उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jan 1, 2021

उदंती.com, जनवरी, 2021

वर्ष-13, अंक-5

हर दिवस शाम में ढल जाता है,

हर तिमिर धूप में जल जाता है,

मेरे मन! इस तरह न हिम्मत हार

वक्त कैसा हो, बदल जाता है।

-गोपाल दास नीरज

--------------------

इस अंक में

अनकहीः नए विश्वास के साथ... - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः कोविड और 2020: एक अनोखा वर्ष -स्रोत फीचर्स

आलेखः नए वर्ष का स्वागत मुस्कान के साथ... - सुदर्शन रत्नाकर

आलेखः कोरोना की भयावहता के बीच 2020 की विदाई  - डॉ. महेश परिमल

संस्मरणः सोहराई पेंटिंग का जादू  -रश्मि शर्मा

कविताः करो भोर का अभिनंदन -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

आलेखः सूरज का पर्दा  - रावी

चोकाः  पीले गुलाब  - सुधा गुप्ता

कहानीः आखिरी पड़ाव का दु:ख - सुभाष नीरव

व्यंग्यः  वैक्सीन की जमाखोरी की योजना - गिरीश पंकज

लघुकथाः पेट पर लात - विक्रम सोनी

किताबेंः अनुभूतिपरक रचनाएँ मौन की आहटें डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री

कविताः नूतनता के विभ्रम में - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

लघुकथाएँः 1.अकृतज्ञ 2.छंगू भाई  3.बेरोज़गारी 4.धर्म - डॉ. शैलेष गुप्त वीर

क्षणिकाएँः पहरे पर होता चाँद - रचना श्रीवास्तव 

बालकथाः लॉक डाउन - मंजूषा मन

क्षणिकाएँः माँ वो ख़त तुम्हारा ही है ना! - मीनू खरे

जीवन- दर्शनः  अहंकार के अंत का सरल सूत्र  - विजय जोशी

प्रेरकः संघर्ष - निशांत

अनकही- नए विश्वास के साथ...

नए विश्वास के साथ... 

- डॉ. रत्ना वर्मा 

2020 के साल में कोरोना जैसी भयावह महामारी के बाद इन दिनों जो मुद्दा सबसे अधिक गर्माया हुआ है- वह है किसान आन्दोलन। दिल्ली में धरना देकर बैठे किसान कहते हैं कि नया कृषि कानून उनके हित में नहीं हैं, जबकि सरकार का कहना है कि वे किसानों के बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं। इसको लेकर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं । कोई कह रहा है साजिश है, कोई कह रहा है ये एक राजनीतिक चाल है, तो कोई कह रहा है कि कुछ माफिया गिरोह किसानों के भोलेपन का फायदा उठाकर उसने ऐसा कुछ करवाना चाह रहा है ,जो किसानों के हित में तो बिल्कुल भी नहीं है बल्कि पूरे देश को खोखला कर देने की फिराक में हैं ?

सवाल यह भी है कि केवल पंजाब और हरियाणा के किसान ही इस कानून के विरोध में क्यों है? क्या इसलिए नहीं कि सरकार जितना अनाज खरीदती है, उसका 90 प्रतिशत हिस्सा पंजाब और हरियाणा से आता है, जबकि देश के आधे से अधिक किसानों को यह पता ही नहीं है कि एमएसपी क्या होता है। दरअसल आंदोलनरत किसानों को यह भय सता रहा है कि कृषि की खरीददारी में निजी क्षेत्रों के आने से उन्हें जो न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी होती है, वह इस नये कानून के आने से आज नहीं तो कल खत्म हो ही जाएगी। पंजाब और हरियाणा की राजनीति भी किसानों पर टिकी है; इसीलिए वहाँ के नेता भी किसानों के समर्थन में आगे आए हैं। अन्य प्रदेशों का समर्थन भी सरकार के विरोध धीरे- धीरे आगे आ रहा है।

पर मूल प्रश्न यही है कि इसका हल कौन निकालेगा? जाहिर है सरकार ने कानून बनाया है, तो सरकार को ही इसका जवाब देना होगा और किसानों को भरोसा दिलाना होगा कि कानून से उनको नुकसान नहीं होगा। किसान देश के अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, पर अफसोस इस रीढ़ की ही सबसे ज्यादा उपेक्षा होती है। आजादी के बाद से आज तक किसानों के हित की बात प्रत्येक सरकार करती आई है; पर किसान कितने समृद्ध हो पाए  हैं, यह सबके सामने है। ऐसे में आज यह जरूरी है कि उनकी फसल पर वोट की राजनीति करने के बजाय उनके बेहतर और उज्ज्वल भविष्य को लेकर राजनीति की जाए।

 किसान को सिर्फ़ एक ही काम आता है -जी तोड़ मेहनत करके फसल उगाना और उन्हें बेचना। उसके लिए अधिक उत्पादन हो, तो मुसीबत, कम हो तो और अधिक मुसीबत। पिछले कुछ सालों में हमने देखा ही है कि कैसे अधिक टमाटर उपजाने के बाद किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था... जब टमाटर एक रुपये किलो भी नहीं बिका, तो उन्हें सड़क पर फेंक देना पड़ा था... नतीजा कर्ज में डूबा किसान सड़क पर आ गया... आज भी गोदाम न होने का बहाना करके लाखों टन अनाज पानी में भीगने के लिए छोड़ दिया जाता है और अनाज खराब हो गया कहकर उनको मिट्टी के मोल खरीदा जाता है ... जाहिर है सड़ा हुआ अनाज खाने के काम तो आता नहीं... व्यापारी उन्हें शराब की भट्टियों में अधिक दाम में बेचकर फायदा उठा लेता है...

