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Sep 10, 2020

उदंती.com, सितम्बर 2020

वर्ष - 13, अंक - 1

जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के
 गौरव का अनुभव नहीं है
वह उन्नत नहीं हो सकता। 
-डॉ. राजेंद्रप्रसाद





अनकही

 हिंगलिश बनती जा रही हिन्दी

–डॉ. रत्ना वर्मा

कोरोना वायरस के प्रकोप ने इस साल तीज-त्योहार से लेकर विभिन्न राष्ट्रीय पर्वों को भी भव्यता से मनाने का मौका नहीं दिया। यद्यपि गणेश चतुर्थी जैसे धार्मिक त्योहार पर धूम-धड़ाका न कर पाने की हताशा लोगों में रही;  पर शिक्षक दिवस और हिन्दी दिवस जैसे समारोह तो पहले भी औपचारिकता मात्र का निर्वहन करने के लिए ही मनाए जाते रहे हैं, अतः इनके शांतिपूर्वक मन जाने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। 
यह विडम्बना ही कही जागी कि आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी हम अपनी ही राष्ट्र- भाषा को जिन्दा रखने के लिए उसे एक दिवस के रूप में मना कर याद रखने की औपचारिकताएँ पूरी करते आ रहे हैं। ऐसा लगता है मानों पितृपक्ष के समय पड़ने वाले इन दिवसों को हम पितरों की तरह याद करके उसका तर्पण करते हैं, उसे श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
आज उन देशों की ओर आँख उठाकर देखिए, जो आज तरक्की के सोपान पार करते चले जा रहे हैं- जैसे चीन, जापान या  फ़्रांस इन देशों की उन्नति में भाषा को कभी बाधक नहीं माना गया। इन देशों ने सभी क्षेत्रों में – चाहे वह आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक अथवा विज्ञान एवं प्रद्यौगिकी  हो, तरक्की ही तरक्की की है। इन सभी विकसित और विकासशील देशों में सारे काम उनकी अपनी भाषा में ही होते हैं;  लेकिन भारत में हिन्दी में काम करने वालों को पिछड़ा हुआ, गँवार और छोटा माना जाता है।  इतना ही नहीं हिन्दी में काम करने वाले भी अब हिन्दी को चिन्दी बनाने पर तुले हुए  हैं। हिन्दी में छपने वाले समाचार पत्र और न्यूज़ चैनल में बोली जाने वाली भाषा को न हिन्दी रहने दिया गया है,  न अंग्रेजी।  इन सबने एक नई भाषा का इज़ाद कर लिया है- जिसे एक नाम भी दे दिया गया है हिंग्लिश। अब जब हिन्दी के रखवाले ही हिन्दी की बखिया उधेड़ने में लगे हुए हैं तो फिर कौन बचागा हिन्दी को। एक वह भी दौर था, जब हमें हमारे अभिवावक देश और दुनिया भर की खबरें जानने के लिए दैनिक अखबार को जीवन का अहम हिस्सा मानते थे, साथ ही वे हम बच्चों को इस बात पर भी जोर देते थे कि रोज अखबार पढ़ोगे, तो तुम्हारी हिन्दी सुधर जाएगी। लेकिन आज के समाचार पत्रों में शीर्षक ही आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी में छपा होता है, तो भला ऐसे अखबारों से बच्चे अच्छी हिन्दी कैसे सीखेंगे।
आज जमाना आधुनिक तकनीक का है जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के पास आज मोबाइल है, उसी तरह आज बगैर इंटरनेट और कम्प्यूटर के कोई काम नहीं होता ; परंतु यहाँ भी हम भाषा के मामले में पिछड़े हुए हैं- निजी वेबसाइट्स की बात तो छोड़ ही दीजिए केन्द्र और राज्य शासन की हजारों वेबसाइट्स हैं, जो पहले अंग्रेजी मेंखुलती हैं उसके बाद हिन्दी का विकल्प आता है। यही हाल कम्प्यूटर में हिन्दी टंक का है- अधिकतर देशों में कम्प्यूटर पर अपनी भाषा और एक फॉण्ट में काम होता है;  परंतु भारत में हिन्दी मुद्रण के लिए कई प्रकार के फॉण्ट्स बना दिए गए हैं, जो प्रत्येक कम्प्यूटर पर खोले नहीं जा सकते। हिन्दी में काम करने वालों को इससे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
देश तरक्की तब करेगा, जब देश के प्रत्येक बच्चे को समान शिक्षा और अवसर प्राप्त होंगे, यह तभी संभव है, जब विज्ञान, तकनीकी और रोजगगार की भाषा के रूप में हिन्दी मान-सम्मान मिलेगा। अंग्रेजी शिक्षा के कारण हम समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को पिछड़ा हुआ बनाकर उनके बीच आर्थिक और सामाजिक दूरी पैदा कर रहे हैं, उन्हें अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से दूर करके उनमें हीनता का बोध पैदा कर रहे हैं। दरअसल हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को अपनी भाषा में विकसित करने की कोशिश ही नहीं की है।
सच्चाई तो यही है कि अंग्रेजी और हिन्दी के चलते यहाँ दो तरह का तंत्र विकसित हो गया है। शासकीय कार्यालय और कॉरपोरेट सेक्टर में ऐसे लोगों को अधिक महत्त्व मिलता है, जो अंग्रेजी जानता हो या जिनकी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में हुई हो। जाहिर है माता- पिता यही चाहेंगे कि उनका बच्चे उच्च पदों पर आसीन हों और उनका मान-सम्मान बढ़े। बस ऐसे ही बढ़ता चला गया अंग्रेजी का बोल-बाला।
हम भले ही हिन्दी दिवस मनाकर हिन्दी को एक दिन के लिए मान-सम्मान देकर देश के माथे पर हिन्दी की बिन्दी लगाकर गर्व महसूस करते हैं, पर हिन्दी बोलकर उतना गर्व महसूस नहीं करते, जितना अंग्रेजी बोलकर करते हैं। अतः जब तक हम अपनी भाषा को सशक्त नहीं करेंगे, हमारा राष्ट्र कभी उन ऊँचाइयों को नहीं छू  सकता। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी के लिए प्रयास नहीं किए जा रहे हैं –देखा जाए तो सरकारी तंत्र  बीच- बीच में अपने काम-काज को लेकर दिशा-निर्देश जारी करता है; परंतु दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी दिवस मनाने के लिए जारी किया गया उनका पत्र भी अंग्रेजी में लिखा होता है।
आरम्भ से ही एकमत होकर यदि सम्पर्क और सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी बनती,  तो आज हिन्दी की ऐसी दुर्गति नहीं होती।  अपनी राष्ट्रभाषा के लिए , अपने देश की पहचान के लिए  उपर्युक्त सभी बातों  पर गौर करने की आवश्यकता है। एक बहुत बड़ी विडम्बना यह भी है कि हम स्वयं भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाना चाहते हैं , उच्च शिक्षा के लिए उन्हें विदेश भेजते हैं,  यह कहते हुए कि मेरा ही बच्चा बलि का बकरा क्यों बने। सच भी है पहले पूरी व्यवस्था सुधारी जाए, फिर उसपर अमल के लिए कहा जाए।
दरअसल राजनितिक दृढ़ इच्छा -शक्ति और संकल्प का अभाव ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने देने में बाधक है। आवश्यकता है ईमानदार पहल की। अगर मन में यह ठान लिया जाए कि देश में अब हिन्दी ही माध्यम से पढ़ाई होगी, तो कौन रोकेगा आपको। उच्च से उच्च तकनीकी  विषयों की पुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध कराना आपके हाथ में है, निजी शिक्षण संस्थाएँ आपकी अनुमति से संचालित होती हैं, उनपर काबू रखना आपके हाथ में है। क्योंकि जब बात देश की होती है तो भाषा व लिपि भी एक होनी चाहिए। भारत में हिन्दी हर जगह समझी और बोली जाती है। बस जरूरत इतनी है कि पूरा देश इसे एकमत से स्वीकार करने के लिए तैयार रहे। राजनैतिक तुष्टीकरण हिन्दी के विकास में बहुत बड़ी बाधा है। राजनेता क्षेत्रीय भावनाएँ भड़काकर भाषायी सद्भाव को क्षति पहुँचा रहे हैं। हिन्दी बोलकर वोट  माँगने वाले संसद में जाकर स्वय को जनभाषा से दूर कर लेते हैं। वर्गीय भेदनीति को दूर करना है ,तो  भाषायी सद्भाव को बढ़ाना पड़ेगा। और अंत में आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चन्द्र की वह बात जो बिल्कुल सच्ची और खरी है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

आलेख

कब कटेगा यह भ्रम-जाल?

