आलेख- सूरज का पर्दा
धरती के शिल्पी
देवताओं ने हिसाब लगाकर बताया कि इस मरम्मत के लिए पृथ्वी को तीन दिन और तीन रातों
के बराबर समय तक के लिए अपनी यात्रा रोकनी पड़ेगी, और इसका यह अर्थ होगा कि पृथ्वी के एक गोलार्द्ध पर नियमित से
छह गुना दिन-और दूसरे गोलार्द्ध पर छह
गुनी रात होगी। सौर मंडल के अधिष्ठाता विवस्वान् देव ने अन्तरिक्ष के एक केन्द्रीय
नक्षत्र में देवताओं की सभा की। समस्या यह थी कि आवश्यक मरम्मत के लिए धरती तीन
दिन तक ठहरा दी जाए, इसमें तो कोई हानि नहीं; लेकिन इससे उसके एक गोलार्द्ध पर छह गुना दिन और
दूसरे पर छह गुनी रात होगी। उससे धरती के प्राणियों विशेषकर
मानवजन पर जो आतंक छा जाएगा और प्रकृति की
नियमितता पर उन्हें जो अविश्वास हो जाएगा
उसका परिणाम बहुत ही घातक होगा। आवश्यकता इस बात की थी कि धरती के जीवों को धरती
के इस स्तम्भन का पता न लग पाए और काम भी पूरा हो जाए ।
बड़े-बड़े प्रकाश-पुंज
नक्षत्रों के अधिष्ठाता देवताओं ने अपनी-अपनी सेवाएँ प्रस्तुत करते हुए अपना संपूर्ण बुद्धि-बल लगा
देखा, पर वे इस समस्या का हल नहीं निकाल सके। उनमें से अनेक
यह तो कर सकते थे कि अपने नक्षत्र का एक बड़ा प्रतिबिम्ब धरती के समीप लाकर उसके
निम्नार्द्ध सूर्य से विमुख-भाग के सामने एक कृत्रिम सूर्य के रूप में सूर्य-की-सी
गति से चालित करें और उस
गोलार्द्ध के निवासियों को उस दीर्घ रात्रि का पता न लगने दें, पर सूर्य के सामने वाले गोलाई के निवासियों के लिए कुछ करने का साधन
उनके हाथ में कोई नहीं था। अन्त में, जब सभी अगली पंक्तियों के देवता
अपनी असमर्थता प्रकट कर
चुके, तब सबसे अन्तिम पंक्ति में बैठा हुआ एक बहुत ही छोटा, ज्योतिहीन, वरुण नाम का मेघों का देवता उठा
और उसने इस परिस्थिति को साध सेने के लिए अपनी सेवाएँ प्रस्तुत कीं।
बड़े देवताओं को वरुण के इस साहस पर आश्चर्य हुआ और उन्होंने
उसके प्रस्ताव को एक धृष्टतापूर्ण दुस्साहस समझा। किंतु वरुण ने विवस्वान् देव से विश्वासपूर्ण शब्दों में निवेदन किया कि वह
धरती के शिल्पी देवताओं को अपना कार्य
प्रारंभ करने की आज्ञा दें और उन्हें आश्वासन दिया कि शेष
अव्यवस्था को वह सहज ही सँभाल लेगा।
विवस्वान् देव की आज्ञा लेकर वरुण ने पृथ्वी के दोनों गोलार्द्धों के आकाश
को घने मेघों से पाट दिया और तब तक उन्हें वहीं रोके रखा, जबतक
शिल्पी देवों ने धरती की मरम्मत का अपना काम पूरा न कर लिया। इतने दीर्घकाल तक
मेघाच्छान्न-आकाश पृथ्वी के निवासियों
के लिए एक अदृष्ट -पूर्व घटना थी, पर इसमें उनके लिए कोई अकल्पित-पूर्ण या आतंकित करने वाली बात नहीं थी। वरुण के इस कौशल से
उन्हें दिन और रात के स्तम्भन का कोई पता नहीं लग पाया और वे अपने कृत्रिम दीप-प्रकाश
में स्वाभाविक दिन-रात की भाँति काम करते रहे।
लघु का काम गुरु से और अन्धकार का काम प्रकाश से यदि होने लगे तो
प्रकृति की व्यवस्था में लघु और
अँधकार का स्थान ही कहाँ रह जाए ?
(साभार-
मासिक पत्रिका- जीवन साहित्य, जनवरी-1953, वर्ष-14, अंक-1, सम्पादक –हरिभाऊ
उपाध्याय, यशपाल जैन, सस्ता साहित्य मण्डल , नई दिल्ली से प्रकाशित, मूल्य एक
प्रति-6 आना, वार्षिक- 4 रुपये)
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home