क्यों नहीं फसल लेने के साथ- साथ उन्हें उससे जुड़े लघु उद्योगों से जोड़ा जाता- टमाटर है तो सॉस बनाना, आलू है तो चिप्स बनाना, गाजर, मूली, गोभी, अदरक जैसी अनेक सब्जियों के अचार, और फलों के जैम आदि कई तरह के खाद्य सामग्री बनाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया जाता। असोस तो इस बात का है कि हम किसानों को नई तकनीक के सहारे अधिक उपज लेना तो सिखा देते हैं, परंतु उस अधिक फसल को कहाँ बेचा जाए या और किस प्रकार से उन्हें फायदेवाला बनाया जाए, यह नहीं सिखाते... फायदे वाला काम किसी और के हवाले कर दिया जाता है, परिणाम किसान वहीं का वहीं रह जाता है और बिचौलिए सम्पन्न बन जाते हैं।

कुल मिलाकर सच्चाई यही है कि राजनीति करने से, आंदोलन करने से किसानों की हालत नहीं सुधरने वाली। साथ ही यह भी सोचना ज़रूरी है कि  गणतन्त्र के 71 साल बाद भी वह जनसामान्य ‘गण’ कहाँ है? इस आम आदमी को भी जीने का अधिकार है या नहीं? अगर है तो ये रास्ता रोको आन्दोलन, रोज़मर्रा का बन्द सबकी जीवन-चर्या का अधिकार कैसे छीन सकते हैं। बात-बात पर किए जाने वाले दंगे-फ़िसाद और आन्दोलन दूसरों की रोटी -रोज़ी और आज़ादी को पैरों तले क्यों कुचलते हैं? रघुबीर सहाय की ‘अधिनायक’ कविता का  एक प्रश्न  आज भी अनुत्तरित है-

राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत-भाग्य-विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका/गुन हरचरना गाता है।...

2020 का पूरा साल कोरोना की जानलेवा महामारी के दहशत में बीत गया। इसने सबको बेहद परेशान किया है। बहुतों के जीवन में निराशा के घने बादल भी छाए, तो बहुतों ने अपने जीवन को सँवारा भी... जिस धैर्य और साहस के साथ हमारे देशवासियों ने कोरोना का सामना किया वह हमारे लिए गर्व की बात है।

लॉक डाउन के दौरान से लेकर अबतक जीवन जीने के हर तरीके में इतना बदलाव आया कि लोगों का जिंदगी के प्रति नज़रिया ही बदल गया। जान है तो जहान है वाली कहावत अब किताबों से निकल कर लोगों के वास्तविक जीवन में उतर गई है। स्वस्थ रहने के लिए लोग अच्छा खाने लगे, अच्छा सोचने लगे । और न सिर्फ अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी जीने लगे। यह अच्छी बात तो है ही कि हम इस बहुत कठिन घड़ी में भी सकारात्मक सोच के साथ इस खतरनाक वायरस का मुकाबला करने की ताकत रखते है।

यह ताकत आगे भी बनी रहेगी इसी विश्वास के साथ हम कामना करते हैं कि 2021 का यह साल कोरोना -मुक्त साल होगा तथा जीवन पहले से बेहतर और खुशियों से भरी होगी। उदंती के सुधी पाठकों को नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ...

आलेख- कोविड और 2020: एक अनोखा वर्ष

कोविड और 2020: एक अनोखा वर्ष

र्ष 2020 में एक घातक और अज्ञात वायरस ने विश्व भर में कहर बरपाया जिसमें करोड़ों लोग संक्रमित हुए हैं, 15 लाख से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और पूरे विश्व को आर्थिक संकट से गुज़रना पड़ा। हालांकि, इस वर्ष वैज्ञानिक अनुसंधान एवं विकास के अन्य क्षेत्रों में काफी काम हुआ है लेकिन कोविड-19 महामारी ने विज्ञान को असाधारण रूप से प्रभावित किया है।

इस वायरस का पता चलते ही विश्व भर के शोध समूहों ने इसके जीव विज्ञान का अध्ययन किया, कुछ समूह नैदानिक परीक्षण की खोज करने में जुट गए तो कुछ ने जन-स्वास्थ्य उपायों पर काम किया। कोविड-19 के उपचार और टीका विकसित करने के प्रयास किए गए। किसी अन्य संक्रमण के संदर्भ में ऐसी फुर्ती कभी नहीं देखी गई थी। महामारी ने शोधकर्ताओं के कामकाज और व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित किया। वायरस के प्रभाव का अध्ययन न करने वालों के प्रोजेक्ट्स में देरी हुई, करियर में अस्थिरता आई और अनुसंधान फंडिंग में बाधा आई।       

एक नया वायरस

जनवरी में चीन के वुहान प्रांत में मिले पहले मामले के एक माह के भीतर शोधकर्ताओं ने इसका कारण खोज लिया था: एक नया कोरोनावायरस, जिसे सार्स-कोव-2 नाम दिया गया। 11 जनवरी तक, एक चीनी-ऑस्ट्रेलियाई टीम ने वायरस के जेनेटिक अनुक्रम को ऑनलाइन प्रकाशित कर दिया। इसके बाद वैज्ञानिकों ने यह चौंकने वाली खोज की कि यह वायरस एक से दूसरे व्यक्ति में फैल सकता है।

फरवरी तक शोधकर्ताओं ने बता दिया था कि यह वायरस कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित ACE2 ग्राही नामक प्रोटीन से चिपककर कोशिका में प्रवेश करता है। फेफड़ों और आंतों सहित शरीर के कई अंगों की कोशिकाओं पर यह ग्राही पाया जाता है। इसलिए कोविड-19 के लक्षण निमोनिया से लेकर अतिसार और स्ट्रोक तक दिखाई देते हैं। यह वायरस अपने ग्राही से 2003 के श्वसन सम्बंधी सार्स-कोव वायरस की तुलना में 10 गुना अधिक मज़बूती से जुड़ता है।

मार्च में कुछ वैज्ञानिकों ने बताया कि वायरस से भरी छोटी-छोटी बूंदें (एयरोसोल) लंबे समय तक हवा में उपस्थित रह सकती है और संभवत: संक्रमण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लेकिन कई शोधकर्ता असहमत थे और सरकारों एवं जन-स्वास्थ्य संगठनों को यह मानने में काफी समय लगा कि वायरस इस माध्यम से भी फैल सकता है। यह भी पता चला कि लक्षण विकसित होने से पहले ही लोग वायरस फैला सकते हैं। एक हालिया विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि सार्स-कोव-2 के आधे मामले लक्षणहीन लोगों द्वारा संक्रमण फैलाने के कारण हुए हैं।

