उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Sep 10, 2020

शीघ्र प्रकाश्य जीवनी का एक अंश

कथाकार सूरज प्रकाश
म्र भर देखा किये...
-विजय अरोड़ा

ये 1969 की बात है। मुझे याद आता है कि हम सब भाई-बहन अपनी-अपनी क्लास में फेल हो गए थे। सूरज भाई ग्यारहवीं में, महेश भाई बारहवीं में और हम छोटे भाई-बहन अपनी-अपनी क्लास में। ये अजूबा हुआ था। सुरेंद्र भाई की पढ़ाई पहले ही छूट चुकी थी और वे आईटीआई से फिटर का कोर्स कर रहे थे। महेश भाई जो हाईस्कूल में गणित में सौ में से 85 अंक लेकर विशेष योग्यता वाले बन गए थे और स्कूल के बोर्ड पर उनका नाम लिखा हुआ था, वे भी गणित में फेल हो गए थे। महेश भाई की पढ़ाई छूट गई, सूरज भाई की पढ़ाई छूट गई और हम तीनों कुक्‍कू, सुदेश और मैं अपनी-अपनी कक्षा में दोबारा पढ़ने के लिए मजबूर हो गये।
महेश भाई ने 11वीं के समय सूरज भाई को बहुत समझाया था कि 10वीं और 12वीं की गणित में फर्क होता है, गणित मत लो, नहीं सँभाल पाओगे, आर्ट्स ले लो। लेकिन सूरज भाई की जिद कि पढ़ना तो गणित ही है। ग्यारहवीं के छमाही में 120 में से आठ और फाइनल में 80 में से 12 अंक लेकर वे 200 में से 20 अंक ला पा थे। यही हाल फ़िज़िक्स और केमिस्ट्री में भी था, बस किसी तरह से हिंदी और अंग्रेजी पास कर पाए थे। पढ़ाई छूट ग और सामने बेकार भविष्य। सूझता नहीं था कि आगे क्या करना है। उन दिनों बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर महीने के ₹15 भी नहीं मिलते थे और 11वीं फेल को कौन ट्यूशन की क्लासेज देता। वे सारा दिन मारे-मारे फिरते, छोटी-मोटी नौकरियाँ करते। 
मुझसे बड़े, कुक्कू भाई का पढ़ाई में कभी दिल नहीं लगता था और वे किसी न किसी बहाने से स्कूल से से गायब हो जाते। उन पर कोई भी डाँट-फटकार- मार असर ना करती। वे एक बार घर से गायब भी हो ग थे और बिना टिकट हरिद्वार की तरफ चले ग थे। वापसी में पकड़े गए, तो घर से पैसे मँगवाने के बजाय उन्होंने मासी के लड़के से पैसे मँगवाए। संयोग से मासी के लड़के की दुकान बंद थी, तो पुलिस वाला वापिस चला गया और कुक्कू महाराज को दो दिन के लिए जेल में रहना पड़ा और उन्हें छुड़वाने के लिए बहुत पैसे खर्च करने पड़े थे। अपमान अलग।
 हमारे सबसे बड़े भाई सुरेन्द्र थोड़े शेखचिल्ली और सनकी रहे। स्कूल में 26 जनवरी और 15 अगस्त के आयोजन में फैंसीड्रेस शो में हमेशा भिखारी का रोल करते और शादियों में नागिन डांस ज़रूर करते। पढ़ाई छूट जाने के बाद ₹30 महीना पर एक दुकान पर उन्हें नौकरी करनी पड़ी थी। कुछ दिन नौकरी करने के बाद उन्होंने ये काम छोड़ दिया और खुद की रेहड़ी लगाकर राशन का सामान बेचना शुरू कर दिया। घर के पास ही रेहड़ी पर सारा सामान बेचा जाता। यह बहुत मुश्किल काम था। हमें भी स्कूल से आकर उनकी मदद करनी पड़ती। सूरज भाई जब ग्यारहवीं में थे तब भी उनकी मदद करते। फेल हो जाने के बाद तो वे फुल टाइम मदद करने लगे। 
