वर्ष 2020 में एक घातक और अज्ञात वायरस ने विश्व भर में कहर
बरपाया जिसमें करोड़ों लोग संक्रमित हुए हैं,
15 लाख से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और पूरे
विश्व को आर्थिक संकट से गुज़रना पड़ा। हालांकि, इस वर्ष
वैज्ञानिक अनुसंधान एवं विकास के अन्य क्षेत्रों में काफी काम हुआ है लेकिन
कोविड-19 महामारी ने विज्ञान को असाधारण रूप से प्रभावित किया है।
इस वायरस का पता
चलते ही विश्व भर के शोध समूहों ने इसके जीव विज्ञान का अध्ययन किया, कुछ समूह नैदानिक परीक्षण की खोज करने में
जुट गए तो कुछ ने जन-स्वास्थ्य उपायों पर काम किया। कोविड-19 के उपचार और टीका
विकसित करने के प्रयास किए गए। किसी अन्य संक्रमण के संदर्भ में ऐसी फुर्ती कभी
नहीं देखी गई थी। महामारी ने शोधकर्ताओं के कामकाज और व्यक्तिगत जीवन को भी
प्रभावित किया। वायरस के प्रभाव का अध्ययन न करने वालों के प्रोजेक्ट्स में देरी
हुई, करियर में अस्थिरता आई और अनुसंधान फंडिंग में बाधा आई।
एक नया वायरस
जनवरी में चीन के
वुहान प्रांत में मिले पहले मामले के एक माह के भीतर शोधकर्ताओं ने इसका कारण खोज
लिया था: एक नया कोरोनावायरस, जिसे सार्स-कोव-2 नाम दिया गया। 11 जनवरी तक, एक
चीनी-ऑस्ट्रेलियाई टीम ने वायरस के जेनेटिक अनुक्रम को ऑनलाइन प्रकाशित कर दिया।
इसके बाद वैज्ञानिकों ने यह चौंकने वाली खोज की कि यह वायरस एक से दूसरे व्यक्ति
में फैल सकता है।
फरवरी तक
शोधकर्ताओं ने बता दिया था कि यह वायरस कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित ACE2 ग्राही नामक प्रोटीन से चिपककर कोशिका
में प्रवेश करता है। फेफड़ों और आंतों सहित शरीर के कई अंगों की कोशिकाओं पर यह
ग्राही पाया जाता है। इसलिए कोविड-19 के लक्षण निमोनिया से लेकर अतिसार और स्ट्रोक
तक दिखाई देते हैं। यह वायरस अपने ग्राही से 2003 के श्वसन सम्बंधी सार्स-कोव
वायरस की तुलना में 10 गुना अधिक मज़बूती से जुड़ता है।
मार्च में कुछ
वैज्ञानिकों ने बताया कि वायरस से भरी छोटी-छोटी बूंदें (एयरोसोल) लंबे समय तक हवा
में उपस्थित रह सकती है और संभवत: संक्रमण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
लेकिन कई शोधकर्ता असहमत थे और सरकारों एवं जन-स्वास्थ्य संगठनों को यह मानने में
काफी समय लगा कि वायरस इस माध्यम से भी फैल सकता है। यह भी पता चला कि लक्षण
विकसित होने से पहले ही लोग वायरस फैला सकते हैं। एक हालिया विश्लेषण से यह बात
सामने आई है कि सार्स-कोव-2 के आधे मामले लक्षणहीन लोगों द्वारा संक्रमण फैलाने के
कारण हुए हैं।
गौरतलब है कि इस
वायरस का स्रोत अभी भी एक रहस्य बना हुआ है। साक्ष्यों के अनुसार यह वायरस चमगादड़
से उत्पन्न हुआ और संभवत: एक मध्यवर्ती जीव के माध्यम से मनुष्यों में आ गया।
बिल्लियों और मिंक सहित कई जंतु सार्स-कोव-2 के प्रति अतिसंवेदनशील पाए गए हैं।
इसके लिए WHO ने सितंबर
में मध्यवर्ती जीव का पता लगाने के लिए एक विशेष टीम का गठन किया। इस जांच में चीन
सहित कई देशों को शामिल किया गया है। इस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प