-डॉ. गोपाल बाबू शर्मा

‘ओम जय जगदीश हरे’ आरती अत्यधिक प्रचलित है। हिन्दू घरों में, मन्दिरों में तथा कथा-कीर्तन आदि विभिन्न धार्मिक अवसरों पर यह आरती बड़ी श्रद्धा के साथ गाई जाती है। इस आरती को किसने लिखा, इस सम्बन्ध में या तो लोग जानते नहीं, अथवा भ्रमवश इसे स्वामी शिवानन्द की मान लेते हैं, क्योंकि आरती के अन्त में यह नाम आता है-
श्री जगदीश जी की आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी सुख-सम्पत्ति पावै॥
वास्तव में इस आरती के लेखक फुल्लौर (पंजाब) निवासी स्व. पण्डित श्रद्धाराम फुल्लौर हैं । इसे प्रार्थना के रूप में उन्होंने अपनी कृति ‘सत्य धर्म मुक्तावली’ में संकलित किया था। सन् 1870 में लिखी गई यह कविता आरती के रूप में इतनी लोकप्रिय हुई कि अन्य लेखक इसे अपनी रचना बताने लगे शिवानन्द स्वामी इसी तरह का चस्पा किया गया नाम है।
निम्नलिखित दो दोहे बहुत प्रचलित हैं -
गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवै सन्तोष धन, सब धन धूरि समान॥
बृच्छ कबहुँ नहिं फल भखें, नदी न संचै नीर।
 परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर॥
कुछ विद्वान् इन्हें कबीर का बताते हैं। प्रो. रामदेव शुक्ल ने प्रथम दोहे को अपने लेख ‘कबीर का सच’ में स्पष्टतः कबीर के दोहे के रूप में उद्धृत किया है।
कतिपय पब्लिक स्कूलों में निर्धारित पाठ्यपुस्तक ‘पुष्पांजलि’ भाग-3 में भी ये दोनों दोहे ‘कबीर के दोहे पाठ के अन्तर्गत संकलित हैं।’
अगर ये दोहे वस्तुतः कबीर के हैं, तो डॉ. भगवत स्वरूप मिश्र, बाबू श्याम सुन्दर दास, डॉ. माता प्रसाद गुप्त आदि के द्वारा सम्पादित कबीर-ग्रंथावलियों में क्यों नहीं हैं?
कुछ विद्वान्  इन दोहों को रहीम का मानते हैं, किन्तु किस प्रामाणिक आधार पर, इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं। डॉ. विद्यानिवास मिश्र तथा गोविन्द रजनीश द्वारा सम्पादित ‘रहीम-नामावली’ में भी ये दोहे देखने को नहीं मिलते। दोहे किसी के भी हों। कबीर और रहीम दोनों ही सम्माननीय कवि हैं; लेकिन यह तय तो होना ही चाहिए कि आखिरकार ये दोहे किसके हैं? कबीर के या रहीम के? या किसी और के?
शृंगार रस से परिपूर्ण निम्नलिखित दोहा साहित्य-प्रेमियों में काफी प्रचलित है-
            अमिय, हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।
 जियत, मरत, झुकि-मुकी परत, जेहि चितवत इक बार॥
 विषय और शैली की एकरूपता के कारण भ्रमवश लोग इसे महाकवि बिहारी द्वारा रचा हुआ मान लेते हैं। वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र ‘नियाज’ तथा कविवर शैवाल सत्यार्थी ने भी इसकी चर्चा बिहारी-रचित दोहे के रूप में की है।
वस्तुतः यह दोहा बिहारी का नहीं, अपितु ‘रसलीन’ का है। ‘रसलीन’ का पूरा नाम था सैयद गुलाम नबी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में इनका उल्लेख किया है । ये बिलग्राम (जि. हरदोई) के रहने वाले थे। इनका एक काव्य-ग्रंथ ‘अंग-दर्पण’ (सम्वत् 1794) भी है। उपर्युक्त दोहा इसी ‘अंग-दर्पण’ का है। निम्नलिखित दोहा भी काफी प्रसिद्ध है और अक्सर इसे उत्कट प्रेम के प्रसंग में उद्धृत किया जाता है-
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खइयो मांस।
 दो नैना मत खाइयो, पिया-मिलन की आस ।
 इस दोहे को कोई-कोई विद्वान् जायसी का बता देते हैं। दि. 21.3.2009 को अलीगढ़ के एक शिक्षण-संस्थान में आयोजित अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन के अवसर पर साहित्य की डॉक्टर एक कवयित्री महोदया ने कविता-पाठ से पहले भूमिका बाँधते हुए इस दोहे का उल्लेख किया और इसे अमीर खुसरो का यता दिया।
गाज़ियाबाद से प्रकाशित ‘साहित्य-जनमंच’ पत्रिका में श्री वृन्दावन त्रिपाठी ‘रत्नेश’ जी का एक लेख छपा। इसमें उन्होंने प्रसंगवश इस दोहे की भी चर्चा की और इसकी रचना का श्रेय बाबा फरीदकोट को दिया। इस सम्बन्ध में जब उन्हें  पत्र लिखा गया, तो उनका उत्तर था-फरीदकोट में कोई सूफी सन्त थे। उन्होंने इस दोहे को लिखा है और उस सन्त का न कोई नाम मिलता है, न अन्य रचनाएँ।
इस सम्बन्ध में वरिष्ठ कवि श्री चन्द्रसेन विराट जी ने जबलपुर के श्री सुरेन्द्र सिंह पवाँर से बात करने के लिए कहा। श्री पवाँर से फोन बात हुई, तो उन्होंने बताया कि यह दोहा ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में बाबा फरीद के दोहे के रूप में दिया गया है और यह प्रसिद्ध उक्ति-देख पराई लूपरी मत ललचावे जी, रूखा-सूखा खाइके ठंडा पानी पी। भी बाबा फरीद की है।
इस प्रकार की और भी प्रान्तों हिन्दी साहित्य-जगत् में व्याप्त हैं। स्वदेश-प्रेम के सन्दर्भ में निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रायः उद्धृत की जाती हैं-
 जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रस-धार नहीं।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
ये पक्तियाँ श्री मैथिलीशरण गुप्त की समझ ली जाती हैं। वड़़े-बड़े विद्वान् और लेखक तक अपने वक्तव्यों और लेखों में इन्हें गुप्त जी की पक्तियों के रूप में सम्मिलित करते हैं।
 आदरणीय डॉ. अम्बा प्रसाद ‘सुमन’ बड़े ही अध्येता और साहित्य-साधक थे। पता नहीं कैसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘मेरे मानस श्रद्धेय चित्र’ में इन काव्य-पंक्तियों को श्री मैथिलीशरण गुप्त का बता दिया । पत्र लिखने पर उन्होंने अपने उत्तर में कहा- मुझे भी ऐसा ही ध्यान है कि ये पक्तियाँ-  जो भरा नहीं है भावों से.. जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं मैथिलीशरण गुप्त की हैंगुप्त जी की किस पुस्तक की हैं- यह मैं  इस समय नहीं बता सकता। टटोलूँगा ...
दैनिक जागरण में प्रकाशित एक खबर के अन्तर्गत चीन के एक कारीगर द्वारा कालीन में माओत्से तुंग की डिजाइन बनाने के सन्दर्भ में देश-भक्ति की चर्चा करते हुए उपर्युक्त पंक्तियों को उद्धृत द्वारा रचित माना गया। किया गया और इन्हें मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित माना गया।
वस्तुतः ये पक्तियाँ श्री गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ जी की हैं। सनेही जी ‘त्रिशूल’ उपनाम से भी कविता लिखते थे। श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर' जी ने अपने लेख में इन पक्तियों को सनेही जी की ही माना है, जो ‘मोटो’ के रूप में ‘स्वदेश’ पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपा करती थीं।
डॉ. लक्ष्मी शंकर मिश्र ‘निशंक’ तया डॉ. जगदीश गुप्त ने भी इन पंक्तियों को सनेही जी की रचना के रूप में स्वीकारा है। ये पक्तियाँ सम्मेलन-पत्रिका में दी गई ‘सनेही-रचनावली’ की ‘स्वदेश’ कविता के अन्तर्गत भी प्रकाशित हैं ।
इसी प्रकार-
 जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
 वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है॥
पंक्तियाँ भी श्री मैथिलीशरण गुप्त के खाते में डाल दी जाती हैं, जबकि इनके लेखक गुप्त जी नहीं। अमर उजाला में सम्पादक के नाम लिखे अपने पत्र में एक सज्जन ने भी इन पंक्तियों को मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित बताने की कृपा की।
दिल्ली सरकार के सूचना एवं प्रचार निदेशालय के भी क्या कहने। उसने अपने एक विज्ञापन के माध्यम से राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का स्मरण किया। अच्छा किया। इसके लिए वह धन्यवाद का पात्र है; लेकिन यह पुण्य स्मरण ग़लतफ़हमी के साथ किया गया, जिसको न निज गौरव... मृतक समान है॥  को गुप्त जी का लिखा हुआ मान कर। क्या दिल्ली सरकार का सूचना और प्रचार निदेशालय सचमुच इतना अनभिज्ञ है? इस विज्ञापन के द्वारा अनेक पत्र-पत्रिकाओं को ‘आब्लाइज़’ किया गया होगा। यह विज्ञापन ‘वर्तमान साहित्य पत्रिका में भी कवर के’ चौथे पूरे पृष्ठ पर छपा। इसे सैकड़ों-हजारों लोगों ने देखा-पढ़ा होगा; लेकिन आश्चर्य की बात यह कि किसी कवि, लेखक, समीक्षक और प्रबुद्ध पाठक ने दिल्ली सरकार के सूचना एवं प्रचार निदेशालय के इस कृत्य पर तर्जनी तो क्या, अपनी कन्नी उँगली भी नहीं उठाई। अपने में मस्त और व्यस्त साहित्यकारों का इसे प्रमाद समझा जाए या उनका स्वयं का अज्ञान?
