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Nov 13, 2019

अपनी हसरतों के साथ जीने का आनंद लें

अपनी हसरतों के साथ जीने का आनंद लें
-साधना मदान
अपने जीवन के चालीस से ज़्यादा वसंत पार करने पर अब मैं स्वयं को वासंती समझने लगी हूँ। अब मैं अपनी हम उम्र के साथ रंगीन बातें करती हूँ तो कभी भी अपनों से छोटों के साथ रंग बिरंगी अदाओं में घुल मिल जाती हूँ। कभी अपनी साड़ी का पल्ला लहरा कर झूम जाती हूँ  तो कभी अपनों से बड़ों के साथ बीते ज़िन्दगी के पलों की खुशबू  लेने लगती हूँ। साथियों ! आप भी सोच रहे हो कि पचास की उम्र में इतना वासंती होने की क्या ज़रूरत है? अब तक तो सारे रिश्तों का रस चख लिया है।अपने पराए को भी समझ लिया है। अब भजन कीर्तन ही करना ठीक है। क्या ज़रूरत है हमें किसी की ज़िन्दगी में घुसने की। बात भी ठीक है पर एक सवाल मेरे ज़हन में कौंधता है कि मैने अब तक एक सुखद बुढ़ापा जीने की क्या तैयारी की है? मैं ऐसा क्या कर जाऊँ कि बुढ़ापा अकेलेपन का पर्याय न बन जाए। हाय! कहीं ऐसा न हो कि अकेली ही अपने कमरे में अपनों की मुसकान को तरस जाऊँ। अपनों के फोन की चाहना में मोबाइल को हाथ में ही लिए रह जाऊँ। हर पल यही उमड़-घुमड़ मची रहे कि फलां ने पूछा नहीं, मुझे घर की कोई भी बात कोई बताता क्यों नहीं । 
 दोस्तों ! ज़िन्दगी का हर लम्हा सीखने के लिए महत्त्वपूर्ण है। बचपन पढ़ने, खेलने और खाने का नाम है। जवानी झूमने और कुछ कर गुज़रने का अभ्यास है और बुढ़ापा सबके बीच बसेरा बनाए रखने का सतत अभ्यास है। बुढ़ापे के खौफ़ से बचने के लिए और अपनों की बगिया में पका हुआ और रसीला फल बनने के लिए यह ज़रूरी है कि पचास की उम्र से ही इसकी तैयारी शुरू कर दें।
वैसे तो यह एक मज़ाक सा लग रहा है कि हम अच्छे बुढ़िया और बूढ़ा कैसे बनेंगे? सीधी सी बात है कि वानप्रस्थ में जाने से पहले वाणी से परे जाने का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। कम से कम बोलना और कम से कम प्रश्न पूछना और बेमतलब की दखलंदाजी से दूर रहना। अनावश्यक सुझाव, बेमतलब के किस्से सुनाने से परहेज़ रखना ही बहतर होगा। इस पर दिन में दो तीन बारी अवश्य विचार करना कि कहीं मैं अभी से ही तो अपने आपको बूढ़ा कहकर सहानुभूति के हाथ तो नहीं पसार रही। यह भी पक्का अभ्यास करना कि मेरे लिए बात-बात पर अपने ज़माने की कहानियाँ और अपनी विशेषताओं की किताब सुनाना कतई ज़रूरी नहीं। हर बात में अपने अनुभवों का पिटारा खोलने की भी आवश्यकता नहीं। हम तो ऐसे करते, हम तो कम में भी ऐसे गुज़ारा करते, आजकल तो सारे सुख-साधनआसानी से मिल जाते। हमें पता है हमने कैसे -कैसे मेहनत कर बच्चों की पालना की। अपने ही परिवार में  लेन-देन का बहुत ज़्यादा हिसाब रखना भी भारी पड़ सकता है ।इसका भी हमें अहसास होना चाहिए। जैसे  यह कहना कि बच्चों ...तुम नहीं पूछोगे तो और कौन पूछेगा। नहीं कभी नहीं यह याद रखने की आदत बना लेना कि हम बच्चों के साथ हैं। अब हमें उनकी ज़रूरत है। समय-समय पर परिवार के साथ घूमने जाने पर बेहद खुश होना, उनके बनाए कार्यक्रम को मान देना। प्रशंसा और हाँ जी का गुरुमंत्र सीखना। भूलकर भी तर्क- वितर्क में नहीं उलझना। बूढ़े होने से पहले ही मिलने-मिलाने की और चुप रह शांत स्थिति का अभ्यास करना अति आवश्यक है। अपने घर की कमी खामी का उल्लेख दूसरों के आगे न करने की भी आदत डालनी ही होगी।