और अन्य नेताओं ने बिना किसी पुख्ता सबूत के दावा किया कि सार्स-कोव-2 चीन की
प्रयोगशाला में विकसित करके छोड़ा गया है। वैज्ञानिकों ने ऐसी किसी भी संभावना से
इन्कार किया है।
नियंत्रण के प्रयास
महामारी की शुरुआत से ही महामारी वैज्ञानिकों ने वायरस प्रसार का अनुमान लगाने के लिए कई मॉडल विकसित किए और इसे जन-स्वास्थ्य के विभिन्न उपायों से नियंत्रित करने का सुझाव दिया। टीके या किसी इलाज के अभाव में लॉकडाउन जैसे गैर-चिकित्सीय हस्तक्षेप अपनाए गए। जनवरी में वुहान में सबसे पहले लॉकडाउन लगाया गया
, जिसे बाद में अधिकांश देशों द्वारा उसी तरह के प्रतिबंधों के साथ अपनाया गया।लेकिन लॉकडाउन का
आर्थिक प्रभाव काफी गंभीर रहा और कई देशों को वायरस पर नियंत्रण प्राप्त होने से
पहले ही लॉकडाउन समाप्त करना पड़ा। वायरस के हवा के माध्यम से प्रसार की अनिश्चितता
को देखते हुए मास्क लगाने को लेकर भी बहस छिड़ गई जिसने, विशेष रूप से अमेरिका में, राजनीतिक रूप ले लिया। इसी बीच वायरस को षड्यंत्र बताने वाले सिद्धांत,
झूठे समाचार, और अधकचरा विज्ञान भी वायरस की
तरह काफी तेज़ी से फैलते गए। यह बात भी उछली कि वायरस को नियंत्रित करने की बजाय
उसे अपना रास्ता तय करने दिया जाए।
वैज्ञानिकों ने इस
संकट से बाहर आने के लिए व्यापक स्तर पर सार्स-कोव-2 के परीक्षण करने का भी सुझाव
दिया। लेकिन कई देशों में बुनियादी उपकरण और पीसीआर परीक्षण में उपयोग होने वाले
रसायनों की कमी के चलते काफी अड़चनें आर्इं। इसके मद्देनज़र कई समूहों ने जीन-संपादन
विधि CRISPR और त्वरित एंटीजन जांच के आधार पर नए
त्वरित परीक्षण विकसित करने का काम किया जो शायद भविष्य में उभरने वाले रोगों के
निदान में मदद मददगार होगा।
वियतनाम, ताइवान और थाईलैंड जैसे देशों ने व्यापक
लॉकडाउन, व्यापक स्तर पर परीक्षण, मास्क
लगाने के आदेश और डिजिटल माध्यम से कांटैक्ट ट्रेसिंग को अपनाकर वायरस पर शुरुआत
में ही नियंत्रण पा लिया। सिंगापुर, न्यूज़ीलैंड और आइसलैंड
ने बड़ी संख्या में परीक्षण एवं ट्रेसिंग तकनीक और सख्त आइसोलेशन की मदद से वायरस
को लगभग पूरी तरह से खत्म किया और सामान्य जीवन बहाल किया। इन सफलताओं का मुख्य
सूत्र सरकारों की तत्परता और निर्णायक रूप से कार्य करने की इच्छा रहा। शुरुआती और
आक्रामक कार्यवाहियों ने संक्रमण की रफ्तार को कम किया।
दूसरी ओर, कई अन्य देशों के अधिकारियों के लंबित
फैसलों, वैज्ञानिक सलाहों को अनदेखा करने और परीक्षणों को
बढ़ाने में हुई देरी की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हुई और दूसरी लहर का सामना
करना पड़ा। इसी कारण अमेरिका और पश्चिमी युरोप में कोविड-19 संक्रमण और मौतें एक
बार फिर बढ़ रही हैं।
त्वरित टीके
प्रभाविता के
परीक्षणों के आधार पर दवा कंपनी फाइज़र और जर्मन बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोएनटेक, अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना और दवा कंपनी
एस्ट्राज़ेनेका एवं ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के टीके कोविड-19 के विरुद्ध प्रभावी रहे
हैं। पिछले माह, फाइज़र को आपातकालीन स्वीकृति के तहत यूके और