सुरेंद्र भाई कभी गुड़ बेच रहे होते, कभी राशन का सामान बेच रहे होते थे तो कभी कच्छे बनियान बेच रहे होते। फिर अचानक लाटरी के टिकट बेचने लग जाते। कभी सुरेन्द्र भाई मसालों की सप्लाई करने पहाड़ पर जा रहे होते, तो कभी दिल्ली से होलसेल में कोई सामान लाकर बेच रहे होते। मुसीबत सूरज भाई की होती कि हर बार उनके साथ एक नया काम करना पड़ता। उनके साथ सूरज जी कभी पलटन बाजार में किसी भी बंद दुकान के आगे आवाज़ मारकर ये सामान बेच रहे होते। वे कई महीने तक लाटरी के टिकट बेचते रहे। मेले में रुमाल बेचते रहे। 
1969 की दीवाली से वे पलटन बाजार में ही लाटरी की एक दुकान पर एक सौ रुपया महीने पर काम करने लगे। घर के खर्च में जुड़ने वाले ये रुपये बहुत बड़ी रकम होते थे। सूरज भाई को शर्म आती कि वे यह सब आलतू-फालतू के काम क्यों कर रहे हैं। उनके सपने ज्यादा बड़े थे। वे पढ़ना चाहते; लेकिन सारी चीज़ें हाथ में नहीं थी। 
तब तक महेश भाई बाटा की दुकान पर हेल्पर लग चुके थे और वे जल्दी ही सेल्समैन बन कर फरीदाबाद चले ग थे। बाटा की उसी दुकान पर सूरज भाई भी हेल्पर की नौकरी करने लगे थे। उन्हें वेतन साढ़े तीन रुपये रोज़ के हिसाब से चौदह दिन बाद मिलता था। उनकी नौकरी बहुत मेहनत की थी। वे बेशक काम कर रहे थे लेकिन चाहते थे कि फिर से पढ़ाई शुरू करें। लेकिन बारहवीं में बैठने के लिए एक साल का ब्रेक ज़रूरी थी। तब तक क्या करते। 
तभी उनसे बाटा की दुकान पर कहा गया कि अपने सर्टिफिकेट ले आओ, ताकि तुम्हें हेल्पर के रूप में परमानेंट किया जा सके; तब तुम्हारा वेतन बढ़ जाएगा। सूरज भाई की उम्र तब सत्रह बरस कुछ महीने की थी और उन्हें पता था कि जिस दिन वे सर्टिफिकेट लाएँगे, वही दिन उनकी नौकरी का आखिरी दिन होगा। यही हुआ। नौकरी के लिए अट्ठारह बरस का होना ज़रूरी था। ये नौकरी भी ग। वे ट्यूशन पढ़ाते, इस तरह की कोई भी नौकरी करते और अच्छे दिनों का इंतजार कर रहे थे।
वे चूंकि 11वीं में फेल हो चुके थे और बारहवीं की परीक्षा देने के लिए उन्हें कम से कम 1 बरस तक इंतजार करना था और तब तक कोई उपाय नहीं था। समय गुज़ारना ही था। तभी उन्हें पता चला था कि एक वकील को कागज इधर-उधर ले जाने के लिए एक आदमी की ज़रूरत है। वे सुबह-सुबह ग। वकील उनसे दो-चार सवाल पूछते ही समझ गया कि ये छोकरा उनके काम के लिए तो नहीं ही बना है। बड़े प्यार से वकील ने समझाया कि पहले पढ़ाई पूरी कर लो। नौकरी के बहुत मौके आएँगे और अच्छी नौकरी के आएँगे। पढ़ने के लिए मेरी किसी मदद की ज़रूरत हो, तो कभी भी चले आना। उस दिन वे बहुत उदास हो ग थे। 
प्‍यार का पहला खत
