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Nov 13, 2019

उदन्ती.com नवम्बर 2019

उदन्ती.com नवम्बर 2019
वर्ष -12 अंक-4

हवा और पानी को बचाने, जंगल और जानवर को बचाने वाली योजनाएँ असल में मनुष्य को बचाने की योजनाएँ हैं.              -स्टीवर्ट उडैल


चिकित्सा सुविधा पर उठते सवाल...

चिकित्सा सुविधा पर उठते सवाल...
      - डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले दिनों कई फिल्मी सितारे कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से ग्रसित रहे। सोनाली बेन्द्रे के बाद इरफान खान एक बेहद असाधारण बीमारी न्यूरोएंडोक्राइन नामक कैंसर का इलाज कराने विदेश गए थे। ऋषि कपूर भी हाल ही में कई माह तक अपना इलाज बाहर करवा कर भारत लौटे हैं। यह बहुत शुभ संकेत है कि वे एक गंभीर बीमारी को मात देकर आज स्वस्थ हैं।
कोई भी अपना इलाज कहाँ और किस डॉक्टर से कराए ,यह उनका व्यक्तिगत निर्णय है, पर यह प्रश्न प्रत्येक भारतीय के दिल में उठता है कि बड़े सितारे और हमारे देश के नेता बड़ी बीमारी होने पर ज्यादातर विदेश जाकर ही इलाज क्यों कराते हैं? क्या उन्हें अपने देश की चिकित्सा पद्धति पर भरोसा नहीं है? कोई लंदन जाता है, तो कोई न्यूयार्क। वे सब ठीक होकर लौटे भी हैं। ऐसे में  भारत की चिकित्सा -व्यवस्था पर सवाल तो उठ खड़े होते ही हैं। जाहिर है कोई भी अपनी जिंदगी को दाँव पर नहीं लगाना चाहता। उनके पास बाहर जाकर वहाँ के इलाज का खर्च वहन करने की ताकत है, तो भला कोई अपनी जिंदगी से खिलवाड़ क्यों करेगा। जान है ,तो जहान है।
इस संदर्भ में अभिनेत्री नरगिस दत्त की याद आ रही है। उन्हें भी कैंसर की बीमारी ने हमसे दूर कर दिया था। वे भी इलाज के लिए न्यूयार्क गईं थीं। यद्यपि वहाँ पर भी उनकी बीमारी पर काबू नहीं पाया जा सका था।  उनके अभिनेता और राजनेता पति सुनील दत्त जिन्होंने नरगिस के दर्द को बहुत करीब से जाना और देखा था, वे जानते थे कि कैंसर से जूझने वाले हजारो लाखों भारतीय कैंसर की बेहद महँगी दवाई के कारण बिना इलाज और देखभाल के दर्द से तड़पते हुए अपनी जान दे देते हैं, इसीलिए नरगिस के जाने के बाद उन्होंने उनकी याद में नरगिस दत्त मेमोरियल कैंसर फाउंडेशन का निर्माण कराकर देश को यह संदेश दिया कि हमारे देश में भी अगर सही इलाज हो ,तो इस प्रकार की गंभीर बीमारी पर काबू पाया जा सकता है।
ऐसा नहीं कि आज हमारे देश में सर्वसुविधायुक्त हॉस्पिटल नहीं है। सरकारी और गैरसराकारी हजारों नई टेक्नॉलाजी से लैस अस्पताल बड़े महानगरों में मिल जाएँगे,जहाँ गंभीर से गंभीर बीमारियों का इलाज होता है , हमारे यहाँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी नहीं है। इन सबके बाद भी जब गंभीर बीमारियों के इलाज़ के लिए लोग विदेश की ओर जाते हैं ,तो एक प्रश्न चिह्न तो लग ही जाता है। कि आखिर हमारे देश में हम बेहतर चिकित्सा क्यों नहीं दे पाते?
लेकिन यह भी सत्य है कि विदेश जाकर इलाज़ वही करवा पाते हैं, जिनके पास वहाँ का खर्च उठा पाने की काबिलियत होती है । अत्याधुनिक मशीनें जैसे एमआरआई, सिटी स्कैन आज किसी भी बीमारी के लिए इलाज की प्रथम सीढ़ी मानी जाती है पर इन मशीनों से इलाज का खर्चा बहुत ज्यादा होता है। जिस प्रकारआजकल डॉक्टर बनना व्यवसाय बन गया है ,उसी तरह ये मशीनें भी पैसा कमाने की मशीन बन गई हैं, जो एक मध्यमवर्ग परिवार के लिए बहुत मुश्किल है। अफसोस की बात है यह भी है कि अस्पतालों को लेकर एक अजीब सी मानसिकता आम लोगों में देखने मिलती है । उन्हें लगता है कि सरकारी अस्पताल में इलाज सही नहीं होता, उन्हें लगता है भीड़ में डॉक्टर उनकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाता। यही वजह है कि फीस न चुका पाने की औकात न होते हुए भी ,वह निजी अस्पताल की ओर आकर्षित होता है और वहाँ वह कई गुना ज्यादा पैसा देने में भी नहीं झिझकता।  घर, जमीन, जेवर सबकुछ बेचकर भी वह महँगे से महँगा इलाज कराता है।
यह भी सत्य है कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों की अपनी एक सीमा होती है। मरीज़ ज्यादा होते हैं और डॉक्टर कम। सरकार जो सुविधाएँ उपलब्ध कराती है, उसी दायरे में रहकर उन्हें इलाज करना होता है। दरअसल हमारे देश में भी स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किए जाने की आवश्यकता है, ताकि इलाज के अभाव में किसी को जान न गँवानी पड़े। जिस दिन भारत में  निजी और सरकारी अस्पतालों के बीच का अंतर मिटेगा और प्रत्येक जगह एक ही प्रकार की सुविधा और इलाज उपलब्ध होगी,उस दिन लोग भारत की  स्वास्थ्य सुविधाओं पर प्रश्नचिह्न लगाना छोड़ देंगे।
फिलहाल तो चिकित्सा के क्षेत्र में बिना कुछ उम्मीद के देश भर में काम करने वाली उन स्वयंसेवी संस्थाओं पर हमें गर्व होता है, जो बिना किसी लाभ- हानि मरीजों की सहायता करते हैं ।  कई बड़े शहरों में अनेक ऐसी संस्थाएँ काम करती हैं ,जो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का इलाज कराने अपना गाँव, घर सब छोड़कर शहर में महीनों पड़े रहते हैं। ये संस्थाएँ ऐसे लोगों को रहने के लिए जगह उपलब्ध कराती है। कम कीमत में या मुफ़्त में भी भोजन देती है, और किस अस्पताल में किस डॉक्टर के पास जाएँ, इसके लिए सहायता उपलब्ध कराती हैं। लेकिन यह सेवा घड़े में एक बूँद के बराबर भी नहीं है, क्योंकि बीमारों की संख्या इतनी ज्यादा हैं कि जितना करो उतना कम ही पड़ता है। अत: जरूरत ऐसे लोगों को और अधिक संख्या में आगे आने की है।  

