-उपेन्द्र प्रसाद राय
कम्बल लेकर जब वह बूढ़ा चला तो उसे लगा
कि उसके हाथों में एक स्वर्ग है। वह बुदबुदा रहा था, ‘‘हे भगवान, हमराऔरदा भी लग जाये सेठ के उस बच्चे को जो धरती पर आते ही
कम्बल बँटवाया गरीबों में….. नहाते-धोते भी एको रोयाँ
ना टूटे बच्चे का।’’
वह भूल चुका था कि दोपहर से लेकर
अन्धेरा होने तक याचकों की अपार भीड़ में कितनी बार धक्के खाकर वह नीचे गिरा था, कितनी चोंटें आई थीं उसकी बूढ़ी हड्डियों में, घिघियाते-घिघियाते कितना गला दुखा था उसका।
‘‘…. आधा से अधिक आदमी सबको तो मिलबेनय किया। कितना बार लाइन
लगाया कारकारता सब। लेकिन कोय माने तब न।’’ वह सोच रहा था, मुस्कुरा रहा था…. और बर्फीली रात में कम्बल के नीचे मिलने वाली सुखद ऊष्मा को
अभी से महसूस कर रहा था।
वह कुछ ही देर चला होगा कि अचानक उसके
पैर थम गए। अपशगुन की आशंका हुई। जाकर देखा तो-रमकलिया एक फटे-पुराने बोरे पर बैठी
हुई थी और उसकी गोद में उसकी 6 साल की बच्ची कराह रही
थी।
‘‘का रे रामकली, तीन दिन से दिखाइए नहीं पड़ी तुम। भीखोनय माँगने आती हो। का
बात है?’’
बूढ़े ने पूछा तो रामकली रो पड़ी,‘‘कि कहबोन काका, तीन दिनों से छोरी के बुखार आबीरहलोछय। देह छूबी के
देखो नी, कत्ते जली रहलोछय।’’
बूढ़े ने बच्ची को छूकर देखा- शरीर तप
रहा था।
उसने थोड़ी देर तक बच्ची के कुशल के
लिए भगवान से अनुनय की, धोती के छोर से बँधी दो
रोटियाँ रामकली को थमाई और फिर उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलते हैं भाय, आज ठण्डो तो बहुत है। लगता है सारा धरतिए बरफ हो गिया है।
बरफ…’’ बोलते बोलते बूढ़े ने कम्बल बच्ची के
शरीर पर डाल दिया और तेज़-तेज़ कदमों से चलकर कुलियों के अलाव के पास पहुँच गया।
अन्तिम गाड़ी के साथ ही सारे कुली भी जा चुके थे।
‘‘बचिया सो रही होगी गरम होकर। कित्ता प्यारी-सी है।’’ बूढ़े ने खुश होकर सोचा और रोज़ की तरह
वहीं, अलाव के पास, चादर ओढ़कर लेट रहा।
… और … और… यद्यपि वह भूखा था और
उसकी चादर जगह-जगह फटी हुई थी और धरती
बर्फ बनी हुई थी, लेकिन… लेकिन… आज उसे ठंड नहीं लग रही थी।
‘‘यार, कल कृष्णा नगर कॉलोनी में
किस बात को लेकर हंगामा हो रह था।’’
‘‘चंदे को लेकर। दुर्गापूजा का चंदा।’’
‘‘हुआ क्या था?’’
‘‘शहर में सैंकड़ों दुर्गा पूजा समितियाँ हैं। उन्हीं में से
आठ-दस समितियों के सदस्य पहुँच गए थे दुकानदारों से चंदा लेने।’’
‘‘इतनी-इतनी समितियों को कोई कैसे चंदा दे सकता है भाई?’’
‘‘प्रश्न सिर्फ इतनी समितियों का ही नहीं है। प्रश्न चंदे की
राशि का भी है। हर समिति वाले पाँच सौ से दस हजार तक उगाह रहे थे।’’
‘‘कम से कम कितना?’’
‘‘कहा न,
पाँच सौ।’’
‘‘फिर?’’
‘‘फिर यह कि चंदे के नाम पर इस जोर-जबरदस्ती और लूट के
विरुद्ध दुकानदारों ने शटर गिरा दिए और सड़क पर उतर आए।’’
‘‘कल या परसों के अखबार में उच्च न्यायालय का भी कोई आदेश था
न इस सम्बन्ध में?’’
‘‘हाँ, यही कि पुलिस को इस पर
रोक लगानी चाहिए और शिकायत होने पर एक्शन लेना चाहिए।’’
‘‘पुलिस ने कृष्णा नगर कॉलोनी में एक्शन लिया क्या?’’
‘‘हाँ, बड़ा जबरदस्त। पुलिसवालों
को जैसे ही इस बात का पता चला,
एक हवलदार के साथ करीब
बीस सिपाही वहाँ पहुँच गए, तुरंत।’’
‘‘वाह, उच्च न्यायालय के
आदेश ने तो सचमुच कमाल कर दिया। परिस्थिति
तुरन्त नियंत्रण में आ गई होगी।’’
‘‘एकदम। पुलिसवालों ने लाठियाँ मार-मारकर दुकानदारों को सड़क
पर से खदेड़ दिया।’’
‘‘दुकानदारों को?’’