अमेरिका में टीके के व्यापक उपयोग की अनुमति मिली है। आने वाले हफ्तों में युरोपीय
संघ द्वारा युरोप में भी इसके उपयोग की अनुमति मिलने की उम्मीद है। चीन और रूस में
विकसित टीकों को अंतिम चरण के परीक्षण पूरा होने से पहले ही उपयोग की मंज़ूरी मिल
चुकी है।
गौरतलब है कि फाइज़र
और मॉडर्ना ने लगभग 95 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया है जबकि एस्ट्राज़ेनेका और
ऑक्सफोर्ड टीकों की प्रभाविता अभी तक अनिश्चित है। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण सवाल है
कि यह टीका, विशेष रूप से
वृद्ध लोगों में, किस हद तक गंभीर रोग से बचाव कर सकता है और
यह कितने समय तक सुरक्षा प्रदान करेगा? यह तो अभी तक
वैज्ञानिकों को भी नहीं मालूम कि यह टीका लोगों को वायरस फैलाने से रोक पाएगा या
नहीं।
एक सवाल लोगों की
टीकों तक पहुँच का भी है। अमेरिका,
ब्रिटेन, युरोपीय संघ के सदस्य और जापान जैसे
अमीर देशों ने टीके की अरबों खुराकों की अग्रिम-खरीद कर ली है। कम और मध्यम आय
वाले देशों के लिए टीका उपलब्ध कराने के लिए कई अमीर देशों का समर्थन प्राप्त है।
टीकों के भंडारण और वितरण में काफी समस्याएं आ सकती हैं क्योंकि इन टीकों को शून्य
से 70 डिग्री सेल्सियस नीचे (-70 डिग्री पर) रखना अनिवार्य है।
उपचार:
नए-पुराने
महामारी को समाप्त
करने के लिए सिर्फ टीका काफी नहीं है। नियंत्रण टीके और दवाइयों के सम्मिलित उपयोग
से ही संभव हो सकता है। कुछ संभावित उपचारों के मिले-जुले परिणाम सामने आए हैं।
मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा एचआईवी की दो दवाओं के कॉकटेल ने
शुरुआती परीक्षणों में कुछ सकारात्मक परिणाम तो दिखाए लेकिन बड़े स्तर पर ये खास
प्रभावी नहीं रहे।
अप्रैल में एक बड़े
नैदानिक परीक्षण में रेमेडिसेविर नामक एंटीवायरल दवा का कोविड-19 में काफी समय तक
उपयोग किया जाता रहा लेकिन बाद के अध्ययनों से पता चला कि इस दवा के उपयोग से
मौतों में किसी प्रकार की कमी नहीं होती है। नवंबर में WHO ने इसका उपयोग न करने की सलाह दी।
वैसे अमेरिका, भारत, चीन और लैटिन
अमेरिका के नेताओं द्वारा कोविड-19 के संभावित उपचारों का काफी राजनीतिकरण किया
गया। इसमें हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन सहित कई अन्य अप्रामाणिक उपचारों का काफी
प्रचार हुआ। अधिकारियों ने ऐसे कई उपचारों के आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी,
जिसके चलते नैदानिक परीक्षणों को काफी नुकसान हुआ और सुरक्षा से
जुड़ी चिंताएं पैदा हुई।
जून माह में
डेक्सामेथासोन नामक प्रतिरक्षा-दमनकारी स्टेरॉइड तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को लक्षित
करने वाली दवा टॉसिलिज़ुमैब ने भी कुछ गंभीर रोगियों में सकारात्मक परिणाम दिए हैं।
इसके साथ ही कुछ परीक्षण कोविड-19 के हल्के लक्षणों के रोगियों के साथ भी किए गए
हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि ये गंभीर बीमारी की संभावना को कितना कम करते
हैं। कोविड-19 से स्वस्थ हो चुके रोगियों का ब्लड प्लाज़्मा भी उपयोग किया गया। कुछ