गौरतलब है कि इस वायरस का स्रोत अभी भी एक रहस्य बना हुआ है। साक्ष्यों के अनुसार यह वायरस चमगादड़ से उत्पन्न हुआ और संभवत: एक मध्यवर्ती जीव के माध्यम से मनुष्यों में आ गया। बिल्लियों और मिंक सहित कई जंतु सार्स-कोव-2 के प्रति अतिसंवेदनशील पाए गए हैं। इसके लिए WHO ने सितंबर में मध्यवर्ती जीव का पता लगाने के लिए एक विशेष टीम का गठन किया। इस जांच में चीन सहित कई देशों को शामिल किया गया है। इस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और अन्य नेताओं ने बिना किसी पुख्ता सबूत के दावा किया कि सार्स-कोव-2 चीन की प्रयोगशाला में विकसित करके छोड़ा गया है। वैज्ञानिकों ने ऐसी किसी भी संभावना से इन्कार किया है।

नियंत्रण के प्रयास

महामारी की शुरुआत से ही महामारी वैज्ञानिकों ने वायरस प्रसार का अनुमान लगाने के लिए कई मॉडल विकसित किए और इसे जन-स्वास्थ्य के विभिन्न उपायों से नियंत्रित करने का सुझाव दिया। टीके या किसी इलाज के अभाव में लॉकडाउन जैसे गैर-चिकित्सीय हस्तक्षेप अपनाए गए। जनवरी में वुहान में सबसे पहले लॉकडाउन लगाया गया

, जिसे बाद में अधिकांश देशों द्वारा उसी तरह के प्रतिबंधों के साथ अपनाया गया।

लेकिन लॉकडाउन का आर्थिक प्रभाव काफी गंभीर रहा और कई देशों को वायरस पर नियंत्रण प्राप्त होने से पहले ही लॉकडाउन समाप्त करना पड़ा। वायरस के हवा के माध्यम से प्रसार की अनिश्चितता को देखते हुए मास्क लगाने को लेकर भी बहस छिड़ गई जिसने, विशेष रूप से अमेरिका में, राजनीतिक रूप ले लिया। इसी बीच वायरस को षड्यंत्र बताने वाले सिद्धांत, झूठे समाचार, और अधकचरा विज्ञान भी वायरस की तरह काफी तेज़ी से फैलते गए। यह बात भी उछली कि वायरस को नियंत्रित करने की बजाय उसे अपना रास्ता तय करने दिया जाए।

वैज्ञानिकों ने इस संकट से बाहर आने के लिए व्यापक स्तर पर सार्स-कोव-2 के परीक्षण करने का भी सुझाव दिया। लेकिन कई देशों में बुनियादी उपकरण और पीसीआर परीक्षण में उपयोग होने वाले रसायनों की कमी के चलते काफी अड़चनें आर्इं। इसके मद्देनज़र कई समूहों ने जीन-संपादन विधि CRISPR और त्वरित एंटीजन जांच के आधार पर नए त्वरित परीक्षण विकसित करने का काम किया जो शायद भविष्य में उभरने वाले रोगों के निदान में मदद मददगार होगा। 

वियतनाम, ताइवान और थाईलैंड जैसे देशों ने व्यापक लॉकडाउन, व्यापक स्तर पर परीक्षण, मास्क लगाने के आदेश और डिजिटल माध्यम से कांटैक्ट ट्रेसिंग को अपनाकर वायरस पर शुरुआत में ही नियंत्रण पा लिया। सिंगापुर, न्यूज़ीलैंड और आइसलैंड ने बड़ी संख्या में परीक्षण एवं ट्रेसिंग तकनीक और सख्त आइसोलेशन की मदद से वायरस को लगभग पूरी तरह से खत्म किया और सामान्य जीवन बहाल किया। इन सफलताओं का मुख्य सूत्र सरकारों की तत्परता और निर्णायक रूप से कार्य करने की इच्छा रहा। शुरुआती और आक्रामक कार्यवाहियों ने संक्रमण की रफ्तार को कम किया।

दूसरी ओर, कई अन्य देशों के अधिकारियों के लंबित फैसलों, वैज्ञानिक सलाहों को अनदेखा करने और परीक्षणों को बढ़ाने में हुई देरी की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हुई और दूसरी लहर का सामना करना पड़ा। इसी कारण अमेरिका और पश्चिमी युरोप में कोविड-19 संक्रमण और मौतें एक बार फिर बढ़ रही हैं।

त्वरित टीके

इसी बीच वैज्ञानिक प्रयासों ने एक ऐसी बीमारी के विरुद्ध टीके प्रदान किए जिसके बारे में एक वर्ष पहले तक कोई जानता तक नहीं था। कोविड-19 के विरुद्ध टीके काफी तेज़ी से विकसित किए गए। WHO के अनुसार नवंबर में 200 से अधिक टीके विकसित किए जा रहे थे जिनमें से 50 टीके नैदानिक परीक्षणों के विभिन्न चरणों से गुज़र रहे हैं। इनको विकसित करने में कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। इनमें रासायनिक रूप से निष्क्रिय किए गए वायरस का उपयोग करने की पुरानी तकनीक के साथ-साथ नई तकनीकों का भी उपयोग किया गया है।

प्रभाविता के परीक्षणों के आधार पर दवा कंपनी फाइज़र और जर्मन बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोएनटेक, अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना और दवा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका एवं ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के टीके कोविड-19 के विरुद्ध प्रभावी रहे हैं। पिछले माह, फाइज़र को आपातकालीन स्वीकृति के तहत यूके और अमेरिका में टीके के व्यापक उपयोग की अनुमति मिली है। आने वाले हफ्तों में युरोपीय संघ द्वारा युरोप में भी इसके उपयोग की अनुमति मिलने की उम्मीद है। चीन और रूस में विकसित टीकों को अंतिम चरण के परीक्षण पूरा होने से पहले ही उपयोग की मंज़ूरी मिल चुकी है।

