दिमाग की कैमेस्ट्री बिगाड़ रही
है
इंटरनेट की लत
-प्रदीप
इंटरनेट ने हमारे जीवन को कई मायनों
में बदलकर रख दिया है। इसने हमारे जीवन स्तर को ऊँचा कर दिया है और कई कार्यों को
बहुत सरल-सुलभ बना दिया है। सूचना, मनोरंजन और ज्ञान के इस अथाह भंडार से जहाँ सहूलियतों में इज़ाफ़ा
हुआ है, वहीं इसकी लत भी लोगों के लिए परेशानी का सबब बन गई
है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं की एक टीम ने अपने अध्ययन में पाया है
कि इंटरनेट का अधिक इस्तेमाल हमारे दिमाग की अंदरूनी संरचना को तेज़ी से बदल रहा है, जिससे उपभोक्ता (यूज़र) की एकाग्रता, स्मरण प्रक्रिया और सामाजिक सम्बन्ध प्रभावित हो सकते
हैं। दरअसल, यह बदलाव कुछ-कुछ हमारे
तंत्रिका तंत्र की कोशिकाओं की वायरिंग और री-वायरिंग जैसा है।
मनोरोग अनुसंधान की विश्व प्रतिष्ठित
पत्रिका वर्ल्डसायकिएट्री के जून 2019 अंक में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक इंटरनेट का ज़्यादा
इस्तेमाल हमारे दिमाग पर स्थाई और अस्थायी रूप से असर डालता है। इस अध्ययन में
शामिल शोधकर्ताओं ने उन प्रमुख परिकल्पनाओं की जाँच की जो यह बताती हैं कि किस तरह
से इंटरनेट संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को बदल सकता है। इसके साथ ही शोधकर्ताओं ने
इसकी भी पड़ताल की कि ये परिकल्पनाएँ मनोविज्ञान, मनोचिकित्सा और न्यूरोइमेजिंग के हालिया अनुसंधानों
के निष्कर्षों से किस हद तक मेल खाती हैं।

यह शोध मुख्य रूप से यह बताता है कि
इंटरनेट दिमाग की संरचना, कार्य और संज्ञानात्मक
विकास को कैसे प्रभावित कर सकता है। हाल के समय में सोशल मीडिया के साथ-साथ अनेक
ऑनलाइन तकनीकों का व्यापक रूप से अपनाया जाना शिक्षकों और अभिभावकों के लिए भी
चिंता का विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) द्वारा साल 2018 में जारी दिशानिर्देशों के मुताबिक
छोटे बच्चों (2-5 वर्ष की आयु) को
प्रतिदिन एक घंटे से ज़्यादा स्क्रीन के संपर्क में नहीं आना चाहिए। हालांकि
वर्ल्डसाइकिएट्री के हालिया अंक में प्रकाशित इस शोधपत्र में इस बात का भी उल्लेख
किया गया है कि मस्तिष्क पर इंटरनेट के प्रभावों की जाँच करने वाले अधिकांश शोध
वयस्कों पर ही किए गए हैं, इसलिए बच्चों में इंटरनेट
के इस्तेमाल से होने वाले फायदे और नुकसान को निर्धारित करने के लिए और अधिक शोध
की ज़रूरत है।
डॉ. फर्थ कहते हैं, ‘हालांकि बच्चों और युवाओं को इंटरनेट
के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए अधिक शोध की ज़रूरत है मगर अभिभावकों को यह
सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बच्चे डिजिटलडिवाइस पर ज़्यादा समय तो नहीं बिता रहे
हैं। माता-पिता को बच्चों की अन्य महत्वपूर्ण विकासात्मक गतिविधियों, जैसे सामाजिक संपर्क और शारीरिक क्रियाकलापों पर अधिक
ध्यान देना चाहिए।’
इस शोध का लब्बोलुबाब यह है कि आज
हमें यह समझने की ज़रूरत है कि इंटरनेट की बदौलत जहाँ वैश्विक समाज एकीकृत हो रहा
है, वहीं यह पूरी दुनिया (बच्चों से लेकर बूढ़ों तक) को
साइबरएडिक्ट भी बना रहा है। इंटरनेट की लत वैसे ही लग रही है जैसे शराब या सिगरेट
की लगती है। इंटरनेट की लत से जूझ रहे लोगों के मस्तिष्क के कुछ खास हिस्सों में
गामाअमिनोब्यूटरिकएसिड (जीएबीए) का स्तर बढ़ रहा है। जीएबीए का मस्तिष्क के तमाम
कार्यों, मसलन जिज्ञासा, तनाव,
नींद आदि पर बड़ा असर होता
है। जीएबीए का असंतुलन अधीरता,
बेचैनी, तनाव और अवसाद (डिप्रेशन) को बढ़ावा देता है। इंटरनेट
की लत दिमागी सर्किटों की बेहद तेज़ी से और पूर्णत: नए तरीकों से वायरिंग कर रही
है! इंटरनेट के शुरुआती दौर में हम निरंतर कनेक्टेड होने की बात किया करते थे और
आज यह नौबत आ गई कि हम डिजिटल विष-मुक्ति की बात कर रहे हैं! इंटरनेट के नशेड़ियों
के इलाज के लिए ठीक उसी तकनीक को आज़माने की जरूरत है, जिसका इस्तेमाल शराब छुड़ाने के लिए किया जाता है।
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