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Jan 1, 2021

अनकही- नए विश्वास के साथ...

नए विश्वास के साथ... 

- डॉ. रत्ना वर्मा 

2020 के साल में कोरोना जैसी भयावह महामारी के बाद इन दिनों जो मुद्दा सबसे अधिक गर्माया हुआ है- वह है किसान आन्दोलन। दिल्ली में धरना देकर बैठे किसान कहते हैं कि नया कृषि कानून उनके हित में नहीं हैं, जबकि सरकार का कहना है कि वे किसानों के बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं। इसको लेकर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं । कोई कह रहा है साजिश है, कोई कह रहा है ये एक राजनीतिक चाल है, तो कोई कह रहा है कि कुछ माफिया गिरोह किसानों के भोलेपन का फायदा उठाकर उसने ऐसा कुछ करवाना चाह रहा है ,जो किसानों के हित में तो बिल्कुल भी नहीं है बल्कि पूरे देश को खोखला कर देने की फिराक में हैं ?

सवाल यह भी है कि केवल पंजाब और हरियाणा के किसान ही इस कानून के विरोध में क्यों है? क्या इसलिए नहीं कि सरकार जितना अनाज खरीदती है, उसका 90 प्रतिशत हिस्सा पंजाब और हरियाणा से आता है, जबकि देश के आधे से अधिक किसानों को यह पता ही नहीं है कि एमएसपी क्या होता है। दरअसल आंदोलनरत किसानों को यह भय सता रहा है कि कृषि की खरीददारी में निजी क्षेत्रों के आने से उन्हें जो न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी होती है, वह इस नये कानून के आने से आज नहीं तो कल खत्म हो ही जाएगी। पंजाब और हरियाणा की राजनीति भी किसानों पर टिकी है; इसीलिए वहाँ के नेता भी किसानों के समर्थन में आगे आए हैं। अन्य प्रदेशों का समर्थन भी सरकार के विरोध धीरे- धीरे आगे आ रहा है।

पर मूल प्रश्न यही है कि इसका हल कौन निकालेगा? जाहिर है सरकार ने कानून बनाया है, तो सरकार को ही इसका जवाब देना होगा और किसानों को भरोसा दिलाना होगा कि कानून से उनको नुकसान नहीं होगा। किसान देश के अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, पर अफसोस इस रीढ़ की ही सबसे ज्यादा उपेक्षा होती है। आजादी के बाद से आज तक किसानों के हित की बात प्रत्येक सरकार करती आई है; पर किसान कितने समृद्ध हो पाए  हैं, यह सबके सामने है। ऐसे में आज यह जरूरी है कि उनकी फसल पर वोट की राजनीति करने के बजाय उनके बेहतर और उज्ज्वल भविष्य को लेकर राजनीति की जाए।

 किसान को सिर्फ़ एक ही काम आता है -जी तोड़ मेहनत करके फसल उगाना और उन्हें बेचना। उसके लिए अधिक उत्पादन हो, तो मुसीबत, कम हो तो और अधिक मुसीबत। पिछले कुछ सालों में हमने देखा ही है कि कैसे अधिक टमाटर उपजाने के बाद किसानों को नुकसान उठाना पड़ा था... जब टमाटर एक रुपये किलो भी नहीं बिका, तो उन्हें सड़क पर फेंक देना पड़ा था... नतीजा कर्ज में डूबा किसान सड़क पर आ गया... आज भी गोदाम न होने का बहाना करके लाखों टन अनाज पानी में भीगने के लिए छोड़ दिया जाता है और अनाज खराब हो गया कहकर उनको मिट्टी के मोल खरीदा जाता है ... जाहिर है सड़ा हुआ अनाज खाने के काम तो आता नहीं... व्यापारी उन्हें शराब की भट्टियों में अधिक दाम में बेचकर फायदा उठा लेता है...

क्यों नहीं फसल लेने के साथ- साथ उन्हें उससे जुड़े लघु उद्योगों से जोड़ा जाता- टमाटर है तो सॉस बनाना, आलू है तो चिप्स बनाना, गाजर, मूली, गोभी, अदरक जैसी अनेक सब्जियों के अचार, और फलों के जैम आदि कई तरह के खाद्य सामग्री बनाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया जाता। असोस तो इस बात का है कि हम किसानों को नई तकनीक के सहारे अधिक उपज लेना तो सिखा देते हैं, परंतु उस अधिक फसल को कहाँ बेचा जाए या और किस प्रकार से उन्हें फायदेवाला बनाया जाए, यह नहीं सिखाते... फायदे वाला काम किसी और के हवाले कर दिया जाता है, परिणाम किसान वहीं का वहीं रह जाता है और बिचौलिए सम्पन्न बन जाते हैं।

कुल मिलाकर सच्चाई यही है कि राजनीति करने से, आंदोलन करने से किसानों की हालत नहीं सुधरने वाली। साथ ही यह भी सोचना ज़रूरी है कि  गणतन्त्र के 71 साल बाद भी वह जनसामान्य ‘गण’ कहाँ है? इस आम आदमी को भी जीने का अधिकार है या नहीं? अगर है तो ये रास्ता रोको आन्दोलन, रोज़मर्रा का बन्द सबकी जीवन-चर्या का अधिकार कैसे छीन सकते हैं। बात-बात पर किए जाने वाले दंगे-फ़िसाद और आन्दोलन दूसरों की रोटी -रोज़ी और आज़ादी को पैरों तले क्यों कुचलते हैं? रघुबीर सहाय की ‘अधिनायक’ कविता का  एक प्रश्न  आज भी अनुत्तरित है-

राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत-भाग्य-विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका/गुन हरचरना गाता है।...

2020 का पूरा साल कोरोना की जानलेवा महामारी के दहशत में बीत गया। इसने सबको बेहद परेशान किया है। बहुतों के जीवन में निराशा के घने बादल भी छाए, तो बहुतों ने अपने जीवन को सँवारा भी... जिस धैर्य और साहस के साथ हमारे देशवासियों ने कोरोना का सामना किया वह हमारे लिए गर्व की बात है।

लॉक डाउन के दौरान से लेकर अबतक जीवन जीने के हर तरीके में इतना बदलाव आया कि लोगों का जिंदगी के प्रति नज़रिया ही बदल गया। जान है तो जहान है वाली कहावत अब किताबों से निकल कर लोगों के वास्तविक जीवन में उतर गई है। स्वस्थ रहने के लिए लोग अच्छा खाने लगे, अच्छा सोचने लगे । और न सिर्फ अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी जीने लगे। यह अच्छी बात तो है ही कि हम इस बहुत कठिन घड़ी में भी सकारात्मक सोच के साथ इस खतरनाक वायरस का मुकाबला करने की ताकत रखते है।

यह ताकत आगे भी बनी रहेगी इसी विश्वास के साथ हम कामना करते हैं कि 2021 का यह साल कोरोना -मुक्त साल होगा तथा जीवन पहले से बेहतर और खुशियों से भरी होगी। उदंती के सुधी पाठकों को नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ...

2 comments:

विजय जोशी said...

अद्भुत सोच और अद्भुत आलेख. २०२० जान बचा पाने का दौर था और २०२१ जीवन को पटरी पर लाने का. ऐसे आंदोलन संकट को और गहरा कर देंगे. राष्ट्रीय स्तर पर सोच तथा समझ ही देश को बचा सकती है. सादर

Sudershan Ratnakar said...

वर्ष भर में दोनों समस्याएँ देश के सामने रहीं।सटीक विश्लेषण।