‘वर्तमान साहित्य’ पत्रिका में गुप्त जी के चित्र के साथ कविता की ये पंक्तियाँ ‘हैंड राइटिंग’ के रूप लिखी गई थीं ये हैंड राइटिंग गुप्त जी की थी या कम्प्यूटर की या किसी और की, यह कौन तय करता? इस ग़लतफ़हमी की ओर ध्यान दिलाते हुए सूचना एवं प्रचार निदेशालय को लिखा गया, पर कोई उत्तर नहीं मिला। मिलना भी नहीं था।
डॉ. गोकर्णनाथ शुक्ल ने अपने लेख सनेही जी का काव्य में साफ़तौर पर इन पंक्तियों को (जिसको न निज...समान है।) को सनेही जी की ही माना है।
स्व. श्री शिशुपाल सिंह ‘शिशु’ के अनुसार तो ‘प्रताप’ में छपने वाला निम्नलिखित मोटो भी श्री गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ का रचा हुआ है -
अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है।
है वह मुर्दा देश, जहाँ साहित्य नहीं है।
किन्तु श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का मानना है कि यह प्रचलित पद शायद देवी प्रसाद जी ‘पूर्ण’ का रचा हुआ है।
इस भ्रम-जाल को फैलाने में पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों का योगदान कमाल का रहा है। ‘धर्मयुग’ जैसा प्रतिष्ठित और जागरूक पत्र भी अपने को इस कालिख से नहीं बचा पाया। निम्नलिखित पंक्तियों को ‘धर्मयुग’ में  प्रसाद (जयशंकर
प्रसाद) का बताया गया है ।
कामुक चाटुकारिता ही थी, क्या यह गिरा तुम्हारी?
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी ॥
ये पंक्तियाँ प्रसाद जी की नहीं, बल्कि उन्हें मैथिलीशरण गुप्त के खण्ड काव्य ‘द्वापर’ में ‘विधृता’ के कथन के रूप में स्थान मिला है।
लखनऊ के किन्हीं नदीम साहब ने दैनिक जागरण में दोस्ती विकती है, बोलो खरीदोगे? शीर्षक से एक टिप्पणी दी और उसके प्रारम्भ में इन पंक्तियों का उल्लेख किया
दोस्ती न ऐसा बंधन है, जो जब चाहा, तब जोड़ लिया।
 मिट्टी का नहीं खिलौना है, जब चाहा तब तोड़ दिया ।
            इन पंक्तियों के रचयिता के रूप में नदीम साहब ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम लिया है। वास्तविकता यह है कि ये पंक्तियाँ श्री राधेश्याम कथावाचक जी की हैं और उनकी लोकप्रिय काव्य-कृति ‘राधेश्याम रामायण’ में आई हैं। सही रूप में पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
मित्रता न ऐसा रिश्ता है, जब जी चाहा तब छोड़ दिया।
 मिट्टी का नहीं खिलौना है, जो खेल-खेल में तोड़ दिया ।
 आगरा के एक सान्ध्य दैनिक में 16 सितम्बर, 2008 को पृष्ठ 10 पर प्रकाशित एक लेख में निम्नलिखित पंक्तियों को भी मैथिलीशरण गुप्त का कहा गया, जबकि ये पंक्तियाँ श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की काव्य-कृति कुरुक्षेत्र की हैं-
 क्षमा शोभती उस मुजंग को, जिसके पास गरल हो।
            उसको क्या, जो दन्तहीन, विष-रहित, विनीत, सरल हो ।
 एक बहुत ही प्रसिद्ध शे’र है-
            ये इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
ये शेर जिगर मुरादाबादी का है; लेकिन आगरा के एक सान्ध्यकालीन पत्र ने (दि. 14.2.2008 पृ. 3 एवं दि. 3.2.2009, पृष्ठ 2 पर) तथा 'सच और जोश] के पक्षधर एक अन्य दैनिक अखबार ने (दि. 27.5.2009, पृ. 14 पर) प्रेम-सम्बन्धी टिप्पणियों में इसे मिर्ज़ा ग़ालिब का मानने की उदारता बरती।
शायर सुदर्शन फाक़िर की निम्नलिखित पंक्तियाँ बहुत ही जानी-मानी हैं
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
            भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी ॥
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
            वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।
 लेकिन उपर्यक्त सान्ध्य दैनिक में (दि. 16.9.2008, पृष्ठ 5 पर) एक लेखिका ने इनको गायक जगजीत सिंह की ग़ज़ल बताकर मूल लेखक का पत्ता ही साफ कर दिया। अखबार वाले भी क्यों ग़ौर फ़रमाते?
बहुत कम लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने ये पंक्तियों न सुनी हों -
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
 वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा ।
 इस शेर को लोगबाग क्रान्तिकारी अशफाक उल्ला खाँ का लिखा हुआ बताते हैं। श्रीकृष्ण भावुक का भी यही मत है, किन्तु वरिष्ठ साहित्यकार श्री मधुर गंज मुरादाबादी ने अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि ये शेर स्वतंत्रता सेनानी और क्रांति दर्शी कवि पं. जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ द्वारा रचित ग़ज़ल का है।
श्री मधुर गंजमुरादाबादी हितैषी-स्मारक समिति के अध्यक्ष हैं और हितैषी जी के विषय में काफ़ी जानकारी रखते हैं। इसी प्रकार एक और प्रसिद्ध तथा प्रचलित शे’र है-
 सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
 देखना है ज़ोर कितना बाजुए क़ातिल में है।
इस शेर को आमतौर पर रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ का माना जाता है, लेकिन श्रीकृष्ण ‘भावुक’ ने अपने लेख में लिखा है कि श्री अर्श मल्सियानी, स्वामी वाहिद काजमी, जनाब शम्सुल रहमान फारुकी, चन्द्रमोहन प्रधान आदि विद्वानों के मुताबिक़ यह रचना राम प्रसाद बिस्मिल की नहीं, बल्कि बिहार के मुस्लिम शायर महम्मद हुसैन ‘बिस्मिल’ की है। हालाँकि श्रीकृष्ण ‘भावुक’ ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उपर्युक्त विद्वानों ने किस आधार पर इसे मुहम्मद हुसैन ‘बिस्मिल’ की रचना माना है यदि पूरा विवरण सामने आता, तो बात को समझने और निर्णय पर पहुँचने में आसानी होती।
कानपुर की डॉ. प्रभा दीक्षित ने ‘सौगात’ पत्रिका में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा-कुछ इस शेर (सरफ़रोशी..) को शहीदे आजम भगत सिंह के साथी शहीद शायर बिस्मिल का समझते हैं, किन्तु सत्य यह है कि उक्त शेर कानपुर के हिन्दी छन्दकार हितैषी का है, जिसे क्रान्तिकारी गाया करते थे। इस सम्बन्ध में श्री मधुर गंज मुरादाबाद का साफ-साफ कहना है कि ये पंक्तियाँ हितैषी की नहीं है।
शादी-व्याह के निमंत्रण-पत्रों में प्रारम्भ में ये पंक्तियाँ ज़्यादातर लिखी जाती जाती रही हैं
भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने को।
 हो मानस के राजहंस तुम, भूल न जाना आने को।
 अधिकतर लोगों को पता ही नहीं होगा कि ये पंक्तियाँ किसकी हैं। जाने-माने कवि और गीतकार श्री रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी जी से ज्ञात हुआ कि ये प्रसिद्ध पंक्तियाँ उनके चाचा जी पं. शम्भूदयाल त्रिपाठी नेह' (छिबरामऊ जि. कन्नौज) द्वारा रचित हैं। ‘हो मानस के राजहंस’ की जगह लोग अज्ञानवश ‘हे मानस के राजहंस...’ लिखने लगे।
यह व्यर्थ ही जन्मा जगाया, देश को जिसने नहीं,
जातीय जीवन की झलक आई कभी जिसमें नहीं।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि ये पंक्तियाँ अलीगढ़ के हिन्दी सेवी पं. गोकुल चंद्र शर्मा ‘परन्तप’ की हैं, जो उनके खण्ड काव्य रणवीर प्रताप में लिखी गईं।
चैतन्य महाप्रभु राम और कृष्ण दोनों के उपासक थे। उन्होंने गा-बजा कर संकीर्तन शुरू किया। ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे-हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे-हरे।’ का मंत्र उन्हीं की देन है।
अभी भी बहुत कुछ भ्रम और अनिश्चय की स्थिति ही चल रही है। किसी की लिखी पंक्तियाँ किसी के साथ जोड़ दी जाती हैं। इस मामले में सबसे ज्यादा मेहरवानी श्री मैथिलीशरण गुप्त पर हुई है। उनको उन पंक्तियों का लेखक वता दिया जाता है, जिनको उन्होंने लिखा ही नहीं।
महत्त्वपूर्ण और प्रेरणास्पद उक्तियों के साथ उनके वास्तविक रचनाकारों का नाम भी सामने आए, यह बहुत जरूरी है। रचना के साथ रचनाकार की सही पहचान न हो, तो अनजाने में ही सही, रचनाकार के साथ कितना बड़ा अन्याय है। सुधी समीक्षकों, साहित्यकारों, साहित्य-प्रेमियों तथा प्रबुद्ध पाठकों से अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे विचार करें, पता लगाएँ, ताकि भ्रान्तियाँ दूर हों और सही निर्णय पर पहुँचा जा सके। भ्रान्तियाँ दूर न हों, तो वे नए अज्ञान को जन्म देती हैं और अज्ञान अमरबेल की भाँति फैलता ही चलता है।