अभी भी समय है सँभल जाएँ

एक छात्रा की मुहिम

अभी भी समय है सँभल जाएँ
-जाहिद खान
16 साल की स्वीडिश पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा अर्नमैन थनबर्ग का नाम आजकल पूरी दुनिया में चर्चा में है। वजह पर्यावरण को लेकर उसकी विश्वव्यापी मुहिम है। अच्छी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए ग्रेटा ने जो आंदोलन छेड़ रखा है, उसे अब व्यापक जनसमर्थन मिल रहा है। पर्यावरण बचाने के इस आंदोलन में लोग जुड़ते जा रहे हैं। खास तौर से यह आंदोलन बच्चों और नौजवानों को खूब आकर्षित कर रहा है।
बीते 20 सितंबर को शुक्रवार के दिन दुनिया भर में लाखों स्कूली बच्चों ने जलवायु -संकट की चुनौतियों से निपटने के कदम उठाने का आह्वान करते हुए प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में उनके साथ बड़े लोग भी शामिल हुए। ग्रेटा की इस मुहिम का असर दुनिया भर में इतना हुआ है कि अमेरिका में न्यूयार्क के स्कूलों ने अपने यहाँ के 11 लाख बच्चों को खुद ही शुक्रवार की छुट्टी दे दी ताकि वे ‘वैश्विक जलवायु हड़ताल’ में शामिल हो सकें। ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में करीब 1 लाख लोग इस मुहिम से जुड़े। भारत में भी कई बड़े शहरों के अलावा राजधानी दिल्ली में स्कूली बच्चों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान इस समस्या की ओर दिलाया।
पर्यावरण के प्रति ग्रेटाथनबर्ग में संवेदनशीलता और प्यार शुरू से ही था। महज नौ साल की उम्र में, जब वह तीसरी क्लास में पढ़ रही थी, उसने जलवायु सम्बंधी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन ग्रेटा की ओर सबका ध्यान उस वक्त गया, जब उसने पिछले साल अगस्त में अकेले ही स्वीडिश संसद के बाहर पर्यावरण को बचाने के लिए हड़ताल का आगाज़ किया। ग्रेटा की माँग थी कि स्वीडन सरकार पेरिस समझौते के मुताबिक अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन कम करे। ग्रेटा ने अपने दोस्तों और स्कूल वालों से भी इस हड़ताल में शामिल होने की अपील की, लेकिन सभी ने इन्कार कर दिया। यहां तक कि ग्रेटा के माता-पिता भी पहले इस मुहिम के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं थे। उन्होंने अपनी तरफ से ग्रेटा को रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह नहीं रुकी। ग्रेटा ने पहले ‘स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट मूवमेंट’ की स्थापना की। खुद अपने हाथ से बैनर पैंट किया और स्वीडन की सड़कों पर घूमने लगी। उसके बुलंद हौसले का ही नतीजा था कि लोग जुड़ते गए, कारवां बनता गया।
ग्रेटाथनबर्ग का यह आंदोलन बच्चों में इतना कामयाब रहा कि आज आलम यह है कि पर्यावरण बचाने के इस महान आंदोलन में लाखों विद्यार्थी शामिल हो गए हैं। इसी साल 15 मार्च के दिन, दुनिया के कई शहरों में विद्यार्थियों ने एक साथ पर्यावरण सम्बन्धीप्रदर्शनों में भाग लिया और भविष्य में भी प्रत्येक शुक्रवार को ऐसा करने का फैसला किया है। अपने इस अभियान को उसने ‘फ्राइडेज़फॉरफ्यूचर’ (भविष्य के लिए शुक्रवार) नाम दिया है। शुक्रवार के दिन बच्चे स्कूल जाने की बजाय सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज करते हैं ताकि दुनिया भर के नेताओं, नीति निर्माताओं का ध्यान पर्यावरणीय संकट की तरफ जाए, वे इसके प्रति संजीदा हों और पर्यावरण बचाने के लिए अपने-अपने यहां व्यापक कदम उठाएँ। ज़ाहिर है, यह एक ऐसी मुहिम है जिसका सभी को समर्थन करना चाहिए; क्योंकि यदि दुनिया नहीं बचेगी, तो लोग भी नहीं बचेंगे। अपनी इस मुहिम से ग्रेटा ने जो सवाल उठाए हैं और वे जिस अंदाज़ में बात करती हैं, उसका लोगों पर काफी असर होता है। वे अपने भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें नहीं कहतीं, छोटी-छोटी बातों और मिसालों से उन्हें समझाती हैं। मसलन “हमारे पास कोई प्लेनेट-बी यानी दूसरा ग्रह नहीं है, जहाँ जाकर इंसान बस जाएँ। लिहाज़ा हमें हर हाल में धरती को बचाना होगा।’’