वैज्ञानिकों का मानना था कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के उपयोग से सार्स-कोव-2 को
निष्क्रिय किया जा सकता है लेकिन अध्ययनों से साबित नहीं हो पाया है। कुछ
वैज्ञानिकों के अनुसार एक-एक व्यक्ति की हालत को देखकर कोविड-19 के उपचार में
दवाइयों का मिला-जुला उपयोग करना होगा।
शोध कार्यों में
बाधा
द्वितीय विश्व
युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब वैज्ञानिक अनुसंधान इतने व्यापक रूप से बाधित
हुआ है। वायरस के फैलते ही मार्च से कई युनिवर्सिटी कैंपस बंद कर दिए गए।
प्रयोगशालाओं में आवश्यक प्रयोगों को छोड़कर अन्य सभी प्रयोगों को रोक दिया गया, फील्ड वर्क रद्द कर दिए गए और सम्मेलन वर्चुअल
होने लगे। महामारी से सीधे सम्बंध न रखने वाले प्रोजेक्टों की रफ्तार थम गई। अचानक
घर से काम करने को मजबूर शोधकर्ता परिवार की देखभाल और लायब्रेरी जैसे संसाधनों की
कमी से जूझते रहे। कई छात्र फील्डवर्क और प्रयोगशाला के डैटा के बिना अपनी डिग्री
पूरी नहीं कर पाए तो परिवहन के बंद होने से नौकरी की तलाश में भी काफी परेशान आई।
देखा जाए तो सबसे
अधिक प्रभावित वे महिलाएँ, माताएँ,
प्रारंभिक शोधकर्ता और ऐसे वैज्ञानिक रहे जिनका विज्ञान में
प्रतिनिधित्व काफी कम है। इस महामारी ने एक और कारक बढ़ा दिया जिसके कारण विज्ञान
के क्षेत्र में उनका भाग लेना काफी कठिन हो गया है। अप्रैल और मई में ब्राज़ील के
3345 शिक्षाविदों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पाया कि इस महामारी के दौरान शोध
पत्र प्रस्तुत न कर पाने और समय सीमा पर काम पूरा न करने में सबसे अधिक प्रतिशत
अश्वेत महिलाओं का रहा। ऐसे ही आँकड़े अन्य देशों में भी देखे जा सकते हैं।
एक अच्छी बात यह है
कि विश्व भर की सरकारों ने उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के लिए वित्तीय सहायता भी
प्रदान की है। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 2021 में युनिवर्सिटी शोध
कार्यों के लिए एक अरब ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की राशि प्रदान की है। अगस्त तक कई
समुदायों में संक्रमण दर बढ़ने के बावजूद अमेरिका और युरोप के कई विश्वविद्यालयों
ने अपने कैंपस खोलने का फैसला किया,
जबकि बड़े प्रकोप से ग्रसित भारत और ब्राज़ील जैसे देश में अभी तक
पूरी तरह नहीं खोले गए हैं।
वैसे इस महामारी
में कुछ सकारात्मक बातें भी सामने आई हैं। लॉकडाउन के कारण सीमाओं के बंद होने के
बाद भी कई क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में बढ़ोतरी हुई है। शोधकर्ताओं ने
अपने डैटा को खुले तौर पर साझा करना शुरू किया है। अधिकांश प्रकाशकों ने कोविड से
जुड़े लेखों को निशुल्क कर दिया है। अस्थायी रूप से ही सही, लेकिन शोध परंपरा में बदलाव आए हैं। मात्र
उत्पादकता की ओर कम ध्यान देने से काम और जीवन के बीच संतुलन जैसे व्यापक मुद्दों
पर चर्चा की जा रही है। उम्मीद है कि महामारी के दौरान हुए ऐसे सकारात्मक बदलाव
आगे भी जारी रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)
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