सम्पर्कः  46, गोपाल विहार, देवरी रोड, आगरा- 282001 (उत्तर प्रदेश) , मोबाइल- 09259267929

शीघ्र प्रकाश्य जीवनी का एक अंश

कथाकार सूरज प्रकाश
म्र भर देखा किये...
-विजय अरोड़ा

ये 1969 की बात है। मुझे याद आता है कि हम सब भाई-बहन अपनी-अपनी क्लास में फेल हो गए थे। सूरज भाई ग्यारहवीं में, महेश भाई बारहवीं में और हम छोटे भाई-बहन अपनी-अपनी क्लास में। ये अजूबा हुआ था। सुरेंद्र भाई की पढ़ाई पहले ही छूट चुकी थी और वे आईटीआई से फिटर का कोर्स कर रहे थे। महेश भाई जो हाईस्कूल में गणित में सौ में से 85 अंक लेकर विशेष योग्यता वाले बन गए थे और स्कूल के बोर्ड पर उनका नाम लिखा हुआ था, वे भी गणित में फेल हो गए थे। महेश भाई की पढ़ाई छूट गई, सूरज भाई की पढ़ाई छूट गई और हम तीनों कुक्‍कू, सुदेश और मैं अपनी-अपनी कक्षा में दोबारा पढ़ने के लिए मजबूर हो गये।
महेश भाई ने 11वीं के समय सूरज भाई को बहुत समझाया था कि 10वीं और 12वीं की गणित में फर्क होता है, गणित मत लो, नहीं सँभाल पाओगे, आर्ट्स ले लो। लेकिन सूरज भाई की जिद कि पढ़ना तो गणित ही है। ग्यारहवीं के छमाही में 120 में से आठ और फाइनल में 80 में से 12 अंक लेकर वे 200 में से 20 अंक ला पा थे। यही हाल फ़िज़िक्स और केमिस्ट्री में भी था, बस किसी तरह से हिंदी और अंग्रेजी पास कर पाए थे। पढ़ाई छूट ग और सामने बेकार भविष्य। सूझता नहीं था कि आगे क्या करना है। उन दिनों बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर महीने के ₹15 भी नहीं मिलते थे और 11वीं फेल को कौन ट्यूशन की क्लासेज देता। वे सारा दिन मारे-मारे फिरते, छोटी-मोटी नौकरियाँ करते। 
मुझसे बड़े, कुक्कू भाई का पढ़ाई में कभी दिल नहीं लगता था और वे किसी न किसी बहाने से स्कूल से से गायब हो जाते। उन पर कोई भी डाँट-फटकार- मार असर ना करती। वे एक बार घर से गायब भी हो ग थे और बिना टिकट हरिद्वार की तरफ चले ग थे। वापसी में पकड़े गए, तो घर से पैसे मँगवाने के बजाय उन्होंने मासी के लड़के से पैसे मँगवाए। संयोग से मासी के लड़के की दुकान बंद थी, तो पुलिस वाला वापिस चला गया और कुक्कू महाराज को दो दिन के लिए जेल में रहना पड़ा और उन्हें छुड़वाने के लिए बहुत पैसे खर्च करने पड़े थे। अपमान अलग।
 हमारे सबसे बड़े भाई सुरेन्द्र थोड़े शेखचिल्ली और सनकी रहे। स्कूल में 26 जनवरी और 15 अगस्त के आयोजन में फैंसीड्रेस शो में हमेशा भिखारी का रोल करते और शादियों में नागिन डांस ज़रूर करते। पढ़ाई छूट जाने के बाद ₹30 महीना पर एक दुकान पर उन्हें नौकरी करनी पड़ी थी। कुछ दिन नौकरी करने के बाद उन्होंने ये काम छोड़ दिया और खुद की रेहड़ी लगाकर राशन का सामान बेचना शुरू कर दिया। घर के पास ही रेहड़ी पर सारा सामान बेचा जाता। यह बहुत मुश्किल काम था। हमें भी स्कूल से आकर उनकी मदद करनी पड़ती। सूरज भाई जब ग्यारहवीं में थे तब भी उनकी मदद करते। फेल हो जाने के बाद तो वे फुल टाइम मदद करने लगे। 
सुरेंद्र भाई कभी गुड़ बेच रहे होते, कभी राशन का सामान बेच रहे होते थे तो कभी कच्छे बनियान बेच रहे होते। फिर अचानक लाटरी के टिकट बेचने लग जाते। कभी सुरेन्द्र भाई मसालों की सप्लाई करने पहाड़ पर जा रहे होते, तो कभी दिल्ली से होलसेल में कोई सामान लाकर बेच रहे होते। मुसीबत सूरज भाई की होती कि हर बार उनके साथ एक नया काम करना पड़ता। उनके साथ सूरज जी कभी पलटन बाजार में किसी भी बंद दुकान के आगे आवाज़ मारकर ये सामान बेच रहे होते। वे कई महीने तक लाटरी के टिकट बेचते रहे। मेले में रुमाल बेचते रहे। 
1969 की दीवाली से वे पलटन बाजार में ही लाटरी की एक दुकान पर एक सौ रुपया महीने पर काम करने लगे। घर के खर्च में जुड़ने वाले ये रुपये बहुत बड़ी रकम होते थे। सूरज भाई को शर्म आती कि वे यह सब आलतू-फालतू के काम क्यों कर रहे हैं। उनके सपने ज्यादा बड़े थे। वे पढ़ना चाहते; लेकिन सारी चीज़ें हाथ में नहीं थी। 
तब तक महेश भाई बाटा की दुकान पर हेल्पर लग चुके थे और वे जल्दी ही सेल्समैन बन कर फरीदाबाद चले ग थे। बाटा की उसी दुकान पर सूरज भाई भी हेल्पर की नौकरी करने लगे थे। उन्हें वेतन साढ़े तीन रुपये रोज़ के हिसाब से चौदह दिन बाद मिलता था। उनकी नौकरी बहुत मेहनत की थी। वे बेशक काम कर रहे थे लेकिन चाहते थे कि फिर से पढ़ाई शुरू करें। लेकिन बारहवीं में बैठने के लिए एक साल का ब्रेक ज़रूरी थी। तब तक क्या करते। 
तभी उनसे बाटा की दुकान पर कहा गया कि अपने सर्टिफिकेट ले आओ, ताकि तुम्हें हेल्पर के रूप में परमानेंट किया जा सके; तब तुम्हारा वेतन बढ़ जाएगा। सूरज भाई की उम्र तब सत्रह बरस कुछ महीने की थी और उन्हें पता था कि जिस दिन वे सर्टिफिकेट लाएँगे, वही दिन उनकी नौकरी का आखिरी दिन होगा। यही हुआ। नौकरी के लिए अट्ठारह बरस का होना ज़रूरी था। ये नौकरी भी ग। वे ट्यूशन पढ़ाते, इस तरह की कोई भी नौकरी करते और अच्छे दिनों का इंतजार कर रहे थे।
वे चूंकि 11वीं में फेल हो चुके थे और बारहवीं की परीक्षा देने के लिए उन्हें कम से कम 1 बरस तक इंतजार करना था और तब तक कोई उपाय नहीं था। समय गुज़ारना ही था। तभी उन्हें पता चला था कि एक वकील को कागज इधर-उधर ले जाने के लिए एक आदमी की ज़रूरत है। वे सुबह-सुबह ग। वकील उनसे दो-चार सवाल पूछते ही समझ गया कि ये छोकरा उनके काम के लिए तो नहीं ही बना है। बड़े प्यार से वकील ने समझाया कि पहले पढ़ाई पूरी कर लो। नौकरी के बहुत मौके आएँगे और अच्छी नौकरी के आएँगे। पढ़ने के लिए मेरी किसी मदद की ज़रूरत हो, तो कभी भी चले आना। उस दिन वे बहुत उदास हो ग थे। 