पर्यावरण बचाने की ग्रेटाथनबर्ग की यह बेमिसाल मुहिम अब स्कूल की चारदीवारी, बल्कि देश की सरहदों से भी बाहर फैल चुकी है। स्टॉकहोम, हेलसिंकी, ब्रसेल्स और लंदन समेत दुनिया के कई देशों में जाकर ग्रेटा ने अलग-अलग मंचों पर जलवायु -परिवर्तन से निपटने के लिए आवाज़ उठाई है। दावोस में विश्व आर्थिक मंच के एक सत्र को भी ग्रेटा ने सम्बोधित किया। यही नहीं, पिछले साल दिसम्बर में पोलैंड के काटोवाइस में आयोजित, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्ककन्वेंशन की 24वीं बैठक में उसने पर्यावरण पर ज़बर्दस्त भाषण दिया था।
इस मुहिम का असर आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, दिखने लगा है। आम लोगों से लेकर सियासी लीडर तक ग्रेटा की इन चिंताओं में शरीक होने लगे हैं। ग्रेटा से ही प्रभावित होकर दुनिया भर के तकरीबन 2000 स्थानों पर पर्यावरण को बचाने के लिए प्रदर्शन हो रहे हैं। अपना कामकाज छोड़कर, लोग सड़कों पर निकल रहे हैं। ब्रिटेन में पिछले दिनों लाखों लोगों ने ग्रेटाथनबर्ग के साथ सड़कों पर इस माँग के साथ प्रदर्शन किया कि देश में जलवायु आपात काल लगाया जाए। इस प्रदर्शन का नतीजा यह रहा कि ब्रिटेन की संसद को देश में जलवायु आपात काल घोषित करने का फैसला करना पड़ा। ब्रिटेन ऐसा अनूठा और ऐतिहासिक कदम उठाने वाला पहला देश बन गया।
ग्रेटा अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए सिर्फ उनके बीच ही नहीं जाती, बल्कि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का भी जमकर इस्तेमाल करती है। उसे मालूम है कि आज का युवा अपना सबसे ज़्यादा वक्त इस माध्यम पर बिताता है।
ग्रेटा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी एक वीडियो संदेश भेजा था। इसमें गुज़ारिश की थी कि वे पर्यावरण बचाने और जलवायु परिवर्तन के संकटों से उबरने के लिए अपने देश में गंभीर कदम उठाएँ।
पर्यावरण बचाने की अपनी इस मुहिम से ग्रेटाथनबर्ग का नाता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि वह अपने व्यवहार से कोशिश करती हैं कि खुद भी इस पर अमल करें। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु शिखर वार्ता में प्रमुख वक्ता के रूप में शामिल होने के लिए स्वीडन से न्यूयॉर्क की लंबी यात्रा ग्रेटा ने यॉट (नौका) में सफर कर पूरी की ताकि वह अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन रोक सकें। ये छोटी-छोटी बातें बतलाती हैं कि यदि हम जागरूक रहेंगे, तो पर्यावरण बचाने में अपना योगदान दे सकते हैं।
ग्लोबलवार्मिंग के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ग्रेटाथनबर्ग को इतनी कम उम्र में ही कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के ‘एम्बेसडर ऑफ कॉन्शिएंसअवॉर्ड, 2019’ के अलावा दुनिया की प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन ने ग्रेटा को साल 2018 के 25 सबसे प्रभावशाली किशोरों की सूची में शामिल किया। यही नहीं, तीन नॉर्वेजियन सांसदों ने पिछले दिनों ग्रेटा को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया था।
इस समय पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन के गंभीर संकट से जूझ रही है। यूएन की एक रिपोर्ट बतलाती है कि दुनिया भर के 10 में से 9 लोग ज़हरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। हर साल 70 लाख मौतें वायु प्रदूषण की वजह से होती हैं। इनमें से 40 लाख एशिया के होते हैं। जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले खराब मौसम की वजह से हमारे देश में हर साल 3660 लोगों की मौत हो जाती है। लैंसेट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के चलते 153 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए हैं जिसके चलते उत्पादकता में भी भारी कमी आई है और पूरी दुनिया को 326 अरब डॉलर का नुकसान पहुँचा है। इसमें 160 अरब डॉलर का नुकसान तो सिर्फ भारत को ही हुआ है।

