ज़मीर
-विजय जोशी
कल रात मेरा ज़मीर मर गया
मर तो शायद काफी पहले गया था
पर किसी आशा में -
मैंने इस अहसास को,
आत्मा तक उतरने नहीं दिया
और फितरत से भरा जीवन जिया.
नर्म नर्म दूबवाली हरी-भरी धरती
सतपुड़ा, विंध्या के बियावान जंगल
बीच में बहती माता सी नर्मदा
चाहे जो बच्चों का भला सर्वदा
स्कूल के पीछे इमली का पेड़
खेतों की कोरों पर, मिट्टी की मेड़
सब गुम हो गया है
कहाँ ढूँढूँ खो गए बचपन को
यादों मे रचे बसे प्यारे से मधुवन को
अब तो
यदि पंचवटी भी होती तो
सरकार नीलाम करके ठेकेदारों की जेब भर
देती
और राम की सीता, पट्टे के लिये भोपाल में होती
कल रात ..........
मेरे बच्चों मैं तुमसे शर्मिंदा हूँ
विरासत के नाम पर छोड़कर जाऊँगा
उजड़ी सी धरती, स्याह आकाश
डीजली हवा में मरता विश्वास
तरस तरस जाओगे ढूँढ नहीं पाओगे
गेहूँ की बाली / हरिया का गाँव
सावन के झूले / पीपल की छाँव
अंबुआ की डाली / मोरों की छाँव
तुलसी का चौरा / कागज की नाव
शेष रह जाएगा बस -
बोतल में आम !
माजा है नाम !!
कल रात ..........
समय के साथ सारे मूल्य बदल गए
शिवा, प्रताप इतिहास होकर रह गए
आज़ाद, भगत अपनी महत्ता खो गए
और गाँधी सिर्फ वोट लेने की वस्तु रह
गए
अब किसे फुर्सत है लकीर पीटने में
समय है कम पाना है ज्यादह
और उसके लिये साधन की पवित्रता का
क्या सोच
चढ़ने के लिये सीढ़ी न हो
तो तुम्हारा कँधा भी चलेगा
और हमारे किये को आगे चलकर देश भरेगा
कल रात ..........
v.joshi415@gmail.com
3 comments:
एक कटु सत्य कविता में जैसे सिसकियाँ भरते हुए कह रहा है कि पर्यावरण की विरासत में हम छोड़ जाएंगे भारी हवा ,गंदी नदियाँ और शोर.....एक जागरूक बन अपना दायित्व समझने को रह कविता हमें मजबूर करती है।
साधना मदान
धन्यवाद मित्र हौसला बढ़ाने के लिये। यह तो संपादकीय मेहरबानी है जो मुझ पर बरसी है।
सादर
दिल के सच्चे लोग कुछ एहसास लिखते है
अपने दरियादिल शब्दों से कुछ खास लिखते है
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