प्‍यार का पहला खत
तभी हमारे पड़ोस में एक लड़की अपनी बड़ी बहन के पास बीएससी करने के लिए आ। वह सुंदर थी और हमारे ग्‍यारहवीं फेल सूरज भाई जी बेकार और निट्ठले होते हुए भी उसके प्यार में पड़ गए। सूरज जी ग्यारहवीं फेल और वह बीएससी में। पूरी गली में सूरज जी ही उस बेचारी को देखने में ठीक-ठाक और बात करने लायक लगे। सूरज जी ने कैपिटल की कॉपी में सोलह पेज पर पहला प्रेम पत्र लिख कर उसे दिया। उसके लिए भी ये पहला पत्र था। जवाब देने में उसे तीन दिन लगे। सोलह पेज तो नहीं, लेकिन सूरज जी को अपने जीवन का पहला प्रेम पत्र भी खास लम्बा मिला। दोनों में बात शुरू हो ग। अब दोनों में रोजाना के हिसाब से प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान होता। सूरज भाई बताते हैं कि दो बरस तक सुदेश नाम की उस लड़की से प्यार करने और रोज़ाना एक के हिसाब से एक प्रेम पत्र आदान-प्रदान करने के अलावा वे उसे हाथ लगा पाने की हिम्‍मत भी नहीं जुटा पा थे। 
एक बार की बात, सुदेश की बहन शाम से ही कहीं गई हुई थी और रात होने तक वापिस नहीं आ थी। बहन की सास को उसकी चिंता हो गई थी और उसने सुदेश को भेजा था कि वह जा और बहन को ढूँढकर लाए। सुदेश ने कहा कि वह अँधेरे में कैसे और कहाँ जाएगी, तो उसकी सास ने कहा था कि जा सूरज भाई को साथ ले जा। सुदेश सूरज भाई के पास आई थी कि जरा चलो, बहन को ढूँढने जाना है। दोनों चल पड़े। उन दिनों मोहल्‍ला संस्‍कृति के हिसाब से सब लड़के-लड़कियाँ अनिवार्य रूप से भाई-बहन कहलाते थे।
यह पहला मौका था जब दोनों को एकांत मिला था और वह भी अँधेरे में गली में जाते हुए। जब उन दोनों को एक नाली पार करनी पड़ी तो दोनों एक दूसरे का हाथ थामे खड़े हो गए थे। दोनों को नहीं पता था कि आगे क्या करना है। दोनों की उम्र तब अट्ठारह बरस तो रही होगी। वे दोनों थोड़ी देर तक एक दूसरे का हाथ थामे खड़े रहे और फिर सुदेश की बहन की तलाश में चले गए थे। यह अकेला मौका था जब दोनों को एकांत मिला था और दोनों ही बुद्धू निकले।
सूरज जी आज भी मानते हैं कि सुदेश से प्रेरित होकर ही उन्होंने बारहवीं का फार्म भरा था और न सिरे से पढ़ाई में जुट ग थे। बारहवीं पास कर लेने के बाद भी वे खाली थे। वे रोज़ सुबह सात बजे टाइपिंग सीखने जाते। उस समय की परंपरा थी कि जो बच्चे कुछ नहीं कर सकते, कम से कम टाइपिंग सीख कर क्लर्क के रूप में कहीं चिपक ही सकते हैं। सब यही करते थे।
बीएसी करके सुदेश वापिस अपने शहर रुड़की जा रही थी, तो सूरज भाई बहुत उदास हो गए थे। उन्हें अब तक ढंग की नौकरी नहीं मिली थी। बेशक बारहवीं पास करके कुछ हद तक अपनी पोजीशन बेहतर कर पा थे। फिर भी उनकी कोई हैसियत नहीं थी, ढंग के कपड़े नहीं थे और इस प्रेम को आगे बढ़ाने के लायक साधन उनके पास नहीं थे। जाते समय उसे एक उपहार तक नहीं दे पाये थे। वे बताते हैं कि वे रात भर जागते रहे थे और अपनी किस्मत को कोसते रहे थे। 
इस बीच वे कविताएँ लिखते रहे और स्थानीय अखबारों में छपते भी रहे। ज़िंदगी थी कि झंड हो रही थी। तभी डैडी ने अपने ऑफिस में उनके लिए नौकरी का इंतजाम किया था। यह चपरासी का अस्थायी पद होता था, जिस पर वह टाइपिंग का काम करके नौकरी करते। वेतन वही एक सौ पाँच रुपये महीना। तीन महीने की नौकरी के बाद एक दिन का ब्रेक होता था। वेतन चपरासी का था और काम टाइपिंग का करना पड़ता था। यही गनीमत थी कि चपरासी की वर्दी नहीं पहननी पड़ती थी। सुबह टाइपिंग क्लास का यह फायदा मिला था कि वे अब चपरासी के वेतन पर टाइपिंग का काम कर रहे थे।
अट्ठारह बरस का होते ही सूरज भाई ने सेवायोजन कार्यालय में नाम लिखवा लिया था। बेशक वहाँ से तीन महीने में एक बार किसी नौकरी के लिए ऑफर आता। और अगर किसी नौकरी के लिए मना कर दो तो छ महीने बाद। पहली बार जब वहाँ कार्ड बनवाया था, तो वे ग्यारहवीं फेल थे। भला कौन-सी लाट साहब की नौकरी मिलती। पहली बार वहाँ से जो ऑफर आया था, उसमें उन्हें उसी दिन एक्सचेंज में रिपोर्ट करना था। डाकिये ने दो बजे चिट्ठी दी थी और चार बजे एक्सचेंज में पहुँचना था। वे किसी तरह से भागकर वहाँ पहुँचे कि चलो अच्छे दिन आने वाले हैं। कम से कम नौकरी के लिए बुलवाया तो गया है। लेकिन वे एक घंटे बाद ही सिर लटका वापिस आ रहे थे। सूरज भाई को जिस नौकरी के लिए बुलवाया गया था, वह गाँवों कस्बों में जाकर मच्छर मारने की दवा छिड़कने वाले कर्मचारी के लिए थी और उसके लिए साइकिल होना ज़रूरी था। वेतन चपरासी के वेतन से ज्यादा और क्लर्क के वेतन से कम होता। वहीं एक्सचेंज में ही हाथों-हाथ चयन हो रहा था। 
सूरज भाई को समझ में नहीं आ रहा था कि हँसें या रोएँ। भला मच्छर मारने की दवा छिड़कने का काम करने के लिए तो वे नहीं ही बने हैं। डैडी की बहुत कोशिश थी कि किसी तरह एम्‍प्‍लायमेंट एक्सचेंज का टाइपिंग का टेस्ट पास कर लें, तो उन्हें कहीं क्लर्क के रूप में भर्ती करा दिया जाए। इसके लिए जान पहचान निकाली ग और टाइपिंग टेस्ट के लिए सूरज भाई को पाँच की जगह सात और आठ मिनट भी दिलवा जाते; लेकिन वे हर बार जानबूझ कर टेस्ट में फेल हो जाते। वे यही नहीं चाहते थे कि वे टाइपिस्ट बनें।
एक मज़ेदार बात यहाँ याद आती है कि डैडी उन्हें क्लर्क बनाना चाहते थे, चाचा उन्हें आईटीआई से डिप्लोमा करके अपनी तरह ड्राफ्टमैन बनाना चाहते थे। सुरेंद्र भाई उन्हें अपनी तरह दुकानदार बनाना चाहते थे और महेश भाई उन्हें अपने साथ बाटा की दुकान में ले जाना चाहते थे। सूरज भाई की इनमें से कोई भी इच्छा नहीं थी। वे कुछ करना चाहते थे, पढ़ना चाहते थे। ( शीघ्र प्रकाश्‍य जीवनी का एक अंश)