गौरतलब है कि फाइज़र और मॉडर्ना ने लगभग 95 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया है जबकि एस्ट्राज़ेनेका और ऑक्सफोर्ड टीकों की प्रभाविता अभी तक अनिश्चित है। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण सवाल है कि यह टीका, विशेष रूप से वृद्ध लोगों में, किस हद तक गंभीर रोग से बचाव कर सकता है और यह कितने समय तक सुरक्षा प्रदान करेगा? यह तो अभी तक वैज्ञानिकों को भी नहीं मालूम कि यह टीका लोगों को वायरस फैलाने से रोक पाएगा या नहीं।

एक सवाल लोगों की टीकों तक पहुँच का भी है। अमेरिका, ब्रिटेन, युरोपीय संघ के सदस्य और जापान जैसे अमीर देशों ने टीके की अरबों खुराकों की अग्रिम-खरीद कर ली है। कम और मध्यम आय वाले देशों के लिए टीका उपलब्ध कराने के लिए कई अमीर देशों का समर्थन प्राप्त है। टीकों के भंडारण और वितरण में काफी समस्याएं आ सकती हैं क्योंकि इन टीकों को शून्य से 70 डिग्री सेल्सियस नीचे (-70 डिग्री पर) रखना अनिवार्य है।

उपचार: नए-पुराने 

महामारी को समाप्त करने के लिए सिर्फ टीका काफी नहीं है। नियंत्रण टीके और दवाइयों के सम्मिलित उपयोग से ही संभव हो सकता है। कुछ संभावित उपचारों के मिले-जुले परिणाम सामने आए हैं। मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा एचआईवी की दो दवाओं के कॉकटेल ने शुरुआती परीक्षणों में कुछ सकारात्मक परिणाम तो दिखाए लेकिन बड़े स्तर पर ये खास प्रभावी नहीं रहे।

अप्रैल में एक बड़े नैदानिक परीक्षण में रेमेडिसेविर नामक एंटीवायरल दवा का कोविड-19 में काफी समय तक उपयोग किया जाता रहा लेकिन बाद के अध्ययनों से पता चला कि इस दवा के उपयोग से मौतों में किसी प्रकार की कमी नहीं होती है। नवंबर में WHO ने इसका उपयोग न करने की सलाह दी।

वैसे अमेरिका, भारत, चीन और लैटिन अमेरिका के नेताओं द्वारा कोविड-19 के संभावित उपचारों का काफी राजनीतिकरण किया गया। इसमें हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन सहित कई अन्य अप्रामाणिक उपचारों का काफी प्रचार हुआ। अधिकारियों ने ऐसे कई उपचारों के आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी, जिसके चलते नैदानिक परीक्षणों को काफी नुकसान हुआ और सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं पैदा हुई। 

जून माह में डेक्सामेथासोन नामक प्रतिरक्षा-दमनकारी स्टेरॉइड तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को लक्षित करने वाली दवा टॉसिलिज़ुमैब ने भी कुछ गंभीर रोगियों में सकारात्मक परिणाम दिए हैं। इसके साथ ही कुछ परीक्षण कोविड-19 के हल्के लक्षणों के रोगियों के साथ भी किए गए हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि ये गंभीर बीमारी की संभावना को कितना कम करते हैं। कोविड-19 से स्वस्थ हो चुके रोगियों का ब्लड प्लाज़्मा भी उपयोग किया गया। कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के उपयोग से सार्स-कोव-2 को निष्क्रिय किया जा सकता है लेकिन अध्ययनों से साबित नहीं हो पाया है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार एक-एक व्यक्ति की हालत को देखकर कोविड-19 के उपचार में दवाइयों का मिला-जुला उपयोग करना होगा। 

शोध कार्यों में बाधा

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब वैज्ञानिक अनुसंधान इतने व्यापक रूप से बाधित हुआ है। वायरस के फैलते ही मार्च से कई युनिवर्सिटी कैंपस बंद कर दिए गए। प्रयोगशालाओं में आवश्यक प्रयोगों को छोड़कर अन्य सभी प्रयोगों को रोक दिया गया, फील्ड वर्क रद्द कर दिए गए और सम्मेलन वर्चुअल होने लगे। महामारी से सीधे सम्बंध न रखने वाले प्रोजेक्टों की रफ्तार थम गई। अचानक घर से काम करने को मजबूर शोधकर्ता परिवार की देखभाल और लायब्रेरी जैसे संसाधनों की कमी से जूझते रहे। कई छात्र फील्डवर्क और प्रयोगशाला के डैटा के बिना अपनी डिग्री पूरी नहीं कर पाए तो परिवहन के बंद होने से नौकरी की तलाश में भी काफी परेशान आई।

देखा जाए तो सबसे अधिक प्रभावित वे महिलाएँ, माताएँ, प्रारंभिक शोधकर्ता और ऐसे वैज्ञानिक रहे जिनका विज्ञान में प्रतिनिधित्व काफी कम है। इस महामारी ने एक और कारक बढ़ा दिया जिसके कारण विज्ञान के क्षेत्र में उनका भाग लेना काफी कठिन हो गया है। अप्रैल और मई में ब्राज़ील के 3345 शिक्षाविदों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पाया कि इस महामारी के दौरान शोध पत्र प्रस्तुत न कर पाने और समय सीमा पर काम पूरा न करने में सबसे अधिक प्रतिशत अश्वेत महिलाओं का रहा। ऐसे ही आँकड़े अन्य देशों में भी देखे जा सकते हैं।

एक अच्छी बात यह है कि विश्व भर की सरकारों ने उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की है। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 2021 में युनिवर्सिटी शोध कार्यों के लिए एक अरब ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की राशि प्रदान की है। अगस्त तक कई समुदायों में संक्रमण दर बढ़ने के बावजूद अमेरिका और युरोप के कई विश्वविद्यालयों ने अपने कैंपस खोलने का फैसला किया, जबकि बड़े प्रकोप से ग्रसित भारत और ब्राज़ील जैसे देश में अभी तक पूरी तरह नहीं खोले गए हैं।   

