लेकिन पोशाकें अभी भी बहुत पारंपरिक ही बनती हैं कश्मीरी अपनी स्थानीय
शैलियाँ पहनना पसँद करते हैं और इसलिए महिलाओं के लिए सलवार-कमीज और पुरुषों के
लिए खान सूट बनते हैं।
अपनी दुकान की विशेषता के बारे में बात करते हुए ज़बीन कहती हैं, 'हमारी
मूल कढ़ाई जैसे कि तिल्ला आरी, जरदोजी और मोती का काम, जो
कशीदाकारी के नाम से जानी जाती है सलवार सूट पर होती है और शॉल पर तो होती ही है।
हर कश्मीरी महिला इन जैसे कुछ को अपनी कपड़ों की अलमारी में रखना चाहती है। ये
पर्यटकों में भी बहुत लोकप्रिय हैं। हाँ, कीमतें बेशक काम और शैली के आधार पर और काम और
दस्तकारी या मशीन से बना तो उसके हिसाब से अलग अलग होती हैं।
दिलचस्प बात है कि, ज़बीन कश्मीरी महिला कारीगरों की एक मजबूत समर्थक
हैं और मानती हैं कि ये महिलाएँ ही हैं जिन्होंने कश्मीर के कपड़ों की समृद्ध
धरोहर को दुनिया के नक्शे पर जगह दिलाई है। वे कहती हैं- आमतौर पर, कश्मीर
में महिलाएँ अच्छी कढ़ाई के काम में विशेषज्ञ हैं। इसलिए, कश्मीरी कपड़े और कढ़ाई ने जो महान प्रतिष्ठा आज
अर्जित की है उसका श्रेय इस क्षेत्र की महिलाओं को जाता है।
बेशक, बानो और ज़बीन, दूसरों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। बानो ने अपनी
बेटियों को वित्तीय स्वतंत्रता का महत्व समझने के लिए प्रेरित किया और वे उनके साथ
शामिल होने और अपनी माँ का उद्यम नई ऊँचाइयों पर ले जाने के लिए उत्सुक हैं। जो दो
अभी भी कालेज में हैं वे उच्च दर्जे की कढ़ाई-सिलाई कोर्स करने का इरादा रखती हैं।
बानो की एक बेटी, मबरुका कहती हैं- मेरे ज्यादातर दोस्त
इंजीनियरिंग, चिकित्सा और ऐसे अन्य व्यावसायिक कोर्स करना
चाहते हैं, मेरी रुचि परिधान के कारोबार में है। मेरे लिए, मेरी
माँ मेरे जीवन में सबसे बड़ा प्रभाव हैं और अपने रवैये और जोश के साथ वो मुझे
लगातार आश्चर्यचकित करती रहती हैं।
ज़बीन
के प्रशंसकों की एक लंबी सूची है, जिनमें से कई उनके कर्मचारी हैं। उन्होंने हर एक को
खुद चुना है। चूँकि उनमें से कई साक्षर या बहुत कुशल नहीं हैं, वे 5,000 रुपए से 8,000 रुपये के बीच प्रति माह नियमित
वेतन लेकर खुश हैं। वे संक्षेप में सार ऐसे देते हैं- कश्मीर में सिलाई एक केवल
महिलाओं का व्यापार बन गया है क्योंकि यहाँ महिलाएँ ही हैं जो इस पेशे को बनाए रखे
हुए हैं। बाधाओं के बावजूद, उनकी कुशल कढ़ाई कारीगरी और फैशन की जन्मजात समझ की
बदौलत, महिलाएँ न केवल अपनी आजीविका
कमाने में सफल रही हैं बल्कि अपने परिवारों और समुदायों को सहारा दे पाई हैं।
(विमेन्स फीचर सर्विस)
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