कहानी

अंतराल
-विजय जोशी

अतीत बड़ा ही तकलीफदेह है। भोगा हुआ सुख या दुख यहाँ तक कि उसके स्थल तक जुड़ जाते हैं। एक- एककर संभली हुई परतें। पता नहीं कौन सी तह कब खुल जाए और मन उन क्षणों में कैद हो जाए। तुम्हारे साथ समय को सरपट भागते देखा है। पता नहीं लोग वक़्त के थमने का अनुभव कैसे कर पाते हैं। उस दिन भी सूरज जल्दी ही डूब गया था। तुम्हें याद है? तुम उसे खलनायक कहा करतीं थीं। सिर के बल क्षितिज की खाई में गिरते सिंदूरी सूरज की ओर तकते तकते तुम न जाने कहाँ खो गईं थीं।
अब अच्छा नहीं लगता अनि! कब तक इस तरह ढलता सूरज हमें बिछुड़ने पर विवश करता रहेगा।        
शी! केवल हम ही विवश नहीं। देखो दिनभर संसार को गर्मी से परेशान कर देनेवाला क्रूर सूर्य इस समय खुद भी कितना विवश दिख रहा है।
तुम तो हर जगह दर्शन ढूँढ लेते हो अनि! और हमने कितने सपने इकट्ठे कर लिये हैं। कब तुम पढ़ाई पूरी करो और हम जीवन का पाठ पढ़ने के लिए एकाकार हों। सच अनि! कभी कभी डर लगता है कि कहीं ...
छि: पगली हो तुम भी शी! आत्मीयता के धागे तोड़ने में बड़ी ताकत की ज़रूरत होती है। बस तुम अपने सपनों पर खूब विश्वास कर लो और...
नहीं अनि! तुम पर तो खूब भरोसा है हमें, पर शायद खुद पर नहीं।
तुम्हारी मुहब्बत पर मुझको यकीं है
मगर अपनी किस्मत पर हरगिज़ नहीं है
लगा सूरज के साथ साथ हम दोनों भी डूब रहे हैं। तालाब में मंदिर की परछाईं धूमिल होने लगी थी। तुम्हारी बात से कहीं अंदर तक सिहरकर उठ गया मैं अचानक।
कहाँ चले अनि!
उठो शी! देर हो रही है। तुम्हें घर तक छोड़ना है न।
पर तुम्हारे साथ रास्ते पर चलता हुआ एकाकी मैं संदेहों की रस्सी पर झूलता हुआ सोचता रहा था कि इस सपने को नक्षत्र कभी नहीं बनने दूँगा।
और तुम्हें क्या मालूम शी! कि उस दिन सारी रात कितनी उथल- पुथल में बीती थी। बचपन में एक बार माँ ने कहा था कि होनी के लक्षण पूर्व ही प्रकट होने लग जाते हैं। शी! क्या पता था पीड़ाओं में पला हमारा प्यार एक दिन मुझे यूँ बेबस छोड़ जाएगा। तुम्हारी एक बार की लिखी पंक्तियों की तीक्ष्णता मैंने कितने बाद में अनुभव की।
दूरियों के बीच पीड़ाओं में, बरसों से यह प्रणय पला है
अपरिचित ही रहे सदा तुम, तुमसे परिचय यही जुड़ा है
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उम्र की गदह पचीसी के दिन। तुम्हारे घर की ओर जाते मन की छलाँगें। कभी पीछे तो कभी आगे।
- कालबेल
- शील हैं क्या। कहिगा अनिल आया है
- इस बीच तुम्हारा होना – अनिलजी आप
- दोनों हाथ जोड़े हुए दो मुस्कुराती आँखें
- सकुचाहट... मौन... मौन की परतों का गलना
- जी हाँ मैं, कालेज मैगज़ीन के लिए आपसे कविता चाहिए । याचना या आग्रह?
- कुछ भी हो कविता तो यूँ ही बन गई :
- आँखों से उमड़ती है कविता, होठों से अनकही बात
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और अनकही बात वर्षों की तपस्या घोलकर पी गई।
अरे बैठेंगे भी या यहीं से कविता लेकर चल देंगे – एक स्मित लिये तुम्हारी आवाज और मेरे भीतर की दौड़ उस वक़्त रुकी। सकुचाता सा तुम्हारा अनुसरण करता हुआ ड्राइंग रुम में जा बैठता हूँ।
अभी आती हूँ – शायद तुम चाय के लिये कहने अंदर चली जाती हो और तुम्हारे जाने के बाद मैं थोड़ा मुक्त अनुभव करने लगता हूँ। कमरे की ओर भरपूर नज़र डालता हूँ। रेडियो के पास फ्रेम में तुम्हारी एक तस्वीर है। इस बीच तुम लौट आती हो।
अरे खामोश क्यों बैठे हैं आप?
ज़ाहिर है चिल्लाकर गा तो नहीं सकता था पर प्रश्न तो तुम्हारा अपनी जगह था – जी  आपकी तस्वीर देख रहा था।
पसंद आई?
जी... बहुत – हकलाया मैं।
तुम मेरी झिझक पर खुलकर हँसती हो – अरे आप तो लड़कियों को भी मात कर देते हैं।
कुछ देर की चुप्पी के बाद चाय उदरस्थ की। सकुचाता सा फिर– जी वो कविता।
और तुम्हारी बेसाख्ता हँसी। शायद मेरी झिझक पर। हँसी थम पा उसके पहले ही – कविता कल ले लीजिगा। लिखकर रखूँगी हाँ।
जी... जी हाँ। ये महाकाव्य लाया था आपके लि – और प्रश्नचिह्नों से अंकित महाकाव्य तुम्हें देकर कुछ निश्चिंत- सा अनुभव किया था मैंने। तुम्हारे यहाँ खाली गया था। लौटा तो बहुत कुछ समेट लाया था अपने साथ। रात देर तक ख्यालों में अपने मन के अनुसार सुलझता रहा, उलझता रहा। दूसरा दिन। तुमने कविता तो दी पर इस चिट के साथ :
“अनिलजी, कविता लिखकर दे रही हूँ; पर आपकी मैगजीन के लिए नहीं। बस यों ही लिख डाली। आशा है इसे आप अपने तक ही रखेंगे यानी मैंने लिखी। आपने पढ़ी। बस।
अब तो बहुत कुछ कंठस्थ है तुम्हारा। पर उस दिन तुम्हारी रफ्तार से दो चार हुआ था। बस यहीं से शुरू हुआ हमारे सम्बन्धों का नया मोड, जिसे कवि लोग प्रेम और योगी शायद माया कहते हैं।
पर कब तक। महाकाव्य। घेरों के दायरे। दायरों के घेरे। फूलों की मुखरता।
****************
वह दो बरस। ढेर सारी बातें, तालाब, तुम्हारा खलनायक सूरज, देवी का मंदिर, तालाब के बीच बना टीला और उस पर पेड़। सब कुछ तो बुरी तरह चिपका हुआ है मेरे साथ।
और फिर तुम डॉक्टर बनने इलाहाबाद चली गईं और मैं कानपुर। पत्रों से जरूर क्रम बना रहा। उफ़ कितने बड़े बड़े पत्र हुआ करते थे उन दिनों। अब तो उनकी कल्पना भी नहीं कर पाता। शायद कालिदास की नायिका शकुंतला और दुष्यंत भी उतना एकरस न हो पा होंगे, जितना उन दिनों हम थे। तुम्हारे पत्र पढ़ना जैसे बच्चे पहाड़े घोंटा करते हैं। नहीं शायद गलत कह रहा हूँ। बच्चों के पढ़ने में रुचि और स्फुरण कहाँ रह पाता है। उन्हीं दिनों एक बार तुमने लिखा था :
 “समझ में नहीं आता अनि! लोग इतनी पवित्र चीज़ की अनुभूति से वंचित रह जाना
कैसे सह पाते हैं। मैं तो अपनी बात कह ही नहीं सकती। कितना स्वर्गिक, कितना अच्छा
लगता है सब कुछ। लोग न जाने क्यों स्वार्थ या ईर्ष्या के बहकावे में इसे भूल जाते हैं।
व्हाट ए ब्युटीफूल थिंग लव इज़ एंड वी डिस्ट्रोय इट बाय वर्ड्स, जेलसी एंड डिज़ायर
 (प्यार कितनी खूबसूरत चीज़ है लेकिन हम इसे शब्दों, ईर्ष्या व इच्छा द्वारा नष्ट कर देते हैं)
एक बार की बात है। यूँ ही तुमपर अपना सिक्का जमाने के लिए मैंने व किसी हद तक तुम्हें