पर्यावरणविदों का मत है कि अगर समय रहते कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयास नहीं किए गए, तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। ग्लोबलवार्मिंग का खतरा सभी देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। इस गंभीर चुनौती से तभी निपटा जा सकता है, जब सभी, खास तौर से नई पीढ़ी इसके प्रति जागरूक हों और पर्यावरण बचाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करें। अपनी ज़िम्मेदारियों को खुद समझे और दूसरों को भी समझाए। जलवायु परिवर्तन के संकट से जूझ रही दुनिया के सामने, अपने जागरूकता अभियान से ग्रेटाथनबर्ग ने एक शानदार मिसाल पेश की है। दुनिया को बतलाया है कि अभी भी ज़्यादा वक्त नहीं बीता है, सँभल जाएँ। वरना पछताने के लिए कोई नहीं बचेगा। (स्रोत फीचर्स)

पेड़ आदमी से बोले


पेड़ आ

-रमेशराज

हम फल-फूल दिया करते हैं 
खूशबू से उपवन भरते हैं
खाद मिले सबके खेतों को
इस कारण पत्ते झरते हैं,
तू पाता जब हमसे औषधि
लिये कुल्हाड़ी क्यों डोले
पेड़ आदमी से बोले।

कल तू बेहद पछताएगा
हमको काट न कुछ पाएगा
हम बिन जब वर्षा कम होगी
भू पर मरुथल बढ़ जाएगा
फिर न मिटेगा रे जल-संकट
तू चाहे जितना रोले
पेड़ आदमी से बोले।

कीमत कुछ तो आँक हमारी
हमें चीरती है यदि आरी
कौन प्रदूषण तब रोकेगा ?
प्राणवायु खत्म हो सारी
क्या कर डाला, कल सोचेगा
अब चाहे हमको खो ले
पेड़ आदमी से बोले।

सम्पर्कः ईसा नगर अ, अलीगढ़

प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए

प्लास्टिक पर प्रतिबंध
 लगना ही चाहिए
-हिमांशु भट्ट
प्लास्टिक न केवल इंसानो बल्कि प्रकृति और वन्यजीवों के लिए भी खतरनाक है, लेकिन प्लास्टिक के उत्पादों का उपयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है, जिससे प्लास्टिक प्रदूषण सबसे अहम पर्यावरणीय मुद्दों में से एक बन गया है। एशिया और अफ्रीकी देशों में प्लास्टिक प्रदूषण सबसे अधिक है। यहाँ कचरा एकत्रित करने की कोई प्रभावी प्रणाली नहीं है। तो वहीं विकसित देशों को भी प्लास्टिक कचरे को एकत्रित करने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, जिस कारण प्लास्टिक कचरा लगातार बढ़ता जा रहा है। इसमें विशेष रूप से ‘‘सिंगलयूज प्लास्टिक’’ यानी ऐसा प्लास्टिक जिसे केवल एक ही बार उपयोग किया जा सकता है, जैसे प्लास्टिक की थैलियाँ, बिस्कुट, स्ट्रॉ, नमकीन, दूध, चिप्स, चॉकलेट आदि के पैकेट। प्लास्टिक की बोतलें, जो कि काफी सहूलियतनुमा लगती हैं, वे भी शरीर और पर्यावरण के लिए भी खतरनाक हैं। इन्हीं प्लास्टिक का करोड़ों टन कूड़ा रोजाना समुद्र और खुले मैदानों आदि में फेंका जाता है। जिससे समुद्र में जलीय जीवन प्रभावित हो रहा है। समुद्री जीव मर रहे हैं। कई प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। जमीन की उर्वरता क्षमता निरंतर कम होती जा रही है। वहीं जहाँ-तहाँ फैला प्लास्टिक कचरा सीवर और नालियों को चोक करता है, जिससे बरसात में जलभराव का सामना करना पड़ता है। भारत जैसे देश में रोजाना सैंकड़ों आवारा पशुओं की प्लास्टिकयुक्त कचरा खाने से मौत हो रही है, तो वहीं इंसानों के लिए प्लास्टिक कैंसर का भी कारण बन रहा है। इसलिए प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के साथ ही ‘‘सिंगलयूज प्लास्टिक’’ पर प्रतिबंध लगाना अनिवार्य हो गया है।