वैसे इस महामारी में कुछ सकारात्मक बातें भी सामने आई हैं। लॉकडाउन के कारण सीमाओं के बंद होने के बाद भी कई क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में बढ़ोतरी हुई है। शोधकर्ताओं ने अपने डैटा को खुले तौर पर साझा करना शुरू किया है। अधिकांश प्रकाशकों ने कोविड से जुड़े लेखों को निशुल्क कर दिया है। अस्थायी रूप से ही सही, लेकिन शोध परंपरा में बदलाव आए हैं। मात्र उत्पादकता की ओर कम ध्यान देने से काम और जीवन के बीच संतुलन जैसे व्यापक मुद्दों पर चर्चा की जा रही है। उम्मीद है कि महामारी के दौरान हुए ऐसे सकारात्मक बदलाव आगे भी जारी रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)

आलेख- नए वर्ष का स्वागत मुस्कान के साथ...

नए वर्ष का स्वागत मुस्कान के साथ...

-सुदर्शन रत्नाकर

रात का घना  अंधकार जब विश्व को अपने आँचल में समेट लेता है तो वे क्षण कितने कठिन, कितने निराशाजनक होते हैं ; लेकिन प्रात:काल जब सूरज उगता है, तो उसकी लालिमा सारी सृष्टि को भी अपने रंग से भर देती है, तब प्रकृति मुस्कुरा उठती है। एक नए दिन का आरंभ मुस्कान से होता है। शुभ्र -धवल हिमाच्छादित पर्वतों के उत्तुंग शिखर सूर्योदय की सुनहरी किरणों का स्पर्श पाकर पीतवर्णी हो शोभाएमान हो जाते हैं। यह अद्भुत दृश्य कल्पनातीत होता है। सागर जब मुस्कुराता है, तो उसकी लहरें लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचती है उनमें आशा का संचार करती हैं। हवा जीवन देती है ,धूप र्जा देती है। कलियाँ  मुस्कुराती हुई खिलती हैं, तो अपनी सुंदरता से लोगों को अपने आकर्षण के बंधन में बाँध लेती हैं।  सोचो, यदि वे न खिलें तो क्या होगा! सुंदरता उनके भीतर ही सिमटकर रह जाएगी। न तितलियाँ  आएँ गी, न भँवरें मँडराएँगे। वे बिन खिले ही मुरझा जाएँगी। प्रकृति की तरह ही हमारा जीवन भी किस काम का जो दुनिया को अपना कुछ दे न सके। हम वीर सैनिक नहीं बन सकते महान व्यक्तित्त्व नहीं बन सकते , दानी बनकर किसी को धन-दौलत नहीं दे सकते पर दूसरों को ख़ुशी तो दे सकते हैं और ऐसी ख़ुशी जिसके लिए आपको कुछ खर्च नहीं करना होता। समय नहीं, पैसा नहीं बस आपकी एक मुस्कान, केवल एक मुस्कान किसी दूसरे को अपार प्रसन्नता दे सकती है। उसका दृष्टिकोण बदलकर जीवन भी बदल सकती है।

यूँ तो विज्ञान ने हमें बहुत कुछ दिया है- विशेषकर पिछली आधी शताब्दी से इतना कुछ देकर हमारी जीवन शैली ही बदल दी है। जहाँ एक ओर जीवन सुविधाजनक बना है, तो दूसरी ओर भेंट में हमें तनाव भी मिला है। हर व्यक्ति इन सुविधाओं को पाने के लिए भाग रहा है। मृगतृष्णा है, मिटती ही नहीं। मुखौटे लगा लोग क्षितिज को छूने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं।

आज के इस तनावपूर्ण जीवन में जहाँ फ़ुर्सत के क्षण भी कठिनाई से मिलते है, वहाँ आपकी मुस्कुराहट आपके तनाव को तो दूर करेगी ही, देखने वाले को भी राहत देगी। उसके जीवन में भी रस घोल देगी जैसे छोटे बच्चे की निश्छल, मधुर मुस्कान माँ की सारी थकान, पीड़ा, कष्ट हर लेती है।

हमारा चेहरा हमारे मन का आईना होता है। चेहरे की मुस्कान हमारे मन की भावना होती है। अर्थात् मन के हाव-भाव हमारे चेहरे पर स्वतः आ जाते हैं; इसलि मन को ही तो मनाना है कि मुस्कुराना है। मुस्कुराता चेहरा हमारे व्यक्तित्व को दर्शाता है। हमारा सपाट चेहरा हमें घमंडी होने का तगमा देता है, वहीं चेहरे पर खिली मुस्कान हमें शालीन और हँसमुख बनाती है। अनजान जगह, अनजान लोगों के बीच एक मीठी सी मुस्कान देकर जान-पहचान बढ़ा सकते हैं। कितना सुंदर परिचय है न। मुस्कान की उपयोगिता हम कुछ उदाहरण से भी समझ सकते हैं- एक दुकानदार अपनी मुस्कान से ग्राहकों को फाँसकर बेकार वस्तुओं की बिक्री बढ़ा लेता है, वहीं दूसरी ओर अपने रूखे व्यवहार के कारण सस्ते दाम पर भी अच्छी वस्तु को नहीं बेच पाते। कार्यालय में कभी ऐसे बॉस भी होते हैं, जो ऑफिस में अनुशासन बनाए रखने के लिए अथवा अपने पद को दर्शाने के लिए अपना चेहरा सपाट बनाए रखते हैं ; लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि यदि वे अपने अधीनास्थ लोगों से, चेहरे पर मुस्कान लाकर बात करेंगे, तो इसमें अपनत्व झलकता है, कर्मचारी पर कोई तनाव नहीं होगा और वह प्रसन्नतापूर्वक कार्य करेगा। यह प्रबंधन का एक फ़ंडा है।