डराने के लिए बात ही बात में राजेंद्र यादव की कुछ पंक्तियाँ लिख दीं थीं - झूठ है प्यार एक सागर है और हृदय को उदार बनाता है। क्षमा देता है। प्यार खुली बाँहों का नि:संकोच विस्तार है। नहीं, नहीं, नहीं सब रोमांटिकों और आदर्शवादियों की हवाई बकवास है। प्यार संकीर्ण, स्वार्थी और निर्दयी बना देता है। प्यार की सपनीली और मखमली नरमाहट के पीछे ईर्ष्या के नुकीले नाखून होते हैं और दूसरा उस तरफ बढ़ता है तो शेर की गुर्राहट सुनाई देती है। नहीं इधर मत आना। यह मेरा शिकार है। इसे अकेला मैं ही खाऊँगा। सड़ जाने दूँगा पर तुम्हें नहीं खाने दूँगा।
और तुमने नाराज होकर मेरी छुट्टी ही कर दी थी। कहीं मेरी तबीयत तो खराब नहीं जो ऐसी बातें लिखने लग गया हूँ या तुमसे कहीं ऊब तो नहीं गया। यह आशंका तक व्यक्त कर दी थी तुमने। पर तब भी ऐसी कोई बात नहीं थी और आज भी नहीं है। मैं तो आज भी रात को सोते समय दरवाजे में  सिटकनी नहीं लगाता कि कहीं तुम आ जाओ, तो खटखटाने की ज़ेहमत न उठानी पड़े। तुम इन शब्दों की सच्चाई अनुभव कर सकोगी या नहीं, मैं नहीं जानता। पर मैं तो समर्पित था तुम्हारे प्रति। ऐसी बातों की भला गुंजाइश ही कहाँ थी तब तो। शायद आज भी नहीं है मेरी तरफ से तो पर।
अब भी रह रहकर तुम्हारे पत्रों की नरम जगहें कचोटने लगती हैं –अनि! तुम मेरी कमियाँ ही ढूँढा करते हो। क्या ही अच्छा हो तुम मेरी कमियों की इमारत खड़ी करो और मैं तुम्हारी अच्छाइयों का ताजमहल। तुम कहोगे कि तुम मुझसे जीत जाओगे। किसी इंसान में कमियाँ ही अधिक होती हैं। पर मैं कहती हूँ कि मैं तुम्हें हरा दूँगी। किसी इंसान में अच्छाइयाँ भी तो बेजोड़ हो सकती हैं।
पर ताजमहल की नींव पुख्ता नहीं थी शायद। तुम्हें क्या पता शी! कौन हारा है हमारे बीच। आज भी देवी के मंदिर को जानेवाली सुनसान सड़क से गुजरता हूँ, तो मैं अकेला नहीं होता। शायद रास्ते तक को तुम्हारे गुजरे कदमों का एहसास है।
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इलाहाबाद और कानपुर की दूरी तो कई बार तय की शी! पर समय ने हमारे बीच जो दूरी पैदा की उस पर तुम कुछ मील तक ही चलीं। मुझे क्या पता था एक दिन मैं इतना विवश हो जाऊँगा। इतना निरीह। मैंने तो स्वयं के भीतर झाँका भी है कई बार और मैं तो भीख भी माँग लेता शी! उसके सर्वथा विपरीत जो मेरा स्वभाव नहीं, पर देने वाले के पास भी कुछ हो तब न। फिर प्यार अपनी जगह हो जाता है और स्वाभिमान अपनी जगह। वैसे मैं जानता हूँ कि परिचितों के भावनात्मक संस्पर्शों के बीच इसकी उपस्थिति अनावश्यक है, पर इसकी आवश्यकता के स्थल पर भी तो भाँति नहीं पाल सकता। खैर अब तो रह रहकर तुम्हारे खलनायक सूरज की याद हो आती है।
आज मैं उसी की तरह विवश हूँ शी! और अपनी इस विवशता के सामने मैंने हथियार डाल दि है।
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ट्रेन... । छुक, छुक और पटरियों व पहियों के युद्ध से पैदा होनेवाली खटर- पटर। वैसी ही खटर पटर मन के भीतर भी हो रही थी। तुम्हें दी हुई मेरे इलाहाबाद पहुँचने की तारीख को गुजरे दो दिन हो चुके थे। मैं इलाहाबाद पहुँचने को बहुत उत्सुक था। तुम्हारी चिट्ठियों में अभी अभी पैदा हुए भौतिक दृष्टिकोणों से भिज्ञ हो, अवांछित की आशंका लिये हुए भी। वक़्त भी शायद टूटकर लंबा हो रहा था मेरे बिखरने के साथ। समय भी समय देखकर अपना मुखौटा बदलता रहता है। खैर जैसे तैसे पहुँचा। आशा के अनुरूप स्टेशन पर नहीं थीं तुम। अजंता पहुँचकर जल्दी जल्दी सफ़र का खोल उतारकर आदमी बना और तुम्हारे होस्टल। कारीडोर में ही। तुम किसी से बतिया रहीं थी।
दो सौ फिट दूर से ही चिल्लाईं – तो अब आ रहे हो तुम।
एक दूसरे की ओर झपटते कदम। हाँ शी! देखो मैं एक काम (असल में काम का उल्लेख आत्मश्लाघा ही लगा) में बेतरह उलझ गया था इसीलि परसों... 
तुम्हें क्या? कोई सब कुछ छोड़ छाड़कर तुम्हारे लिये दो- दो दिन तक हर ट्रेन देखी। हमें हमारी सहेलियों के सामने कितना शर्मिंदा होना पड़ा।
-कमरे में ले चलो। फिर डाँट लेना खूब।
आसपास टेक्निकल वातावरण की उपस्थिति से विचलित होकर कहा मैंने और तुम्हारे रूम में पहुँचकर - शी! इस बार माफ़ कर दो। गलती हो गई।
तुम्हें बनाने में ही ऊपरवाले की थोड़ी बहुत गलती हो जाती अनि! तो हमें ये तकलीफ़ें तो नहीं उठानी पड़तीं – दो मीटर लंबी साँस तुम्हारी। मुझे काफी राहत सी महसूस हुई और कुछ दिनों से आ रहे विचारों के लिये स्वयं को कोसा मैंने।
-कहा अजंता में ही ठहरे हो ना।
-हूँ के साथ स्वीकृति दी मैंने।
-हमारे हाथ की ही पियोगे या मेस में कहकर आऊँ – तुम्हारा मतलब चाय से था।
-तुम्हारे हाथ की ही। पूछ क्यों रही हो? हमेशा तो पिलाती हो न। और इस तरह कुछ क्षण तुम्हारा कुछ होने का अहसास क्यों छोड़ दूँ...
-क्यों केवल कुछ ही क्षण क्यों – रूम के कोने में रखे स्टोव वगैरह की ओर जाते हुए कहा तुमने।
वैसे ही कहा अन्यथा मत लो।
-अनि! तुम्हारे शब्दों में, तुम्हारे पत्रों में अब विश्वास का वजन नहीं रहा। मैं कुछ और नहीं समझ रही। पर वैसे ही कही हुई बात के पीछे भी कुछ न कुछ धरती तो हुआ ही करती है।
इस पल यकायक पुरुष -सी हो आईं थीं तुम। विषयांतर का प्रयत्न करते हुए मैंने कहा – शी! एक बुनियादी गलती हो गई।  
चाय के लि उपयोग में लाने जाने वाले बियर मग में चाय डालते हुए मेरी तरफ देखकर पूछा तुमने – क्या?
और तुम्हारी आँखों में देख मैं एक क्षण सब भूल गया था – सच शी! तुम्हारी आँखें बहुत सुंदर हैं। अरे हाँ बुनियादी गलती तो यह हुई कि बजाय डॉक्टर के तुम्हें वकील बनना था।
कुछ देर पहले जो तुम उम्र से दस फीट आगे का फासला तय कर गईं थीं पुन: पूर्व स्थिति में लौटकर बोलीं – हटो अनि! तुम हमारी तो सब बातें हवा में उड़ा देते हो और खुद गलतियाँ करके भी सर पर चढ़ने की आदत बरकरार रखे हुए हो–लो।
अच्छा शी! चाय लेते हुए मैंने कहा – इसके पहले की तुम यहाँ हमारी नुमाइश शुरू करो अपने राम खिसकाना चाहते हैं। यह बताओ अभी चल रही हो या सुबह। कब पहुँच रही हो अजंता। लंबा चौड़ा दिनभर का प्रोग्राम बनाकर आना।