प्लास्टिक थैलियाँ जल और जमीन दोनों को प्रदूषित करती हैं
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत से हर दिन करीब 26 हजार टन प्लास्टिक कूड़ा निकलता है, जिसमें से आधा कूड़ा यानी करीब 13 हजार टन अकेले दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरु से ही निकलता है। इस प्लास्टिक कूड़े में से लगभग 10 हजार 376 टन कूड़ा एकत्र नहीं हो पाता और खुले मैदानों में जहाँ-तहाँ फैला रहता है। हवा से उड़कर ये खेतों, नालों और नदियों में पहुँच जाता है तथा नदियों से समुद्र में।  जहाँ लंबे समय से मौजूद प्लास्टिक पानी के साथ मिलकर समुद्री जीवों के शरीर में पहुँच रहा है। वर्ष 2015 में साइंस जर्नल’ में छपे आँकड़ों के अनुसार हर साल समुद्र में  5.8 से 12.7 मिलियन टन के करीब प्लास्टिक समुद्र में फेंका जाता है। उधर मैदानों और खेतों में फैला प्लास्टिक कुछ अंतराल के बाद धीरे-धीरे जमीन के अंदर दबता चला जाता है तथा जमीन में एक लेयर बना देता है। इससे वर्षा का पानी ठीक प्रकार से भूमि के अंदर नहीं पहुँच पा रहा है और जो पहुँच भी रहा है उसमें माइक्रोप्लास्टिक के कण पाए जाने लगे हैं, जिससे भूमि की उर्वरता प्रभावित हो रही है। दरअसल अधिकांश प्लास्टिक लंबे समय तक नहीं टूटते हैं ;बल्कि ये छोटे छोटे टुकड़ों में बँट जाते हैं, जिनका आकार 5 मिलीमीटर या इससे छोटा होता है। 
ग्रीन हाउस गैसों का करते हैं उत्सर्जन
अधिकांश प्लास्टिक पॉलीप्रोपाइलीन से बना होता है, जिसे पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस से बनाया जाता है। जो जलाने पर हाइड्रोक्लोरिकएसिड, सल्फर डाइऑक्साइड, डाइऑक्सिन, फ्यूरेन और भारी धातुओं जैसे खतरनाक रसायन छोड़ता है, जिस कारण सांस संबंधी बीमारियां, चक्कर आना और खाँसी आने लगती है। साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता भी घटने लगती है। डाइऑक्सिन के लंबे समय तक संपर्क में रहने से कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है, इससे ओजोन परत को भी नुकसान पहुँचता है। पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन, पॉलीक्लोराइनेटेड बाइ फिनाइल हार्मोन में बाधा डालते हैं। प्लास्टिक के इन दुष्प्रभावों को देखते हुए करीब 40 देशों में प्लास्टिक की थैलियाँ प्रतिबंधित हैं। चीन ने भी प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगाया था। प्रतिबंध के चार साल बाद ही फेंके गए प्लास्टिक थैलों की संख्या 40 बिलियन तक कम हो गई। 
समुद्री जीवों पर मँडरा रहा संकट

जिस प्रकार इंसानों और वन्यजीवों तथा पक्षियों की दुनिया है, उसी प्रकार एक दुनिया समुद्र और नदियों में पाई जाती है, जिसमें मछली, कछुए आदि जलीय जीव रहते हैं। इसके अलावा कई औषधियों की प्रजातियाँ भी समुद्र के अंदर पाई जाती हैं लेकिन वन्यजीव भोजन समझकर या भूल से इस  प्लास्टिक का सेवन कर रहे हैं अथवा समुद्र में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक भोजन और सांस के साथ इनके पेट में पहुँच रहा है। जिस कारण लाखों जलीय जीवों की मौत हो चुकी हैं, जबकि कई तो रोजाना चोटिल भी होते हैं। कुछ महीने पहले फिलीपींस में एक विशालकाय मृत व्हेल के पेट से करीब 40 किलोग्राम प्लास्टिक निकली थी। माइक्रोप्लास्टिक पक्षियों के लिए भी मौत का सामान सिद्ध हो रहा है। इसे प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि प्लास्टिक ने किस तरह जलीय जीवों के जीवन को प्रभावित कर दिया है।
सिंगलयूज प्लास्टिक का लाइफ इंसान के जीवन में केवल 10 से 20 मिनट की होती है। इसके बाद ये प्लास्टिक जीव जंतुओं और पर्यावरण के लिए मौत का सामान बन जाता है। तो वहीं अब भोजन में ही मिलकर इंसानों के पेट में भी पहुँचने लगा है, जिससे मानव जगत के उत्थान और सुविधा के लिए बनाया गया प्लास्टिक इंसान द्वारा इंसान और पृथ्वी के खिलाफ खड़ा किया गया एक हथियार बन गया है, जो धीरे-धीरे पृथ्वी में ज़हर घोल रहा है। इसलिए प्लास्टिक पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और लोगों को ये समझना होगा कि प्लास्टिक के भी कई अन्य विकल्प हैं, लेकिन ये हम पर निर्भर करता है कि सहूलियत के लिए हम मौत की सामग्री (प्लास्टिक) चुनते हैं या जीवन के लिए पर्यावरण के अनुकूल कोई अन्य साधन।
प्लास्टिक में पैक भोजन शरीर और पर्यावरण के लिए ज़हर
विज्ञान ने इंसान के जीवन को काफी आसान बना दिया है। नई-नई तकनीकों के आविष्कार ने पहले की अपेक्षा हर कार्य में तेजी ला दी है, जिससे इंसान जटिल से जटिल कार्यों को आसानी से कर लेता है। ये कई मायनों में विकास की दृष्टि से काफी लाभदायक भी है, लेकिन विज्ञान और हर आविष्कार के दो पहलू होते हैं, लाभ और हानि। बेशक आविष्कारों ने इंसानों के लिए काफी चीज़ों को सरल कर दिया है और कई आविष्कार तो मानव-जगत् के लिए वरदान साबित हुए हैं, लेकिन इनमें से कई आविष्कारों के आवश्यकता से अधिक उपयोग ने मानव के जीवन और पृथ्वी पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, जिससे पृथ्वी के साथ ही इंसान का अस्तित्व विनाश की ओर तेजी से बढ़ रहा है। इसमें एक आविष्कार प्लास्टिक है। जिसका लाभ तो हर कोई लंबे समय से उठा रहा है, लेकिन किसी ने सोचा नहीं था कि ये अकल्पनीय आविष्कार एक दिन अभिशाप बना जाएगा और धरती, हवा, पानी और अंतरिक्ष तक में इंसानों के साथ ही जीव-जंतुओं की सांसों और भोजन में ज़हर घोलने का कार्य करेगा। ये विडंबना ही है कि प्लास्टिक के नुकसान के बारे में पता होने के बावजूद भी हमने इससे परहेज नहीं किया और भोजन रखने, पैक करने आदि में इसको उपयोग करने लगे। नतीजन, हानिकारक प्लास्टिक को हमारे शरीर के अंदर पहुँचने का एक और माध्यम मिल गया। जिसे फूडपैकेजिंग और ऑनलाइन फूड डिलीवरी ने और बढ़ा दिया है। इससे पर्यावरण को भारी क्षति पहुँच रही है।