कई बार परिवार में पिता भी ऐसा ही व्यवहार अपनी सन्तान के साथ करते है। कठोर मुद्रा बच्चों को डर से अनुशासन में तो रख सकती है ; लेकिन वे बच्चे पिता के साथ कभी खुलकर बात नहीं कर सकते, मित्र नहीं बन पाते मुस्कान से प्रभावित होकर कई लोग दूसरे के कार्य प्रसन्नतापूर्वक कर देते हैं, जिन्हें कभी करना ही नहीं चाहते थे। यह मुस्कान का ही तो जादू होता जो सिर चढ़कर बोलता है। इस लिए यह ज़रूरी है , मुस्कान बाँटते रहो, दूसरों की सहेजते रहो। कहने का भाव है ख़ुशियाँ  बाँटते रहो और ख़ुशियाँ  बटोरते भी रहो। हम स्वयं खुश रहेंगे तो दूसरों को भी रख पाएँगे। जो आज के वातावरण में अत्यंत आवश्यक है। एक बार दिल से मुस्कुरा कर देखिए, सारी उदासी, परेशानी दूर हो जाएगी। आपस के कई छोटे -मोटे झगड़े समाप्त हो जा एँ गे। सौ समस्याओं की एक दवा है मुस्कान।  हमारी छोटी -छोटी बातें, छोटे छोटे हाव-भाव दूसरों को ख़ुशी दे सकते हैं और मुस्कान उनमें से एक है, जिससे चेहरे का व्यायाम तो होता ही है यह एक ऐसा आभूषण भी है जो हमारी सुंदरता में चार चाँद लगा देता है। चेहरा खिल जाता है और यह मीठी मुस्कान देखने वाले को अपनी ओर खींचती है, आकर्षित करती है। हींग लगे न फिटकिरी, रंग भी चोखा होए। जीवन की नीरसता से बचना है तो मुस्कुराते रहिए और ख़ुशियाँ  बिखेरते रहिए। तो आइए नए वर्ष का स्वागत मुस्कान के साथ करते हैं।

सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राउण्ड, फ़रीदाबाद 121001, मोबाइल-  9811251135

संस्मरण- सोहराई पेंटिंग का जादू

सोहराई पेंटिंग का जादू 
-रश्‍मि‍ शर्मा

कुछ वर्ष पहले एनएच 33 पर राँची से रामगढ़ जाने वाली सड़क से गुज़री तो देखाओरमांझी बिरसा जैविक उद्यान के पास दीवारों पर बड़ी खूबसूरत पेंटिंग उकेरी गई है। इतनी खूबसूरत कि  नि‍गाहें फिर-फिर देखने को वि‍वश हो जाएँ। सोहराई पर्व तो जानती थीमगर पेण्टिंग की तरह इसे दीवारों पर उकेरा हुआ पहली बार देखा था।

उसी क्षण इच्‍छा हुई कि  इन दीवारों पर कूची चलाकर खूबसूरत बनाने वालों से मि‍लूँ और प्रत्यक्ष देखूँ कि  कैसे सधे हाथों से दीवारों पर रंग-बि‍रंगी आकृति उकेरी जाती है।

हमारे झारखण्ड में सोहराई पर्व दीपावली के दूसरे दि‍न मनाया जाता है। बचपन की याद है कि  दीपावली की दूसरी सुबह... यानी सोहराई के दिन जानवरों को सजाकर उन्मुक्त विचरने के लिए छोड़ दिया जाता था।

उस वक़्त सोहराई पेण्टिंग तो नहीं जानती थीमगर आसपास के घरों में दूधी मि‍ट्टी से दीवारों पर आकृति‍याँ बनाते देखा था घरों में। कई घरों में भिंडी के डंठल वाला हि‍स्‍सा काटकर उसे रंग में डूबोकर दीवार पर फूल-पत्तियाँ उकेरी जातीं। कई दीवारों पर तो उँगलियों से ही इतनी सजीव चि‍त्रकारी होती थी कि  मिट्टी के घर खिल उठते थे।

बचपन की यादों को ताज़ा करने के लिए शहर के विभिन्न हिस्सों समेत रेलवे स्टेशन में भी सोहराई पेंटि‍ग नज़र आने लगी। सरकार स्थानीय कला को बढ़ावा दे रहीयह सोचकर बहुत अच्छा लगा।

कुछ लोगों से पता कि या तो जानकारी मिली कि  दीपावली के आसपास हजारीबाग के कुछ गाँवों में जाने पर वहाँ की दीवारों पर रंग उकेरते कलाकार मि‍ल जाएँगे।

देखने की जि‍ज्ञासा तो जबरदस्‍त थीइसलिए दीपावली के दूसरे दि‍न कुछ साथि‍यों के साथ एकदम सुबह नि‍कल पड़ी राँची से हजारीबाग की ओर। हजारीबाग से करीब 35 कि लोमीटर दूरी पर स्‍थि‍त है भेलवाड़ा गाँवजहाँ की पार्वती देवी सोहराई की मँजी हुई कलाकार है।

हमारे एक साथी पहले भेलवाड़ा जा चुके थेइसलिए सुबह करीब ग्‍यारह बजे हम लोग भेलवाड़ा गाँव में पार्वती देवी के घर के सामने खड़े थे। मैं तो उनके घर के बाहरी दीवार की ख़ूबसूरत कलाकृति देखकर ही पागल हुई जा रही थी।

वि‍भि‍न्‍न प्रकार के फूल-पत्तों के साथ जानवरों की आकृति से पूरी दीवार रंगी हुई थी। सफ़ेदकालाहल्‍का पीला और कत्‍थई या मि‍ट्टी के रंग का प्रयोग कर सभी आकृति‍याँ बनाई गई थीं। आकृति‍यों में स्‍पष्‍ट नज़र आ रहा था घोड़ासाँपमछली और कई अनचीन्‍हे-से जानवर एवं फूल-पत्तियाँ।

हमारे साथ गये लोग पार्वती देवी को तलाशने लगे और मैं रंगों और पेंटिंग की दुनि‍या में खो गई। फटाफट कई एंगल से तस्‍वीरें नि‍कालने लगी।

