खंडित संवाद
-निर्देश निधि
कहने को तो वह सिर्फ एक कबूतर था। वही, गुलाबी पैरों वाला, सलेटी
रंग का जंगली कबूतर। जंगली,
पर वह जंगली जिसे अपना घोंसला इंसान के घरों में बनाना पसंद हो, जिसे सभ्यता -
संस्कृतियों के प्रणेता मनुष्य के सानिध्य में रहना पसंद हो। सोचती
हूँ कि वह जंगली कैसे हुआ भला ?
कई बरसों पहले की बात है, तबकी जब संयुक्त
परिवार था हमारा, बड़ा
सा परिवार,
बड़ा सा घर। जैसे पहले बड़े घरों में गैलरी होती थी जो घर की एक साइड आँगन से लेकर बाहर
गेट तक पहुंचती थी। हमारे बड़े से घर में उसके उत्तरी - पश्चिमी हिस्से में भी ऐसी
ही एक गैलरी थी। जिसका दरवाजा बाहरी लॉन से आकर सीधा आँगन में खुलता था। उस दरवाजे
के ऊपर बने जंगले में एक गुलाबी पैरों वाला कबूतर हमेशा ही अपना घोंसला बनाए रखता।
वहीं उसकी कबूतरी रहती और वहीं उन दोनों के मध्य हुए प्रेम के परिणाम,उनके नन्हें - नन्हें चूज़े पलते - बढ़ते और उड़ जाते। चूजों के उड़ जाने के बाद,प्रेम के लिए प्रसिद्ध
कबूतर - कबूतरी पुनः तरो- ताज़ा हो जाते,जैसे उनके प्रेम का
नवीनीकरण हो जाता और वे पुनः नए परिणामों का पालन -
पोषण करने की प्रक्रिया में पूरी तरह डूब जाते। उनका यह क्रम निरंतर रहता।
यों तो हम मानव प्रजाति में कबूतर का
प्रेम ही प्रसिद्ध है परंतु वे वाले कबूतर-कबूतरी हम इंसानी गृहस्थों की तरह ही
बड़ी नालायकी से लड़ते - झगड़ते भी -। कभी
प्रेमालाप तो कभी उनके भीषण युद्ध में उनके घोंसले के तिनके गैलरी और आँगन में बिखर जाते । कभी - कभी कोई अंडा भी
गिर कर फूट जाता । कभी अपने प्रेम के नवीनीकरण में वे दिन भर अपने पंखों को फड़फड़ा - फड़फड़ा कर अपने आशियाने से चाहे -अनचाहे, बेतरतीब और आड़े - तिरछे तिनके गिराते रहते -। कभी वे घोंसला बनाते, कभी नया घोंसला बनाने
के लिए पुराने तिनकों को नीचे गिरा देते। मतलब उनका प्रेम हो, झगड़ा हो या उन्हें
अपने आशियाने का नवीनीकरण करना हो,
कुछ भी हो गैलरी को तो हर हाल में गंदी रहना ही था। पर भले ही उनके कारण गैलरी
हमेशा गंदीरहती और उनपर गुस्सा भी आता, कभी -
कभी उन्हें खूब डाँट लगाने का मन भी करता पर उनका घोंसला
वहाँ से हटा देने का दुर्विचार तो मेरे क्या, परिवार के किसी छोटे -
बड़े सदस्य के मन में कभी नहीं आया। हाँ इतना ज़रूर किया कि जंगले में उनके घोंसले
के सामने दो ईंट और रखवा दीं ताकि उनके अंडे - बच्चे या घोंसले के तिनके नीचे
गैलरी में ना गिरें। ईंटें रखने से तिनकों का गिरना बंद तो नहीं, हाँ थोड़ा कम ज़रूर हो