विज्ञान और आविष्कार ने लोगों को इतना आलसी बना दिया कि अब हर प्रकार का पंसदीदा भोजन घर तक भेजा जाने लगा है। भोजन की ऑनलाइन डिलीवरी करने वाली कई ऑनलाइन कंपनियाँ खुल गई हैं, जो लोगों को आकर्षित करने के लिए समय-समय पर विशेष ऑफर तक देती हैं। हालाकि इसमे कोई समस्या नहीं है और सुविधा पाना तथा रोजगार करना सभी का अधिकार है, लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब गरमागरम खाने को प्लास्टिक की थैलियों  और डिब्बों के पैक किया जाता है, तो वहीं रोटियों को एल्युमिनियमफॉयल में पैक किया जाता है। इससे गरम चीज के सम्पर्क में आते ही प्लास्टिक के डिब्बे में लगा कैमिकल हमारे शरीर में घुल जाता है और धीरे-धीरे शरीर को नुकसान पहुँचाता है। उसी प्रकार एल्युमिनियम धीमे जहर का काम करता है। प्लास्टिक की थैलियों या प्लास्टिक के डिब्बे में खाना खाने से प्लास्टिक के साथ ही हमारे शरीर में कई हानिकारक कैमिकल पहुँच जाते  हैं, इसमें सबसे खतरनाक एंडोक्रिनडिस्ट्रक्टिंग केमिकल होता हैजो कि एक प्रकार का जहर है, जो हार्मोंस को असंतुलित कर देता है। इससे हार्मोंस काम करने की क्षमता खो देते हैं। ये धीमे जहर की तरह ही काम करता है और लंबे समय तक प्लास्टिक के बर्तनो में खाना खाने से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। साथ ही अन्य बीमारियाँ होने की संभावना भी बनी रहती है, जिससे इंसान की मौत भी हो सकती है। वहीं माइक्रोवेव में भी प्लास्टिक के डिब्बे में खाना गर्म करने पर केमिकल खाने में मिल जाता है। कई रिसर्च में सामने आया है कि प्लास्टिक फूडकंटेनर्स के केमिकल्स से ब्रेस्ट कैंसर होने का खतरा रहता है।  इससे पुरुषों में स्पर्मकाउंट घटने की संभावना बढ़ जाती है। गर्भवती महिलाओ और बच्चों के लिए भी यह नुकसानदेह है। प्लास्टिक बोतल में पानी जमाने या लंबे समय तक प्लास्टिक की बोतल में पानी पीने से भी कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। एक ही प्लास्टिक बोतल का बार बार उपयोग करना भी कैंसर का कारण बन सकता है।
कई कंपनियाँमाइक्रोवेवसेफ और बीपीए-फ्री प्लास्टिक प्रोडक्ट बनाती हैं, लेकिन ये भी सुरक्षित नहीं है और इनमे खाना खाने से बीमारी का खतरा बना रहता है, क्योंकि कंपनियों का ये केवल मार्केटिंग का एक तरीका है। आजकल एक नया ट्रेंड भी चला है जिसमें फलों, ड्राइफ्रूट आदि को प्लास्टिक में रैप किया जाता है। इसकी एक प्रक्रिया में सामान को पतली पन्नी में डाला जाता है और उसे हीट देकर फल आदि से चिपका दिया जाता है, इससे पैकिंग के अंदर गैस नहीं रहती है और सामान काफी दिनों तक चलता है, लेकिन इससे सेहतमंद इन फलों में कैमिकल के रूप में प्लास्टिक का जहर छूट जाता है। कई शोध में तो एल्युनिनियम के नुकसान के बारे में भी चेताया गया है। दरअसल एल्युनिनियम के इस्तेमाल से इनटेकअल्जाइमर हो सकता है। रोजाना एल्युमिनियम का उपयोग करने से ब्रेन सेल्स की विकास दर घट जाती है। लेकिन ऑनलाइन भोजन में सिंगलयूज प्लास्टिक की थैलियाँ और प्लास्टिक के डिब्बों का उपयोग किया जाता है। इस भोजन को खाने से हमारा पेट तो भरता है, लेकिन प्लास्टिक के सम्पर्क में आने के बाद खाने में मिला केमिकल हमें धीरे-धीरे बीमारी दे जाता है। वहीं इस सिंगलयूज प्लास्टिक को कूड़ेदान या खुले में फेंका जाता है।
सिंगलयूज होने के कारण इसे रिसाइकिल भी नहीं किया जाता सकता। जिससे ये जहाँ- तहाँ फैल रहा है। बरसात और हवा से नदियों और नालों में चले जाता है और वहाँ से समुद्र में। वैसे भी दुनिया भर का प्लास्टिक वेस्ट पहले ही समुद्र के एक बहुत बड़े हिस्से में फेंका जाता है, जिससे जलीय जीवन प्रभावित हो रहा है। प्लास्टिक की इस बढ़ती समस्या को देखते हुए दुनिया के सभी देशों ने अपने अपने स्तर पर प्लास्टिक के खिलाफ जंग छेड़ दी है। कई संगठन और लोग भी अपने-अपने स्तर पर कार्य कर रहे हैं। भारत भी सिंगलयूज़ प्लास्टिक के खिलाफ दो अक्टूबर को बड़ा निर्णय लेने जा रहा है और सिंगलयूज प्लास्टिक  पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा सकता है । जो कि काबिले-तारीफ है, लेकिन देखना ये होगा कि ये निर्णय धरातल पर कितना लागू किया जाता है। हालाकि प्लास्टिक पर रोक के लिए जनता को भी जागरूक होना होगा और प्लास्टिक का उपयोग अपने स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए खुद ही बंद करना होगा, क्योंकि शरीर से बड़ी कोई संपत्ति नहीं। वहीं फूड कंपनियों को भी प्लास्टिक के बजाए मोटे कागज में खाने के सामान को पैक करने की पहल करनी चाहिए। ( इंडिया वॉटरपोर्टल से )