पार्वती देवी अपनी गाय-बकरि‍यों को लेकर चराने गई थी। पड़ोस के एक आदमी को कहकर उनको अपने आने की ख़बर भि‍जवाई और हमलोग सोहराई पेंटिंग देखने में डूब-से गए। कहना न होगाकि  खपरैल घर भी इन रंगों और आकृति‍यों से इस क़दर खूबसूरत लग रहा था कि  आज के टेक्‍सचर भी इसके आगे कुछ नहीं।

कुछ देर में ही पार्वती देवी आ गईं और उन्‍होंने घर के अंदर का दरवाज़ा खोला। हालाँकि  बाहरी कमरा खुला थाजि‍स पर एक खाट बिछी हुई थी। बुलाए जाने से पहले उनका पड़ोसी इतनी मेहमानवाज़ी नि‍भा गया कि  हमें घर के अंदर बि‍ठा दि‍या था। यह सम्मान भी गाँवों में ही मिलता है। शहर में अनजान लोगों को कोई घर के कमरे में नहीं बिठाता।

मगर हम लोगों को बैठना कहाँ थाहमें तो पेंटि‍ग की बारीकी देखनी और समझनी थी। यह सब बि‍ना पार्वती देवी के आए संभव नहीं था। उनके आने तक मैंने आसपास के जमा हुए लोगों से इतनी जानकारी प्राप्‍त कर ली कि  गाँव की आबादी करीब दौ सौ की हैजि‍नमें कुछ घर करमाली और अधिकतर कुर्मी महतो के हैं। यह भी देश के सामान्‍य गाँव की ही तरह है मगर अब इस गाँव की पहचान सोहराई आर्ट बन गया है। गाँव के अधिकतर घरों में सोहराई पेंटिंग होती हैमगर पार्वती देवी ने सोहराई को अंतरराष्‍ट्रीय पहचान दी है।

अब हमलोग पार्वती देवी के आँगन में पहुँच गए। चारों तरफ़ की दीवार पर पेंटिंग की हुई थी। सामने गोहाल थाजि‍समें बकरी और गाय बँधी थी। लि‍पाई कर मि‍ट्टी की दीवारों को चि‍कना कर दि‍या गया था और उसके ऊपर कलाकारी की गई थी।

'कि न रंगों का प्रयोग कर आकृति‍याँ उकेरती हैं आप?' इस सवाल पर जवाब में पार्वती देवी ने बताया कि 

केवल प्राकृति‍क रंगों का ही इस्‍तेमाल करती हैं वह।

पेंटिंग करने की प्रक्रिया में दीवारों को पहले गोबर से लीपा जाता है। इसके बाद नागरी मि‍ट्टी से उसकी पुताई कर एक तरह से कैनवास बना दि‍या जाता है। फि‍र हाथों के इस्‍तेमाल से वि‍भि‍न्‍न आकृति‍याँ बनाने लगती हैं दीवारों पर।

यह हुनर उन्‍हें वि‍रासत में मिला है। कहती हैं कि  जब वे बारह साल की थीतभी अपनी माँ से यह सब कुछ सीखा था। सोहराई पेंट करके वह घोड़ाखरगोशकदंब के पेड़ और फूल-पत्तियाँ उकेरती हैं दीवार पर।

मैंने सोहराई पेंटिंग में हाथीसाँपमोर और हरि‍ण की भी आकृति देखी थीमगर पार्वती देवी ये सब आकृति‍याँ नहीं बनातीं। क्‍योंपूछने पर कोई स्पष्ट कारण नहीं बता पाईं। बस इतना कहा कि  हमें शुरू से ही मना कि या गया हैइसलि‍ए नहीं बनाते। कई कलाकार दूसरे रंगों का भी इस्‍तेमाल कर लेते हैंमगर हम केवल प्राकृति‍क रंग का ही उपयोग करते हैं।

जाहिर हैमन में उठा सवाल होंठो पर आ गया-'रंग कहाँ से लाती हैं?'

'अलग-अलग रंगों की मि‍ट्टी होती हैजि‍से चरही से दस कि लोमीटर दूर सदरा गाँव से लाया जाता है। कालीपीली और गेरूआ मि‍ट्टी को पीसकर पहले चलनी से चालकर फुलाने के लिए छोड़ दि‍या जाता है। उसके बाद उस मि‍श्रण में गोंद मि‍लाकर रंग तैयार कि या जाता है।'

सोहराई कला का इति‍हास तलाशने की कोशि‍श कीतो पता चला कि  इस क्षेत्र के इस्को पहाड़ियों की गुफाओं में आज भी इस कला के नमूने देखे जा सकते हैं। इसका प्रचलन हजारीबाग जिले के बादम क्षेत्र में आज से कई वर्ष पूर्व शुरू हुआ थाजि‍से बादम राजाओं ने काफ़ी प्रोत्साहित कि या।

आदिवासी संस्कृति में इस कला का महत्त्व जीवन में उन्नति से लगाया गया थातभी इसका उपयोग दीपावली और शादी-विवाह जैसे अवसरों पर कि या जाता थाजिससे कि  धन और वंश दोनों की वृद्धि हो सके।

पार्वती देवी के बताने से याद आया कि  'कोहबरकी प्रथा अब भी कई परि‍वारों में हैजहाँ शादी के बाद दूल्हादुल्‍हन को एक कमरे में ले जाया जाता है।

कमरे की दीवार पर रंगों से कुछ आकृति‍याँ बनाई जाती थींजि‍समें फूल-पत्तेजानवर और कई बार दुल्‍हन की डोली लि‍ये कहार की आकृति भी होती थी। मैंने कई शादि‍यों में देखा है इस प्रथा को निभाते। कोहबर के आगे दूल्हा-दुल्‍हन बैठकर अँगूठी छुपाने-ढूँढने का खेल खेलते हैं और दुल्‍हन की सहेलि‍याँ दूल्हे के साथ चुहल करती है।

पता लगा कि  बादम राज में जब कि सी युवराज का विवाह होता था और जिस कमरे में युवराज अपनी नवविवाहिता से पहली बार मिलता थाउस कमरे की दीवारों पर उस दिन को यादगार बनाने के लिए कुछ चिह्न अंकि त कि ए जाते थे और कि सी लिपि का भी इस्तेमाल कि या जाता था जिसे वृद्धि मंत्र कहते थे।