तभी हमारे पड़ोस में एक लड़की अपनी बड़ी बहन के पास बीएससी करने के लिए आ। वह सुंदर थी और हमारे ग्‍यारहवीं फेल सूरज भाई जी बेकार और निट्ठले होते हुए भी उसके प्यार में पड़ गए। सूरज जी ग्यारहवीं फेल और वह बीएससी में। पूरी गली में सूरज जी ही उस बेचारी को देखने में ठीक-ठाक और बात करने लायक लगे। सूरज जी ने कैपिटल की कॉपी में सोलह पेज पर पहला प्रेम पत्र लिख कर उसे दिया। उसके लिए भी ये पहला पत्र था। जवाब देने में उसे तीन दिन लगे। सोलह पेज तो नहीं, लेकिन सूरज जी को अपने जीवन का पहला प्रेम पत्र भी खास लम्बा मिला। दोनों में बात शुरू हो ग। अब दोनों में रोजाना के हिसाब से प्रेम-पत्रों का आदान-प्रदान होता। सूरज भाई बताते हैं कि दो बरस तक सुदेश नाम की उस लड़की से प्यार करने और रोज़ाना एक के हिसाब से एक प्रेम पत्र आदान-प्रदान करने के अलावा वे उसे हाथ लगा पाने की हिम्‍मत भी नहीं जुटा पा थे। 
एक बार की बात, सुदेश की बहन शाम से ही कहीं गई हुई थी और रात होने तक वापिस नहीं आ थी। बहन की सास को उसकी चिंता हो गई थी और उसने सुदेश को भेजा था कि वह जा और बहन को ढूँढकर लाए। सुदेश ने कहा कि वह अँधेरे में कैसे और कहाँ जाएगी, तो उसकी सास ने कहा था कि जा सूरज भाई को साथ ले जा। सुदेश सूरज भाई के पास आई थी कि जरा चलो, बहन को ढूँढने जाना है। दोनों चल पड़े। उन दिनों मोहल्‍ला संस्‍कृति के हिसाब से सब लड़के-लड़कियाँ अनिवार्य रूप से भाई-बहन कहलाते थे।
यह पहला मौका था जब दोनों को एकांत मिला था और वह भी अँधेरे में गली में जाते हुए। जब उन दोनों को एक नाली पार करनी पड़ी तो दोनों एक दूसरे का हाथ थामे खड़े हो गए थे। दोनों को नहीं पता था कि आगे क्या करना है। दोनों की उम्र तब अट्ठारह बरस तो रही होगी। वे दोनों थोड़ी देर तक एक दूसरे का हाथ थामे खड़े रहे और फिर सुदेश की बहन की तलाश में चले गए थे। यह अकेला मौका था जब दोनों को एकांत मिला था और दोनों ही बुद्धू निकले।
सूरज जी आज भी मानते हैं कि सुदेश से प्रेरित होकर ही उन्होंने बारहवीं का फार्म भरा था और न सिरे से पढ़ाई में जुट ग थे। बारहवीं पास कर लेने के बाद भी वे खाली थे। वे रोज़ सुबह सात बजे टाइपिंग सीखने जाते। उस समय की परंपरा थी कि जो बच्चे कुछ नहीं कर सकते, कम से कम टाइपिंग सीख कर क्लर्क के रूप में कहीं चिपक ही सकते हैं। सब यही करते थे।
बीएसी करके सुदेश वापिस अपने शहर रुड़की जा रही थी, तो सूरज भाई बहुत उदास हो गए थे। उन्हें अब तक ढंग की नौकरी नहीं मिली थी। बेशक बारहवीं पास करके कुछ हद तक अपनी पोजीशन बेहतर कर पा थे। फिर भी उनकी कोई हैसियत नहीं थी, ढंग के कपड़े नहीं थे और इस प्रेम को आगे बढ़ाने के लायक साधन उनके पास नहीं थे। जाते समय उसे एक उपहार तक नहीं दे पाये थे। वे बताते हैं कि वे रात भर जागते रहे थे और अपनी किस्मत को कोसते रहे थे। 