जंगल बसाए जा सकते हैं

जंगल बसाए जा सकते हैं

 -डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

औद्योगिक विकास और उपभोक्ता माँग के कारण बढ़ता वैश्विक तापमान दुनिया भर में तबाही मचा रहा है। विश्व में तापमान बढ़ता जा रहा है, दक्षिण चीन और पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ कहर बरपा रही है, बे-मौसम बारिश हो रही है, और विडंबना देखिए कि बारिश के मौसम में देर से और मामूली बारिश हो रही है। इस तरह के जलवायु परिवर्तन को थामने का एक उपाय है तापमान वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों, खासकर कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर को कम करना। बढ़ते वैश्विक तापमान को सीमित करने के प्रयास में दुनिया के कई देश एकजुट हुए हैं। कोशिश यह है कि साल 2050 तक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।
कार्बन डाईऑक्साइड कम करने का एक प्रमुख तरीका है पेड़-पौधों की संख्या और वन क्षेत्र बढ़ाना। पेड़-पौधे हवा से कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं, और सूर्य के प्रकाश और पानी का उपयोग कर (हमारे लिए) भोजन और ऑक्सीजन बनाते हैं। पेड़ों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग हम इमारतें और फर्नीचर बनाने में करते हैं। संस्कृत में कल्पतरु की कल्पना की गई है - इच्छा पूरी करने वाला पेड़।
फिर भी हम इन्हें मार (काट) रहे हैं: पूरे विश्व में दशकों से लगातार वनों की कटाई हो रही है जिससे मौसम, पौधों, जानवरों, सूक्ष्मजीवों का जीवन और जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की आजीविका प्रभावित हो रही है। पृथ्वी का कुल भू-क्षेत्र 52 अरब हैक्टर है, इसका 31 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र रहा है। व्यावसायिक उद्देश्य से दक्षिणी अमेरिका के अमेज़न वन का बड़ा हिस्सा काटा जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई से पश्चिमी अमेज़न क्षेत्र के पेरू और बोलीविया बुरी तरह प्रभावित हैं। यही हाल मेक्सिको और उसके पड़ोसी क्षेत्र मेसोअमेरिका का है। रूस का लगभग 45 प्रतिशत भू-क्षेत्र वन है, वह भी पेड़ों की कटाई कर रहा है। बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई ने ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दिया है।
खाद्य एवं कृषि संगठन (FOA) के अनुसार ‘वन’ का मतलब है कम से कम 0.5 हैक्टर में फैला ऐसा भू-क्षेत्र जिसके कम से कम 10 प्रतिशत हिस्से में पेड़ हों, और जिस पर कृषि सम्बंधी गतिविधि या मानव बसाहट ना हो। इस परिभाषा की मदद से स्विस और फ्रांसिसीपर्यावरणविदों के समूह ने 4.4 अरब हैक्टर में छाए वृक्षाच्छादन का विश्लेषण किया जो मौजूदा जलवायु में संभव है। उन्होंने पाया कि यदि मौजूदा पेड़ और कृषि सम्बन्धित क्षेत्र और शहरी क्षेत्रों को हटा दें तो भी 0.9 अरब हैक्टर से अधिक भूमि वृक्षारोपण के लिए उपलब्ध है। नवीनतम तरीकों से किया गया यह अध्ययन साइंस पत्रिका के 5 जुलाई के अंक में प्रकाशित हुआ है। यानी विश्व स्तर पर वनीकरण करके जलवायु परिवर्तन धीमा करने की संभावना मौजूद है। शोधकर्ताओं के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक वनीकरण की संभावना 6 देशों - रूस, ब्राज़ील, चीन, यूएसए, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में है। हालाँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह भूमि निजी है या सार्वजनिक, लेकिन उन्होंने इस बात की पुष्टि की है कि 1 अरब हैक्टर में वनीकरण (10 प्रतिशत से अधिक वनाच्छादन के साथ) संभव है।