बाद के दिनों में इस लिपि की जगह कलाकृतियों ने ले ली और फूलपत्तियाँ एवं प्रकृति से जुड़ी चीजें उकेरी जाने लगीं। कालांतर में इन चिह्नों को सोहराई या कोहबर कला के रूप में जाना जाने लगा। धीरे-धीरे यह कला राजाओं के घरों से निकलकर पूरे समाज में फैल गई। राजाओं ने भी इस कला को घर-घर तक पहुँचाने में काफ़ी मदद की।

कहा जाता है कि  यह-यह कला हड़प्‍पा संस्‍कृति‍ की समकालीन है। इसका प्रयोग वि‍वाह के बाद वंश वृद्धि और दीपावली के बाद फ़सल वृद्धि के लि‍ए इस्‍तेमाल करते हैं। मान्‍यता है कि  जि‍स घर के दीवार पर कोहबर और सोहराई की पेंटिंग होती हैंउनके घर में वंश और फ़सल की बढ़त होती है।

पार्वती देवी बताती हैं कि  इस कला के बदौलत वह वि‍देश घूम आई और इन सबके पीछे बुलू इमाम का हाथ हैजो तीन दशकों से ज़्यादा वक़्त से इस कला को मुकाम देने की कोशिश में जुटे हैं।

पार्वती की आँखों में वि‍देश में कला प्रदर्शन कर लौटने की चमक तो हैमगर नि‍यमि‍त आमदनी नहीं होने का मलाल भी है। कहती हैं–'नाम तो मि‍ला हमेंमगर रोजगार नहीं। अगर सरकार इस कला को सहेजती हैतो परंपरा जीवि‍त रहेगीवरना खत्‍म हो जाएगी।'

बात करते-करते हम बाहर नि‍कल आए। साथ में कुछ तस्‍वीरे ले ही रहे थी कि  दूर से एक झक सफेद कपड़ों में झुकी कमर को लाठी का सहारा देकर हमारी ओर आती एक स्‍त्री दि‍खी। वह पार्वती की 80 वर्षीया माँथी। पास आने पर बताया कि  नदी में नहाने गईं थी और वहीं से लोटे में पानी भरकर ला रही हैं।

बातचीत में वह तनिक रुष्‍ट लगीं। 'सबलोग आते हैं देखने मगर कोई पैसा देने नहीं आता। कैसे चलेगा हमारा काम।'

हमने उनकी कुछ मदद तो कीमगर इस तरह की थोड़ी-बहुत आर्थिक मदद से काम नहीं चलेगा उनकाहम जानते थेपरंतु ज़्यादा कुछ तुरन्त कर पाना हमारे लिए भी संभव नहीं था।

पार्वती देवी वहा से उठाकर हमें घर के दूसरे हि‍स्‍से पर ले गईं। वहाँ देखा कि  सोहराई कला को कपड़े पर उतारा जा रहा है। कपड़े की तह लगाकर रंगीन मोटे धागे से सि‍लाई कर वैसी ही आकृति‍ उकेरी जा रही हैजैसी दीवारों में है। इसे इधर 'लेदराकहते हैजि‍से बि‍छाने या ओढ़ने के काम में लि‍या जाता है। समझि‍ए कि  दोहर का ही एक रूप है।

पार्वती ने बताया कि  इसकी माँग हैइसलि‍ए हमलोग लेदरा में पेंटि‍ग करने लगे हैं। इससे कुछ पैसे की आमदनी हो जाती है। एक तरह से काथा स्‍टि‍च जैसा ही लग रहा था देखने में और सुंदर भी।

देर हो चुकी थी और हमलोगों को राँची वापस भी आना था। हमें लौटने का उपक्रम करते देख पार्वती ने थोड़ी उदासी के साथ कहा-'हमलोग तो एक बार में ही पूरी आकृति‍ दीवार पर उकेर देते हैंमगर आने वाली पीढ़ी पता नहीं इसे सहेज पाएगी कि  नहींअब तो घर भी पक्‍के बनने लगे हैं। कहाँ उकेरेंगे इसे और सीखेगा कौन?'

फिर धीमे स्‍वर में कहा–'अबकी आइएगा तो पुराने कपड़े लेते आइएगा। हमारे लेदरा बनाने के काम आएगा।'

जाने दोबारा कब जाना होमगर एक कसक लिये हम लौटे कि  इतनी सुंदर कला कहीं गुम न हो जाए। यह ठीक है कि  इन दि‍नों रेलवे स्‍टेशनशहर की कई दीवारों और एयरपोर्ट पर हमें सोहराई पेंटि‍ग दि‍ख रहा हैजो नजरों को खूबसूरत तो लगता ही है और देश-वि‍देश में भी ख्‍यात हो गया है। मगर जब तक इसे रोज़गार से नहीं जोड़ा जाएगायुवा पीढ़ी इसे अपनाएगी नहीं। वॉल पेंटि‍ग से नि‍कालकर सोहराई को कैनवास और कपड़ों पर उतारने के प्रयास में ज़्यादा ध्‍यान देने की आवश्‍यकता हैताकि  मिथिला पेंटिंग की तरह इसका बाज़ार बन सके।

राँचीझारखंड, rashmirashmi@gmail. com

कविता- करो भोर का अभिनंदन

करो भोर का अभिनंदन
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

मत उदास हो मेरे मन

करो भोर का अभिनन्दन!

 

काँटों का वन पार किया

बस आगे है चन्दन-वन।

बीती रात, अँधेरा बीता

करते हैं उजियारे वन्दन।

सुखमय हो सबका जीवन!

 

आँसू पोंछो, हँस देना

धूल झाड़कर चल देना।

उठते –गिरते हर पथिक को

कदम-कदम पर बल देना।

मुस्काएगा यह जीवन।

 

कलरव गूँजा तरुओं पर

नभ से उतरी भोर-किरन।

जल में ,थल में, रंग भरे

सिन्दूरी हो गया गगन।

दमक उठा हर घर-आँगन।