गया। पर फिर कभी कोई अंडा गिरकर ज़ाया नहीं हुआ।

नाश्ता तैयार करते वक्त मैं रसोई घर में
होती तो वह रसोईघर के दरवाजे के सामने चक्कर काटने लगता और गुटुरगूँ - गुटुरगूँ करता रहता। अब तक
उसने छजली पर खाना खाना लगभग छोड़ ही दिया
था,
वहाँ अब अकेली कबूतरी ही खाती। अब मैं रसोईघर में जो भी बना रही होती, उसी के छोटे - छोटे टुकड़े करके उस गुलाबी पैरों वाले कबूतर को दे देती और वह खाकर
आश्वस्त हुआ छजली पर जाकर पानी पीता और अपने घोंसले में जाकर आराम फरमाता। सब कहते
कि मैंने उसे खाना खिला - खिला कर उसकी खाने की खोज की सामान्य दिनचर्या भुलाकर
उसे आलसी बना दिया था।
कुछ दिनों बाद वह आँगन में आकर साधिकार
ही खाना माँगने लगा। अगर किसी दिन सबसे पहले खाना उसे ही ना देकर किसी और को दे देती
तो वह एक विचित्र तरीके से,
काफी तेज़ आवाज़ में गुटुरगूँ करता जो मेरी समझ में
उसका किया हुआ गुस्सा ही होता। जैसे वह उस विचित्र ध्वनि से मुझे डांट ही रहा होता,मुझे घुड़क रहा होता।
खाना वह पूरे घर में सिर्फ मुझसे ही माँगता
था। और किसी से घर में उसका कोई मतलब नहीं था उसके और मेरे बीच सचमुच ही विश्वास
भरा एक संवाद स्थापित हो गया था। मैं तो उसकी बात समझने ही लगी थी, वह भी मेरी बात ना सही, परंतु भावना तो समझने ही लगा था। अन्यथा
इस तरह बेखौफ़ होकर साधिकार भोजन कैसे माँग
पाता वह निरीह।
एक दिन ना जाने क्या हुआ दर्द से फड़फड़ाता
हुआ वह कबूतर घायल पैर लेकर लौटा। ना जाने कहाँ पंजा काट लाया था,बहुत बेचैन था। मैं उसे
छू लेना चाहती थी, ताकि उसका थोड़ा दर्द
मेरे पोरुओं से होकर मुझमें समा जाए और वो थोड़ी राहत पा जाए। पर इतना विश्वास कि
मैं उसे छू लूँ उसने मुझ पर तब भी किया नहीं था। मेरे पास आते ही वह भाग जाता, चोट के लिए उसके पानी
में यह सोचकर दवा मिला दी गई,
कि खाना खाने के बाद पानी तो पिएगा ही। पर दवाई का पानी उसे पसंद नहीं आया। फिर
थोड़ी कम दवाई डाली गई तो थोड़ा - थोड़ा कर वह पानी
पीने लगा। दो - चार दिन के बाद आँगन में
खाना खाने का वही पुराना क्रम यथावत् हो गया। बस अब वह थोड़ा सा लँगड़ाने लगा था।
जिस घर में मुझ मानव और उस पक्षी का
संवाद बन रहा था उसी घर में चुपचाप मनुष्य
का मनुष्य से संवाद दरक रहा था। लाख मिन्नतें करने, रोने - धोने,
गुस्सा और प्यार करने के बावजूद वह संवाद किसी तरह गाँठ लगकर भी जुडने को तैयार नहीं हुआ, और नहीं ही जुड़ा।
परिवार का परिवार से संवाद,