अभी रात तो गोल नहीं हो सकते। तुम्हारे साथ चलते हैं। बाहर आज खलनायक की पिटाई करनी है। रात को हमें जल्दी छोड़ जाना, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। खलनायक की तो पता नहीं हमारी कविताओं की अच्छी ख़ासी पिटाई करवा दी तुमने। नुमाइश जो हुई हमारी। फिर नौ साढ़े नौ तक ही तुम्हारा होस्टल छोड़ पाया था। दूसरे दिन तुम जल्दी आ गईं थीं। हम कितनी देर तक बेमतलब सिविल लाइंस में घूमते रहे। वही सब बातें। अजीब -सी अवस्था होती है यह भी। हम जानते हैं कि हम सब वही बार बार दुहरा रहे हैं, फिर भी कितना अच्छा लगता है। हर बार नये अर्थों सा।
****************
ऐसी अनेक घटनाओं से मन के पृष्ठ रँगे पड़े हैं और आज तक उनमें बुरी तरह उलझा हुआ हूँ मैं। ऐसे मामलों में किसी को साझीदार बनाना भी तो स्वीकार नहीं मुझे। आहिस्ता से संभलकर उतरियेगा। काँपती लंबी शिथिलता और उस पर पड़ते तुम्हारे कदम।
और तहें खुलतीं हैं। इम्तिहान के दिनों में पढ़ाई की बातों में खोये बदहवास से हम। स्कूल से लौटते समय कुछ कदम का फासला रखकर चलते हम। शाम को घूमने की आदत न होते हुए भी केवल इसीलिये परिचित रास्तों पर गुजरते हम। प्रेक्टिकल की क्लासों में रीडिंग बार- बार लेकर देर तक साथ रहने की कोशिश करते हम। इतने शाश्वत को किस तरह इतनी आसानी से नकार दिया तुमने।
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और उस दिन की संध्या शायद तुम्हारे सान्निध्य की अंतिम शाम प्रयत्न करने पर भी विस्मृत नहीं हो पाती शी! मेरे भीतर तो तब भी ऐसी कोई बात नहीं थी। न अब है। तुम्हारी यूनिवर्सिटी के पास का वह बड़ा -सा पार्क। एक कोने में थककर बैठे हम। बातों हो बातों में तुम्हारे द्वारा मेरे कुछ दिनों पूर्व भेजे गए एक पत्र का उल्लेख – अनि! याद है अभी कुछ दिन पहले तुमने एक पत्र में अंग्रेजी का एक उद्धरण लिखा था :
लव इज़ लाइक अ सिगारेट - विच बिगिन्स विद फायर एंड एन्ड्स इन एशेज़
( प्यार तो एक सिगरेट सा है – जो आग से शुरू होकर राख में समाप्त होता है )
- हूँ, लिखा तो था
- कहीं तुम मुझसे ऊब तो नहीं गए अनि!
- क्यों ऐसा क्यों सोचने लगीं तुम
- बताएँ। कई कारण हैं। पहला तो यही कि एकरसता बढ़ते बढ़ते ऊब में परिवर्तित हो जाती है
- और दूसरा
- दूसरा। दूसरा शायद यह कि तुमने मेरे साथ जुड़ा हुआ श्रीकांत का नाम भी सुना हो। दोस्त तो हैं ही यहाँ तुम्हारे ।
- शी! स्वयं अनियंत्रित- सा बोला था मैं – कम से कम मुझे इतना छोटा तो मत समझो। सुना भी है, सत्य भी है ,तो भी वह मेरे लि किसी अर्थ का नहीं शी! मैंने अनुभूतियाँ सहेजी हैं अपने पक्ष की सीमा में ही और हमेशा उसीके अनुरूप रहा हूँ। तुम जानती हो मैंने कभी ऐसा कोई अधिकार नहीं जताया। यह तुम्हारी अपनी इच्छा है तुम मेरे साथ चलो या न चलो।
- नहीं अनि! उत्तेजित मत होओ। मैं अनुभव करती हूँ कि हमारे बीच अब वह सब कुछ नहीं रहा। न वह उल्लास, न ही उतना औत्सुक्य।
- हमारे बीच क्यों कहती हो शी! अनुभव तो तुम्हारा है न। शायद इसका उत्तर भी तुम्हारा दिया पहला ही कारण है – एकरसता।
- ठीक है। केवल मैं ही ऐसा अनुभव करती हूँ बस। तुम्हारा स्वाभिमान जो टपकने लगा है बीच में आजकल।
- नहीं ऐसा नहीं शी! उम्र के जिस दौर में हम समीप आ थे ,वह पागलपन भरा होता है। क्या कहूँ उस समय कहीं भी स्थायीत्व नहीं होता। मन भागा करता है। दरअसल अब ही तो, फिर बुरा मानोगी, हाँ तो अब हम उस स्थिति में पहुँचे हैं जब कुछ निर्णय कर सकें। अपने सपनों को दिशा दे सकें।
- पर वही सब तो जीवन है अनि! जिस समय तुम स्थायीत्व और गांभीर्य न होने की बात कह रहे हो वही तो हमारे लिए वरदान था।
- हाँ शी! था पर अब है क्या? वह स्थायी रहे तब न। बहुत सारी दुनिया देखने के बाद जीवन के कौतूहल और उत्सुकता वाले पहलू या संभ्रम को हम खो न दें तब।
- अच्छा अनि! कभी मैं तुम्हें लिख दूँ कि अब मैं तुम्हें नहीं चाहती। जो कुछ बीता वह मेरी भूल थी। अब से हमारे तुम्हारे सब संबंध खत्म।
- तो। तो शी! मैं वह सब नहीं करुँगा जो फिल्मों में दिखाया जाता है। मैंने तुम्हें बाध्य तो नहीं किया कभी। दूसरे यह ऐसी चीज़ भी तो नहीं ,जिसे जबरदस्ती पाया जा सके। हाँ, एक खालीपन जरूर रहेगा मुझमें न जाने कब तक। पर विश्वास रखो मैं इसके लिए तुमको दोष नहीं दूँगा। कोसूँगा भी नहीं। निस्संदेह यह मेरी आकांक्षाओं की हार होगी और मैं जानता हूँ कि हारने के बाद भी लड़ने वाले बेवकूफ होते हैं। मैं जब भी ऐसा आभास पाऊँगा शी! तुम्हारे बीच कभी नहीं आऊँगा।  मुझे जितने क्षण मिले हैं , तुमसे वह निधि ही मेरे लिये पर्याप्त है।
- बुरा तो नहीं लगा अनि! मैं जानती हूँ तुम्हें कचोटने वाली बात कह चुकी मैं। पर मैंने प्यार को एक सिद्धान्त के रूप में कभी नहीं लिया और न ही इस बात की हामी हूँ कि सिद्धांतों के बल पर ज़िंदगी गुजरी जा सकती है।
- शी! मैंने ही कब कहा है ये सब। हमेशा उचित और अनुचित से परे क्षणों के इच्छित उपभोग का ही तो समर्थन किया है। तुम्हें ही तो कई बार कहा है मैंने कि हमारी आँख पर औचित्य का नहीं अनुभूतियों का चश्मा होना चाहिए।
कह रहा था मैं। शायद उस स्थिति में तुम्हारे सामने कमजोर नहीं दिखना चाहता था। बहुत कोशिशों के बाद हृदय के संदेश को आँखों में आकर पिघलने से रोका था। पर लग रहा था जैसे मेरा अपना कुछ मुझसे कटकर अलग हो रहा है। ऐसे क्षणों में सहानुभूति सहेजना या सहानुभूति के नाम पर कुछ पाना भी तो स्वीकार नहीं मुझे। और घास के तिनकों से खेलते हुए हम बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहे थे। वातावरण काफ़ी बोझिल हो गया था। सूरज भी आज अपनी भूमिका निभाते हुए काफ़ी खुश दिख रहा था। बीच में एक दो औपचारिकता भरी बातें तुम्हारी। तुम्हें छोड़ा था होस्टल उस रोज और लौट आया था मैं दूसरे दिन।
आज तुम डॉक्टर हो गई हो। बदलते वक़्त के साथ मन की दुनिया में भी काफ़ी परिवर्तन हो चुका है। इस बीच न जाने कितने अंतराल चुक गये हैं। अब तो तुम्हारे उस पत्र की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जिसमें तुम्हारे ताजमहल न बना पाने की बात होगी और दावा होगा उस चीज़ के छीनने का जो अब मेरे पास है ही नहीं।

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