पुरानी बातें बार -बार रटने की बजाय वर्तमान में अपनों से  स्नेह -सौहार्द कैसे बनाया जाए …..यह एक विचारणीय बात है। हमें तो अभी से ही दूसरों की ज़िन्दगी की मुश्किलों को  समझ उनके जीने  का मनोबल बढ़ाने का प्रयत्न करना है।मसलन ... प्रदूषण की इस घुटन भरी जीवन शैली में भी अपने घर में ही पौधों की देखभाल कर व्यस्त रहना। शोर, ट्रैफ़िक, नित नई बीमारियों से जूझते परिवार जनों का मददगार बनने का अभ्यास करना, कामकाजी बहू अथवा बेटी की आगे बढ़कर मदद करना सुखद बुढ़ापे की पहली सीढ़ी है। बड़े होते ही देने के भाव से भर जाना...यह देना पैसा नहीं सहयोग,मीठे बोल, सकारात्मक सोच और करते चलो -करते चलो अर्थात अपने चिंतन की धारा बदल दो.,सब सरल हो जाएगा तो अपने आप ही सब अपने बन जाएँगे। तो क्या तैयारी करें….इस पर और भी विचार करना पड़ेगा जैसे -
परिवार के किसी जन के कुछ पूछने पर ही अपने अनुभवों का संक्षिप्त उल्लेख करना।
 नई दुनिया की दौड़ में सब कुछ सहज स्वीकार करने की शक्ति जमा करना 
* 'छोड़ो तो छूटे' के मंत्र को गहराई से समझना जैसे बहुत पुरानी चीजों को दबाकर कर रखना, अपने स्वार्थ के कारण या मोह के कारण अपने बच्चों को अपने से अलग रहने की बात पर अपार दुख में डूब जाना। इन सब को छोड़ने की शक्ति का संचयन तो पचास से भी पहले ही करना होगा।
* अपनी जीवन शैली की ऐसी तैयारी करना जिसे सब यह कहें कि आप तो जवानों से भी ज़्यादा व्यस्त रहती हो। 
*योगा और योग (meditation) दोनों को अपना साथी बना लेना।
*ईश्वरीय आस्था के प्रकंपन घर में फैलाने का प्रयत्न।हाँ! यहाँ यह ज़रूरी है कि बिना कुछ कहे यह सब बहुत शांत रीति स्वतः ही चलता रहे। अपने स्वभाव ,अपनी बात और कार्य से अपनों के बीच एक माँ , बाप, दादा, दादी या नाना, नानी बनकर रहना। 
* ईश्वरीय आस्था अर्थात अपने बोल और चलन में स्थिरता का अभ्यास चालीस-पचास में ही ऐसा प्रयास होना ज़रूरी है। मानवता और सुखद रिश्तों की संभाल ही जीवन मूल्यों की पहचान का नाम  है; अतः धार्मिक कर्मकांड की कट्टरता भी परिवार पर कतई न थोपें।
* जो हमें अपने समय में अच्छा लगता तो ठीक है क्योंकि वह मेरा युग मेरा समय था। अपनी मूल्यपरक बात को सरलता से परिवार के सामने रखें।गलत और अनुचित व्यवहार के प्रति आगाह भी करते रहें ।वे मान ले तो वाह...वाह न माने तो जिद्दीपन या क्लेश से जल्दी ही अपने को अलग कर लें।
* पचास की उम्र अपने ही में इतनी सुहानी है कि अपनी हसरतों के साथ जीने का मज़ा लें। अपने बच्चों के पैसे पर अनावश्यक नज़र न ही रखें तो बुढ़ापा गुले-गुलज़ार है । बच्चों पर अपनी जायदाद का परचम न फहराया जाए तो अपनी संपत्ति की कद्र शायद ज्यादा बढ़ जाए।
*बदलते खान-पान और पहनावे को स्वीकार करें तो साठ सत्तर में हैरानी और नुक्ताचीनी की बीमारी से छूट जाएँगे।
दोस्तों! वैसे तो हर परिवार की परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं।किसी को पैसे की किल्लत, किसी को रिश्तों की मार, किसी को अपनों से बिछुड़ने का गम या किसी को बीमारी की चोट ... हालात कैसे भी हों पर अपनों के संग साथ की कला तो यहीं  से सीखनी ज़रूरी है कि अपने किस्से कहानियां भूलें और एक अच्छे श्रोता बनने का भरसक प्रयास पचास के साथ-साथ शुरू कर दें। कुछ दिनों के लिए घर को छोडऩे की आदत डालें  और सैर सपाटे से खुशी और तंदरुस्ती पाएँ।
स्व परिवर्तन और सहनशीलता की कमान अपने हाथ में हो तो बुढ़ापा अपने घर के आश्रम में भी बढ़िया बीतेगा वरना हमारे देश में अस्पतालों की तरह वृद्धाश्रम भी बढ़ने लगेंगे।

सम्पर्कः -B-85 गुजरानवाला टाउन, पार्ट..1, दिल्ली...9

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