व्यक्ति का व्यक्ति से संवाद टूट कर ही रहा और घर की अखंडता खंड - खंड हो गई। दर्द तो बहुत उमड़ा पर उसकी दवा जिसमें मिलाकर आराम आ सकता वह
दिव्य जल उपलब्ध नहीं हो सका। उस दर्द की दवा हो जाती तो खंड - खंड हुए घर के टुकड़े भी एक दूसरे के थोड़ी पास तो आते ज़रूर और कुछ दिनों
बाद जुड़ भी जाते। पर न दर्द की दवा हुई और न खंडित घर की मरम्मत ही । आँगन पार की
रसोई सहित आधा घर मुझसे पराया हो गया, जब उस घर के खंड देखकर
मैं रोई,
तो पूरे घर को हड़प कर जाने की लालची करार दे दी गई। घर के टुकड़े
स्वीकार कर लिये,
बल्कि वे मजबूरन स्वीकार करने पड़े । वह
आधा हिस्सा ज़रा से रुपयों के बदले किसी पराए को सौंप दिया गया। खैर,घर के टुकड़े क्या हुए
कि वह निरीह गुलाबी पैरों वाला,
लगभग एक ही पाँव पर निर्भर रह गया कबूतर तो बेघर ही हो गया। कबूतरी को साथ लिये आँगन की कभी इस मुँडेर पर बैठता कभी उस मुँडेर पर। उसे इन्सानों के घर के बँटवारे की यह बात कतई समझ नहीं आई । बस बेसहारा सा हैरान - परेशान होता हुआ पखवाड़ों यों ही भटकता रहा। नए
मालिक ने गैलरी तुड़वा दी थी जिसके जंगले में उसका परिवार रहता था। मेरे हिस्से में
रसोईघर नहीं आया था। क्योंकि ससुर जी ने घर बँटवारा करने के
लिए बनाया ही नहीं था ना। अपने बच्चों के साथ - साथ एक होकर
रहने का सपना देखा होगा। पर ना जाने मेरी स्नेही और सुहृद सासू माँ क्यों और किस
दबाव में अपने व्यवहार के ठीक उलट तैयार हो गई थीं घर परिवारके साथ भावनाओं के भी
टुकड़े करने के लिए। जिस रसोई घर में बना हुआ भोजन कर - करके
घर की संतति बाल से युवा,
युवा से प्रौढ़ हुई थी वह रसोई घर भी उस अंजान पराए के अधीन हो
गया था। रोया तो रसोईघर का दिल भी खूब ही होगा खैर, परंतु उसके पास कहने
के लिए मेरे जैसे शब्द तो नहीं थेना। उसने भी अपने लिए मेरे स्नेही हाथों को तलाशा, तो खूब ही होगा अंजान स्त्री के अंजान हाथों में, फिर हार - थक कर बैठ रहा होगा तब, जब उस पराए ने रसोईघर की बड़ी सी काया को
काट - छाँटकर छोटी - संकरी काया में तब्दील
किया होगा। और खूब आँसू बहाए होंगे उस गुलाबी पैरों वाले कबूतर ने भी जिसने उसके
भीतर बना
खाना बरसों- बरस खाया था। जहाँ मुझे घुड़की देने का अधिकार झपट कर लिया था उसने।

‘कल चमन था आज एक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये
क्या हुआ
सोचता हूँ अपना ही घर देखकर, हो ना हो ये घर मेरा
देखा हुआ
और ये पंक्तियाँ विशेष आकर्षित करतीं
अपनी बरबादी का कोई गम नहीं, गम है बरबादी का क्यों
चर्चा हुआ.......’