‘‘हाँ, आधे घंटे में सब कुछ
शान्त।’’
‘‘लेकिन…..
लेकिन… चंदा माँगने वाले?’’
‘‘ वे तो अभी भी माँग रहे हैं।’’
उस दिन एक किसान की थाली से रोटी भाग
खड़ी हुई। बेचारे किसान ने हर जगह खोज की। गाँव- गाँव, शहर-शहर….दर-दर की खाक छानी ;किन्तु रोटी को न मिलना था, न मिली। अन्त में भूख से परेशान होकर उसने थाने में
रपट लिखा दी। थानेदार को गुस्सा आया। सिपाही को बुलाकर डाँटा, ‘‘क्यों बे! रोटी भाग गई और तुम्हें खबर
तक नहीं। यह थाना है कि धर्मशाला?
जा और पता लगाकर आ कि
रोटी आखिर भागी तो भागी कहाँ?‘‘
सिपाही निकल पड़ा रोटी की खोज में…. गाँव- गाँव, शहर-शहर। उसने भी दर-दर की खाक छानकर अन्त में पता
लगा ही लिया। सेठ धनपत के दरबान को डराया-धमकाया तो सने उगल दिया कि उस दिन किसान
के यहाँ से जो रोटी भागी थी,
वह सीधे सेठ की तिजोरी
में जाकर छुप गई और अभी वहीं है।
सिपाही ने जाकर सारी वारदात बताई तो
थानेदार की चिन्ता जाती रही। उसने खैनी की पीक दीवार पर थूकी। कुर्सी पर आराम से
बैठते हुएटाँगोंको मेज पर पसारा,
दाएँ हाथ से डंडा पकड़कर
बाएँ हाथ की हथेली पर धीरे-धीरे पटकते हुए बोला, ‘‘रोटी के लिए सेठ की तिजोरी से अच्छी जगत और कहाँ मिल
सकती है? वहाँ है तो सचमुच सुरक्षित है। क्यों बे किसान, अब तक तूने रोटी अपने पास रखी ही क्यों थी? कर दूँ तुम्हारा चालान, नाजायज चीज रखने के जुर्म में?‘‘
किसान ने थानेदार के पैर पकड़ लिये, ‘‘माई-बाप! इस बार तो माफ कर दो। आगे से
ऐसी गलती नहीं करूँगा।
4-तुम अभी भी उतनी ही सुन्दर हो
वृद्ध दम्पती अभी-अभी दार्जिलिंग का चिड़ियाघर
देखकर निकले थे और चौरस्ता की ओर जा रहे थे। उनके दो बेटे, दो बहुएँ, एक लड़की,
दामाद और चार-पाँच
पोते-पोतियाँ पीछे-पीछे चल रहे थे। वृद्ध ने मुड़कर देखा और थोड़ा आश्वस्त हुआ कि
बच्चे उसकी बातें शायद नहीं सुन पाएँगे। उसने वृद्धा के हाथ को चोरी-चोरी हल्का-सा
छुआ और उसकी नज़रों को अपनी ओर उठा देखकर धीरे-धीरे बोला, ‘‘वो आगे जो लड़की आ रही है न, देख रही हो न उसे?‘‘
‘हाँ, क्यों? क्या हुआ उसे?‘
‘‘तुम्हारी जब शादी हुई थी न, तुम ऐसी ही सुन्दर लगती थी। इतनी ही सुन्दर। मैं
तुम्हारे पीछे पागल बना रहता था। याद है?‘‘
‘‘चुप! ज़रा-सी शर्म-लिहाज नहीं। बीच सड़क पर…. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे?‘‘ बोलते-बोलते वृद्धा की आँखों में शर्म
के डोरे लाल हो गए। पोपले, झुर्रीदार मुँह पर यौवन
की चमक आ गई थी और होठों पर शहद जैसी मीठी मुस्कराहट फैल गई थी।
वृद्ध क्षण भर टकटकी लगाकर उसे देखता
रहा। फिर आस-पास के माहौल को सर्वथा भूलकर अचानक बोल उठा, ‘‘नहीं, नहीं, मैने गलत कहा था। तुम अभी भी उतनी ही सुन्दर हो जितनी उस
समय थी।‘‘
अब तक उनके बाल-बच्चे एक दम पास आ गए
थे। सुनकर वे हँसने लगे। उन्होंने दोनों को चारों ओर से घेर लिया और हाथों के घेरे
बनाकर घूमने, नाचने और गाने लगे-
प्यार चुकता नहीं,
प्यार झुकता नहीं,
हमीं तो हैं तुम्हारे प्यार की
निशानियाँ।
वृद्ध दम्पती प्यार, शर्म, गौरव और कृतज्ञता से हँस पड़े। उसी समय बादलों को चीरकर धूप
निकल आई और सारी वादियाँ हँस पड़ीं और हँसती हुई वादियों में देर तक यह गूँजता रहा-‘‘तुम अभी भी उतनी ही सुन्दर हो।”
सम्पर्कः प्रतिभा निवास, पुराना एम- को- कैम्पस सन्दलपुर, पो-महेन्द्रू, पटना-80006
फोन-93081-502080
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