इस बीच वे कविताएँ लिखते रहे और स्थानीय अखबारों में छपते भी रहे। ज़िंदगी थी कि झंड हो रही थी। तभी डैडी ने अपने ऑफिस में उनके लिए नौकरी का इंतजाम किया था। यह चपरासी का अस्थायी पद होता था, जिस पर वह टाइपिंग का काम करके नौकरी करते। वेतन वही एक सौ पाँच रुपये महीना। तीन महीने की नौकरी के बाद एक दिन का ब्रेक होता था। वेतन चपरासी का था और काम टाइपिंग का करना पड़ता था। यही गनीमत थी कि चपरासी की वर्दी नहीं पहननी पड़ती थी। सुबह टाइपिंग क्लास का यह फायदा मिला था कि वे अब चपरासी के वेतन पर टाइपिंग का काम कर रहे थे।
अट्ठारह बरस का होते ही सूरज भाई ने सेवायोजन कार्यालय में नाम लिखवा लिया था। बेशक वहाँ से तीन महीने में एक बार किसी नौकरी के लिए ऑफर आता। और अगर किसी नौकरी के लिए मना कर दो तो छ महीने बाद। पहली बार जब वहाँ कार्ड बनवाया था, तो वे ग्यारहवीं फेल थे। भला कौन-सी लाट साहब की नौकरी मिलती। पहली बार वहाँ से जो ऑफर आया था, उसमें उन्हें उसी दिन एक्सचेंज में रिपोर्ट करना था। डाकिये ने दो बजे चिट्ठी दी थी और चार बजे एक्सचेंज में पहुँचना था। वे किसी तरह से भागकर वहाँ पहुँचे कि चलो अच्छे दिन आने वाले हैं। कम से कम नौकरी के लिए बुलवाया तो गया है। लेकिन वे एक घंटे बाद ही सिर लटका वापिस आ रहे थे। सूरज भाई को जिस नौकरी के लिए बुलवाया गया था, वह गाँवों कस्बों में जाकर मच्छर मारने की दवा छिड़कने वाले कर्मचारी के लिए थी और उसके लिए साइकिल होना ज़रूरी था। वेतन चपरासी के वेतन से ज्यादा और क्लर्क के वेतन से कम होता। वहीं एक्सचेंज में ही हाथों-हाथ चयन हो रहा था। 
सूरज भाई को समझ में नहीं आ रहा था कि हँसें या रोएँ। भला मच्छर मारने की दवा छिड़कने का काम करने के लिए तो वे नहीं ही बने हैं। डैडी की बहुत कोशिश थी कि किसी तरह एम्‍प्‍लायमेंट एक्सचेंज का टाइपिंग का टेस्ट पास कर लें, तो उन्हें कहीं क्लर्क के रूप में भर्ती करा दिया जाए। इसके लिए जान पहचान निकाली ग और टाइपिंग टेस्ट के लिए सूरज भाई को पाँच की जगह सात और आठ मिनट भी दिलवा जाते; लेकिन वे हर बार जानबूझ कर टेस्ट में फेल हो जाते। वे यही नहीं चाहते थे कि वे टाइपिस्ट बनें।
एक मज़ेदार बात यहाँ याद आती है कि डैडी उन्हें क्लर्क बनाना चाहते थे, चाचा उन्हें आईटीआई से डिप्लोमा करके अपनी तरह ड्राफ्टमैन बनाना चाहते थे। सुरेंद्र भाई उन्हें अपनी तरह दुकानदार बनाना चाहते थे और महेश भाई उन्हें अपने साथ बाटा की दुकान में ले जाना चाहते थे। सूरज भाई की इनमें से कोई भी इच्छा नहीं थी। वे कुछ करना चाहते थे, पढ़ना चाहते थे। ( शीघ्र प्रकाश्‍य जीवनी का एक अंश)

3 comments:

bedi gurdeep said...

Waah... Very interesting ❤️

vandana gupta said...

बहुत रोचक

Unknown said...

जीवनीबेसब्री से इंतज़ार .....