खैर....वह बेचारा मुँडेरों - मुँडेरों बैठता और देर तक रसोई को देखता मैं बाहर होती तो मुझे देखता
रहता,
अब मुझे घुड़कता नहीं था,
बस यों ही पंखों में हरकत करता और मायूस-सी उड़ान भरकर कहीं
चला जाता। जब उसका घर उजड़ा था तब उसके प्रेम के नए परिणाम,नए अंडे थे उसमें। कौन
जाने उसने मुझे अपनी नई संतति को बेघर कर देने वाली साजिश कर्ता समझा हो और नाराज़
हो गया हो। कौन जाने उसने अपने आशियाने के उजड़ने की जिम्मेदार मुझे ही माना हो।
शायद इसी बिना पर मुझसे नाराज़ हो गया हो। उसके और मेरे बीच बरसों से सधा हुआ वह
कोमल,
आत्मिक संवाद अंततः टूट गया था । अब यदि वह कभी -
कभार भटकता हुआ आ भी जाता और मैं कहीं दाने डाल भी देती और वह उन्हें खाता भी पर
अब वह मेरे डाले दाने मुझपर ही शक करके खाता या उन्हें यों
ही पड़े छोड़कर अपनी वही मायूस उड़ान उड़ जाता। मैं समझ गई थी कि उसके घर की सुरक्षा
ना करने के कारण वह मुझसे नाराज़ हो गया था। तर्क तो लगाया ही होगा उसने भी कि यदि
कृष्ण महाभारत जैसे भीषण युद्ध में भी टिटिहरी के अंडे बचा
पाए , तो क्या मैं ज़रा- से घर के बँटवारे में उसका आशियाना और उसके अंडे नहीं बचा सकती थी। पर वो क्या जाने
कि वे कृष्ण थे और मैं एक साधारण स्त्री, वह कलियुग का आरंभ था
और यह घोर कलियुग। वह अपने घर और अजन्मी संतान को खो देने का रंज कर रहा था, मैं उसे कैसे समझाती कि
मैं भी किसी छोटी पीड़ा से तो नहीं गुज़र रही थी। मेरा भी घर आधा हो गया था और पूरे
से आधा - अधूरा हो गया था परिवार भी, वो क्या जाने कि पूरे
होने के बाद आधे पन की त्रासदी झेलना बेघर हो जाने और किसी घोर अवसाद के गहरे
समंदर के बीच से होकर गुजरने जैसा ही होता है।
काल के छोटे से अंतराल के बाद ही, अपने छीन कर लिये गए अधिकार का प्रयोग करने के लिए वह कभी नहीं आया। मेरे बँटे हुए आँगन में उसके गुलाबी पाँव फिर कभी नहीं उतरे, ना कभी उसके पंखों की
जानी - पहचानी आहट ही मेरे कानों में पल को ठहरी। वह पाँव से ही नहीं अपनी बुद्धि
से भी लंगड़ा ही हो गया था शायद तभी तो मुझपर, मेरे स्नेह पर संदेह
किया उसने। मुझ पर विश्वास तोड़कर तो उसने मेरा दोतरफा नुकसान किया था। मनुष्य तो
अक्सर अपनी अंतरात्मा के पाँव तोड़कर लँगड़ा हो
ही जाता है पर मुझे दुख हुआ था कि उस मेरे विश्वसनीय मित्र पाखी ने भी अपनी अंतरात्मा
के पाँव तोड़ डाले थे...

11 comments:
बचपन याद आया
हार्दिक धन्यवाद उदंती मेरे इस संस्मरण को प्रकाशित करने के लिए।
वाह! बहुत सुंदर संस्मरण
प्रभात
बहुत हृदय स्पर्शी संस्मरण है,।निधि जी आपकी लेखनी भी और कूची भी दोनों कमाल की हैं।सादर।
समय ऐसा आ गया कि बेज़ुबान भी अब संदेह करने लगे हैं मनुष्य पर. मनुष्य का आपसी नाता भी तो खंडित हो चूका है. दिल को छू गया यह संस्मरण. बधाई.
बहुत ही मर्मस्पर्शी संस्मरण। एक बेजुबान भी घर बिखरने का दर्द समझता है।पर इंसान स्वार्थ में इतना अंधा हो जाता है कि घर के साथ रिश्तों के खंडित होने का दर्द महसूस नहीं कर पाता।
बहुत ही मर्मस्पर्शी संस्मरण। एक बेजुबान भी घर बिखरने का दर्द समझता है।पर इंसान स्वार्थ में इतना अंधा हो जाता है कि घर के साथ रिश्तों के खंडित होने का दर्द महसूस नहीं कर पाता।
बेहतरीन,मर्मस्पर्शी संस्मरण।बेज़ुबान के मनोभावों का सुंदर चित्रण।
बेहतरीन,मर्मस्पर्शी संस्मरण।बेज़ुबान के मनोभावों का सुंदर चित्रण।
बेहतरीन,मर्मस्पर्शी संस्मरण।बेज़ुबान के मनोभावों का सुंदर चित्रण।
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