खुशी की बात यह है कि कई देशों के कुछ समूह और सरकारों ने वृक्षारोपण की ओर रुख किया है। इनमें खास तौर से फिलीपाइन्स और भारत की कई राज्य सरकारें (फॉरेस्टसर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और डाउन टू अर्थ के विश्लेषण के अनुसार) शामिल हैं।
भारत का भू-क्षेत्र 32,87,569 वर्ग किलोमीटर है, जिसका 21.54 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। वर्ष 2015 से 2018 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 6778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। सबसे अधिक वन क्षेत्र मध्यप्रदेश में है, इसके बाद छत्तीसगढ़, उड़ीसा और अरुणाचल प्रदेश आते हैं। दूसरी ओर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में सबसे कम वन क्षेत्र है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और उड़ीसा ने अपने वनों में वृक्षाच्छादन को थोड़ा बढ़ाया है (10 प्रतिशत से कम)। कुछ निजी समूह जैसे लुधियाना का गुरु नानक सेक्रेडफॉरेस्ट, रायपुर के मध्य स्थित दी मिडिल ऑफ द टाउन फॉरेस्ट, शुभेन्दु शर्मा का अफॉरेस्ट समूह उल्लेखनीय गैर-सरकारी पहल हैं। आप भी इस तरह के कुछ और समूह के बारे में जानते ही होंगे। (और, हम शतायु सालुमरदातिमक्का को कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने लगभग 385 बरगद और 8000 अन्य वृक्ष लगाए, या उत्तराखंड के चिपको आंदोलन से जुड़े सुंदरलाल बहुगुणा को?)
एक बेहतरीन मिसाल
लेकिन वनीकरण की सबसे उम्दा मिसाल है फिलीपाइन्स। फिलीपाइन्स 7100 द्वीपों का समूह है जिसका कुल भू-क्षेत्र लगभग तीन लाख वर्ग किलोमीटर है और आबादी लगभग 10 करोड़ 40 लाख। 1900 में फिलीपाइन्स में लगभग 65 प्रतिशत वन क्षेत्र था। इसके बाद बड़े पैमाने पर लगातार हुई कटाई से 1987 में यह वन क्षेत्र घटकर सिर्फ 21 प्रतिशत रह गया। तब वहाँ की सरकार स्वयं वनीकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हुई। नतीजतन वर्ष 2010 में वन क्षेत्र बढ़कर 26 प्रतिशत हो गया। और अब वहाँ की सरकार ने एक और उल्लेखनीय कार्यक्रम चलाया है, जिसमें प्राथमिक, हाईस्कूल और कॉलेज के प्रत्येक छात्र को उत्तीर्ण होने के पहले 10 पेड़ लगाना अनिवार्य है। कहाँ और कौन-से पौधे लगाने हैं, इसके बारे में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है। (और जानने के लिए देखें –(news.ml.com.ph> of Manila Bulletin, July 16, 2019)। इस प्रस्ताव के प्रवर्तक गैरीएलेजैनो का इस बात पर ज़ोर था कि शिक्षा प्रणाली युवाओं में प्राकृतिक संसाधनों के नैतिक और किफायती उपयोग के प्रति जागरूकता पैदा करने का माध्यम बननी चाहिए ताकि सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और जागरूक नागरिकों का निर्माण हो सके।
यह हमारे भारतीय छात्रों के लिए एक बेहतरीन मिसाल है। मैंने सिफारिश की है कि इस मॉडल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में जोड़ा जाए, ताकि हमारे युवा फिलीपाइन्स के इस प्रयोग से सीखें और अपनाएँ।